प्रो. नीरू
भारतवंशियों पर अपने शोध-बोध के लिए चर्चित विदुषी लेखिका पुष्पिता अवस्थी अपनी औपन्यासिक कृति ‘छिन्नमूल’1 के माध्यम से पाठक को एक यात्रा पर ले चलती हैं...एक ऐसी यात्रा जो दिक् और काल के दो परस्पर पूरक आयामों में विस्तार पाती है। 19वीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों से लेकर 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक 10-15 वर्षों तक की कालावधि में फैले इस आख्यान में पाठक की आवाजाही कभी वर्तमान से अतीत तो कभी अतीत से वर्तमान में लगी रहती है। ‘काल’ के साथ-साथ यह आवाजाही ‘दिक्’ की अनेकता में भी जारी रहती है। मुख्यतः दक्षिण अमेरिकी देश ‘सूरीनाम’ के कोनों-अंतरों की यात्रा कर रहे पाठक का हाथ थाम लेखिका बीच-बीच में उसे यूरोपीय देश ‘नीदरलैंड’ ले आती हैं और कभी दक्षिण एशियाई देश ‘भारत’ लिए चलती हैं। ‘दिक्’ और ‘काल’ की इस विविधता में वे पाठक को दर्शन कराती हैं- निरंतर जारी ‘देवासुर-संग्राम’ का। ‘काल’ कोई भी हो...अतीत हो या वर्तमान; और ‘दिक्’ (देश या स्थान) भी कोई भी क्यों न हो....सूरीनाम, नीदरलैंड या भारत; ‘अच्छाई’ के लिए जीने-मरने वाली दैवी शक्तियाँ और ‘बुराई’ के लिए क्रूर अट्टहास करने वाली आसुरी शक्तियाँ तो हर जगह, हर युग में विद्यमान हैं। लेखिका इन ‘आसुरी शक्तियों’ की धूर्तता का पर्दाफाश करती हुई इन्हें कटघरे में खड़ा करती हैं, इनकी लपलपाती लालसाओं तले सिसक रही ‘अच्छाई’ पर अपनी करुणा उँडेलती हैं और ‘दैवी शक्तियों’ की अदम्य जिजीविषा का अभिनंदन करती हैं।
उपन्यास का शीर्षक लेखिका की इसी अवधारणा को पुष्ट करता है। ‘छिन्नमूल’ अर्थात् जड़ से कटा। यह उपन्यास क्योंकि सूरीनाम में रह रहे भारतवंशियों की कथा कहता है अतः उनके संदर्भ में ‘छिन्नमूल’ का सामान्य अभिधात्मक अर्थ आसानी से समझा जा सकता है- भारत रूपी अपने ‘मूल’ (अर्थात् जड़) से काट कर दूर....बहुत दूर...सात समंदर पार फेंक दिए गए भारतीयों के वंशज। मगर क्या लेखिका को केवल यह अभिधात्मक अर्थ ही अभिप्रेत है? समूचे उपन्यास का पाठ स्पष्ट कर देता है कि ‘भारत’ से लेखिका का अभिप्राय केवल एक ‘भौगोलिक इकाई’ नहीं वरन् मानवता का अभिषेक करने वाली उस ‘भारतीय संस्कृति’ से है जो सदा ‘मानव-मूल्यों’ के पक्ष में खड़ी है। इसीलिए उपन्यास में कई स्थानों पर (छिन्नमूल, पृ. 212 एवं पृ. 239) लेखिका बड़ी ही स्पष्टता के साथ साग्रह अपने इस अभिप्राय को रेखांकित करती है कि ‘अच्छाई’ से, ‘भारतीय संस्कृति’ से, ‘मानवीय मूल्यों’ से कटा हर व्यक्ति वस्तुतः ‘छिन्नमूल’ ही है।
यह ‘छिन्नमूलता’ किसी के लिए विवशता हो सकती है और किसी के लिए स्वेच्छा से स्वीकृत! लेखिका ‘छिन्नमूलता’ के इन दोनों ही रंगों से पाठक का परिचय कराती हैं। वे पाठक को इतिहास के उस क्रूर-विकट समय में लिए चलती हैं जब वर्चस्व के शिखर पर बैठे कुछ राष्ट्रों की आपसी अभिसंधियों की निर्मम साज़िशों से अविकसित देशों के अनेकानेक ग़रीब-लाचार नागरिकों को अपने देश की माटी से दूर, बहुत दूर फेंक दिया गया था। साम्राज्य-विस्तार की आसुरी लालसा से नए-नए भूखंडों को अपना उपनिवेश बनाते अंग्रेज़, फ्रेंच और डच! मानव देहधारी अपने ही जैसे