Skip to main content

श्री तुलसी जी

- डॉ. पूरन सिंह

हम अपने नए घर में आए गए थे। हमारा घर बहुत खूबसूरत और बड़ा भी है। बच्चों ने अलग-अलग अपने कमरे ले लिए थे। पत्नी और मैं दोनों एक ही कमरे में सेट हो गए। घर का सारा सामान अच्छी तरह लगा दिया गया था। हम सभी बहुत खुश थे तभी एक दिन मैंने पत्नी से कहा, सुनो हमारा घर तो आपने खूब अच्छा सजाया है लेकिन एक कमी रह गई। क्या पत्नी ने मुझे देखा जैसे मैं अपराधी होऊँ। आपने कहीं पौधे, फूल नहीं लगाए कुछ न सही तो गमलों में ही लगवा लेती। मैंने याचक की दृष्टि से उनकी तरफ देखा था। आप ही लगवा लो। उन्होंने आदेश दे दिया था। मैंने अगले ही दिन नौकर से कहकर माली को बुलवा लिया और उससे कहा था आप इधर साइड में कुछ गुलाब, चमेली, चम्पा और रात की रानी और मनीप्लांट आदि के पौधे लगा देना इसके अलावा और तुम जो भी अच्छे समझो उन्हें भी लगा देना।जी मालिक कहता हुआ माली अभी जाने ही वाला था कि मेरी पत्नी न जाने कहाँ से प्रकट हुई और बोली और तुलसी जी की याद ही भूल गए, भुलक्कड़ कहीं के।तुलसी जी, ये तुलसी तक तो ठीक लेकिन जी वाली बात समझ में नहीं आई। मैंने तो गुलाब के पौधे को गुलाब जी नहीं कहा फिर तुमने तुलसी जी क्यों कहा, मैंने तर्क देते हुए अपनी भाग्य लक्ष्मी से पूछा तुम रहोगे हमेशा बुद्धू ही। अरे भई तुलसी जी की पूजा की जाती है और फिर जिस घर के आंगन में तुलसी जी नहीं हो वह आंगन तो सूना ही हुआ ना। और फिर इनकी पूजा करने से घर में सुख शान्ति, सम्पन्नता सभी तो आती है। और फिर हम हिन्दू हैं हमें तो तुलसी जी की पूजा अवश्य करनी चाहिए। माली तुम श्री तुलसी जी को अवश्य लगाना नहीं तो देख लेना। बेचारा माली क्या कहता जी मालिक कहकर चल दिया था।

मैंने अपनी पत्नी से पूछा था यार, एक बात बताओ यदि तुलसी से घर में सम्पन्नता आती है तो सारे लोग इसे ही क्यों नहीं लगा लेते हैं तब फिर लोग गुलाब को तो शान्ति और खुशहाली का प्रतीक मानते हैं। उसका क्या।

वो तुम्हारे जैसे बुद्धू लोग ही मानते होंगे कहाँ श्री तुलसी जी और कहाँ गुलाब, आप भी न बिल्कुल वही हो। कहते हुए उन्होंने मेरी बात को हवा में उड़ा दिया था।

