- ललित शुक्ल
नासिरा शर्मा ने स्त्री-विमर्श पर अपने किरदारों के माध्यम से समय-समय पर काफ़ी कुछ कहा है। वैसे हिन्दी कथा साहित्य में, पत्र-पत्रिकाओं में काफ़ी कहा-सुनी होती रहती है। इस प्रकार की प्रस्तुतियों से यह पता नहीं चलता है कि जिस नारी की चर्चा हो रही है वह कौन है? उसकी शिक्षा का स्तर क्या है? समाज में वह नगण्य है या उसकी कोई इज्जत है। वह अशिक्षित है या क ख अथवा अलिफ बे से परिचित है। बस नारी-नारी की रट लगाकर विमर्श का ताना-बाना तैयार हो जाता है और लेखक को नारीवादी होने की सौगात मिल जाती है और तो और कतिपय कलमों की साहित्यिक दुकानदारी नारी-विमर्श के ही बल पर चल रही है। उनके लिए यह घाटे का सौदा नहीं है।
इस महादेश में स्त्री या नारी मात्र कह देने से बात स्पष्ट नहीं होती है। वस्तुतः इसमें कई पर्तें हैं। विमर्श के पहले इस बात का खुलासा होना चाहिए कि किस नारी पर बात हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम उजाले में और उजाला फेंक रहे हैं। उन अंधी गलियों की ओर किसी क़लम या विचार का ध्यान नहीं जा रहा है जो सदियों से गाढ़ी कालिमा से ओत-प्रोत हैं। वहाँ तरक्की की किरणें नहीं पहुँच पातीं। लेखक यदि जहालत और पिछड़ेपन के घुप्प अंधेरे को अपने विचारों की रोशनी से नहीं भेद सकता तो उसका सारा प्रयास बेमतलब और बेमानी हैं। कभी-कभी तो अंधेरे और उजाले का कंट्रास्ट भी आकर्षण का कारण बनता है और लेखक तो समय का पारखी और द्रष्टा होता है। वह अंधेरा, उजाला, ज्ञान-अज्ञान को और इनके फर्क को भली भाँति जानता है। नासिरा शर्मा इन तथ्यों से भली भाँति परिचित है।
एक नारी वह है जो वंश वल्लरी को आगे बढ़ा रही है। एक वह है जो भाई के हाथ में राखी बांध रही है। एक नारी वह भी है जो आगे परिजनों की समृद्धि और सुख के लिए दुआएँ माँग रही है। कभी-कभी तो दुखियारी नारी की आँखों में गंगा-यमुना उमड़ती देख कर लगता है कि प्रकृति ही अपने कीमती मोती लुटाने को विवश है। अशिक्षा के अंधेरे में डूबी हुई नारी, स्वजनों से प्रताड़ित और तिरस्कृत नारी भी इसी धरती पर समाज में है। फैशन और वैभव के नशे में चूर नारी, शिक्षा पायी अहंकार के आडम्बर में कृत्रिामता से ढकी नारी, सर्वगुण सम्पन्न नारी के रूप और स्वभाव अलग ही दिखते हैं। शाम को चूल्हा जलाने के लिए बाग़ और जंगल से लकड़ी तोड़ती और बीनती नारी, आवां दहकाने के लिए गोबर बटोरती नारी, कंडे या उपले पाथने वाली नारी, दंवरी हांकने वाली नारी, नरिया खपरा तैयार करने वाली नारी, घर का रख रखाव करने और साज-सज्जा तैयार करने वाली नारी, डोंगी पर सवार होकर पेट-पूजा के लिए मछली मारने वाली नारी के अनेक और अनगिनत रूप है। यही नारी सड़क के किनारे भारी हथौड़ा थामे पत्थर तोड़ती है। अंगौछे के पालने में मुलुर-मुलुर देखते बच्चे को पिलाने को दूध तो उतरता ही नहीं। आँसुओं से आँखें लबालब भरी हैं पर उसे माँ और मेहनतकश दुखिया माँ बच्चे को पिलाए कैसे। नारी की अनेक रूपता की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है। लेखनी भी थक जाएगी और चाहते हुए भी मैं कह नहीं पाऊँगा।