मनुष्यों को उनकी जन्मभूमि से दूर करके अपना गु़लाम बना उन्हें नारकीय यातनाएँ देते अंग्रेज़, फ्रेंच और डच! मानव-श्रमिकों का व्यवसाय करते! इन मानव-तस्करों की क्रूरता का वर्णन करते हुए लेखिका लिखती हैं- ‘‘अरकाठियों ने नौकरी और मज़दूरी के लोभ में उन्हें फँसाकर उन सबकी मातृभूमि और जीवन को छीन लिया। डाका डाला। जलदस्युओं की तरह समुद्र-तट, द्वीपों और देशों में जनशक्ति की छिनैती करते रहे। द्वीपों और महाद्वीपों के जंगल उजाड़ने के लिए, बस्ती बसाने के लिए उन्हें जहाँ-तहाँ धरती के कोने-अंतरे में फेंकते रहे। शरीर मात्रा से जीवित मज़दूरों के जीवन को उधियाते रहे और ख़ुद उस दरख़्त पर फलते-फूलते रहे।’’(वही, पृ. 10) इधर भारत में अंग्रेज़ों के कहर तले दीन-हीन भारतीय कुचले जा रहे थे और उधर हज़ारों मील दूर दक्षिण अमेरिका की प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न धरा को लूटने के लिए अंग्रेज़, फ्रेंच और डच वहाँ अपनी बस्तियाँ बसा रहे थे। दक्षिण अमेरिका के भाल पर बसा सुंदर-सा भूखंड है- सूरीनाम! 1651 में सबसे पहले अंग्रेज़ों ने यहाँ बस्ती बसाई और 1667 में यह भूखंड डच लोगों के अधिकार में चला गया। अफ्रीका से नीग्रो लोगों को गुलाम बना कर वे यहाँ लाए और उनसे घने जंगलों को साफ करवा उनमें गन्ने, कॉफी, कोको आदि की खेती करवा वे अपने भंडार भरने लगे। (वही, पृ. 21) मगर इस डच उपनिवेश में ‘गु़लामी प्रथा’ के बंद होने के बाद जब ये गुलाम उनके हाथ से निकल गए तो नए मज़दूरों को हासिल करने के लिए इन डचों ने ब्रिटेन के साथ एक संधि की जिसके तहत वे ‘ब्रिटिश भारत’ से भारतीयों को प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा (प्दकमदजनतमक स्ंइवनत) के अन्तर्गत सूरीनाम ले जाने लगे। ये मज़दूर ‘गिरमिटिया’ कहलाए। भोले-भाले ग़रीब भारतीयों को कभी सरकारी नौकरी दिलाने का झांसा देकर और कभी उन अनन्य रामभक्तों को श्रीराम-धाम ले चलने का लालच देकर (वही, पृ. 193) उन्हें ‘छिन्नमूल’ कर दिया गया। पहली बार 5 जून, 1873 ई. को लालारुख नामक जहाज़ से ये गिरमिटिया सूरीनाम की धरती पर उतरे और फिर यह क्रम 24 मई, 1916 तक लगातार जारी रहा। इन 43 वर्षों की अवधि में लगभग 34000 मज़दूर भारत की धरती से छिन्नमूल होकर सूरीनाम की धरती पर उतरे। अनुबंध की अवधि समाप्त हो जाने पर इनमें से 1/3 भारतीय स्वदेश लौट आए और शेष वहीं बस गए। सूरीनाम में भारतीय मूल के जो लोग हैं, वे इन्हीं भारतीयों के वंशज हैं। लेखिका ने भारत से सूरीनाम तक की इनकी दर्दनाक समुद्री यात्रा का मर्मांतक इतिहास पाठक के सामने खोल कर रख दिया है। कितनी अमानवीय स्थितियों के बीच यह यात्रा की गई, उसका खुलासा करती हुई लेखिका लिखती हैं- ‘‘साढ़े चार महीना पाल वाले जहाज़ लालारुख से यहाँ भारतीयों के आने का सिलसिला कलकत्ता से शुरू हुआ था....जहाँ बकरा (डच) लोग और भारतीय मज़दूरों के दलाल रोटी पर चीनी रखकर घूमते थे। जिनसे दूसरे एजेंट संपर्क कर इन्हें एक तरह से बेच देते थे। साढ़े चार माह पाल के जहाज़ में कितने बीमार हुए ...कितने मर गए...जो मर जाते थे उन्हें तुरंत समुद्र में फेंक दिया जाता था। सब डरे हुए मवेशियों की तरह जहाज़ के बाड़े में समय काट रहे थे।’’ (वही, पृ. 177) और सूरीनाम की धरती पर उतरकर उनके कष्ट समाप्त कहाँ हुए! वहाँ तो और भी भीषण हालात इनकी राह जोत रहे थे। ‘‘जंगली नदियों और जानवरों से भरे तपते हुए जंगल में जंगल उजाड़ने, अपने लिए घर, सत्ताधारियों के लिए खेत बनाने को (उन्हें) छोड़ दिया गया था। जंगल में छिपी मौन नदियाँ कब अपने में समेट लें...जंगली जानवर कब अपनी भूख का हिस्सा बनाकर पेट की थैली में समेट लें। चींटा, चींटी, जोंक, केकड़ा अलग से ख़ून पीने को तैयार थे। आत्मा आर्तनाद कर उठी होगी। ...हमारे पुरखों ने शुरू में रोटी की जगह ग़म खाया होगा। हथेली को ही अपना हसुआ और कटलीस माना होगा और अपने पाँवों को फावड़ा और कुदाल।’’ (वही, पृ. 250)
लेखिका स्पष्ट करती हैं कि हमारे ये पुरखे अपनी जन्मभूमि से, अपनी माटी से तो चाहे ‘छिन्नमूल’ हो गए थे मगर अपनी संस्कृति से, अपनी आस्थाओं से, अपनी भाषा से, अपने धर्म से, अपने रीति-रिवाज़ों से, अपने खान-पान, वेशभूषा से ‘छिन्नमूल’ कदापि नहीं हुए। अपनी बोली-बानी में बतियाना और जब भी अवसर मिले तब रामकथा बाँचना उन्होंने नहीं छोड़ा। श्रम, संवेदना, भक्ति, अन्याय का प्रतिरोध, पारिवारिकता आदि मूल्यों को वे गर्व के साथ पकड़े रहे इसीलिए ‘भारत’ से छिन्नमूल होकर भी वे ‘भारतीयता’ से छिन्नमूल नहीं हुए, ‘मानव-मूल्यों’ से छिन्नमूल नहीं हुए। इनकी यह ‘बद्धमूलता’ अभिनंदनीय है।
भारत से छिटक कर विलग हो गए प्रवासियों की यह पहली पीढ़ी अपनी भावी पीढ़ियों तक ‘बद्धमूलता’ की, ‘भारतीयता’ की, ‘मानव-मूल्यों की पक्षधरता’ की इस चेतना को पहुँचाने में सफल हो पाई क्या? उपन्यास इस प्रश्न का बड़ा निष्पक्ष उत्तर अपने अनेक पात्रों के विचारों और कार्यकलापों के माध्यम से देता है। उपन्यास का नायक रोहित संभवतः इन प्रवासियों की चौथी या पाँचवीं पीढ़ी का व्यक्ति है जिसका जन्म सूरीनाम में ही (उपन्यास में प्राप्त संकेतों की चीरफाड़ करें तो शायद 1947 ई. के आस-पास) हुआ है। उसकी माँ इस उपन्यास का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चरित्रा है। उपन्यास की नायिका है- रोहित की पत्नी ललिता; मगर ललिता का जन्म, पालन-पोषण सब भारत में ही हुआ है। वह भारतीय है, रोहित और उसके परिवार वालों की तरह भारतवंशी नहीं। काम के सिलसिले में उसे सूरीनाम जाने का अवसर मिलता है और वहाँ रोहित से प्रेम और फिर विवाह होने पर वह वहीं बस जाती है। मगर एक प्रकार से वह एक बाहरी व्यक्ति है, सूरीनामी हिंदुस्तानियों के वृत्त से बाहर का व्यक्ति। समूचे उपन्यास में उकेरा गया सूरीनामी समाज वस्तुतः उसी की दृष्टि से देखा गया है। एक प्रकार से वह लेखिका की भावना का, उसकी दृष्टि का प्रतीक है। सूरीनाम में अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों या उनके व्यवहारों पर ही नहीं, नदियों, जंगलों, खदानों, पेड़ों, पशु, पक्षियों, घरों आदि पर भी वह अपनी प्रतिक्रिया देती चलती है। यही प्रतिक्रियाएँ पाठक के सामने सूरीनामी हिंदुस्तानियों की वर्तमान पीढ़ियों की ‘बद्धमूलता बनाम छिन्नमूलता’ का सच खोल कर रख देती हैं।
