प्रभा खेतान
नव-उपनिवेश के बाद
यह किताब जीवन के दो पक्षों के बारे में है। एक स्त्री का और दूसरा उपनिवेश का। न इस उपनिवेश को समझना आसान है और न स्त्री को। अगर यह उपनिवेश वही होता जिससे बीसवीं सदी के मध्य में कई देशों और सभ्यताओं ने मुक्ति पायी थी तो शायद हम इसे राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता की संरचना करार दे सकते थे। अगर यह उपनिवेश वही होता जिससे लड़ने के लिए राष्ट्रवादी क्रांतियाँ की गई थीं और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की अवधारणा पेश की गई थी तो शायद हम इसके खिलाफ उपनिवेशवाद के नाम से परिभाषित हो चुकी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी, पितृसत्ता इतरलिंगी यौन चुनाव और पुरुष-वर्चस्व की ज्ञानमीमांस का उपनिवेश है जिसकी सीमाएँ मनोजगत से व्यवहार-जगत तक और राजसत्ता से परिवार तक फैली हुई हैं।
दूसरे पक्ष में होते हुए भी यह अनिवार्य नहीं है कि स्त्री इस उपनिवेश के खिलाफ ही खड़ी हो। वह लाजिमी तौर पर वहाँ नहीं है जहाँ उसे होना चाहिए था यानी वह पाले से दूसरी तरफ नहीं है। इस उपनिवेश की विरोधी शक्ति होते हुए भी वह इसके बीच में खड़ी है। उपनिवेश के खिलाफ संघर्ष उसका आत्म-संघर्ष भी है और यही स्थिति स्त्री को समझने की मुश्किलों का कारण बनी हुई है। स्त्री मुक्ति-कामना से छटपटा रही है, उसका प्रयास भी यही है लेकिन उपनिवेश के वर्चस्व से उसका मनोजगत आज भी आक्रांत है।
गुजरे जमानों के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों की तरह औरत की दुनिया के सिपहसालार उपनिवेश के साथ हाथ-भर का वह अंतराल स्थापित नहीं कर पाये हैं जो इस लड़ाई में कामयाबी की पहली शर्त है। ‘उपनिवेश में स्त्री/मुक्ति-कामना की दस वार्ताएँ’ इसी अंतराल की स्थापना की दिशा में किया गया प्रयास है। ये वार्ताएँ कारखाने और दफ्तर में काम करती हुई स्त्री, लिखती हुई स्त्री, रचती हुई स्त्री, पुरुष से प्रेम के द्वंद्व में उलझी हुई स्त्री, मानवीय गरिमा की खोज में जुटी हुई स्त्री, बौद्धिक बनती हुई स्त्री, नारी-ज्ञानमीमांसा की नियति खड़ी करती हुई स्त्री, क्रांति के दर्शन से दो-चार होती हुई स्त्री और भाषा व विमर्श के संजाल में फँसी हुई स्त्री से संबंधित हैं।
आजकल सारी दुनिया में ‘नारीवाद’ शब्द लोगों को चौंका रहा है। औसत की आजादी के आंदोलन को नाना प्रकार की प्रतिक्रियाओं का सामने करना पड़ रहा है। चिली, नामीबिया, पेरू, बांग्लादेश, केन्या, रूस, पूर्वी यूरोप के देशों, कैथोलिक चर्च और हिंदू परंपरावादियों की नजर में नारीवाद अनैतिक आचरण का पर्याय है। जमीन से जुड़े आंदोलनकर्ताओं के अनुसार, विशेषकर पूर्वी यूरोप के वामपंथियों के अनुसार नारीवाद मात्र एक बुर्जुआ विचार है। हालत यह है कि स्त्री अधिकारों की प्रबलतम समर्थकों के एक हिस्से ने भी नारीवाद को खारिज कर दिया है। मगर ऐसा क्यों हो रहा है ? इस सवाल पर अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे विभिन्न विचारधाराओं और राष्ट्रीय आंदोलनों की रोशनी में रखकर देखना होगा।
