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Showing posts from 2009

राही मासूम रजा और आधा गाँव

राही मासूम रजा और आधा गाँव - प्रो० जोहरा अफ़जल राही मासूम रजा एक ऐसे आधुनिक रचनाकार थे जिनकी रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति है। चाहे वह उनका उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो अथवा निबन्ध। उनकी सभी रचनाओं में समय की अनुगूँज सुनाई देती है। राही के उपन्यासों में आधा गाँव टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद,सीन ७५, दिल एक सादा कागज,कटरा बी आरजू, असन्तोष के दिन और नीम का पेड़ में से सबसे अधिक चर्चित उपन्यास आधा गाँव है। राही ने इस उपन्यास में गंगौली गाँव की वास्तविक कथा के माध्यम से १९३७ से १९५२ तक के समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ और उसकी परिवर्तनशील स्थितियों का वितान रचा है। राही का यह उपन्यास हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। आधा गाँव आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने उत्तर प्रदेश के एक गाँव गंगौली के आधे टुकड़े को ही अपना कथा क्षेत्र बनाया है, जिसका वह स्वयं भोगता एवं जानकार है। हिन्दी उपन्यास जगत्‌ में शायद पहली बार मुस्लिम जनजीवन का यथार्थ अपने विविध रंगों में उसकी अच्छी और बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुआ है, जिसने

सिक्का बदल गया

कृष्णा सोबती खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिये शाहनी जब दरिया के किनारे पहुँची तो पौ फट रही थी। असमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रखे और ‘श्री राम’ ‘श्री राम’ करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनींदी आँखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी। चनाब का पानी आज भी पहले-सा सर्द था, लहरें-लहरों को चूम रही थीं। सामने कश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भँवरों से टकराकर कगार गिर रहे थे लेकिन दूर दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी। शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाईं तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पाँवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी। आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहाँ नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है ! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दरिया के किनारे वह दुल्हन बनकर उतरी थी और आज.... आज शाह जी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं.

शऊर की दहलीज: दहलीज लाँघने की कोशिश

से. रा. यात्री शऊर की दहलीज प्रेमकुमार द्वारा उर्दू के चर्चित एवं शीर्षस्थ रचनाकारों से समय-समय पर किए गए साक्षात्कार की प्रस्तुति है। जाहिर है कि ये सब अपने-अपने क्षेत्रा के विशेषज्ञ हैं। यह एक तरह का एक ऐसा पारम्परिक एवं अन्तरंग संवाद है जिसमें प्रश्नोत्तरी का पारम्परिक रूप सिरे से गायब है। साक्षात्कर्त्ता पाठक और रचनाकार के मध्य हल्के से सूक्ष्म संकेत छोड़कर अलग हट जाता है और दोनों की एक-दूसरे की मानसिकता में आवाजाही का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। शऊर की दहलीज में कुल नौ साहित्यकारों का आत्मस्वरूप उभर कर आया है। इनमें विधागत वैविध्य का भी विस्तार दिखाई पड़ता है। आले अहमद सुरूर उर्दू साहित्य के एक उम्रदराज रचनाकार हैं। प्रेमकुमार ने दस बारह प्रश्नों में ही सुरूर साहब की सृजनशीलता के छह-सात दशकों का व्यक्तित्व और कृतित्व अपनी सम्पूर्णता में रेखांकित कर दिया है। इस साक्षात्कार अथवा संवाद की विशेषता यह भी है कि यह एक ऐसी विभूति से किया गया है जो अठ्ठासी वर्ष को पार किए बैठी है, वार्धक्य के अलावा वह पक्षाघात की व्याधि से भी पीड़ित है। यह सुरूर साहब की अनथक जुझारूपन की वृत्ति ही है कि

किस्मत का उपहास

SEEMA GUPTA हर बीता पल इतीहास रहा, जीना तुझ बिन बनवास रहा ये चाँद सितारे चमके जब जब इनमे तेरा ही आभास रहा चंचल हुई जब जब अभिलाषा, तब प्रेम प्रीत का उल्लास रहा, तेरी खातिर कण कण पुजा पत्थरों में भगवन का वास रहा विरह के नगमे गूंजे कभी कभी सन्नाटो का साथ रहा गुजरे दिन आये याद बहुत "किस्मत" का कैसा उपहास रहा.