अगले दिन माली आकर गुलाब, बेला, चमेली, मनीप्लांट और श्री तुलसी जी को अलग-अलग गमलों में लगा गया था। श्री तुलसी जी का पौधा सबसे बड़ा था जिसमें बीज भी थे। मेरी पत्नी रोज उन पर नहा धोकर जल चढ़ाती और भजन गाती, अगरबत्ती लगाती और बेचारा गुलाब असहाय-सा देखता रहता। मुझे उस पर तरस आता। एक दिन मेरी पत्नी नहा धोकर श्री तुलसी जी पर जल चढ़ाने जा रही थी। मैं उनके रास्ते में आ गया और उनके खुले लहराते बाल और झीनी मैक्सी से बाहर आने को लालायित उनके शरीर को देखकर रह न सका सो उनके बाएं गाल पर किस कर लिया। बस फिर क्या था प्रलय आ गई। पत्नी ने मुझे जिस अंदाज से डांटा मैं आज तक नहीं भूल पाया, शर्म नहीं आती आपको। मैं श्री तुलसी जी महारानी की पूजा करने जा रही थी आपने बीच में मुझे गंदा कर दिया ज्यादा जवानी फटी पड़ रही है। जब जवान थे तब तो कुछ नहीं उखाड़ पाए अब चले हैं आशिकी दिखाने और फिर हम कब मना करते हैं। रात में तो कुछ उखड़ता नहीं। देखो न मैं माँ तुलसी महारानी की पूजा करने जा रही थी। कर दिया न गंदा। अब कैसे जाऊँ पूजा करने। तुम्हारा क्या कर डालूँ मैं। पापी इंसान। और वे चीखती-चिल्लाती रही। पूजा करने नहीं गई। घर के नौकर इकट्ठे हो गए। सभी ने उन्हें शांत किया और मैं। मैं तो भीगी बिल्ली बना अपने कमरे में चला गया था। मैं बार-बार सोचता कि एक महिला की धर्म में इतनी आस्था है तो देश के नेताओं की कितनी होगी जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए लाशों के ढेर लगवा देते हैं। तब वे लोग कहाँ गलत हैं। ठीक तो करते हैं वे। मेरे मस्तिष्क में प्रश्नों के अंबार लग गए थे।

उन्होंने पुनः नहाया। दूसरी सफेद रंग की साड़ी बांधी। ब्लाउज पहना, मुझे नहीं पता। क्योंकि अब तो मैं डरा हुआ था सो साड़ी ही देख सका और श्री तुलसी महारानी जी की पूजा करने चली गई। उन्होंने पूरी श्रद्धा और भक्ति से पूजा-अर्चना-वंदना-नमन किया। बाद में आई और मेरे भी पैर छुए। इस आशय से कि अभी थोड़ी देर पहले जो कहा था वह पति परमेश्वर के लिए नहीं कहना चाहिए था लेकिन क्योंकि मेरा अपराध अक्षम्य था इसलिए ऐसा हो गया था। खैर! वे तो पैर छूकर चली गई। मैं उस पूरी रात सो नहीं सका। रात भर मेरे मन में ज्वालामुखी फटता रहा। मैंने निश्चय किया कि अब या तो इस घर में यह तुलसी का पौधा रहेगा या मैं। मेरी पत्नी के मन में मेरे प्यार की कोई कीमत नहीं और उनकी आस्था इस तुलसी में इतनी ज्यादा क्यों? मुझे एक बार फिर हिन्दू धर्म, सम्प्रदाय का नारा बुलंद करने वाले देश के महानायक, धर्म के नाम पर लड़ाने वाले महाबली सभी याद आने लगे थे। जिनके लिए शांति, प्यार, मैत्री, बंधुत्व का कोई अर्थ नहीं है उनके लिए सिर्फ ढोंग, झूठा दंभ ही सब कुछ है। उन्हीं सबके बीच में खड़ी मेरी प्रेयसी, मेरी पत्नी जिन्होंने मुझसे लव मैरिज की थी आज उनके लिए श्री तुलसी जी का महत्त्व मुझसे ज्यादा हो गया। मैं सोच नहीं पा रहा था। मैंने एक भयानक किन्तु साहसिक निर्णय ले लिया कि मुझे जब भी मौका मिलेगा मैं श्री तुलसी जी को उखाड़ कर फेंक दूँगा।

कुछ दिन निकल गए। मेरी पत्नी को अपने किए पर पश्चाताप था। वह मुझे बहुत प्यार करती है। कई बार क्षमा भी मांग चुकी है। मैंने उन्हें क्षमा कर भी दिया। लेकिन उनका वह रौद्र रूप कभी नहीं भुला पाया। आज भी नहीं।

एक दिन वह अपनी माँ के घर किसी शादी में गई थी। बच्चे भी उनके साथ ही चले गए थे। मुझे बारात वाले दिन ही जाना था। मौका पाकर मैंने श्री तुलसी जी को जड़ से उखाड़कर फेंक दिया। मैं इतना खिसियाया हुआ था कि श्री तुलसी जी का पत्ता-पत्ता मैंने अलग कर दिया था। मैं खुश था या नहीं, मैं नहीं जानता लेकिन पास में रखे गमले में लगा गुलाब का पौधा मुस्करा रहा था और अपनी खुशी से लहरा रहा था।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क