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Showing posts from December, 2008

आया नव वर्ष आया

Vijay Kumar Sappatti आया नव वर्ष ,आया आपके द्वार दे रहा है ये दस्तक , बार बार ! बीते बरस की बातों को , दे बिसार लेकर आया है ये , खुशियाँ और प्यार ! खुले बाहों से स्वागत कर ,इसका यार और मान ,अपने ईश्वर का आभार ! आओ , कुछ नया संकल्प करें यार मिटायें ,आपसी बैर ,भेदभाव ,यार ! लोगो में बाटें ,दोस्ती का उपहार और दिलो में भरे , बस प्यार ही प्यार ! अपने घर, समाज, और देश से करें प्यार हम सब एक है , ये दुनिया को बता दे यार ! कोई नया हूनर ,आओ सीखें यार जमाने को बता दे , हम क्या है यार ! आप सबको ,है विजय का प्यारा सा नमस्कार नव वर्ष मंगलमय हो ,यही है मेरी कामना यार ! आया नव वर्ष ,आया आपके द्वार दे रहा है ये दस्तक , बार बार !

GAZAL

फ़ैज़ अहमद फैज़ सितम सिखलाएगा रस्मे-वफ़ा ऐसे नहीं होता सनम1 दिखलाएँगे राहे-ख़ुदा ऐसे नहीं होता गिनो सब हसरतें जो ख़ूँ हुई हैं तन के मक़तल2 में मेरे क़ातिल हिसाबे-खूँबहा3, ऐसे नहीं होता जहाने दिल में काम आती हैं तदबीरें न ताज़ीरें4 यहाँ पैमाने-तललीमो-रज़ा5 ऐसे नहीं होता हर इक शब हर घड़ी गुजरे क़यामत, यूँ तो होता है मगर हर सुबह हो रोजे़-जज़ा6, ऐसे नहीं होता रवाँ है नब्ज़े-दौराँ7, गार्दिशों में आसमाँ सारे जो तुम कहते हो सब कुछ हो चुका, ऐसे नहीं होता ......................................... 1. मूर्ति, पत्थर 2. हत्यास्थल 3. ख़ून के बदले का हिसाब4. न युक्तियाँ, न सज़ाएँ 5. स्वीकृति की प्रतिज्ञा6. प्रलय का दिन7. युग की धड़कन 8. संकटों

भूले हुए ग़म

फ़ैज़ अहमद फैज़ दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं एक-इक करके हुए जाते हैं तारे रौशन मेरी मज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं रक़्से-मैं1 तेज़ करो साज़ की लय तेज़ करो सूए-मैख़ाना2 सफ़ीराने-हरम3 आते हैं कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम4 आते हैं 1. मदिरा-नृत्य 2. शराबखाने की ओर 3. मस्जिद के प्रतिनिधि 4. मेहरबानी करते हुए

मुहब्बत में हार

फ़ैज़ अहमद फैज़ दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शबे-ग़म1 गुज़ार के वीराँ है मैकदा ख़ुमो-सागर2 उदास है तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया तुझसे भी दिलफ़रेब3 हैं, ग़म रोज़गार के4 भूले से मुस्करा तो दिए थे वो आज ‘फ़ैज़’ मत पूछ वलवले5 दिले नाकर्दाकार6 के 1. दुख की रात2. शराब का मटका और प्याला3. दिल को धोखा देने वाले4. रोजी-रोटी की चिन्ता5. उमंग हौसले 6. नातजुर्बेकार हृदय

GAZAL

बशीर बद्र सोचा नहीं अच्छा-बुरा, देखा-सुना कुछ भी नहीं माँगा ख़ुदा से रात-दिन , तेरे सिवा कुछ भी नहीं सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे मेरी वफ़ा मेरी ख़ता, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भार, भेजा वही काग़ज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक, आँखों से की बातें बहुत, मुँह से कहा कुछ भी नहीं दो-चार दिन की बात है, दिल ख़ाक में सो जायेगा जब आग पर काग़ज़ रखा, बाक़ी, बचा कुछ भी नहीं एहसास की ख़शुबू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ, ख़ामोश यादों के सिवा, घर में रहा कुछ भी नहीं

GAZAL

बशीर बद्र यूँ ही बेसबब न फिरा करो,कोई शाम घर भी रहा करो, वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा, तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो मुझे इश्तिहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ, जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो ये ख़िज़ाँ1 की ज़र्द2-सी शाल में, जो उदास पेड़ के पास है, ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो ------------------------------------------------------------------------------- 1.पतझड़। 2.पीली।
-वसीम बरेलवी खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा उसको मेरी प्यास की शिद्दत1 का अन्दाज़ा नहीं जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है, ग़रूर तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़ मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं तुझसे क्या बिछड़ा, मेरी सारी हक़ीक़त2 खुल गयी अब कोई मौसम मिले, तो मुझसे शरमाता नहीं ------------------------------ 1. तीव्रता 2. वास्तविकता

हर जनम में उसी की चाहत

बशीर बद्र हर जनम में उसी की चाहत थे हम किसी और की अमानत थे उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई, हम ग़ज़ल की कोई अलामत1 थे तेरी चादर में तन समेट लिया, हम कहाँ के दराज़क़ामत2 थे जैसे जंगल में आग लग जाये, हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे पास रहकर भी दूर-दूर रहे, हम नये दौर की मोहब्बत थे इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया, ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना, ये दिये रात की ज़रूरत थे ---------------------------------------------------------------------------------- 1.चिह्न, लक्षण। 2.दीर्घकाय।

GAZAL

बशीर बद्र जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे, हज़ारों तरफ से निशाने लगे हुई शाम, यादों के इक गाँव से, परिन्दे उदासी के आने लगे घड़ी-दो घड़ी मुझको पलकों पे रख, यहाँ आते-आते ज़माने लगे कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं, दुकानें खुली, कारख़ाने लगे वहीं ज़र्द पत्तों का क़ालीन है, गुलों के जहाँ शामियाने लगे पढ़ाई-लिखाई का मौसम कहाँ, किताबों में ख़त आने-जाने लगे