कई स्त्रियों के अनुसार नारीवादी विचारधारा का स्रोत्र पश्चिम रहा है। अर्थात भारतीय संदर्भ में यह एक आयातित विचारधारा है और इस विचारधारा की पैरोकार श्वेत पश्चिमी मध्यवर्गीय स्त्रियाँ हैं। समझा जाता है कि इन श्वेतांग स्त्रियों की जीवन-शैली, परंपरा एवं मूल्यबोध से तीसरी दुनिया की औरतों को क्या लेना-देना ! इस दुनिया के तो पुरुष ही स्वतंत्र नहीं हैं, तब भला औरत क्या मुक्त होगी ? समस्या यह है कि एक तरफ तो नारीवाद अपने पश्चिमी मूल के कारण विवादग्रस्त हुआ है और दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वतंत्रता और पहचान की उसकी विचारधारा, रणनीति और परियोजना विशिष्ट किस्म की है। इस विशिष्टता के कारण भ्रम यह होता है कि मुक्तिकामी मानवाधिकार के लिए किए जानेवाले अन्य आंदोलनों से नारियाँ नहीं जुड़ पायी हैं। इसी सिलसिले में यह भी मान लिया जाता है कि नारीवाद अराजक मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है, सामाजिक व्यवस्था की चूलें हिलाकर रख देना चाहता है और इस विचारधारा से प्रभावित स्त्रियाँ पुरुषों से नफरत करने लगती हैं। दरअसल ये सभी धारणाएँ भ्रामक हैं। नारीवाद एक विचारधारा और जीवन-शैली है। चूँकि स्त्री भी सोचना-समझना जानती है इसलिए मानवाधिकार की विचारधारा और उससे प्रभावित आंदोलन स्त्री-जीवन के लिए परिवर्तनकामी है। नारीवाद पर पड़े प्रभावों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि युग धर्म के अनुसार प्रचलित विचारों से स्त्री विचारक भी प्रभावित होती हैं। वे उन विचारधाराओं का विश्लेषण करके उन्हें अपने पक्ष में मोड़ना चाहती हैं।
महान चिंतकों के विचारों को स्त्री जब कार्यरूप में परिणत करना चाहती है तो उस दौरान उसे अपने जीवन के प्रसंग में इन विचारों की सीमा, उनकी अंतर्निहित पुरुष-केन्द्रीयता और स्त्री-द्वेष भी समझ में आता है। पुरुष-जीवन निजी और सार्वजिक दायरों में स्पष्ट रूप से बँटा हुआ है। सामाजिक मंचों पर नारी स्वतंत्रता की वकालत करनेवाला पुरुष जब घर में अपनी पत्नी को प्रताड़ित करता है तो उसे ऐसा करने की सुविधा इसी बँटवारे के कारण मिल पाती है। जाहिर है कि जब स्त्री व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को, सार्वजनिक जीवन को उधेड़ना शुरू करेगी तो पुरुष-समाज को लगेगा कि निजी और सार्वजनिक दायरों में अंतर्विरोधी आचरण की सुविधा से वंचित हुआ जा रहा है। इस तरह नारीवाद निजी और सार्वजनिक से स्थापित विभाजन को बदलने की कोशिश करके पुरुष विरोधी होने के आरोप को नियंत्रित करता है। कहा जाता है कि नारीवाद पारिवारिक मूल्यहीनता को प्रश्रय देता है। या फिर वह पारिवारिक संरचनाओं को तोड़ देना चाहता है। वास्तविकता कुछ और है। अगर पारिवारिक संरचनाएँ मानवीय हैं तो अपनी वैचारिक संभावनाओं सहित नारीवाद परिवार और समाज के मानवीय मूल्यों को नष्ट करने के बजाय बचाना चाहेगा। वह पारंपरिक समाज-व्यवस्था को परिवर्तित जरूर करना चाहता है और बदलाव को टूटना तो नहीं कहा जा सकता। परिवार स्त्री की सबसे पुख्ता जमीन है। यदि इस जमीन पर खड़े होकर वह यथास्थिति के परिवर्तन के पक्ष में है और अन्य व्यापक सामाजिक जिम्मेदारियों को स्वीकारना चाहती है, तो इसे गलत क्यों कहा जाना चाहिए ?
