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Showing posts from June, 2008

मैत्रेयी पुष्पा से उजैर खाँ की अंतरंग बातचीत

यद्यपि मेरा प्रश्न परम्परागत ही है फिर भी! आप अपने आरम्भिक जीवन के उन संदर्भों या घटना विशेष पर प्रकाश डाले, जिसने आगे चलकर आप को लेखन के लिए प्रेरित किया? देखिए, अधिकांश लोग लेखक से यही पूछता है कि आपकी प्रेरणा क्या है? पहले के जो लेखक और कवि थे, वे प्रेरणा झट से बता देते थे, लेकिन मैं आज तक प्ररेणा को खोज नहीं पाई कि कहाँ हैं! कई चीजें हैं मेरी जिन्दगी में, जैसे कि बचपन में कविताएँ मुझे अच्छी लगती थीं पढ़ने में, जब मेरे साथ के बच्चे समझते भी नहीं थे, हम दूसरी या तीसरी क्लास में थे तब जब बच्चे सोचते भी नहीं थे कि हम क्या पढ़ रहे हैं, लेकिन अब जब मुझसे प्रश्न होता है तब मेरे दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि मुझे कविता क्यूँ अच्छी लगती थी? बार-बार जिसे साहित्य कहते हैं मेरे बचपन में उसके जो बीज हैं या जो कुछ भी है, मैंने कई जगह लिखा है। आओ हम सब झुला झुले, पेंग बढ़ा कर नभ को छुले। यह कविता मुझको बहुत अच्छी लगती थी। मैं जब तीसरी क्लास में थी तभी से। आज जब मैं उसके अर्थ खोजती हूँ तो मुझे उसका बहुत बड़ा अर्थ मिलता है। आपने लेखन अपेक्षाकृत देर से आरम्भ किया, क्यों? ऐसी स्थितियाँ नहीं हु

नारी शोषण की अनंत कथा

- डॉ. सुनीता गोपालकृष्णन ‘अनादि अनंत' उपन्यास का कलेवर छोटा है लेकिन इसमें एक भारतीय नारी के उत्पीड़ित से उत्पीड़क बनने की लंबी कथा कही गई है। ‘कालचक्र' और ‘ज्वार' के बाद मधु भादुड़ी का यह तीसरा उपन्यास है। मूल समस्या स्त्री की है जो उपन्यास में शुरू से अंत तक बनी हुई है। नारी-लेखन मुख्यतः नारी समस्या पर ही तो केन्द्रित है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा शादी का रहा है जो प्रायः नारी जीवन की दुर्दशा का मेरुदण्ड बनता है। क्योंकि अक्सर शादी का अर्थ होता है ‘एक दासी लाकर घर में बिठाना और उस पर मनमानी हुकूमत करना। कमली के माध्यम से मधु भादुड़ी जिस स्त्री-दुख को अनावृत्त करती है वह नारी-विमर्श का बिल्कुल ही नया संदर्भ है। एक ओर नारी का वह पतिव्रता और आदर्श रूप सामने आता है जो शोषण की चक्की में पिसती और घुटती है। तो दूसरी ओर वही शिक्षा के बल पर और युग के बदलाव के अनुरूप प्रबल और सशक्त रूप धारण करती है। स्त्री-उत्थान की बात जब भी उठाई जाती है तब पुरुष वर्ग पर लांछन लगाई जाती है। लेकिन इस उपन्यास में युग-युग से प्रताड़ित नारी ही नारी व्यक्तित्व का बदला ले रही है। अतः नारी के संदर्भ

मध्यकालीन हिन्दी भक्तिकाव्य और नारी-विमर्श के आयाम

- प्रो. रमेश शर्मा नारी-विमर्श वर्तमान साहित्य-चिन्तन का एक सुचिन्तित आयाम है। नारी-विमर्श और दलित-विमर्श हिन्दी साहित्य के मनीषियों के लिए आज उसी प्रकार लुभावने फैशन बन गए हैं, जिस तरह कभी मार्क्सवाद को हिन्दी मनीषियों ने अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए अपनी विशेष पहचान के रूप में एक साहित्यिक फैशन बनाकर अपनाया था। विमर्शन को कभी काल की सीमाओं में बाँधकर नहीं देखा जा सकता। इसे किसी सिद्धान्त विशेष के रूप में भी सीमित नहीं किया जा सकता। यह तो जीवन-संदर्भित चिन्तन का एक सतत्‌ प्रवाह होता है जो विभिन्न माध्यमों से विभिन्न रूपों में प्रकाशित होता है। जीवन के अनुभूतिगत प्रकाश का प्रकाशन ही विमर्शन है। साहित्य भी जीवन के अनुभूतिपरक प्रकाशन का एक माध्यम है। साहित्य की अबाध धारा जीवन के विविध आयामों को निरन्तर विमर्शन की ओर ले जाती है। नारी-विमर्श भी मानव के जीवन-संदर्भित विमर्श का एक आयाम है जिसके सम्यक्‌ स्वरूप तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम मानव-जीवन से उस प्रस्थान बिन्दु तक न जायें जहाँ मानव एक संस्कारित जीवन की ओर उन्मुख हुआ है। मानव का सामाजिक स्वरूप और तज्जन्य सामाजिक व्यवस्था