GAZAL

बशीर बद्र आँखों में रहा दिल में न उतरकर देखा, कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा बेवक़्त अगर जाऊँगा, सब चौंक पड़ेंगे इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं, तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा

GAZAL

बशीर बद्र लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में और जाम टूटेंगे इस शराबख़ाने में मौसमों के आने में मौसमों के जाने में हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में फ़ाख़्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती कौन साँप रखता है उसके आशियाने में दूसरी कोई लड़की ज़िन्दगी में आयेगी कितनी देर लगती है उसको भूल जाने में

GAZAL

बशीर बद्र मुझसे बिछुड़ के खुश रहते हो मेरी तरह तुम भी झूठे हो उजले-उजले फूल खिले थे बिलकुल जैसे तुम हँसते हो मुझको शाम बता देती है तुम कैसे कपड़े पहने हो दिल का हाल पढ़ा चेहरे से साहिल से लहरें गिनते हो तुम तनहा दुनिया से लड़ोगे बच्चों-सी बातें करते हो

GAZAL

फ़िराक़ गोरखपुरी बदलता है जिस तरह पहलू ज़माना यूँ ही भूल जाना, यूँ ही याद आना अजब सोहबतें हैं मोहब्बतज़दों1 की न बेगाना कोई, न कोई यगाना2 फुसूँ3 फूँक रक्खा है ऐसा किसी ने बदलता चला जा रहा है ज़माना जवानी की रातें, मोहब्बत की बातें कहानी-कहानी, फ़साना-फ़साना तुझे याद करता हूँ और सोचता हूँ मोहब्बत है शायद तुझे भूल जाना 1.प्रेम के मारे हुए, 2. आत्मीय, 3. जादू

GAZAL

बशीर बद्र न जी भर के देखा, न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की उजालों की परियाँ नहाने लगीं नदी गुनगुनायी ख़यालात की मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई ज़बाँ सब समझते हैं जज़्बात की मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुरआब ( आँसुओं से भरी आँख) का, बरसती हुई रात बरसात की कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं, कहाँ दिन गुज़ारा, कहाँ रात की

kavita

नरेश मेहता थके गगन में उषा-गान !! तम की अँधियारी अलकों में कुंकम की पतली-सी रेख दिवस-देवता का लहरों के सिंहासन पर हो अभिषेक सब दिशि के तोरण-बन्दनवारों पर किरणों की मुसकान !! प्राची के दिकपाल इन्द्र ने छिटका सोने का आलोक विहगों के शिशु-गन्धर्वों के कण्ठों में फूटे मधु-श्लोक वसुधा करने लगी मन्त्र से वासन्ती रथ का आह्वान !! नालपत्र-सी ग्रीवा वाले हंस-मिथुन के मीठे बोल सप्तसिन्धु के घिरें मेघ-से करें उर्वरा दें रस घोल उतरे कंचन-सी बाली में बरस पड़ें मोती के धान !! तिमिर-दैत्य के नील-दुर्ग पर फहराया तुमने केतन परिपन्थी पर हमें विजय दो स्वस्थ बने मानव-जीवन इन्द्र हमारे रक्षक होंगे खेतों-खेतों औ’ खलिहान !! सुख-यश, श्री बरसाती आओ व्योमकन्यके ! सरल, नवल अरुण-अश्व ले जाएँ तुम्हें उस सोमदेन के राजमहल नयन रागमय, अधर गीतमय बनें सोम का कर फिर पान !!

प्रिय चेहरा

-तसलीमा नसरीन जब भी देखती हूँ आपका चेहरा, आप मुझे कलकत्ता लगते हैं ! आपको क्या पता है कि मुझे बिल्कुल यही लगता है ? आप क्या जानते हैं, आप अति असम्भव तरीके से समूचे के समूचे कलकत्ता ही हैं ? नहीं जानते न ? अगर जानते तो बार-बार अपना मुँह नहीं फेरते। सुनें मेरी एक बात- आपके चेहरे की ओर देखते हुए, आपको नहीं, मैं देखती हूँ कलकत्ता को, धूप ने डाल दी है माथे पर सलवटें, आँखों की कोरों में चिन्ता की झुर्रियाँ, गालों पर कालिख होठों पर रेत आप बेतहाशा दौड़े चले जाते हैं और फूहड़ तरीके से हो रहे हैं पसीने-पसीने, अर्से से नहीं कोई खुशख़बरी, अर्से से जी भर नहाए नहीं, नींद नहीं आती। आप क्या यह सोच बैठे हैं कि चूँकि मैं पड़ी हूँ, आपके घर में आपको करीब खींच लेती हूँ, सामने बिठाती हूँ, चिबुक थामकर चेहरा उठाती हूँ, तन्मय निहारती रहती हूँ और मेरी पलकों की कोरों में जमा होते जा रहे हैं बूँद-बूँद सपने ? आपके होठों तक, जब बढ़ाती हूँ अपने भीगे युगल होंठ, आप सुख से सिहर उठते हैं। आपको ख़बर नहीं, क्यों मेरे होठ बढ़ जाते हैं, आपके होठों तक, गालों आपके माथे और आँखों की कोरों तक। क्यों मेरी उँगलियाँ छूती हैं, आपका

