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नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ महिला कथाकार


ममता कालिया
समकालीन रचना जगत में अपने मौलिक और प्रखर लेखन से हिन्दी साहित्य की शीर्ष पंक्ति में अपनी जगह बनाती स्थापित और सम्भावनाशील महिला-कहानीकारों की रचनाओं का यह संकलन आपके हाथों में सौंपते, मुझे प्रसन्नता और संतोष की अनुभूति हो रही है। आधुनिक कहानी अपने सौ साल के सफ़र में जहाँ तक पहुँची है, उसमें महिला लेखन का सार्थक योगदान रहा है।







हिन्दी कहानी का आविर्भाव सन् 1900 से 1907 के बीच समझा जाता है। किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमती’ 1900 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह हिन्दी की पहली कहानी मानी गई। 1901 में माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’; 1902 भगवानदास की ‘प्लेग की चुड़ैल’ 1903 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और 1907 में बंग महिला उर्फ राजेन्द्र बाला घोष की ‘दुलाईवाली’ बीसवीं शताब्दी की आरंभिक महत्वपूर्ण कहानियाँ थीं। मीरजापुर निवासी राजेन्द्रबाला घोष ‘बंग महिला’ के नाम से लगातार लेखन करती रहीं। उनकी कहानी ‘दुलाईवाली’ में यथार्थचित्रण व्यंग्य विनोद, पात्र के अनुरूप भाषा शैली और स्थानीय रंग का इतना जीवन्त तालमेल था कि यह कहानी उस समय की ज़रूरी कृति बन गई। इस काल खण्ड की अन्य उल्लेखनीय लेखिकायें थीं- जानकी देवी, ठकुरानी शिवमोहिनी, गौरादेवी, सुशीला देवी और धनवती देवी।






यह राजनीतिक उथल-पुथल और जन-जागरण का भी समय था। अतः इनके बाद की महिला कहानीकारों में हमें राष्ट्रीय-चेतना के दर्शन हुए। वनलता देवी, सरस्वती देवी, हेमन्तकुमारी और प्रियम्वदा देवी ने अपनी कहानियों में राजनीतिक सरोकारों का परिचय दिया। समाज में फैली कुरीतियों यथा बाल-विवाह, पर्दा प्रथा और अशिक्षा को विषय-वस्तु बना कर मुन्नी देवी भार्गव, शिवरानी देवी (प्रेमचन्द की पत्नी) चन्द्र प्रभादेवी मेहरोत्रा। विमला देवी चौधरानी आदि ने कहानियाँ लिखीं। इन रचनाकारों ने अपने तरीके से यथार्थपरक, समाजोन्मुखी लेखन की नींव रखी।






सन् 1916 से 1935 तक का समय प्रेमचन्द्र के प्रभाव का समय था। उनकी कहानियों में मौजूद आदर्शोनमुखी यथार्थवाद, परवर्ती लेखकों में फार्मूला की हद तक अपनाया गया। लेकिन यहीं से परिवर्तन की इच्छा ने जन्म लिया। हिन्दी कहानी पर इस कालखंड में गाँधीवाद, मार्क्सवाद और फ्रॉयडवाद का भी प्रभाव देखा गया। उषा देवी मित्रा, कमला चौधरी और सत्यवती मलिक ने कहानी के विकास को इस दौर में सार्थक योगदान किया। उनकी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं के साथ मनोवैज्ञानिक पक्ष भी व्यक्त हुआ। स्वाधीनता की आकांक्षा सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं और कहानियों में दिखाई दी। इस दौर में हिन्दी कहानी में समाज सुधार की चिन्ता सर्वोपरि थी। होमवती देवी, महादेवी वर्मा, चन्द्रकिरण सोनरिक्सा आदि ने अपनी कहानियों में समाज के समस्याग्रस्त हिस्सों को उजागर किया।






स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश के दो टुकड़े हो गये। समाज ने विभाजन की विभीषिका देखी और झेली। इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा अवमूल्यन मानवीय विश्वास और विवेक का हुआ। कथा-साहित्य के लिए यह समय संक्रांति-काल था। कृष्ण सोबती की कहानी ‘सिक्का बदल गया’ इसी संकट का मार्मिक दस्तावेज़ है। कहानी की नायिका ‘शाहनी’ उस यातना को प्रत्यक्ष देख सकती है जहाँ वह अपने ही घर में अब सुरक्षित नहीं है। सद्भावना की जगह सन्देह ने ले ली है। पर शाहनी अपने व्यक्तित्व का वैभव कम नहीं होने देती। पराजय के क्षण में भी वह साम्राज्ञी की तरह घर से बाहर आती है। इस कहानी पर आलोचक मधुरेश का कहना है कि मानवीय सद्भाव के क्षरण वाले उस भयावह दौर में भी, भावुक हुए बिना, कृष्णा सोबती उस मानवीय तत्व को रेखांकित करती हैं जो मनुष्य में बचे हुए विश्वास को जिंदा रखे हुए था। कृष्णा सोबती के पात्र बेहद सजीव और यथार्थ लगते हैं।