क्या है यह सच? क्या अपनी ‘भारतीयता’ को, अपनी ‘मानवता’ को, ‘मानव-मूल्यों की पक्षधरता’ को वे बचा पाए? या फिर इससे ‘छिन्नमूल’ हो गए? उपन्यास का पाठ स्पष्ट कर देता है कि हर नई पीढ़ी के साथ यद्यपि यह ‘संस्कारधर्मिता’ क्षरित होती चली गई है तथापि यह सर्वथा लुप्त नहीं हो गई है। उपन्यास का नायक रोहित इस सच के सबसे बड़े प्रमाण के रूप में पाठक के सामने उपस्थित होता है। उसकी मूल्यपरायणता श्लाघनीय है। वस्तुतः लेखिका ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि मूल्यहीनता या मूल्यपरायणता का संबंध किसी एक पीढ़ी या देश या जाति या धर्म से नहीं होता। यह कहीं भी पाई जा सकती है। किसी भी पीढ़ी, देश, धर्म या जाति का व्यक्ति मूल्यपरायण भी हो सकता है और मूल्यहीन भी। बल्कि सच तो यह है कि एक ही व्यक्ति में कभी किन्हीं क्षणों में उदात्त मूल्य-चेतना संचरित हो जाती है तो कभी किन्हीं क्षणों में वही व्यक्ति मूल्यहीनता का व्यवहार करता दिख जाता है। ‘देवासुर संग्राम’ व्यक्ति के भीतर भी तो चलता रहता है। उपन्यास में भारतवंशियों की कई पीढ़ियों की कथा कही गई है। रोहित की माँ के नाना-नानी शायद भारतीयों की पहली पीढ़ी थी जो सूरीनाम पहुँची थी। रोहित की माँ तो भारतवंशियों की तीसरी पीढ़ी में पैदा हुई मगर उस जैसी मूल्यपरायणता तो उपन्यास के किसी भी पात्रा में नहीं। उसकी श्रमनिष्ठा, उसकी कर्तव्यपरायणता, उसका समर्पण-भाव, उसका वात्सल्य, उसका मातृभूमि-प्रेम....सब कुछ अप्रतिम है। जीवन भर नियति उसके विरोध में ही खड़ी रही मगर फिर भी उसकी मूल्यनिष्ठा अडिग ही बनी रही। कैसा भाग्य लिखा कर लाई थी वह कि 16 दिन की दुधमुँही बच्ची ही थी कि माँ ने किसी और को सौंप दिया। छः वर्ष की आयु में विवाह और बारह बरस में गौना! सास सौतेली! ससुर ने बहू के आते ही नए खेत खरीद लिए क्योंकि बहू के रूप में एक युवा मज़दूर जो मिल गया था। सारा दिन खेतों में बीतता। सिर्फ नहाने-पकाने के लिए ही घर जाना होता। दस बच्चे पैदा किए। गायों, मुर्गियों आदि को पाला-पोसा। मगर ऐसी श्रमशीला माँ के बच्चे (रोहित को छोड़कर) कितने संस्कारहीन सिद्ध हुए! ज़मीन, जायदाद और पैसों के लिए कैसे-कैसे फरेब किए उन्होंने! छल-कपट से पुरखों की ज़मीन को बेच देना या झूठ बोलकर भाई-भाभी से पैसे ठग लेना या रोहित द्वारा बप्पा के बनवाए स्कूल-मंदिर के पुनरुद्धार के लिए लगाई जा रही पूँजी में हेर-फेर करना! इस सूची का कोई अंत नहीं। गंगा हो, रानी हो या प्राण.... माँ के सब बच्चे एक जैसे निकले, भ्रष्ट आचरण वाले! माँ की सेवा करना तो दूर, माँ की ममता को तार-तार कर देने वाले। ‘मर जाती तो अच्छा रहता। इस बुढ़िया से हम तंग आ गए हैं’ कह कर (वही, पृ. 156) उसे जीते जी मार डालने वाले। नीदरलैंड के वृद्धाश्रम में रहने वाली यह 85 वर्षीया माँ (वही, पृ. 203) दिन-रात बच्चों की बाट जोहती रहती है मगर रोहित-ललिता के सिवा वहाँ कोई नहीं आता। यही नहीं, अपनी चरित्राहीनता से प्राण अपनी माँ का सिर लज्जा से झुका देता है। अपनी पहली विवाहिता पत्नी और अपने बच्चों को छोड़ किसी दूसरी स्त्रा से विवाह कर लेता है जो पहले से ही किसी और व्यक्ति के बच्चों की माँ है। फिर उसे भी छोड़ 58 बरस की अधेड़ उम्र में 34 साल की एक युवती के साथ रहना शुरू कर देता है। यह युवती भी पहले से ही तीन बच्चों की माँ है। प्रेम के नाम पर वह सेक्स का खेल रचता रहता है। बड़ी निर्लज्जता के साथ वह अपनी और अपनी तीसरी स्त्रा की तुलना शिव-पार्वती के साथ करता है। (वही, पृ. 