मन

-तसलीमा नसरीन दरख़्तों को काटकर, नक़्क़ाशीदार घर-मकान ढहाकर, माचिस की डिबियानुमा, ऐसे अज़ीबोगरीब घर-मकान क्यों उठा रहा है, रे ? तुझे हो क्या गया है ? तू क्या स्थापत्य में, सृजन में, श्री में अब ख़ास भरोसा नहीं करता ? शायद तुझे ढेर-ढेर रुपये चाहिए ! इतने-इतने रुपयों का तू करेगा क्या, कलकत्ता ? न्यूयॉर्क बनेगा ? आजकल तेरी चाहिए-चाहिए की ललक काफ़ी बढ़ गई है, किसे ठगकर शोहरत कमाए, किसी भुनाकर क्या बने-इसी चक्कर में पड़ा है न ? शामों की तेरी अड्डेबाज़ी उस वक़्त मुर्दा इन्सानों जैसे ठहाके लगाती है, जब बोतल तोड़कर निकले हुए जिन को धर दबोचने को तू उमड़ा पड़ता है, और इस-उसके नाम आधी रात तक गन्दे-गन्दे फिकरे कसते हुए, जैसे-तैसे दो-एक रवीन्द्र मारकर, लड़खड़ाते हुए घर लौटता है, उकडूँ होकर उगलने के लिए ! तू क्या कुशल-मंगल है, कलकत्ता ? धत्त् फिजूल की बकवास मत कर ! कुशल-मंगल होता, तो कोई यूँ रुपये-रुपये की रट लगाता ? इतने-इतने गहने गढ़ाता ? अच्छा, अब कभी तुझे फुर्सत होती है, शिशिर के परस के लिए ? इन्द्रधनुष पर निगाह पड़ते ही, सब कुछ छोड़-छाड़कर, क्या तू ठिठक नहीं जाता ? कभी बैठता है कहीं, किसी के

परिचय

SEEMA सन्नाटे ने श्रृंगार किया है, पल पल दिन और रैन का संध्या की हर साँस है घायल गुमसुम से सब चाँद सितारे कोपभवन में छुपी चांदनी अंगना सुना चंचल नैन का खुशियों का बाजार लुट गया निष्प्राण हुआ मन का मुख्यालय रीता है भावों का बर्तन परिचय मिले न सुख चैन का सन्नाटे ने श्रृंगार किया है....

वह लड़की

-तसलीमा नसरीन वह लड़की अकेली है असहनीय तरीके से अकेली है वह लड़की ! बस, ऐसे ही अकेली है वह ! इसी तरह निर्लिप्त और दुनिया के सभी कुछ के प्रति, अपनी तटस्थता समेत, निचाट अकेली ! इसी तरह वह ज़िन्दा है, दीर्घ-दीर्घ काल निर्वासन में। एकमात्र कलकत्ता ही उठाता है लहरें, उस लड़की के शान्त-थिर जल में, एकमात्र कलकत्ता ही उसे नदी कर देता है। कलकत्ता ही फूँकता है, उसके कानों में सकुशल रहने का मन्त्र ! एकमात्र कलकत्ता ही। कलकत्ते की धूल-मिट्टी में सियाह पड़ गयी उस लड़की की देह ! उधर जितनी भी लिपटी थी कालिमा उसके मन में, आँखों तले ! सोखकर तमाम कालिमा, इसी कलकत्ते ने कैसा उजला रखा है सभी कुछ ! अब दोनों जन मिलकर निहारते रहते हैं, जगत् के अदेखे रूप, पा लेते हैं अनुपलब्ध चेहरे ! कितनी-कितनी तरह के रोग से ग्रस्त है कलकत्ता ! जाने कितनी ही तरह के-नहीं ! नहीं ! अभाव ! म

१८५७

- डॉ० अली बाक़र जैदी डॉ० राही मासूम रजा का महाकाव्य १८५७ दो सौ अड़सठ पृष्ठों और लगभग तेरह सौ पदों पर आधारित है। इससे पहले जो भी महाकाव्य लिखे गये हैं जैसे मिलटन पैराडाइज लास्ट paradises last तुलसीदास की रामचरित मानस व मीर अनीस के शोक काव्य या फिरदौसी का शाहनामा इत्यादि, इन के पात्र धार्मिक देवमालाई ….. या फिर देव शक्तियों के द्योतक थे। फिरदौसी ने तो शाहनामा के अन्त में स्वयं लिख दिया कि - मनम करदम रुस्तमे पहलवां वगर न यके बूद दर सेसतां मैंने रुस्तम को रुस्तम बना दिया वरना वह तो सेसताँ का एक पहलवान था। इसके विपरीत राही का महाकाव्य अट्ठारह सौ सत्तावन के समस्त पात्र वास्तविक और जमीन से जुड़े हुए हैं। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में पहला योदा जो वीर गति को प्राप्त हुआ वह मंगल पाण्डे था जिसने अंग्रेज अधिकारी पर गोली चलाकर विद्रोह का आरम्भ किया था। मंगल पाण्डे गाँव का रहने वाला एक किसान था जो मेरठ छावनी में अंग्रेजी सेना में सेवक था। उसकी बहादुरी की कथा काव्य में इस तरह मिलती है - भारत वाले देख रहे थे महायुद के सपने/जो नहीं समझे वह भी समझे जो समझे वह सम

कविता

नरेश मेहता हिमालय के तब आँगन में— झील में लगा बरसने स्वर्ण पिघलते हिमवानों के बीच खिलखिला उठा दूब का वर्ण शुक्र-छाया में सूना कूल देख उतरे थे प्यासे मेघ तभी सुन किरणाश्वों की टाप भर गयी उन नयनों में बात हो उठे उनके अंचल लाल लाज कुंकुम में डूबे गाल गिरी जब इन्द्र-दिशा में देवि सोमरंजित नयनों की छाँह रूप के उस वृन्दावन में !! व्योम का ज्यों अरण्य हो शान्त मृगी-शावक-सा अंचल थाम तुम्हें मुनि-कन्या-सा घन-क्लान्त तुम्हारी चम्पक—बाँहों बीच हठीला लेता आँखें मीच लहर को स्वर्ण कमल की नाल समझ कर पकड़ रहे गज-बाल, तुम्हारे उत्तरीय के रंग किरन फैला आती हिम-शृंग हँसी जब इन्द्र दिशा से देवि सोम रंजित नयनों की छाँह मलय के चन्दन-कानन में !! हिमालय के तब आँगन में !!