यह भी कहा जा रहा है कि बहनापे की अवधारणा बहुलतावादी दौर में पूरी तरह खटाई में पड़ चुकी है। वास्तविकता यह है कि इसी अवधारणा के चलते मार्गन जैसी चिंतक जमीन से जुड़े हुए स्त्री-आंदोलनों पर विमर्श पेश करने की कोशिश करती हैं। उनका तर्क है कि स्त्री एक वैश्विक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरती जा रही है। मार्गन के अनुसार चूँकि पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना ने हर देश की जमीन घेरी है इसलिए राष्ट्रीय संरचना पर पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी हो जाती है, इसलिए इसके विरोध को सार्वभौम घटना के रूप में लिया जाना चाहिए। मार्क्सवादी विचारधारा भी पितृसत्ता के इस वर्चस्व से अछूती नहीं है। मार्क्सवादी राज्य एक तरफ स्त्री-हितों और उसके मानवीय पक्ष की पूरी तरह वकालत करता है लेकिन स्त्री के संदर्भ में राजकीय हस्तक्षेप के बावजूद स्त्री-आंदोलन की अलग पहचान स्वीकारने में असमर्थ रहता है। आधी दुनिया होने के कारण स्त्री की मुक्ति बहुसंख्यक जनता की मुक्ति की पर्याय समझी जानी चाहिए। दमन और शोषण के खिलाफ लड़ी जानेवाली अलग-अलग लड़ाइयों में स्त्री भी शामिल है लेकिन स्त्री-शोषण की अलग से चर्चा अनिवार्य है। वरना होता यह है कि वैचारिक स्तर पर मानवमुक्ति की चर्चा में चिंतक, दार्शनिक, विचारक और सामाजिक शोधकर्ता मान लेते हैं कि सबकी मुक्ति में स्त्री की मुक्ति भी शामिल होगी इसलिए अलग से स्त्री-हित की चर्चा की कोई तुक नहीं है।
इस पुस्तक में मैंने दार्शनिक विचारधाराओं की चर्चा की है जिनका मुझ पर प्रभाव पड़ा। इन विचारधाराओं को पढ़ते हुए मुझे यही लगा कि पुरुष होने की प्रक्रिया और स्त्री होने की प्रक्रिया में मौलिक अंतर है। पुरुष को पूर्वानुमानित रूप से व्यक्ति मान लिया जाता है पर स्त्री को यह स्वीकृति नहीं मिलती। देकार्त ने जब ऐलान किया था कि मैं सोचता हूँ इसलिए मेरा अस्तित्व है तो देकार्त का ‘मैं’ पहले तो उनका ‘मैं’ रहा और फिर उसमें अन्य पुरुषों का ‘मैं’ समाता गया। देकार्त के चिंतनशील ‘मैं’ का दायरा फैलता चला गया। पर क्या देकार्त के इस बृहदाकार ‘मैं’ में स्त्री शामिल थी ? आखिर उसमें स्त्री क्यों नहीं शामिल होनी चाहिए थी ? आखिर आदमी/इंसान/व्यक्ति में स्त्री-पुरुष दोनों ही निहित हैं। अत: देकार्त के अनुसार स्त्री भी कह सकती है कि मैं सोचती हूँ इसलिए मैं हूँ, मेरा अस्तित्व है। चिंतन करना व्यक्ति के युक्तिपरक होने का सबूत है। अपनी इस सामर्थ्य के कारण तो व्यक्ति जानवर से भिन्न होता है। बुद्धि एक सार्वभौम गुण के रूप में उभरती है जिसके कारण जानवर और इंसान की भिन्नता कायम रहती है। लेकिन स्त्री ने जब इस गुण का इस्तेमाल करते हुए अपने आप से, अपने परिवेश से और पुरुष की सत्ता से पूछा कि ‘क्या मैं इंसान हूँ ?’ ‘क्या मेरी भी कोई मानवीय गरिमा है ?’ तो उसे जो जवाब मिला वह कुछ और था। उसकी समझ में आ गया कि इंसान की श्रेणी में तो पुरुष है, स्त्री तो एक संपूरक भर है।