तुम चुपके से आ जाना

SEEMA GUPTA सूरज जब मद्धम पड़ जाये और नभ पर लाली छा जाये शीतल पवन का एक झोंका तेरे बिखरे बालों को छु जाए चंदा की थाली निखरी हो तारे भी सो कर उठ जाए चोखट की सांकल खामोशी से निंदिया की आगोश में अलसाये बादल के टुकड़े उमड़ घुमड़ द्वारपाल बन चोक्न्ने हो जाये एकांत के झुरमुट में छुप कर मै द्वार ह्रदय का खोलूंगी तुम चुपके से आ जाना झाँक के मेरी आँखों मे एक पल में सदियाँ जी जाना

नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ महिला कथाकार

ममता कालिया समकालीन रचना जगत में अपने मौलिक और प्रखर लेखन से हिन्दी साहित्य की शीर्ष पंक्ति में अपनी जगह बनाती स्थापित और सम्भावनाशील महिला-कहानीकारों की रचनाओं का यह संकलन आपके हाथों में सौंपते, मुझे प्रसन्नता और संतोष की अनुभूति हो रही है। आधुनिक कहानी अपने सौ साल के सफ़र में जहाँ तक पहुँची है, उसमें महिला लेखन का सार्थक योगदान रहा है। हिन्दी कहानी का आविर्भाव सन् 1900 से 1907 के बीच समझा जाता है। किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमती’ 1900 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह हिन्दी की पहली कहानी मानी गई। 1901 में माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’; 1902 भगवानदास की ‘प्लेग की चुड़ैल’ 1903 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और 1907 में बंग महिला उर्फ राजेन्द्र बाला घोष की ‘दुलाईवाली’ बीसवीं शताब्दी की आरंभिक महत्वपूर्ण कहानियाँ थीं। मीरजापुर निवासी राजेन्द्रबाला घोष ‘बंग महिला’ के नाम से लगातार लेखन करती रहीं। उनकी कहानी ‘दुलाईवाली’ में यथार्थचित्रण व्यंग्य विनोद, पात्र के अनुरूप भाषा शैली और स्थानीय रंग का इतना जीवन्त तालमेल था कि यह कहानी उस समय की ज

नारी विमर्शः दशा और दिशा

पुस्तक प्रकाशित नारी विमर्शः दशा और दिशा स. फीरोज/शगुफ्ता अनुक्रम दो शब्द मधुरेश : नारीवादी की विचार-भूमि ०९ सुरेश पण्डित : बाजार में मुक्ति तलाशती औरतें २६ शिव कुमार मिश्र : स्त्री-विमर्श में मीरा ३२ कमल किशोर श्रमि:स्त्री मुक्ति का प्रश्न ४० मूलचन्द सोनकर : स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा ४५ शशि प्रभा पाण्डेय : नारीवादी लेखन : दशा और दिशा ७२ हरेराम पाठक : स्त्रीवादी लेखन : स्वरूप और सम्भावनाएँ ७९ जय प्रकाश यादव : आधुनिक समाज में नारी-मुक्ति का प्रश्न ८६ वी.के. अब्दुल जलील: स्त्री-विमर्श समकालीन हिन्दी कथा साहित्य के संदर्भ में' ९२ जगत सिंह बिष्ट : स्त्री-विमर्श और मृणाल पाण्डे का कथा साहित्य ९६ शोभारानी श्रीवास्तव : महादेवी वर्मा का नारी विषयक दृष्टिकोण १०८ रामकली सराफ : स्त्री जीवन का यथार्थ और अन्तर्विरोध ११३ ललित शुक्ल : संवेदना और पीड़ा की चित्राकार मुक्तिकामी रचनाकार : नासिरा शर्मा ११८ आदित्य प्रचण्डिया : हिन्दी कहानी में नारी १२५ शगुफ्ता नियाज : राजनीतिक पार्श्वभूमि और महिला उपन्यासकार १३२ उमा भट्ट : सुभद्रा कुम