कविता

RAJAN DEEP कोई दर तो खटखटाओ बहरी इस सरकार का, कब तलक चलता रहेगा सिलसिला तलवार का! मौज तो ले जाएगी पल में बहाके नाव को, न मिला माझी को ग़र कोई पता पतवार का! डाल के डेरा रहेंगे जो शिकारी बाग़ में, बागबाँ होगा हशर क्या उस हसीं गुलज़ार का? यूँ नहीं रोना ओ बुलबुल बनना तुमको बाज है, सबको लेना अब है बदला मार से इस मार का. कब तलक बिलखेंगे बच्चे और उजडेंगे सुहाग कब तलक होगा फ़ना हर मुखिया परिवार का? जिस तरफ़ दहके हैं शोले और उठे यह धुआं अब दबा दो वो धुआं उठता जो सरहद पार का. हो गयी है इंतहा जुलम-ओ-सितम-ओ-कहर की, वक़त आया जन्म लो अब दीप कलिक अवतार का.

कलकत्ता इस बार...

-तसलीमा नसरीन इस बार कलकत्ता ने मुझे काफ़ी कुछ दिया, लानत-मलामत; ताने-फिकरे, छि: छि:, धिक्कार, निषेधाज्ञा चूना-कालिख, जूतम्-पजार लेकिन कलकत्ते ने दिया है मुझे गुपचुप और भी बहुत कुछ, जयिता की छलछलायी-पनीली आँखें रीता -पारमीता की मुग्धता विराट एक आसमान, सौंपा विराटी ने 2 नवम्बर, रवीन्द्र-पथ के घर का खुला बरामदा, आसमान नहीं तो और क्या है ? कलकत्ते ने भर दी हैं मेरी सुबहें, लाल-सुर्ख गुलाबों से, मेरी शामों की उन्मुक्त वेणी, छितरा दी हवा में। हौले से छू लिया मेरी शामों का चिबुक, इस बार कलकत्ते ने मुझे प्यार किया खूब-खबू। सबको दिखा-दिखाकर, चार ही दिनों में चुम्बन लिए चार करोड़। कभी-कभी कलकत्ता बन जाता है, बिल्कुल सगी माँ जैसा, प्यार करता है, लेकिन नहीं कहता, एक भी बार, कि वह प्या

तू नहीं आया

अमृता प्रीतम चैत ने करवट ली रंगों के मेले के लिए फूलों ने रेशम बटोरा- तू नहीं आया दोपहरें लम्बी हो गयीं, दाख़ों को लाली छू गयी दराँती ने गेहूँ की बालियाँ चूम लीं- तू नहीं आया बादलों की दुनिया छा गयी, धरती ने हाथों को बढ़ाया आसमान की रहमत पी ली- तू नहीं आया पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आयी हवा के होठों में शहद भर गया- तू नहीं आया ऋतु ने एक टोना कर दिया, और चाँद ने आ कर रात के माथे पर झूमर लटका दिया- तू नहीं आया आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी हुस्न के दीये से जल रहे- तू नहीं आया किरणों का झुरमुट कह रहा, रातों की गहरी नींद से उजाला अब भी जागता- तू नहीं आया

दावत

अमृता प्रीतम रात-लड़की ने दावत दी सितारों के चावल फटक कर यह देग़ किसने चढ़ा दी ? चाँद की सुराही कौन लाया चाँदनी की शराब पी कर आकाश की आँखें गहरा गयीं धरती का दिल धड़क रहा है सुना है आज टहनियों के घर फूल मेहमान हुए हैं आगे क्या लिखा है अब इन तकदीरों से कौन पूछने जाएगा उम्र के काग़ज़ पर- तेरे इश्क़ ने अंगूठा लगाया, हिसाब कौन चुकाएगा ! किस्मत ने इक नग़मा लिखा है कहते हैं कोई आज रात वहीं नग़मा गाएगा कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर कामधेनु के छलके दूध से किसने आज तक दोहनी भरी ? हवा की आहें कौन सुने ! चलूँ, आज मुझे तक़दीर बुलाने आयी है...

कोयल

हरिवंशराय बच्चन अहे, कोयल की पहली कूक ! अचानक उसका पड़ना बोल, हृदय में मधुरस देना घोल, श्रवणों का उत्सुक होना, बनाना जिह्वा का मूक ! कूक, कोयल, या कोई मंत्र, फूँक जो तू आमोद-प्रमोद, भरेगी वसुंधरा की गोद ? काया-कल्प-क्रिया करने का ज्ञात मुझे क्या तंत्र ? बदल अब प्रकृति पुराना ठाट करेगी नया-नया श्रृंगार, सजाकर निज तन विविध प्रकार, देखेगी ऋतुपति-प्रियतम के शुभागमन का बाट। करेगी आकर मंद समीर बाल-पल्लव-अधरों से बात, ढँकेंगी तरुवर गण के गात नई पत्तियाँ पहना उनको हरी सुकोमल चीर। वसंती, पीले, नील, लाले, बैंगनी आदि रंग के फूल, फूलकर गुच्छ-गुच्छ में झूल, झूमेंगे तरुवर शाखा में वायु-हिंडोले डाल। मक्खियाँ कृपणा होंगी मग्न, माँग सुमनों से रस का दान, सुना उनको निज गुन-गुन गान,

मैं

अमृता प्रीतम आसमान जब भी रात का और रोशनी का रिश्ता जोड़ते... सितारे मुबारकबाद देते.. क्यों सोचती हूँ मैं : अगर कहीं.... मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती जिस रात के होठों ने कभी सपने का माथा चूम लिया ख़्यालों के पैरों में उस रात से इक पायल-सी बज रही.... जब इक बिजली आसमान में बादलों के वर्क़ उलटती मेरी कहानी भटकती- आदि ढूँढती, अन्त ढूँढती... तेरे दिल की एक खिड़की जब कहीं खड़क जाती सोचती हूँ, मेरे सवाल की यह कैसी जुर्रत है ! हथेलियों पर इश्क़ की मेहँदी का कोई दावा नहीं हिज्र का एक रंग है और खुसबू है तेरे जिक़्र की मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगती

दृष्टि

Seema Gupta अनंतकाल से ये दृष्टि प्रतीक्षा पग पर अडिग , पलकों के आंचल से सर को ढांक , आतुरता की सीमा लाँघ अविरल अश्रुधारा मे डूबती , तरती , उभरती , व्याकुलता की ऊँचाइयों को छु प्रतीक्षाक्षण से तकरार करती तुम्हारी इक आभा को प्यासी अनंतकाल से ये दृष्टि प्रतीक्षा पग पर अडिग

Gazal

अहमद फ़राज फिर उसी रहगुज़ार पर शायद हम कभी मिल सकें मगर , शायद जिनके हम मुन्तज़र1 रहे उनको मिल गये और हमसफर शायद जान पहचान से भी क्या होगा फिर भी ऐ दोस्त, ग़ौर कर शायद अजनबीयत की धुन्ध छँट जाये चमक उठे तेरी नज़र शायद ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी यादे-याराने-बेख़बर2 शायद जो भी बिछड़े, वो कब मिले हैं फ़राज़ फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद 1. प्रतीक्षारत 2. भूले-बिसरे दोस्तों की यादें

ग़ज़ल

अहमद फ़राज बेसरो-सामाँ1 थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था इससे पहले शहर के लुटने का आवाज़ा2 न था ज़र्फ़े-दिल3 देखा तो आँखें कर्ब4 से पथरा गयीं ख़ून रोने की तमन्ना का ये ख़मियाज़ा5 न था आ मेरे पहलू में आ ऐ रौनके- बज़्मे-ख़याल6 लज्ज़ते-रुख़्सारो-लब7 का अबतक अन्दाजा न था हमने देखा है ख़िजाँ8 में भी तेरी आमद के बाद कौन सा गुल था कि गुलशन में तरो-ताज़ा न था हम क़सीदा ख़्वाँ9 नहीं उस हुस्न के लेकिन फ़राज़ इतना कहते हैं रहीने-सुर्मा-ओ-ग़ाज़ा10 न था 1 ज़िन्दगी के ज़रूरी सामान के बिना 2. धूम 3. दिल की सहनशीलता 4. दुख, बेचैनी, 5. परिणाम, करनी का फल 6. कल्पना की सभा की शोभा 7. गालों और होंटों का आनन्द 8. पतझड़ 9,. प्रशस्ति-गायक, प्रशंसक 10 सुर्मे और लाली पर निर्भर

याद

अमृता प्रीतम आज सूरज ने कुछ घबरा कर रोशनी की एक खिड़की खोली बादल की एक खिड़की बन्द की और अँधेरे की सीढ़ियाँ उतर गया... आसमान की भवों पर जानें क्यों पसीना आ गया सितारों के बटन कोल कर उसने चाँद का कुर्ता उतार दिया... मैं दिल के एक कोने में बैठी हूँ, तुम्हारी याद इस तरह आयी- जैसे गीली लकड़ी में से गाढ़ा और कडुवा धुआँ उठता है... साथ हज़ारों ख़्याल आये जैसे कोई सूखी लकड़ी सुर्ख़ आग की आहें भरे, दोनों लकड़ियाँ अभी बुझायीं हैं... वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये वक़्त का हाथ जब समेटने लगा पोरों पर छाले पड़ गये... तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी और ज़िन्दगी की हँडिया टूट गयी इतिहास का मेहमान मेरे चौके से भूखा उठ गया...

ठण्डा लोहा

धर्मवीर भारती ठण्डा लोहा ! ठण्डा लोहा !ठण्डा लोहा मेरी दुखती हुई रगों पर ठण्डा लोहा मेरी स्वप्न-भरी पलकों पर मेरे गीत-भरे होठों पर मेरी दर्द-भरी आत्मा पर स्वप्न नहीं अब गीत नहीं अब दर्द नहीं अब- एक !पर्त ठण्डे लोहे की मैं जमकर लोहा बन जाऊँ- हार मान लूँ- यही शर्त ठण्डे लोहे की ! ओ मेरी आत्मा की संगिनी तुम्हें समर्पित मेरी साँस-साँस थी लेकिन मेरी साँसो में यम के तीखे नेजे-सा कौन अड़ा है ठण्डा लोहा ! मेरे और तुम्हारे सारे भोले निश्छल विश्वासों को आज कुचलने कौन खड़ा है ? ठण्डा लोहा फूलों से, सपनों से, आसूँ और प्यार से कौन है बड़ा ? ठण्डा लोहा ओ मेरी आत्मा की संगिनी अगर जिन्दगी की कारा में, कभी छटपटाकर मुझ

सामान्य

राही मासूम रज़ा विशेषांक निकालने के बाद अब सामान्य अंक निकलने जा रहा है. आप साहित्य से सम्बंधित रचनाएं भेज(कहानी, लेख,कविता,गजल,समीक्षा आदि) सकते है. अंक जल्द ही प्रकाशित होगा. धन्यवाद सम्पादक: वाङ्मय (त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका) बी-4,लिबटी होम्स , अलीगढ, उत्तरप्रदेश(भारत), 202002, मोब: +91 941 227 7331 vangmaya@gmail.com vangmaya200@yahoo.co.in

ग़ज़ल

बशीर बद्र ख़ानदानी रिश्तों में अक़्सर रक़ाबत है बहुत घर से निकलो तो ये दुनिया खूबसूरत है बहुत अपने कालेज में बहुत मग़रूर जो मशहूर है दिल मिरा कहता है उस लड़की में चाहता है बहुत उनके चेहरे चाँद-तारों की तरह रोशन हुए जिन ग़रीबों के यहाँ हुस्न-ए-क़िफ़ायत1 है बहुत हमसे हो नहीं सकती दुनिया की दुनियादारियाँ इश्क़ की दीवार के साये में राहत है बहुत धूप की चादर मिरे सूरज से कहना भेज दे गुर्वतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत2 है बहुत उन अँधेरों में जहाँ सहमी हुई थी ये ज़मी रात से तनहा लड़ा, जुगनू में हिम्मत है बहुत ———————————— 1. पर्याप्त सौंदर्य 2. कष्ट

