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Showing posts from March, 2019

सूरीनाम में रहनेवाले प्रवासियों का जीवन संघर्ष : छिन्नमूल

प्रो. शर्मिला सक्सेना पुष्पिता अवस्थी प्रवासी भारतीय लेखकों में एक प्रतिष्ठित नाम है। आप विश्व भर के भारतवंशियों व अमर इंडियन जनजातियों पर अपने अध्ययन व विशेषज्ञता के लिए मुख्यतः जानी जाती हैं। सूरीनाम से आपका गहरा सरोकार है। सन 2001 में सूरीनाम के राजदूतावास, भारतीय संस्कृति केंद्र में प्रथम सचिव व प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हुईं। तभी से आप सूरीनाम में रहने वाले भारतवंशियों को जानने व समझने का प्रयास करने लगीं। इसी समझ का परिणाम है यह उपन्यास ‘छिन्नमूल’, जिसमें पहली बार किसी प्रवासी भारतीय लेखिका ने सूरीनाम और कैरेबियाई देश को अपने उपन्यास का विषय बनाया है। आपने गिरमिटिया परंपरा में सूरीनाम की धरती पर आये पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों की संघर्ष गाथा को यथातथ्य रूप में उकेरने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। यह उन लोगों की कहानी है जो अपनी जड़ों से कटकर पराए देश में रहते हुए भी अपने धर्म, संस्कृति से जुड़े हुए हैं और उसके वाहक हैं। दूसरी जमीन पर अपनी संस्कृति के बीज बोना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है जिसके कारण सूरीनाम में भारतीय संस्कृति सांसें ले रही है। सूरीनाम पर इससे पहले डच

छिन्नमूलता बनाम बद्धमूलता का सूरीनामी आख्यान : छिन्नमूल

प्रो. नीरू भारतवंशियों पर अपने शोध-बोध के लिए चर्चित विदुषी लेखिका पुष्पिता अवस्थी अपनी औपन्यासिक कृति ‘छिन्नमूल’1 के माध्यम से पाठक को एक यात्रा पर ले चलती हैं...एक ऐसी यात्रा जो दिक् और काल के दो परस्पर पूरक आयामों में विस्तार पाती है। 19वीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों से लेकर 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक 10-15 वर्षों तक की कालावधि में फैले इस आख्यान में पाठक की आवाजाही कभी वर्तमान से अतीत तो कभी अतीत से वर्तमान में लगी रहती है। ‘काल’ के साथ-साथ यह आवाजाही ‘दिक्’ की अनेकता में भी जारी रहती है। मुख्यतः दक्षिण अमेरिकी देश ‘सूरीनाम’ के कोनों-अंतरों की यात्रा कर रहे पाठक का हाथ थाम लेखिका बीच-बीच में उसे यूरोपीय देश ‘नीदरलैंड’ ले आती हैं और कभी दक्षिण एशियाई देश ‘भारत’ लिए चलती हैं। ‘दिक्’ और ‘काल’ की इस विविधता में वे पाठक को दर्शन कराती हैं- निरंतर जारी ‘देवासुर-संग्राम’ का। ‘काल’ कोई भी हो...अतीत हो या वर्तमान; और ‘दिक्’ (देश या स्थान) भी कोई भी क्यों न हो....सूरीनाम, नीदरलैंड या भारत; ‘अच्छाई’ के लिए जीने-मरने वाली दैवी शक्तियाँ और ‘बुराई’ के लिए क्रूर अट्टहास करने वाली आसुरी शक्

छिन्नमूल : सरनामी की शब्द-संपदा का गवाक्ष

प्रो. मेराज अहमद हिन्दी जीवित भाषा है। गति जीवन्तता का द्योतक होती है। भाषा का विस्तार उसकी गतिशीलता का ही परिणाम है। हिन्दी की विविध बोलियाँ उसके विस्तृत स्वरूप का ही परिचायक है। हिन्दी प्रदेश की सीमाओं के बाहर राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर भी इसका प्रसार इसके व्यापकत्त्व के कारण ही है। यह अपनी सीमा क्षेत्रा से इतर न केवल संप्रेषण का   माध्यम है, अपितु इसकी सहज विकासशील प्रवृत्त के कारण उसके स्थानीय रूप भी अस्तित्व में आये। भारत में दकनी और मुम्बईया हिन्दी के साथ दक्षिण भारतीयों की हिन्दी के रूप को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यद्यपि इसका प्रयोग विश्व के अधिकांश देशों में जहाँ भारतीय रोजी-रोटी के लिए प्रवासी के रूप में गये वहाँ उनके बीच होता ही है, उल्लेखनीय यह कि भारतवंशी बहुल देशों में प्रवासियों की हिन्दी भिन्न लगभग चार-पाँच पीढ़ियों के साथ की गयी यात्रा के दौरान हिन्दी भाषी प्रदेश की बोलियों और अहिन्दी भाषी क्षेत्रा में प्रयुक्त उसके स्वरूप के समानान्तर ही उनका निजी स्वरूप न केवल निर्मित हो रहा है अपितु फल-फूल भी रहा है। विशेष रूप से ब्रिटेन, मलेशिया, मॉरीशस, वर्मा,

प्रवासी भारतवंशी श्रमवीरों की व्यथाकथा का सांस्कृतिक आख्यान है-छिन्नमूल

  शम्भुनाथ तिवारी ‘‘विदेशों के राजदूतावासों में भारत से आया राष्ट्रीय ध्वज जिस तरह से डटा हुआ परिसर में खड़ा है, वैसे ही भारत से लाए गए मजदूरों के वंशज विदेश की धरती पर भारत की ध्वजा-पताका बनकर लहराते रहते हैं। वे फीजी, मॉरीशस, जमैका, क्यूबा, गयाना, दक्षिण अफ्रीका, ट्रिनीडाड, बरबेडस, कुरुसावा और सूरीनाम, युगांडा, केनियाकृकिसी भी देश के नागरिक बनकर जी रहे हों, पर पहले वे अपने को भारतीय और हिंदुस्तानी मानते हैं। ...सूरीनाम की धरती पर बसे भारतवंशियों के घर-द्वार और जीवन को देखा जाना पूर्वजों के धाम का आँखों से स्पर्श जैसा था। आँखें संघर्ष के इतिहास की स्मृति से गीली हो आईं थीं।... वियोग-संकल्प की यातना इतनी भीषण होती है कि नदी पार के गाँव का प्रवास अखरता है, फिर सात समुद्र पार चौदह हजार सात सौ किलोमीटर की दूरी का बसेरा सचमुच दूसरे जन्म के जीवन के बराबर होता है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म  की तरह इतनी दूरियों को बरदाश्त कर जिया जा सकता है। चार माह की जानलेवा समुद्री यात्रा के बाद जिस धरती पर पाँव रखे थे, वहाँ धरती नहीं सिर्फ जंगल था। जीवन नहीं सिर्फ जंगल था। उस जंगल को उजाड़कर पाँव रख