बहरहाल, अपनी दावेदारियों के साथ जैसे ही स्त्री ने अपने सारगुण, स्त्रीत्व, पर ध्यान केन्द्रित किया, वैसे ही उसे दिखाई पड़ा कि इस सारगुण के बावजूद, स्त्री और स्त्री में वर्ग, वर्ण और जाति की विविधताएँ हैं, रंग-भेद है उसे एक-दूसरे से विलग करती हुई राष्ट्रीय सीमाएँ हैं। सवाल उठा कि जिस स्त्री की चर्चा की जा रही है वह कौन है ? किस जाति की और किस वर्ग की है ? इस विविधता के कारण स्त्री से कहा गया है कि अलगाववादी चिंतन का परिणाम अच्छा नहीं होता और पहचान की राजनीति हीनभावना से प्रेरित होती है। यह भी कहा गया है कि केंद्र में आने की, मुख्यधारा में शामिल करने की माँग एक बचकानी माँग है क्योंकि केंद्र हैं ही कहाँ ? केंद्र तो महज भाषा द्वारा निर्मित एक संकेतक-भर है। परिधि भी तो स्वयं में एक केंद्र है। स्त्री-पुरुष के बीच ऐसी कोई भी तो एक भेदक रेखा नहीं खींची जानी चाहिए। तर्क दिया गया है कि भेदक रेखा में जो स्पेस है वहाँ भी तो एक भेदक रेखा है। अत: ऐसी कोई भेदक रेखा होती नहीं।
भेदक रेखा तो बनती-मिटती रहती है, इसके लिए व्यर्थ परेशान होने की क्या जरूरत ! स्त्री ने जब इन तर्कों को कसौटी पर कसा तो पाया कि उसका शोषण और दमन काल्पनिक नहीं, यथार्थ है। जिस भेद-भाव का स्त्री को अनुभव होता है, वह केवल भाषागत संरचना नहीं है। स्त्री को उसकी अधीनस्थता को इस कदर आत्मसात करा दिया गया है कि सत्ता की दमन कारी गतिविधियों को वह स्वीकारने लगी है। परंपरा ने उसे स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीतिक स्वतंत्रता और राजनैतिक भागीदारी और यहाँ तक कि व्यक्तिबोध जैसे मूलाधिकारों से भी वंचित रखा है। सत्ता द्वारा नियोजित यह वंचना ही स्त्री को राष्ट्र के दायरे में अपनी पहचान सीमित करने के खिलाफ विद्रोह का आधार प्रदान करती है। ये तमाम तर्क अनुचित साबित होते हैं कि स्त्री-मुक्ति की माँग जैसी अलगाववादी घटना न तो कभी हिंदू अतीत में घटी है और न ही हिंदू परंपरा में स्त्री कभी इतनी गुलाम रही है। यही हिंदुत्ववादी तर्क आगे बढ़कर कहता है कि स्त्री तो महाशक्ति के प्रतीक के रूप में पूजित है। बिना शक्ति के शिव तो महज शव हैं।
अत: नारी-मुक्ति की इन चर्चाओं के मूल में पश्चिम की अपसंस्कृति है। नैतिक स्तर पर ये पश्चिमी स्त्रियाँ हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से अनभिज्ञ हैं और नैतिक-अनैतिक में भेद करने में असमर्थ हैं। स्पष्ट है कि स्त्री के संदर्भ में हिंदुत्व के ये सभी तर्क उसकी पहचान को राष्ट्र में सीमित करने के उपक्रम मात्र हैं। एक बार फिर स्त्री को राष्ट्रीयता बनाम साम्राज्यवाद के द्वित्व में से किसी एक को मानने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जैसे ही वह राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघने का प्रयास करती है, उस पर पश्चिमीकरण का आरोप जड़ दिया जाता है। नारी-मुक्ति की विचारधारा इस तरह के आरोपों की हमेशा से शिकार रही है। दरअसल, चाहे प्राचीन हो या अर्वाचीन, प्राच्य हो या पश्चिम, राष्ट्र हो या जातीयता, एक की कीमत पर दूसरे को जायज ठहराना या फिर तुलनात्मक रवैया अपनाना सत्तात्मक दृष्टिकोण का परिचायक है। द्वंद्वात्मकता अनिवार्यत: एकत्वीकरण के सारे प्रयासों को बहुलता की स्वीकृति में परिणत कर देती है।
इसी मोड़ पर मुझे दांते द्वारा नरक के वर्णन का एक अंश याद आता है। नरक के दरवाजे पर पापात्माओं की भीड़ लगी थी और वे अपने-अपने झुंड़ों को कभी दायें तो कभी बायें हिला रहे थे। लेकिन वे साथ बैठकर किसी भी नैतिक या राजनीतिक मुद्दे पर बातचीत करने में असमर्थ थे। दांते का कहना है कि अपनी राय देने में कुछ कहने में असमर्थ लोग तो इतने जघन्य हैं कि नरक में भी प्रवेश के अधिकारी नहीं हैं। वे अपने कहे की जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहते। ऐसे लोग अपने किसी विचार पर टिकते भी नहीं। स्त्री की समस्याओं के संदर्भ में यह मनोवृत्ति और भी स्पष्ट होकर उभरती है। क्योंकि स्त्री समस्या स्पष्ट पक्षधरता की माँग करती है। राष्ट्र की सीमाएँ इसमें आड़े नहीं आनी चाहिए।