ग़ज़ल

महताब हैदर नक़वी मुख़्तसर-सी1 ज़िन्दगी में कितनी नादानी करे इस नज़ारों को कोई देखे कि हैरानी करे धूप में इन आबगीनों2 को लिए फिरता हूँ मैं कोई साया मेरे ख़्वाबों की निगहबानी करे रात ऐसी चाहिए माँगे जो दिनभर का हिसाब ख़्वाब ऐसा हो जो इन आँखों में वीरानी करे एक मैं हूँ और दस्तक कितने दरवाज़ों पे दूँ कितनी दहलीज़ों पे सज़दा एक पेशानी3 करे साहिलों पर मैं खड़ा हूँ तिश्नाकामों4 की तरह कोई मौज-ए-आब5 मेरी आँख को पानी करे ------------------------------------------------------- 1. छोटी-सी 2. बहुत बारीक काँच की बोतलें 3. माथा 4. प्यासों 5. पानी की लहर

ग़ज़ल

महताब हैदर नक़वी सुबह की पहली किरन पर रात ने हमला किया और मैं बैठा हुआ सारा समां देखा किया ऐ हवा ! दुनिया में बस तू है बुलन्द इक़बाल1 है तूने सारे शहर पे आसेब2 का साया किया इक सदा ऐसी कि सारा शहर सन्नाटे में गुम एक चिनगारी ने सारे शहर को ठंण्डा किया कोई आँशू आँख की दहलीज़ पर रुक-सा गया कोई मंज़र अपने ऊपर देर तक रोया किया वस्ल3 की शब को दयार-ए-हिज्र4 तक सब छोड़ आए काम अपने रतजगों ने ये बहुत अच्छा किया सबको इस मंजर में अपनी बेहिसी पर फ़ख़ है किसने तेरा सामना पागल हवा कितना किया ------------------------------------------- 1. तेजस्वी 2. प्रेत-बाधा 3. मिलन 4. विरह-स्थल

ग़ज़ल

अहमद फ़राज जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी देखा तो वो तस्वीर हर एक दिल से लगी थी तनहाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो ये चोट किसी साहिबे-महफ़िल से लगी थी ऐ दिल तेरे आशोब1 ने फिर हश्र2 जगाया बे-दर्द अभी आँख भी मुश्किल से लगी थी ख़िलक़त3 का अजब हाल था उस कू-ए-सितम4 में साये की तरह दामने-क़ातिल5 से लगी थी उतरा भी तो कब दर्द का चढ़ता हुआ दरिया जब कश्ती ए-जाँ6 मौत के साहिल7 से लगी थी 1. हलचल, उपद्रव, 2. प्रलय, मुसीबत, 3. जनता 4. अत्याचार की गली 5. हत्यारे के पल्लू 6. जीवन नौका 7. किनारा

ग़ज़ल

महताब हैदर नक़वी उसे भुलाये हुए मुझको इक ज़माना हुआ कि अब तमाम मेरे दर्द का फ़साना हुआ हुआ बदन तेरा दुश्मन, अदू1 हुई मेरी रूह मैं किसके दाम2 में आया हवस निशाना हुआ यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ कि जिसकी सुबह महकती थी, शाम रोशन थी सुना है वो दर-ए-दौलत ग़रीब-ख़ाना हुआ वो लोग खुश हैं कि वाबस्ता-ए-ज़माना3 हैं मैं मुतमइन4 हूँ कि दर इसका मुझ पे वा5 न हुआ ----------------------------------------------------------- 1. शत्रु 2. जाल 3. युग से सम्बद्ध 4. संतुष्ट 5. खुला हुआ

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर अनुवादक -डॉ. डोमन साहु ‘समीर कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ? विरहानल से इसे जला लो। दीपक है, पर दीप्ति नहीं है; क्या कपाल में लिखा यही है ? उससे तो मरना अच्छा है; विरहानल से इसे जला लो।। व्यथा-दूतिका गाती-प्राण ! जगें तुम्हारे हित भगवान। सघन तिमिर में आधी रात तुम्हें बुलावें प्रेम-विहार-करने, रखें दुःख से मान। जगें तुम्हारे हित भगवान।’ मेघाच्छादित आसमान है; झर-झर बादल बरस रहे हैं। किस कारण इसे घोर निशा में सहसा मेरे प्राण जगे हैं ? क्यों होते विह्वल इतने हैं ? झर-झर बादल बरस रहे हैं। बिजली क्षणिक प्रभा बिखेरती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती। जानें, कितनी दूर, कहाँ है- गूँजा गीत गम्भीर राग में। ध्वनि मन को पथ-ओर खींचती, निविड़ तिमिर नयनों में भरती। कहाँ आलोक, कहाँ आलोक ? विरहानल से इसे जला लो। घन पुकारता, पवन बुलाता, समय बीतने पर क्या जाना ! निविड़ निशा, घन श्याम घिरे हैं; प्रेम-दीप से प्राण जला लो।।

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर अनुवादक -डॉ. डोमन साहु ‘समीर आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में; आओ गन्धों में, वर्णों में, गानों में। आओ अंगों में तुम, पुलिकत स्पर्शों में; आओ हर्षित सुधा-सिक्त सुमनों में। आओ मुग्ध मुदित इन दोनों नयनों में; आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में। आओ निर्मल उज्ज्वल कान्त ! आओ सुन्दर स्निग्ध प्रशान्त ! आओ, आओ हे वैचित्र्य-विधानों में। आओ सुख-दुःख में तुम, आओ मर्मों में; आओ नित्य-नित्य ही सारे कर्मों में। आओ, आओ सर्व कर्म-अवसानों में; आओ नव-नव रूपों में तुम प्राणों में।।