जीवन के प्रति गहरी आस्था और अनुराग चित्रित करती उनकी अन्य प्रसिद्ध कहानियाँ हैं-‘ए लड़की’, ‘मित्रों मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘नाम पट्टिका’ और ‘तिन पहाड़’। उनके लेखन में पंजाब क्षेत्र की महक उनकी भाषा शब्द-चयन और वाक्य संरचना में भरपूर महसूस की जा सकती है। कृष्णा जी अपने वृहद् उपन्यास ‘ज़िन्दगीनामा’ के लिए भी जानी जाती हैं। समकालीन साथी कलाकारों पर उनके संस्मरण ‘हम हशमत’ नामक संग्रह में प्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में तल्खी की अपेक्षा खुलापन और तेवर की अपेक्षा संवेदनशीलता नज़र आती है। उनका नवीनतम उपन्यास ‘समय सरगम’ है। वे आजकल एक अन्य उपन्यास पर कार्य कर रही हैं।


हिन्दी कहानी के विकास में कहानी-आंदोलनों की भी अहम भूमिका रही है। इनमें प्रमुख ये रहे हैं-






(1) नयी कहानी


(2) साठात्तरी कहानी


(3) सचेतन कहानी


(4) समांतर कहानी


इन पर कुछ विस्तार से चर्चा करना प्रासंगिक होगा।






(1) नयी कहानी-सन् 1955 से सन् 1963 तक के काल-खण्ड में हमें नयी कहानी का प्रारंभ और उन्मेष दिखाई देता है। ‘नयी कहानी’ शब्द की स्थापना के विषय में दो मत हैं। कथाकार कमलेश्वर का कथन है कि कवि दुष्यंतकुमार ने सबसे पहली बार इस दौर की कहानी को ‘नयी कहानी’ शब्द से पहचान दी। राजेन्द्र यादव मानते हैं कि डॉ. नामवर सिंह और दुष्यंतकुमार दोनों को उसका श्रेय मिलना चाहिए। नामवर जी की आलोचना पुस्तक ‘कहानी : नयी कहानी’ इतनी प्रामाणिक और पठनीय रही कि पाठकों के दिमाग़ में यह नामवर जी के साथ सम्बद्ध हो गया। स्वयं नामवरजी का कहना है कि ‘कहानी की चर्चा में अनायास ही ‘नई कहानी’ शब्द चल पड़ा है और सुविधानुसार इसका प्रयोग कहानीकारों ने भी किया है और आलोचकों ने भी।’ (कहानी : नयी कहानी पृष्ठ 53) प्रख्यात लेखक वह ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने अपनी पुस्तक ‘एक दुनिया समानांतर’ की भूमिका में नयी कहानी पर विमर्श करते हुए लिखा है, ‘वस्तुतः आज (नयी) कहानी युग के सन्दर्भों दबावों से प्राप्त अपने अनुभवों’ को आत्मसात् करके उन्हें पात्रों, स्थितियों में फैलाकर तटस्थ भाव से देखने-समझने और पाठक तक पहुँचाने का प्रयास है।’’






1947 में आज़ादी मिलने के बाद भी हमें वह समाज नहीं मिला जिसका सपना गाँधी, नेहरू के साथ-साथ हम सबने देखा था। ऐसी स्थिति में वर्जनाओं, प्रतिबंधों और विसंगतियों से जूझते जन–साधारण की भावनाओं परिस्थितियों और परेशानियों को नयी कहानी ने अपनी विषय वस्तु बनाया। नयी कहानी जीवन से जुड़कर समाज की पहचान है। समाज में फैली अस्थिरता अनिश्चतता और अराजकता को अपनी-अपनी तरह से मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र प्रसाद, मन्नू भंडारी, अमरकान्त, उषा प्रियम्बदा, कृष्णा सोबती, मार्कंण्डेय, भीष्म साहनी और निर्मल वर्मा ने व्यक्त करने का प्रयास किया। नयी कहानी की विशेषता प्रतीकात्मकता और सांकेतिकता रही। मोहन राकेश की ‘ग्लासटैंक’, राजेन्द्र यादव की छोटे-छोटे ताजमहल, कमलेश्वर की ‘राजा निरबंसिया’, मन्नू भंडारी की ‘यही सच है’, निर्मल वर्मा की ‘परिन्दे’ और उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ में ये विशेषतायें देखी जा सकती हैं।