स्त्री का सवाल और राष्ट्रीय एकता का सवाल एक दूसरे के खिलाफ रखकर नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे कि स्त्री हो या पुरुष, पक्षधरता के कारण यथास्थिति से मिलने वाली सुविधाओं को छोड़ना पड़ता है, कीमत देनी पड़ती है जिसके लिए कोई तैयार नहीं है। स्त्री के हक सर्वसम्मति से नहीं दिये जा सकते। समकालीन जगत में स्त्री का प्रसंग एक नैतिक जिम्मेदारी की माँग करता है। आँकड़े उठाकर देख लीजिए: शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, रोजगार और व्यापार-जगत, हर जगह स्त्री-श्रम की कीमत पुरुष-श्रम से कम है। क्या इस आधार पर जनतांत्रिक मूल्यों का विकास संभव है ? कार्य-जगत में यौन भेद-भाव और यौन-हिंसा भी कम नहीं है। स्त्री को पुरुष की तरह वोट का अधिकार है। पर स्त्रियों का प्रतिनिधित्व पुरुष वर्ग ही करना चाहता है। राजनीतिक जीवन में स्त्री की सक्रिय भागीदारी नहीं है। दुनिया के सारे सांसदों का दस प्रतिशत हिस्सा ही स्त्रियाँ हैं और केवल चार प्रतिशत स्त्रियाँ मंत्रालयों में हैं। केवल गरीबी ही स्त्री के लिए बाधक नहीं है। गरीब तो पुरुष भी है, अर्थाभाव तो वह भी झेलता है, जातिवाद का शिकार भी वह है। मगर पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परंपराओं का आयाम पूरी तरह विशिष्ट है। ये परंपराएँ स्त्री को घर सौंपती हैं, बच्चों का भरण-पोषण सौंपती हैं। मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे नि:शुल्क सेवा लेती हैं और बदले में उसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमा-मंडन कर अपने कर्तव्यों को इतिश्री कर लेती हैं। स्त्री भूखी है या मर रही है, इसकी चिंता किसी को नहीं होती।
पितृसत्तात्मक परंपरा ने निश्चित कर रखा है कि अधिक से अधिक शिक्षा पुरुष को मिलनी चाहिए, क्यों कि उसे कमाना है। उसे पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए क्योंकि उसके श्रम की कीमत है। पुरुष को इसलिए राजनीतिक चुनाव का अधिकार दिया गया है क्योंकि भेद-भाव करने और दूसरों का शोषण करने के मामले में वह ज्यादा ताकतवर साबित होता है। साथ ही वह अपने से भिन्न को नियंत्रित करने की क्षमता भी रखता है। यहाँ तक कि विरोध और विद्रोह की अपेक्षा भी पुरुष से अधिक की जाती है। स्त्री के विरोध से सत्ता चौंकती है। गुजरात के दंगों में जब स्त्रियों ने लूटपाट मचाई, तो अधिकतर पुरुषों की नजर में यह चौंकानेवाली घटना थी कि ऐसा जघन्य काम पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने कैसे किया ! टिप्पणी की गई कि देखिए हमारी स्त्रियाँ कितनी नीचे जा रही हैं ! क्या होगा हमारे धर्म का ? कौन रक्षा करेगा हमारी जातीय अस्मिता की ? आखिर स्त्री माँ है, संतति के भरण-पोषण की पूरी जिम्मेदारी उसी की है। विडंबना यह है कि स्त्री से नैतिक जिम्मेदारी की माँग करनेवाला समाज उसे आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर निर्णय के अधिकार से वंचित रखना चाहता है। जिसे अधिकार ही नहीं मिला उससे जिम्मेदारी की माँग क्यों की जा रही है ? जो खुद गौण, दोयम और अधीनस्थ है, वह कैसे दूसरों के प्रति अपनी जिममेदारी निभायेगा ?