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर अनुवादक -डॉ. डोमन साहु ‘समीर प्रेम, प्राण, गीत, गन्ध, आभा और पुलक में, आप्लावित कर अखिल गगन को, निखिल भुवन को, अमल अमृत झर रहा तुम्हारा अविरल है। दिशा-दिशा में आज टूटकर बन्धन सारा- मूर्तिमान हो रहा जाग आनंद विमल है; सुधा-सिक्त हो उठा आज यह जीवन है। शुभ्र चेतना मेरी सरसाती मंगल-रस, हुई कमल-सी विकसित है आनन्द-मग्न हो; अपना सारा मधु धरकर तब चरणों पर। जाग उठी नीरव आभा में हृदय-प्रान्त में, उचित उदार उषा की अरुणिम कान्ति रुचिर है, अलस नयन-आवरण दूर हो गया शीघ्र है।।

मायाजाल

SEEMA GUPTA ह्रदय के मानचित्र पर पल पल तमन्नाओं के प्रतिबिम्ब उभरते रहे, यथार्थ को दरकिनार कर कुछ स्वप्नों ने सांसे भरी... छलावों की हवाएं बहती रही बहकावे अपनी चाल चलते रहे, कायदों को सुला , उल्लंघन ने जाग्रत हो अंगडाई ली.. द्रढ़निश्चयता का उपहास कर संकल्प मायाजाल में उलझते रहे, ह्रदय के मानचित्र पर पल पल तमन्नाओं के प्रतिबिम्ब उभरते रहे...

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर अनुवादक -डॉ. डोमन साहु समीर मेरी रक्षा करो विपत्ति में, यह मेरी प्रार्थना नहीं है; मुझे नहीं हो भय विपत्ति में, मेरी चाह यही है। दुःख-ताप में व्यथित चित्त को यदि आश्वासन दे न सको तो, विजय प्राप्त कर सकूँ दुःख में, मेरी चाह यही है।। मुझे सहारा मिले न कोई तो मेरा बल टूट न जाए, यदि दुनिया में क्षति-ही-क्षति हो, (और) वंचना आए आगे, मन मेरा रह पाये अक्षय, मेरी चाह यही है।। मेरा तुम उद्धार करोगे, यह मेरी प्रार्थना नहीं है; तर जाने की शक्ति मुझे हो, मेरी चाह यही है। मेरा भार अगर कम करके नहीं मुझे दे सको सान्त्वना, वहन उसे कर सकूँ स्वयं मैं, मेरी चाह यही है।। नतशिर हो तब मुखड़ा जैसे सुख के दिन पहचान सकूँ मैं, दुःख-रात्रि में अखिल धरा यह जिस दिन करे वंचना मुझसे, तुम पर मुझे न संशय हो तब, मेरी चाह यही है।।

समय

शैलेन्द्र समय को गले नहीं लगाया उसके सिर पर नहीं फेरा हाथ पीठ भी नहीं थपथपाई उसकी धड़कनों को महसूस नहीं किया सीने में समय ने भी ऐसा ही सलूक किया उसने छोड़ दिया साथ
रवीन्द्रनाथ टैगोर अनुवादक -डॉ. डोमन साहु ‘समीर अनजानों से भी करवाया है परिचय मेरा तुमने; जानें, कितने आवासों में ठाँव मुझे दिलवाया है। दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने, भाई बनवाए हैं मेरे अन्यों को, जानें, कितने। छोड़ पुरातन वास कहीं जब जाता हूँ, मैं, ‘क्या जाने क्या होगा’-सोचा करता हूँ मैं। नूतन बीच पुरातन हो तुम, भूल इसे मैं जाता हूँ; दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने। जीवन और मरण में होगा अखिल भुवन में जब जो भी, जन्म-जन्म का परिचित, चिन्होगे उन सबको तुम ही। तुम्हें जानने पर न पराया होगा कोई भी; नहीं वर्जना होगी और न भय ही कोई भी। जगते हो तुम मिला सभी को, ताकि दिखो सबमें ही। दूरस्थों को भी करवाया है स्वजन समीपस्थ तुमने।। ----------------------------------------------------

ख्वाबों के आँगन

SEEMA GUPTA ख्वाबों के आँगन ने अपना कुछ ऐसे फ़िर विस्तार किया, वर्तमान ने हकीक़त , का दामन ठुकराया , अस्तित्व ने अपने, सामर्थ्य से मुख फैरा, शीशमहल का निर्माण किया... विवशता का परित्याग कर , दर्पण मचला जिज्ञासा का, भ्रम की आगोश मे, मनमोहक श्रिंगार किया ... बहते दरिया की भूमि पर , इक नीवं बना अरमानो की, हर तर्ष्णा को पा लेने का, निरर्थक एक प्रयास किया ... ख्वाबों के आँगन ने अपना कुछ ऐसे फ़िर विस्तार किया.........

कविता

रवीन्द्रनाथ टैगोर मेरा माथा नत कर दो तुम अपनी चरण-धूलि-तल में; मेरा सारा अहंकार दो डुबो-चक्षुओं के जल में। गौरव-मंडित होने में नित मैंने निज अपमान किया है; घिरा रहा अपने में केवल मैं तो अविरल पल-पल में। मेरा सारा अहंकार दो डुबो चक्षुओं के जल में।। अपना करूँ प्रचार नहीं मैं, खुद अपने ही कर्मों से; करो पूर्ण तुम अपनी इच्छा मेरी जीवन-चर्या से। चाहूँ तुमसे चरम शान्ति मैं, परम कान्ति निज प्राणों में; रखे आड़ में मुझको आओ, हृदय-पद्म-दल में। मेरा सारा अहंकार दो। डुबो चक्षुओं के जल में।।

उड़े,बस उड़े

हरीश बादानी धरती से ऊपर उड़-उड़कर हब्बलवाली आंख पहनकर बिना रंग के सन्नाटे में पिण्ड खोजते उन लोगों से तेरी मेरी इस पल तक की हर सीमा अनदेखी, पर वे तो उड़े,बस उड़े .