दलित विमर्श और हम

पुस्तक प्रकाशित दलित विमर्श और हम स. फीरोज/शगुफ्ता अनुक्रम दो शब्द शिव कुमार मिश्र - दलित साहित्यःअंतर्विरोध के बीच और उनके बावजूद ०९ माता प्रसाद - दलित साहित्य, सामाजिक समता का साहित्य है १८ शुकदेव सिंह - दलित-विमर्श, दलित-उत्कर्ष और दलित-संघर्ष २१ धर्मवीर - डॉ० शुकदेव सिंह : पालकी कहारों ने लूटी २९ रामदेव शुक्ल - कौन है दलितों का सगा? ३६ मूलचन्द सोनकर - रंगभूमि के आईने में सूरदास के नायकत्व की पड़ताल ४४ सुरेश पंडित - दलित साहित्य : सीमाएं और सम्भावनाएँ ६१ रामकली सराफ - दलित विमर्श से जुड़े कुछ मुद्दे ६७ कमल किशोर श्रमिक - अम्बेडकर की दलित चेतना एवं मार्क्स ७५ ईश कुमार गंगानिया- दलित आईने में मीडिया ८० सूरजपाल चौहान - दलित साहित्य का महत्त्व एवं उसकी उपयोगिता ८७ अनिता भारती - दलिताएँ खुद लिखेंगी अपना इतिहास ९० हरेराम पाठक - दलित लेखन : साहित्य में जातीय सम्प्रदायवाद का संक्रमण ९८ तारा परमार - दलित महिलाएं एवं उनका सशक्तिकरण १०४ तारिक असलम - दलित मुसलमानों की सामाजिक त्रासदी ११० मानवेन्द्र पाठक - साठोत्तरी हिन्दी कविता में द

फेयरवेल

प्रताप दीक्षित अंततः रामसेवक अर्थात्‌ आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात्‌ लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु

उपनिवेश में स्त्री

प्रभा खेतान नव-उपनिवेश के बाद यह किताब जीवन के दो पक्षों के बारे में है। एक स्त्री का और दूसरा उपनिवेश का। न इस उपनिवेश को समझना आसान है और न स्त्री को। अगर यह उपनिवेश वही होता जिससे बीसवीं सदी के मध्य में कई देशों और सभ्यताओं ने मुक्ति पायी थी तो शायद हम इसे राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता की संरचना करार दे सकते थे। अगर यह उपनिवेश वही होता जिससे लड़ने के लिए राष्ट्रवादी क्रांतियाँ की गई थीं और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की अवधारणा पेश की गई थी तो शायद हम इसके खिलाफ उपनिवेशवाद के नाम से परिभाषित हो चुकी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी, पितृसत्ता इतरलिंगी यौन चुनाव और पुरुष-वर्चस्व की ज्ञानमीमांस का उपनिवेश है जिसकी सीमाएँ मनोजगत से व्यवहार-जगत तक और राजसत्ता से परिवार तक फैली हुई हैं। दूसरे पक्ष में होते हुए भी यह अनिवार्य नहीं है कि स्त्री इस उपनिवेश के खिलाफ ही खड़ी हो। वह लाजिमी तौर पर वहाँ नहीं है जहाँ उसे होना चाहिए था यानी वह पाले से दूसरी तरफ नहीं है। इस उपनिवेश की विरोधी शक्ति होते हुए भी वह इसके बीच में खड़ी है। उपनिवेश के खिलाफ संघर्ष उसका आत्म-संघर्ष भी है और यही स्थिति