दादूदयाल : एक परिचय

शगुफ्ता नियाज़ 4 दादू पंथी का स्वरूप दादू के देहान्त के उपरान्त पंथ में काफी परिवर्तन हो गया था। उनके जीवनकाल में पंथ के अनुयायी अपने आपको किसी जाति, वर्ग, सम्प्रदाय या मत में नहीं मानते थे। सभी के साथ समानता का व्यवहार होता था समाज की भलाई करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। इनकी मृत्यु के बाद इनके अनुयायियों में आपसी वैमनस्य बढ़ गया, उनकी मनोवृत्ति कल्याणकारी न होकर व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित हो गयी थी। पंथ में धीरे-धीरे उदर-पोषण एवं इन्द्रिय दर्पण की समस्याएँ खड़ी हो गयी४९ और कई उपसम्प्रदाय बन गये। हिन्दी विश्वकोश में दादू पंथी को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है५० - १. विरक्त, २. नागा तथा ३. विस्तरधारी विरक्त जो विषय रागशून्य होकर परमार्थ साधन में समय बिताते हैं, वे लोग विरक्त कहलाते हैं। इन लोगों के शरीर पर केवल एक वस्त्र और हाथ में कमंडलु रहता है। उनके सिर पर कोई आवरण नहीं रहता। नागा ये लोग अस्त्रधारी होते हैं, रूपये पैसे मिल जाने पर युद्ध करने को भी तैयार हो जाते हैं। ये सब युद्धकार्य में बड़े दक्ष होते हैं। बहुत से राजा नागा सेना अपने यहाँ रखते हैं। विस्तरधारी

दादूदयाल : एक परिचय

शगुफ्ता नियाज़ 3 दादूदयाल सम्प्रदाय एवं पंथी का स्वरूप प्रत्येक महापुरुष या सन्त महात्मा को यह अभिलाशा रहती है कि वे अपने सिद्धान्तों एवं आदर्शों और अपने उद्देश्यों एवं सन्देशों से ज्यादा से ज्यादा जनकल्याण हो तथा अपने जीवन में उनको ग्रहण करके और अच्छे समाज की स्थापना करे। प्रत्येक महापुरुष एवं सन्तों के विचारों में विश्व कल्याण की भावना रहती है। सन्तों का लक्ष्य चरित्र निर्माण द्वारा समाज का उन्नयन ही रहा है। जिससे एक आदर्श और नैतिकता युक्त समाज बने। समाज में प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य दूसरों की भलाई, त्याग, बलिदान, ईमानदारी, निष्काम प्रेम तथा अच्छे चरित्र का निर्माण हो सके। दादू का लक्ष्य भी जनता के चरित्र का उन्नयन ही रहा है। उनकी यह इच्छा नहीं रही कि वह पंथ या सम्प्रदाय की स्थापना करे, पर शिष्यों एवं अनुयायियों की इच्छा ने उन्हें विवश कर दिया। इनके अनुयायियों ने पंथ स्थापना के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं दी परन्तु जब दादू देश भ्रमण करके वापिस साँभर में रहने लगे थे उसके बाद में ही पंथ के सम्बन्ध में कार्य आरम्भ किया था एवं नियमपूर्वक अपने अनुयायियों की बैठकें कराने लगे।४२

दादूदयाल : एक परिचय

शगुफ्ता नियाज़ 2 माता-पिता दादू के माता-पिता कौन थे, इस सन्दर्भ में विद्वानों में अनेक मत हैं किवदन्तियों के अनुसार दादू कबीर की भांति ही किसी कुंवारी ब्राह्मणी की अवैध सन्तान थे। विधवा ब्राह्मणी के परित्यक्त पुत्र के रूप में दादू को जिस तिरस्कार का सामना करना पड़ा होगा, उसकी कल्पना हम आज के सामाजिक सन्दर्भों में भी कर सकते हैं। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में दादू जैसी सन्तान को समाज किस रूप में ग्रहण करता होगा इससे हम सभी परिचित हैं। अतः यह मानने में हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि दादू की जन्म की स्थितियों (माता-पिता) ने दादू को जिस समाज से जोड़ा उसने उनकी काव्य चेतना को एक ऐसी काव्य परम्परा से जोड़ा जो आध्यात्मिक चेतना को लोक चेतना से जोड़कर चल रही थी। इस काव्य चेतना ने दादू के काव्य की रूपक चेतना के निर्माण में एक सार्थक योगदान किया होगा। गुरू एवं शिक्षा-दीक्षा अन्य अधिकांश सन्त कवियों की भांति ही दादू की शिक्षा भी व्यवस्थित रूप से किसी संस्था में नहीं हुई थी। अक्षर ज्ञान के आधार पर प्राप्त शिक्षा से दादू भी वंचित ही रहे थे। श्रुत परम्परा से इन्होंने अवष्य ज्ञान प