रात भर यूं ही.........

V I J A Y K U M A R S A P P A T T I कुछ भी कहो, पर.... रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... चाहता हूँ कि तुम प्यार ही जताते रहो, अपनी आंखो से तुम मुझे पुकारते रहो, कुछ भी कहो, पर.... रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... चुपके से हवा ने कुछ कहा शायाद .. या तुम्हारे आँचल ने कि कुछ आवाज़.. पता नही पर तुम गीत सुनाते रहो... रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... ये क्या हुआ , यादों ने दी कुछ हवा , कि आलाव के शोले भड़कने लगे , पता नही , पर तुम दिल को सुलगाते रहो रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... ये कैसी सनसनाहट है मेरे आसपास , या तुमने छेडा है मेरी जुल्फों को , पता नही पर तुम भभकते रहो.. रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... किसने की ये सरगोशी मेरे कानो में , या थी ये सरसराहट इन सूखे हुए पत्तों की, पता नही ,पर तुम गुनगुनाते रहो ; रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... ये कैसी चमक उभरी मेरे आसपास , या तुमने ली है ,एक खामोश अंगढाईं पता नही पर तुम मुस्कराते रहो; रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो....... कुछ भी कहो, पर.... रात भर यूं ही आलाव जलाते रहो.......

अधबीच

राजकिशोर मैंने जीवन भर एक ही कविता लिखी एक ही कहानी एक ही उपन्यास और आज भी वह उतनी ही अधूरी है जितनी कल जान पड़ती थी

सच

शंकरानंद यह कौन सा सय है कि झूठ निकला है घर से बाहर आ गया है सड़क पर और हंस रहा है जोर जोर से झूठ भाग रहा है बदहवास पीछे पीछे दौड़ रहा है सच झूठ गिर पड़ा है झूठ चाट रहा है धूल बगल में खड़ा पसीना पोछ रहा है सच धीरे-धीरे मुसकरा रहा है सच

रिक्शेवाला

अशोक चक्रधर आवाज़ देकर रिक्शेवाले को बुलाया वो कुछ लंगड़ाता हुआ आया। मैंने पूछा— यार , पहले ये तो बताओगे, पैर में चोट है कैसे चलाओगे ? रिक्शेवाला कहता है— बाबू जी, रिक्शा पैर से नहीं पेट से चलता है।

तुम्हें बाँध पाती सपने में

महादेवी वर्मा तुम्हें बाँध पाती सपने में ! तो चिरजीवन- प्यास बुझालेती उस छोटे क्षण अपने में ! पावस-घन सी उमड़ बिखरती, शरद-दिशा सी नीरव घिरती, धो लेती जग का विषादढुलते लघु आँसू-कण अपने में ! मधुर राग बन विश्व सुलाती सौरभ बन कण कण बस जाती, भरती मैं संसृति का क्रन्दन हँस जर्जर जीवन अपने में ! सब की सीमा बन सागर सी, हो असीम आलोक-लहर सी, तारोंमय आकाश छिपा रखती चंचल तारक अपने में ! शाप मुझे बन जाता वर सा, पतझर मधु का मास अजर सा, रचती कितने स्वर्ग एक लघु प्राणों के स्पन्दन अपने में ! साँसे कहतीं अमर कहानी, पल-पल बनता अमिट निशानी, प्रिय ! मैं लेती बाँध मुक्ति सौ सौ, लघुपत बन्धन अपने में। तुम्हें बाँध पाती सपने में ! आज क्यों तेरी वीणा मौन ? शिथिल शिथिल तन थकित हुए कर, स्पन्दन भी भूला जाता उर, मधुर कसक सा आज हृदय में आन समाया कौन ? आज क्यों तेरी वीणा मौन ? झुकती आती पलकें निश्चल, चित्रित निद्रित से तारक चल; सोता पारावार दृगों में भर भर लाया कौन ? आज क्यों तेरी वीणा मौन ? बाहर घन-तम; भीतर दुख-तम, नभ में विद्युत तुझ में प्रियतम, जीवन पावस-रात बनाने सुधि बन छाया कौन ? आज क्यों तेरी वीणा

पहली दलित कहानी का जन्म

रमणिका गुप्ता ऐसे तो कहानी की उत्पत्ति तब हुई होगी, जब मनुष्य ने भाषा गढ़ ली होगी। एक तरफ़ वह आदि मनुष्य प्रकृति से जूझता रहा होगा, दूसरी तरफ़ उसी निर्भर या उसी के सहारे जीवित था। सम्भवतः प्रकृति के साथ उसका मित्र और शत्रु, संरक्षक और उपभोक्ता, प्रेम और घृणा का यह रिश्ता उसके मनुष्य बनने के साथ ही क़ायम हो गया था। प्रेम ने जहाँ उसे यह रिश्ता उसके मनुष्य बनने के साथ ही क़ायम हो गया था। प्रेम ने जहाँ उसे कल्पना दी और दी उम्मीदें, वहीं घृणा ने उसे सच्चाइयों का बोध कराया। प्रकृति की विध्वसंक शक्तियों के अहसास ने उसे उन पर विजय पाने की योजना के लिए प्रेरित किया और योजना के लिए उसने लिया कल्पना का सहारा। प्रकृति से जीवन पाकर वह जिन्दा था, यह भी यथार्थ था और प्रकृति ही उसका विनाश करती थी, यह सच भी वह जान गया था। जब इस यथार्थ के अनुसार उसने अपनी सन्तति या संगिनी को प्रकृति के सन्दर्भ में अथवा प्रकृति के प्रत्याशित-अप्रत्याशिक स्वभाव के कारण घटी घटनाओं और हादसों को अपनी आप-बीती बताना शुरू किया होगा, सम्भवतः तभी कहानी का जन्म हुआ होगा। कविता की तरह कहानी एकाएक नहीं फूटा करती। कहानी तो घटा