दूसरे, संस्कृति के संदर्भ में सार्विकता एवं बहुलता की अवधारणा का स्पष्टीकरण जरूरी है। बहुसंस्कृतिवाद का अपना जोखिम है जिससे फिलहाल बचा नहीं जा सकता। फासीवादी संस्कृति के मूल्य स्त्री द्वारा स्वीकारे नहीं जाने चाहिए। गुजरात की हिंदू स्त्रियों ने मुसलमान स्त्री के साथ जो किया वह फासीवादी सांस्कृतिक मूल्यों का स्त्री-वर्ग द्वारा किया गया वरण है। क्या स्त्री के लिए कोई निरपेक्ष सार्विक प्रतिमान हासिल नहीं किया जा सकता ? आलोचनात्मक सार्विकता के आधार पर प्रत्येक स्त्री-पुरुष के जीवन की गुणवत्ता को मापना संभव है। लेकिन आलोचनात्मक सार्विकवाद हमें परंपरा के इतिहास के प्रति संवेदनशील जरूर बना सकता है, मगर उसी हद तक जहाँ तक वह परंपरा स्त्री के विकास में सहायक हो, ताकि जीवन की गुणवत्ता और परंपरा के संबंध का आकलन करना संभव हो सके।
आलोचनात्मक सार्विकता स्थापित भूगोल की सीमा स्वीकारने के लिए कभी तैयार नहीं होगी। राष्ट्रवाद की अपनी सीमा है। राष्ट्रवाद चाहे फासीवाद द्वारा प्रचारित किया जा रहा हो या फिर चाहे वह कोई दमनकारी राष्ट्रवाद हो या किसी वर्ग विशेष का राष्ट्रवाद हो, वह अंतत: पहचान का दर्शन है। परिधि से उबरने की कोशिश में लगी हुई स्त्री को राष्ट्रवाद की जरूरत कुछ समय के लिए पड़ सकती है। राष्ट्रवाद के जरिए स्त्री को अन्य संस्थापितों के बीच पहचान मिलती है। पर यह तो पहला कदम ही हो सकता है। इसे आखिरी मंजिल तो नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रवाद स्त्री को मजबूर करेगा कि वह केवल अपनी सांप्रदायिक, जातीय और वर्गीय पहचान और संसकृति को पुख्ता करे। इस प्रक्रिया में कई समस्याएँ हैं। 11 वीं शताब्दी का उपनिवेशवाद प्राचीन ब्रह्मणवाद की भौंडी नकल रहा है।
उसने निचली जातियों को हीन बताकर मानव-संस्कृति की भव्यता और औदार्य से उन्हें वंचित रखनेवाली समाज-व्यवस्था को बदलने की चेष्टा नहीं की। हिंदू जब यह कहता है कि उसे पहले हिंदुत्व की रक्षा करनी है या केवल अपना जातीय साहित्य पढ़ना है, तो राष्ट्रवाद के नाम पर पहचान की राजनीति उभरती है। पहचान की राजनीति का एक दूसरा पहलू भी है। यह राजनीति स्त्री-मुक्ति आंदोलन को आत्मग्रस्त करेगी, सीमित करेगी। वह स्त्री खोयेगी ज्यादा, पायेगी कम। घेटो चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हो या मदरसे का, जीवन के वैविध्य की ओर उनका ध्यान नहीं जा पायेगा। यदि भिन्नताएँ आपस में टकराती हैं, तो इन भिन्नताओं के साथ चलना सीखना होगा। उनका आपसी संवाद निरंतर होना ही चाहिए। स्त्री या दलित अपनी मूक खामोशी में भी बहुत कुछ बोलते हैं। सत्ता अपनी ऊँचाई से ऐसे खोखले नारे लगाती है, जो हमारी समझ से बाहर होते हैं। स्त्री सत्ता का विरोध करती है मगर विरोध के पीछे वह सत्ता की आकांक्षा नहीं रखती। उसे तो सत्ता से अलग हटकर और एक बेहतर दुनिया की खोज करनी है। महज आत्मश्लाघा और मुग्ध आत्मरति से कुछ नहीं मिलनेवाला। बल्कि स्वतंत्रता और मानवीयता की खोज अंतहीन होनी चाहिए, आकाश की अनंतता की तरह।