162) ऐसी संतान को पाकर माँ जीते जी मर न जाए तो और क्या करे! माँ की बेटी गंगा हो या गंगा की बेटी सीता या सीता की बेटी तृप्ति.....सब भोग में आकंठ लिप्त रहना चाहती हैं और अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए अच्छा-बुरा कुछ भी करने के लिए तैयार रहती हैं। सीता अस्पताल में कैंसर से जूझ रही है और उसकी बेटियाँ ‘फगवा’ के लिए डांस-प्रैक्टिस में व्यस्त हैं। (वही, पृ. 219) इन सबकी यह ‘छिन्नमूलता’ पाठक के मन में आक्रोश पैदा करती है और वह सोचने लगता है कि क्या इसीलिए इनके पुरखे अपनी मातृभूमि से ‘छिन्नमूल’ हुए थे?
इस ‘छिन्नमूलता’ की काली छाया पूरे उपन्यास में फैली है। भोगवादी दृष्टि का प्रसार, रातों-रात अमीर बनने का स्वप्न, मेहनत से जी चुराना, ग़रीबी, महँगाई....न जाने कितने कारण हैं जो व्यक्ति की ‘मानवता’ को छीन लेते हैं। यह ‘छिन्नमूलता’ हर देशकाल का सत्य सिद्ध होती है। दो-तीन शताब्दियों पूर्व भारतवंशियों के पुरखों को या चीन, इंडोनेशिया, अफ्रीका आदि अनेक देशों के दीन-हीन बाशिंदों को उनके धरा-धाम से दूर किसलिए कर दिया गया था? कुछ जातियों के अनेक लोगों की अपने खज़ाने भरने की लिप्सा या वर्चस्व के सिंहासन पर बैठने की अदम्य लालसा ने ही तो! क्या ये लोग ‘मानवता’ से छिन्नमूल नहीं थे? और इनकी शातिर चालों में इनका साथ देने वाले वे भारतीय एजेंट! भोले-भाले रामभक्त भारतीयों को श्रीराम धाम के दर्शन करवाने का झूठा वादा कर (वही, पृ. 193) उन्हें गोरों को सौंपने वाले! क्या वे एजेंट इन गोरों से कम अमानवीय थे? उनकी ‘छिन्नमूलता’ भी उतनी ही निंदनीय है जितनी इन गोरों की। सीधे-सादे मनुष्यों के ‘मानवाधिकारों’ का हनन करने वाले ये दरिंदे! सूरीनाम पहुँचे भारतीयों के श्रम करने के सामर्थ्य का पता लगाने के लिए उन्हें नग्न कर उनके गुप्तांग जाँचते! (वही, पृ. 135) स्त्रियों के साथ बलात्कार करते! (वही, पृ. 44) तो यह ‘छिन्नमूलता’ तब भी थी।...और अब भी है। सूरीनाम हो या नीदरलैंड या भारत, सब जगह है। ललिता रोहित को उसके पुरखों की धरती के दर्शन कराने के लिए अपने साथ लेकर भारत आती है मगर यहाँ आकर शर्मसार ही होती है। जगन्नाथपुरी का मंदिर हो या कलकत्ता का काली माता मंदिर, इन मंदिरों के पंडों-पुजारियों द्वारा (वही, पृ. 191-192) आस्था के नाम पर उन दोनों को पूरी बेशर्मी से लूटा जाता है। होटल वाले, टैक्सी वाले, ट्रेन के अटैंडेंट, ड्राइवर...सब लूट-खसोट और चोरी द्वारा उन्हें आहत करते हैं। एयरपोर्ट पर भी चैकिंग के नाम पर उन्हें परेशान किया जाता है। ‘अतिथि देवो भव’ के संकल्प वाले भारत देश का यह कटु यथार्थ कितना अमानवीय है! भारत में रहते हुए भी ‘भारतीयता’ के आदर्श रूप से यह छिन्नमूलता क्या भारतीयों को ज़रा भी शर्मसार नहीं करती! भारतीयता का सही अर्थ आखिर है क्या? ‘मानवता’ ही तो सच्ची भारतीयता है। सत्यं वद, धर्मं चर, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, त्यक्तेन भुंजीथाः - यही है न भारतीयता का सार-तत्त्व। और यही तो सच्ची मानवता है। इसी मानवता से छिन्नमूल होने की व्यथा-कथा है- ‘छिन्नमूल’। भारत ही नहीं, सूरीनाम और नीदरलैंड की धरती पर पसरी छिन्नमूलता पर भी अपना पूरा आक्रोश व्यक्त करती हैं लेखिका। ललिता के रूप में मानो वे स्वयं उपस्थित हैं। ड्रग्स माफियाओं, धर्म के ठेकेदारों, राजनीति के सौदागरों, भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारियों ....किसी की भी छिन्नमूलता को नहीं बख्शतीं वे। ये ड्रग्स माफिया ही तो हैं जिन्होंने एक ओर तो ‘इज़ी मनी’ का सपना दिखाकर न जाने कितने व्यक्तियों को ड्रग्स की तस्करी के धंधे में धकेल दिया और दूसरी ओर ड्रग्स का शिकार बना कितनी ज़िंदगियों को असमय मौत के घाट उतार दिया। सूरीनाम तो जैसे इस ड्रग-तस्करी का अड्डा ही बन गया है। ब्राज़ील से पूरे विश्व में ड्रग्स-सप्लाई के लिए सूरीनाम का इस्तेमाल किया जाता है। (वही, पृ. 13) किशोरियाँ और युवतियाँ अपनी योनि में ड्रग्स की पुड़िया छिपाकर (वही, पृ. 11) उसकी तस्करी करती हैं तो किसान अपने खेतों में पत्तागोभी के अर्धविकसित फूलों में ड्रग्स की पुड़िया रख देते हैं और उनके पूर्ण विकसित होने पर उनमें छिपी ड्रग्स की तस्करी करने की तिकड़म भिड़ाते हैं। भोगवादी जीवन-दृष्टि ने सबकी इंसानियत की हत्या कर दी है। चमचमाती कारें, महँगे-महँगे वस्त्रा, पंचसितारा होटल....यही इनके जीवन का अभीष्ट बन चुके हैं। क्या नीग्रो, क्या जावानीज़, क्या डच और क्या हिंदुस्तानी- सब इस कुचक्र में फँस चुके हैं। उपभोग की इन चीज़ों को हासिल करने के लिए वे लूट-खसोट करने से भी नहीं झिझकते। ललिता हैरानी से देखती है होटल में आए उस युवा जोड़े को जो खाने-पीने के बाद वॉशरूम में जाकर अपना हुलिया बदलकर (वही, पृ. 173) होटल से भागने की कोशिश करता है ताकि बिल न देना पड़े। उसे वह हिंदुस्तानी युवक भी नहीं भूलता जिसके मोटरसाइकिल के साथ रोहित-ललिता की कार के ज़रा-सा टकराने के बाद वह बड़ी तेज़ी से अपनी मोटरसाइकिल में आग लगाने की कोशिश करता है ताकि रोहित-ललिता से बड़ी-सी रकम वसूल सके। (वही, पृ. 133) ओह! ठगी के कैसे-कैसे तरीके ईजाद कर रहे हैं ये युवा!! और युवा ही क्यों? ललिता अपने आस-पास नज़र दौड़ाती है तो उसे हर पीढ़ी में ठगों की भीड़ हुड़दंग मचाती दिख जाती है। सूरीनाम के मंदिरों या आर्यसमाजों में ‘फोरसीटर’ (अध्यक्ष) बने व्यक्ति क्या कम ठगी कर रहे हैं? भारत से थोक में धूप-अगरबत्ती और पूजा का अन्य सामान मँगवा उसे सूरीनाम छाप वाले छोटे पैकेटों में भर कर बेचते हैं और अपनी जेबें भरते हैं। अनेक स्कूलों को अपनी संस्था द्वारा संचालित दिखाकर सरकार से और अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं से अनुदान राशि प्राप्त करते हैं मगर उस राशि से अपना घर और अपना व्यवसाय चमकाते रहते हैं। स्कूल की दशा दिन-प्रतिदिन और भी जर्जर होती चली जाती है। कोई वृद्धाश्रम खोलने के नाम पर किसी की भावनाओं से खेलता है और उससे धन ऐंठ लेता है (वही, पृ. 187) तो कोई प्रेम का जाल रचकर किसी की सम्पत्ति लूट लेता है। चारों ओर छिन्नमूलता ही छिन्नमूलता! और वह भी स्वेच्छा से वरण की गई !!