नई कहानी हिन्दी कथा साहित्य के विकास में एक महत्वपूर्ण चरण रही है।


(2) सन् 1960 के बाद की कहानियों में नयी कहानी की अपेक्षा ज्यादा प्रामाणिक यथार्थ और वर्तमान स्थितियों का विश्लेषण पाया गया। इसी प्रवृत्ति की कहानी को साठोत्तरी कहानी की संज्ञा दी गई। इसी बीच एक अल्पजीवी दौर अकहानी का भी रहा जिसने नयी कहानी के खिलाफ़ मोर्चा खोला। इसका मूल स्वर अस्वीकार और निषेध का रहा। राजकमल चौधरी के असामयिक निधन ने इस पक्षधरता भी समाप्त हो गई तथा इससे जुड़े रचनाकार साठोत्तरी कहानी के प्रयोग में सक्रिय हो गये। दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोड़ा, और नमिता सिंह आदि साठोत्तरी रचनाकार माने जाते हैं। आलोचक मधुरेश के अनुसार ये युवा लेखक किसी परंपरागत नैतिकता या सामाजिक प्रतिबद्धता के कायल नहीं, वे सत्य को अपनी आँखों से देखने पर अधिक विश्वास करते हैं, अतः सातवें दशक की इस कहानी के अंदर हर लेखक अपने ढंग से जूझता या संघर्ष करता दिखाई देता है।’ साठोत्तरी कहानी की भाषा और शैली अधिकस्पष्ट सघन और तार्किक है।






(3) सचेतन कहानी का नारा मुख्यतः महीप सिंह ने उछाला पर इसकी सक्रियता का काल संक्षिप्त रहा। इस आंदोलन से जगदीश चतुर्वेदी, राजीव सक्सेना, योगेश गुप्त, मनहर चौहान आदि जुड़े रहे। इस आंदोलन पर यूरोप के अस्तित्ववाद का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा।






(4) सन् 1972 में ‘सारिका’ के संपादक व लेखक कमलेश्वर ने समांतर कहानी की स्थापना की। उनका कहना था कि समांतर कहानी, साहित्य की तरफ से, साथ देने का औपचारिक प्रस्ताव नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर चल रही, यथार्थ की लड़ाई में शामिल कहानी है।’ कमलेश्वर ने ‘सारिका’ के कई विशेषांक इसी सिद्धांत के प्रतिपादन में निकाले, किन्तु आम पाठक को इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल सका कि यह कहानी किन अर्थों में भिन्न है। से.रा. यात्री, जितेन्द्र भाटिया, मधुकर सिंह, इब्राहिम शरीफ़, सूर्यबाला और अनीता औलक इस आंदोलन के दौरान चर्चा में आईं।






यह सुखद है कि रचनाकार की रचनाशीलता और लेखन-अवधि आंदोलनों की अपेक्षा ज्यादा सुदृढ़ और लम्बी होती है। कहानी के क्षेत्र में आज भले ही कोई सक्रिय आंदोलन न हो, समकालीन लेखन में कहानी अपने समय और समाज को व्यक्त करने में जी जान से जुटी है। आज का यथार्थ भी ज्यादा जटिल कुटिल और बहुकोणीय है समकालीन रचनाकार नये प्रयोगों द्वारा वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक संरचना ‘संवाद’ के जरिये साकार करता है। समकालीन लेखन में कहानी की कमान महिलाओं ने बिल्कुल इस तरह संभाली जिस तरह वे अन्य गतिविधियों में मोर्चा सँभालती हैं। लेकिन व्यापक स्वीकृति पाने के लिये उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा महिला लेखन को प्रायः हाशिये का लेखन माना गया; कोष्ठक में बन्द एक पूरक कर्म। हाशिये और कोष्ठक से निकाल कर इसे केन्द्र में लाने के लिए पिछली पीढ़ी की लेखिकाओं ने अथक परिश्रम किया। आज महिला-लेखन विश्वविद्यालय का एक महत्त्वपूर्ण विषय है।






भारी संख्या में विद्यार्थी, महिला रचनाकारों के कृतित्व पर शोध-कार्य कर रहे हैं। महिला-विमर्श पर अलग से गोष्ठियाँ और सेमिनार होते हैं। पत्र-पत्रिकाओं को महिला लेखन विशेषांक निकाल कर नया जीवनदान मिलता है, उनकी प्रसार संख्या बढ़ जाती है। जाहिर है महिला लेखन में विलक्षण पठनीयता, विश्वसनीयता, जिजीविषा और मार्मिकता के कारण ही इसे इतना विशाल पाठक वर्ग मिला है। आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा के साथ-साथ आत्मसजगता और परिवेश-चेतना महिला कहानीकार के रचनात्मक सरोकार का केन्द्रीय बिन्दु रहा है।