मान्यता है कि इंसान होने की पहली पहचान है किसी राज्य का नागरिक होना। तब क्या मानवाधिकार का सबसे सुरक्षित गढ़ राष्ट्रवाद है ? क्या राष्ट्र की आलोचना करनेवाला देशभक्त नहीं हो सकता ? स्त्री के अधिकारों की चर्चा करने पर पूछा जाता है कि वह किस राष्ट्र की नागरिक है ? उसका धर्म, उसकी जाति, उसका संप्रदाय क्या है ? इन सवालों का जवाब यह है कि नारीवाद को राष्ट्रीय सीमा में बंद नहीं किया जा सकता। सिद्धांत और विमर्श को इतिहास और व्यवहार से अलग करना होगा। राष्ट्रवाद से इतर यह कोई अकेली चीख नहीं होगी। बल्कि इसमें वैयक्तिकता की सामूहिक अवधारणा पर ध्यान दिया जाएगा। उन संबंधों से जुड़ने की प्रक्रिया से पहचान निर्मित होती है जिनके मूल में स्त्री का निजी और विशिष्ट इतिहास रहता है। साथ ही जुड़ी होती है स्त्री आंदोलन की सामूहिक राजनीति। स्त्री की पहचान बिखरी हुई भी हो सकती है, संबंधवाचक एवं सामूहिक भी। लेकिन स्त्री को पुरुष द्वारा अभिव्यक्त सांस्कृतिक आदर्शों की आलोचना करनी सीखनी होगी। स्थापित प्रतिमाओं के पीछे छिपी हुई सत्ता की नीयत को पहचानना होगा। स्त्री को अपने से भिन्न अन्य वर्ग, जाति और राष्ट्र की स्त्री-पुरुषों के संबंधवाचक संपर्क बनाने होंगे। चाहे वामपंथ हो या दक्षिणपंथ, भूमंडलीय स्तर पर अब तक की राजनीतिक प्रक्रियाओं में स्त्री-प्रसंग में हमेशा विरोधाभासी विपर्यात्मक एवं विशिष्ट अर्थमयता ही प्रचलित रही है। जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि एक-दूसरे के बरखिलाफ जोड़ियों में सोचना ही चिंतन का तरीका रहा है। किंतु अब हमें यह या वह स्त्री या पुरुष, सक्रिय या निष्क्रिय, युक्तिसंगत या भावनात्मक आदि द्वित्वों का अतिक्रमण करते हुए किसी एकल व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने के बजाय स्त्री-पुरुष को साथ-साथ रखते हुए दोनों की अपनी-अपनी पहचान के साथ जीना सीखना होगा।
एक समूचेपन की व्यवस्था करनी होगी। जो है, उसमें थोड़ा और जुड़ेगा। स्त्री को वैज्ञानिक आलोचना की पद्धति सीखनी होगी, ताकि अन्य आंदोलनों की सक्रियता में वह जाने-अनजाने स्त्री-मुक्ति के लक्ष्यों की अपेक्षा न कर बैठे। स्त्री कहीं अपने वर्गीय हितों को अपने राजनीतिक स्वार्थों के तहत गौण न बना दे। स्त्री स्थानीय संघर्ष कर रही है भूमंडलीय स्तर पर भी वह संघर्षरत होगी, एक समग्र दृष्टिकोण अपनायेगी। एक ओर यदि स्थानीय परंपरा, सापेक्षिक नैतिक मूल्यों एवं सांस्कृतिक विरासत की समस्या है तो दूसरी ओर स्त्री को संस्कृतियों की सीमाओं के पार छानबीन और अन्वेषण करना होगा ताकि उसके आलोचनात्मक रुख से एक ऐसा वैश्विक दृष्टिकोण विकसित हो सके जिसके जरिए अपनी छद्म चेतना को बदलने में वह सक्षम हो सके। इस तरीके से न स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा होगी और न ही स्थानीय सीमाओं में कैद होकर रह जाना होगा।