तो क्या यह उपन्यास इस ‘छिन्नमूलता’ की, ‘मानवता के क्षरण’ की शोकांतिका मात्रा है? क्या इसका मूल स्वर नकारात्मकता से भरा है? नहीं। कदापि नहीं। सांस्कृतिक दृष्टि-संपन्न इसकी लेखिका भला ‘देवासुर संग्राम’ में आसुरी शक्तियों की क्रूरता का बखान भर करके कैसे रुक सकती हैं। दैवी शक्तियों की विजय पर लेखिका को पूरा भरोसा है। आख़िर वे भारतीय संस्कृति में रची-बसी रचनाकार हैं। इसीलिए उनका यह उपन्यास भी अंततः ‘मानवता की विजय’ का आख्यान ही सिद्ध होता है। रोहित और ललिता इस विजय अभियान के पुरोधा बनकर पाठक के सामने उपस्थित होते हैं और ‘मानवता’ में पाठक की आस्था को पुनर्नवा कर जाते हैं। 18 वर्ष की नाजु़क उम्र में शिक्षा पाने और भविष्य बनाने के लिए रोहित नीदरलैंड चला जाता है और फिर वहीं का निवासी बन जाता है। बहुत बड़ा व्यवसाय है उसका वहाँ। बेहद व्यस्त है वह मगर अपनी मातृभूमि के प्रेम में बँधा वह बार-बार सूरीनाम लौटता है। अपने बप्पा की सम्पत्ति में से रोहित को कुछ नहीं मिला फिर भी वह सूरीनाम में उनके द्वारा बनवाए गए स्कूल और मंदिर का जीर्णोद्धार करने का बीड़ा उठाता है। अपनी सम्पत्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह इसमें खर्च करता है। केवल पिता के सपने को साकार करने के लिए ही नहीं, वरन् इसलिए भी कि उसके सूरीनाम देश की नई पीढ़ी को अच्छी शिक्षा मिल सके, अच्छे संस्कार मिल सकें। स्कूल के फुटबॉल मैदान को भी वह प्रोफैशनल ग्राउंड के रूप में विकसित करना चाहता है ताकि सूरीनाम से फुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी उभर सकें और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने देश का नाम रोशन कर सकें। सूरीनाम रोहित की मातृभूमि है। अपनी माँ की तरह वह अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम से लबालब भरा है। ऐसा ठाठें मार रहा है यह प्रेम कि उसकी पत्नी ललिता भी आकंठ समा जाती है इस प्रेम-सागर में। रोहित का स्वप्न उसका स्वप्न बन जाता है। सूरीनाम उसके लिए पराया नहीं रहता। वह दिन-रात उसके बारे में सोचती रहती है। सूरीनाम की ग़रीबी उसे करुणार्द्र कर जाती है। इतनी ग़रीबी कि घर की औरतों को रात के अंधेरे में डाम (सड़क) पर खड़ा होना पड़ता है, देह बेचने के लिए (वही, पृ. 16)। इतनी महँगाई कि विधिवत् खाना ही नहीं बन पाता घरों में। (वही, पृ. 105) मन ही मन बिसूरती है वह...अथाह प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न धरा और फिर भी ग़रीबी! कहाँ कमी रह गई? क्या इस देश के नेताओं के पास कोई दृष्टि, कोई योजना नहीं है इस धरा के लिए। इसी धरती पर किए गए श्रम से बनी चीनी से यदि अतीत में डच अपने भंडार भर सकते थे तो अब यह धरती बंजर तो नहीं हो गई! फिर क्यों ऐसी कोई योजना नहीं बनाई जाती कि राष्ट्र भी आर्थिक उन्नति करे और लोगों की ग़रीबी भी मिट जाए। (वही, पृ. 