दादूदयाल : एक परिचय

शगुफ्ता नियाज़ मध्यकालीन भारतीय इतिहास (१५वीं शती से लेकर १७ वीं शती तक) सन्तों की वाणी में सिमट आया है। भारत का मध्यकाल सम्राटों एवं सामन्तों का युग था। उस समय में सर्वाधिक विशमता अधर्म थी तथा उसी समय भारत की संवेदनशील लोक चेतना में से उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक करूणा और मानवता के अनेक स्रोत फूट उठे जिन्हें हम सन्त कहते हैं।१ मययुगीन सन्त काव्य परम्परा में निश्चित रूप से दादू एक गौरवमयी विभूति है। दादू का काव्यत्व लोकमानस में अब तक जीवित रहा है और आगे भी रहेगा। उनके काव्य का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी भारतीय जनता के लिए अमृत वाणी के रूप में विद्यमान है। दादू की रचना का मूल पाठ भले ही विकृत हो गया हो परन्तु उन्होंने जो साहित्य सर्जन किया था वह आज भी लोक मानस में जीवित है।२ कवि युग द्रष्टा होता है। उसी कवि की रचनाएं सफल कही जाती है जो तत्कालीन दशा का ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक होती है। कवि की मानसिकता के निर्धारण में आस-पास के वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आस-पास का वातावरण कवि के मस्तिष्क को आधार प्रदान करता है। जो काव्य का माध्यम बनता है। यद्यपि संतों की सा

पद्मभूषण सम्मान के सुपात्र चीनी विद्वान जी जियानलिन

वीरेन्द्र जैन ६ जून २००८ जब अमृतसर में खालिस्तानी आन्दोलन का समर्थन करने वाले लोग भाजपा अकालीदल सरकार की षह पर सिमरन जीत सिंह मान के नेतृत्व में अमृतसर मन्दिर में अलग खालिस्तान की वकालत कर रहे थे और जब ताकतवर गुर्जरों के लाठीधारी समूह राजस्थान में कई जगह रेल की पटरियों पर धरना दते हुये अपने को कमजोर वर्ग में सम्मिलित करने की मांग पर रेल यातायात रोक कर बैठे हुये थे तब भारत के विदेशमंत्री चीन के फौजी अस्पताल में एक ९७ वर्षीय चीनी विद्वान को भारत के प्रथम चार सम्मानों में से एक पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित कर रहे थे। सम्मानित होने वाले व्यक्ति का नाम जी जियानलिन है और जो सारी दुनिया के लोगों के विचारों को अनुवाद के द्वारा बांटने का यथार्थवादी तरीका अपनाये जाने के पक्षधर हैं। हमारे प्राचीन ग्रन्थ ऋगवेद में जो कहा गया है- आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विष्वतः(अच्छे विचार सारी दुनिया से आने दीजिये) वह अनुवाद के द्वारा ही संभव है। भारत के गणतंत्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली चुनिंदा हस्तियों को भारत के राष्ट्रपति की ओर सम्मानों की घोषणा की जाती है। सन २००८ की २६ जनवरी को भारत

राजनैतिक बनाम सामाजिक लोकतंत्र

रामशिव मूर्ति यादव भारत का समाज लम्बे अरसे से अन्यायी रहा है। इसका अन्यायी चरित्र दो तरह के प्रशासनों से तैयार हुआ है- प्रथमतः, राजनैतिक प्रशासन और द्वितीयतः, सामाजिक प्रशासन। राजनैतिक प्रशासन का सम्बन्ध जहाँ वाह्य से है, वहीं सामाजिक प्रशासन का सम्बन्ध आन्तरिक से है। अर्थात प्रथम जहाँ शरीर को प्रभावित करता है वहीं दूसरा मन या आत्मा को। प्रथम जहाँ संविधान, कानून, दण्ड, कारागार के माध्यम से भयभीत करके नियंत्रण रखता है, वहीं दूसरा मन या आत्मा पर जन्म से ही धर्म, ई , नैतिकता, स्वर्ग-नरक इत्यादि सामाजिक संस्कारों और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से नियंत्रण रखता है। प्रथम जहाँ पुलिस, सेना, नौकरशाही का इस्तेमाल करता है, वहीं दूसरा पंडा-पुरोहित, पुजारी, साधु, शंकराचार्य के माध्यम से शासन करता है। यद्यपि दोनों ही तरह के प्रशासनों ने पूरे समाज को अपने अनुरूप जकड़ रखा है परन्तु सामाजिक प्रशासन, राजनैतिक प्रशासन की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी है क्योंकि यह लम्बे समय से चली आ रही तमाम परम्पराओं, रीति-रिवाजों और संस्कारों के माध्यम से समाज को शासित करता है, जिससे इसका प्रभाव भी लम्बी अवधि तक चलता है। सा