बहुलता की माँग की वजह से स्त्री-जीवन भिन्न-भिन्न आवाजों से निर्देशित होता रहा है। पर बहुलता का अर्थ अलग-अलग खाँचों में बंद सांस्कृतिक मूल्यबोध नहीं है। संस्कृति के ऊपर है मनुष्यता, जो स्त्री को अब तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। यदि होती तो दुनिया में इतना आतंक नहीं फैलता। स्त्री तो मनुष्य बनने की प्रक्रिया में है, उस ओर अग्रसर है। प्रत्येक स्त्री की अपनी-अपनी क्षमता है, सांस्कृतिक सामर्थ्य है। बहुलता की अवधारणा का समर्थन हमें एक कारगर संवाद की तरफ ले जाता है। यदि स्त्री-हितों की चर्चा की जी रही है तो प्रत्येक मानव स्त्री की बात हमें करनी होगी। स्त्रियों में जितनी भी बहुलताएँ हैं, उन्हें खुद को एक-दूसरे के समकक्ष समझना होगा और यदि हममें से अन्य कोई भी स्त्री शोषित होती है, हिंसा का शिकार होती है तो मानवीय मूल्यों का तकाजा है कि उस पर ध्यान दिया जाए ताकि इस मानव (और स्त्री) के प्रति नया दृष्टिकोण विकसित हो सके। स्त्री के प्रति अब तक मानवीय दृष्टिकोण निर्मित नहीं हो सका है। इन मुद्दों पर केवल पुरुष ही गौर करते रहे।
स्त्री यदि एक बार अपनी समस्याओं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण निर्मित कर पाती तो पितृसत्तात्मक धार्मिक एवं सांस्कृतिक योजनाएँ स्वत: खारिज हो जातीं। दलित एवं शोषित अपने बारे में सही निर्णय लेने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि लंबे समय तक अधीनस्थ रहने की वजह से उन्होंने सत्ता के मूल्यों को इतना आत्मसात कर लिया है कि उनकी आलोचनात्मक क्षमता कुंद हो गयी है। इसीलिए आत्माभिव्यक्ति को और तराशने की जरूरत है। स्त्री अपनी पक्षधरता अवश्य विकसित करे और बोले, मगर उसका वक्तव्य आत्मरति से ग्रस्त न हो। यही कारण है कि स्त्री को आज मानव-मूल्यों पर आधारित शिक्षा की वकालत करनी है ताकि चिंतन का स्तर और विकसित हो, व्यक्ति की सोच स्थानीय सीमाओं से बाहर निकले, वह धार्मिक मतान्धता की शिकार न हो। हाँ, उस प्रक्रिया में वैकल्पिक जीवन-मूल्यों का संकेत जरूर मिले ताकि बिना किसी दबाव और भय के वह शिवम् की अवधारणा विकसित कर सके।
इस पुस्तक में विभिन्न विचारों के विश्लेषण से मैंने साफ करने की चेष्टा की है कि स्त्री की अस्मिता-यात्रा को राष्ट्र के दायरे में कुछ कदम और चलना पड़ेगा लेकिन उसकी यह यात्रा निकासी के दरवाजे की तरफ होगी। स्थानीय के माध्यम से वह सार्वभौम की ओर जाएगी और सार्वभौम के जरिये स्थानीय को स्पर्श देगी। वह पुरुष-समाज को पक्षधरता के लिए मजबूर करेगी पर अलगाववादी चिंतन और अपने घेटोकरण से बचते हुए विभिन्नता और बहुलता का झंड़ा बुलंद करती रहेगी। हिंदुत्व के राजनीतिक आक्रमण का प्रतिरोध करते हुए धर्मनिरपेक्षतावादियों के उकसावे में नहीं आएगी वरना उसे एक बार फिर सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के घिसे-पिटे द्वित्व में फँस जाना होगा। अपनी पहचान के सवाल पर उसे अपना वक्तव्य अलग से जारी करना होगा। नारीवाद बौद्धिकता के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि नारीवाद लेखन और चर्चा में जातिवाद, वर्ग आधारित सोच, सांप्रदायिकता, साम्राज्यवादी विचारधारा, पुरुषकेंद्रित जीवन-दर्शन और मूल्यों का प्रभाव खोज निकालना है। ये वही मूल्य और विचारधाराएँ हैं जो न केवल स्त्री को पुरुष के अधीनस्थ रखते हैं बल्कि स्त्री-स्त्री में भी भेद की खाई को भी चौड़ा कर देते हैं।
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