78-79) वह इस देश के लोगों को भी उनकी अकर्मण्यता और भोगवादी जीवन शैली के लिए कोसती है। श्रम से परे क्यों भागते हैं ये? चाहे नीग्रो हों या जावानीज़ या हिंदुस्तानी- अपने पुरखों की श्रमनिष्ठा से कोई सबक क्यों नहीं लेते ये? कैसा खोखला जीवन जी रहे हैं ये! संबंधों में भी कितना खोखलापन है! कितनी अस्थिरता!! कपड़ों की तरह ये रिश्तों को पहनते और उतारते हैं। एक पुरुष के कितनी स्त्रियों से संबंध बनते हैं और उन संबंधों से जन्मे बच्चों का क्या होता है, उसे खु़द नहीं पता रहता। पता करना वह ज़रूरी भी नहीं समझता। इसी तरह इस देश की एक स्त्रा कितने पुरुषों से संबंध बनाती है और उन संबंधों से कितने बच्चे जनती है, इस बात की चिंता वह नहीं करती। नहीं पाल सकती बच्चों को तो अनाथालय हैं न! (वही, पृ. 137) वह अपनी देह की ज़रूरतों की बलि क्यों चढ़ाए? उफ!! कैसी मानसिकता है! इस ‘वर्जिन लैण्ड’ में ‘वर्जिन’ स्त्रा-पुरुष नहीं मिलते! (वही, पृ. 23) लड़कियाँ रजस्वला होने से पहले ही सेक्स का स्वाद चख चुकी होती हैं। बिना किसी अपराध-बोध के वे गर्भवती भी हो जाती हैं और गर्भपात भी करा लेती हैं। स्त्रा हो या पुरुष- यहाँ के लोगों को यौन-सुख पाने के लिए बस एक ‘देह’ चाहिए। वह देह किस जाति, धर्म या देश के व्यक्ति की है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं।(वही, पृ. 24) ऐसी उन्मुक्त और अमर्यादित जीवन-शैली! ललिता हैरान है! हैरान है मगर हार नहीं मानती ललिता। अपने गहन प्रेम के द्वारा वह अपने पति रोहित के मन में ‘प्रेम और विवाह’ दोनों के प्रति एक बार फिर से विश्वास जगाने में सफल होती है। एक बार तलाक के दर्दनाक आघात को सह चुका रोहित दुबारा विवाह के रिश्ते में बिलकुल नहीं बँधना चाहता था। उसका बड़ा स्पष्ट कथन था- प् कवदश्ज सपाम ंसस जीमेम दवदेमदेमण् छवू प् इमसपमअम वदसल पद तमसंजपवदेपचण् मगर वही रोहित ललिता से मिलने के बाद उसके समर्पित प्रेम से आनंद की उस भावदशा तक पहुँच जाता है जहाँ वह स्वयं जीवनसाथी के रूप में ललिता को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठता है। अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार द्वारा ललिता सचमुच उसे जीवनसाथी का सच्चा अर्थ समझाती है। रोहित की माँ के साथ उसका व्यवहार बेटियों सरीखा है। वह बड़े मन से उनकी सेवा करती है। माँ भी ‘सुन न बच्ची!’ कह-कहकर उस पर लाड़ लड़ाती रहती हैं। बप्पा के बनवाए मंदिर और स्कूल के जीर्णोद्धार का रोहित का स्वप्न उसका भी स्वप्न बन जाता है। हॉलैंड के अपने सुविधापूर्ण जीवन से विराम ले लेकर वह सूरीनाम की तीखी धूप और घनघोर वर्षा में हर क़दम पर रोहित के साथ खड़ी होती है। बप्पा के लिखे दोहों को वह बड़े श्रम से एकत्रा करती है और उन्हें पुस्तक रूप में छपवाती है। वस्तुतः उसके रूप में लेखिका ने एक ऐसे स्त्रा चरित्रा को गढ़ा है जो ‘मानवता’ में पाठकों की आस्था को जिलाए रखता है।
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