विषयगत नवीनता, दृष्टिकोण का साहस और विसंगतियों की पड़ताल कृष्णासोबती के साथ-साथ हमें मन्नू भण्डारी उषा प्रियम्वदा, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल और नमिता सिंह में भरपूर मिलती है। कुछ अन्य महिला रचनाकार जिन्होंने हिन्दी कहानी को समृद्ध किया है इस प्रकार हैं-मृणाल पाण्डे, मैत्रेयी पुष्पा, राजी सेठ, चन्द्रकांता, प्रभाखेतान, कमल कुमार, सुषम बेदी, लवलीन, गीतांजलिश्री, मधु कांकरिया आदि। सभी महिला-रचनाकारों ने स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का गहन और सूक्ष्म विश्लेषण किया है। कामकाजी स्त्री का जगत घर-परिवार के अतिरिक्त व्यापक हो जाता है। अतः महिला कहानीकार की कलम कामकाजी महिलाओं की ज़िन्दगी पर भी फोकस हुई है।






कथा-सृजन के क्षेत्र में प्रतिभा का विलक्षण विस्फोट महिला-लेखन की प्रमाणिक पहचान के लिए पर्याप्त प्रमाण होता यदि आलोचना के स्तर पर इसकी सम्यक् समीक्षा की जाती। महिला-रचनाकार की कृतियाँ अपनी संवेदनशीलता, तार्किकता और तेवर में बेहद पठनीय होते हुए भी आलोचना के ठंडेपन की शिकार हैं। डॉ. निर्मला जैन ने मूल्यांकन की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कार्य किया है पर उतना अपर्याप्त है। मूल्यांकन का मसला, आरक्षण के मसले की तरह ही पुरुषवादी परहेज़ का शिकार है।


कुछ वर्ष पहले तक महिला लेखन पर आरोप लगाया जाता था कि यह सीमित दृष्टि का साहित्य है; कि यह परिवार के दायरे के बाहर नहीं निकलता; कि यह समय-समाज के उन पेचीदा आयामों को नहीं उठाता जो समकालीन जीवन को परिभाषित करें।






इन आरोपों के अनौचित्य पर कुछ देर बाद विचार करते हैं। पहले हमें यह देखना है कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी है। कहना होगा कि इसका उत्तर संतोषजनक नहीं है। महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक, कार्यकर्ता और संचालक माना जाता है। परिवार से जुड़ी हर जिम्मेदारी उनके मत्थे मढ़ कर पुरुष अपनी प्रतिभा का बेहतर उपयोग करने के लिये स्वतंत्र है। स्त्री के सन्दर्भ में अवसर की कमी को प्रतिभा की कमी समझने की घूर्तता बरती गई है। कुल मिलाकर भारतीय समाज में एक ऐसी आचार-संहिता का पालन होता है जिसमें स्त्री-पुरुष का रिश्ता सेवक-स्वामी के असमान सम्बन्ध के रूप में पनपता है। यह अपने आप में एक नये तरीके की वर्ग विषमता है जिस पर हैव और हैव-नॉट का सिद्धान्त बख़ूबी लागू होता है। कोई ताज्जुब नहीं कि जब-जब स्त्री-विमर्श पर गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, स्त्री के साथ दलित प्रश्न भी चर्चा का केन्द्रीय विषय बनकर उभरता है।






आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा के साथ-साथ आत्मसजगता का रेखांकन पिछले पचास वर्षों में महिला लेखन का केन्द्र-बिन्दु रहा है। कहानी के समानांतर उपन्यास के सृजन में भी आज लेखिकाओं ने कमान सँभाल रखी है। पिछले कुछ वर्षों के महत्वपूर्ण उपन्यास महिलाओं द्वारा ही रचे गये हैं। कृष्णा सोबती का ‘ज़िन्दगीनामा’ और ‘समय सरगम’, मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’, मृणाल पाण्डे का ‘पटरंगपुर पुराण’, मृदुला गर्ग का ‘अनित्य’, चित्रा मुद्गल का ‘आंवा’, ममता कालिया का ‘बेघर’ और ‘नरक दर नरक’ मैत्रेयी पुष्पा का ‘चाक’ और अलका सरावगी का ‘कलिकथा वाया बाइपास’ कालजयी उपन्यास हैं। नितांत नयी युवा पीढ़ी में भी लेखिकाओं का योगदान विस्मयकारी है। दीपक शर्मा, गीतांजलि श्री, जया जादवानी, मधु कांकरिया, नासिरा शर्मा आदि की रचनायें अपने आधुनिक विन्यास और विषय वस्तु से हमें चौंकाती हैं और उम्मीद बंधाती हैं कि उनकी पैनी नज़र समय समीक्षा करती रहेगी।


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Comments

Vinay said…
विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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