वास्तविकता यह है कि लेखक चुनाव करता है। इस चुनाव में रुचि, अभिरुचि और परिवेश सभी काम करते हैं। नासिरा शर्मा के जीवन का अधिकांश हिस्सा शहरों में बीता है पर गाँव से वह एकान्ततः अपरिचित नहीं है। उनकी अनुभूतियों की परिधि दूर-दूर तक फैली हुई है। असल बात यह है कि अपनी सारी रचनाओं में वे इंसान की तकलीफों की साक्षी बनती है। प्रतीत होती है, उनकी कहानियों में उभरी घटनाएँ उनकी फर्स्ट हैण्ड नालेज पर आधारित हैं। वे अपनी रचनाओं की इमारत दोयम दर्जे की सहायक सामग्री से नहीं तैयार करती हैं। यही कारण है कि उनमें प्रतीति और विश्वास की भरपूर चमक है। पाठक जैसे-जैसे रचना की अन्तर्यात्रा करता है, यह चमक और चटख होती जाती है। बीच में पाठक को कहानी के अंत का अहसास नहीं होता है। इसे मैं नासिरा शर्मा के शिल्प-विधान की खूबी मानता हूँ। बम्बइया सिनेमा में कहानी के परिणाम का पता पर्दे के दृश्यों से काफी पहले चल जाता है। नासिरा शर्मा मूलतः और अन्ततः साहित्यकार हैं इसलिए नतीजे तक धीरे-धीरे पहुँचती हैं। एक झटके से सारा दृश्य चाक्षुष नहीं होता है।
नासिरा शर्मा की लेखिका को हमेशा, हर क्षण यह ध्यान रहता है कि यह मज+मून किसके लिए लिखा जा रहा है। इसी कारण उनका कलाम सदैव अलर्ट रहता है। उन्हें इस बात का पक्का पता है कि कोई भी नक्शा जिन्दगी का सफर नहीं है। सफर में तो तलवे घिसने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर मंजिल मिल पाती है। नारी-विमर्श के सिलसिले में अपने साक्षात्कारों में, छोटे-मोटे लेखों में जो कुछ और जितना कहा है उसके संदर्भ में कुछ बातें दृष्टव्य हैं। नासिरा शर्मा स्वयं एक नारी हैं। उनका लालन-पालन सम्भ्रान्त परिवार में हुआ है। जन्मना मुस्लिम होने के साथ उन्होंने एक हिन्दू (ब्राह्मण) के साथ प्रेम विवाह किया है। इस क्रांतिकारी कदम का लाभ उन्हें जीवन जीने में कितना मिला है यह तो वही जानें पर दोहरे अनुभव और जानकारी से लेखन में एक सुथरापन आया है, साथ ही उनका दायरा भी विस्तृत हुआ है।
जिस लेखक के जेहन में जात-पांत, वर्ग अभिमान, औरत-मर्द का सोच जितना ज्यादा होता है उसका लेखन उतने ही प्रश्न वाचक चिद्दों से घिर जाता है। असल बात तो यह है कि इंसान और इंसानियत ईश्वरीय वरदान हैं। हर लेखक और लेखिका के हृदय में इसका सम्मान होना चाहिए। आप नासिरा शर्मा की कोई भी रचना उठा लीजिए उसमें इंसानियत की पताका फहराती हुई मिलेगी। इसी बिन्दु पर अदब का मक़सद पूरा हो जाता है। साथ ही रचना साहित्य की कोटि में आकर कालजयी हो जाती है। नासिरा शर्मा का सम्पूर्ण लेखन प्राथमिक ज्ञान (First Hand Knowledge) प्राप्त कर लेने के बाद शुरू होता है इसीलिए उसकी प्रामाणिकता अविश्वसनीय नहीं होती। उनकी सोच बनवाटी और छद्म से भरा हुआ नहीं होता है। इसी कारण वह मानवीय यथार्थ के दायरे के अंदर रहता है। अपने हमजोली और समकालीन कलमों से वह अलग और विशिष्ट लगती हैं। उनकी कहानियाँ पहले रेखाओं में उभरती है। बाद में उनमें रंग भरा जाता है तब कहीं जाकर पूरा चित्रा पाठक के सामने आता है। यह सारा क्रिया-कलाप स्वतः हो जाता है। इसे हम लेखक की कारीगरी की विशेषता कह सकते हैं जो आगे चलकर उसकी पहचान बन जाती है।
विश्व विख्यात चित्राकार पिकासो ने एक बार कहा था - ‘मैं कोई दृश्य पेण्ट करता हूँ जो बहुत खूबसूरत है, बाद में उसे मिटा देता हूँ। थोड़ी देर के बाद वह अत्यंत सुन्दर हो जाता है।' लेखक को उसकी रचना की सुन्दरता का पता लेखन के बाद ही चलता है और कभी-कभी तो यह सुन्दरता लेखक नहीं बल्कि पाठक जांचता-परखता है। सही निर्णय तो वही करता है। नासिरा शर्मा की कहानियों में यह बात स्पष्ट रूप से झलकती है कि कलम के कौशल से सारे आइने खिड़कियों में तब्दील हो गए हैं। ऐसा अन्य लेखकों में बहुत कम देखने को मिलता है।
कथा साहित्य लिखने वाले और पढ़ने वाले को जिन्दगी की बारीक और पूरी जानकारी होनी चाहिए। बिना जानकारी के लिखना और पढ़ना दोनों अधूरा रहता है। नासिरा शर्मा के लेखकीय स्वभाव में व्यक्ति और समाज को भली प्रकार जानने परखने की ललक है। यह ललक ही उनके लेखन को समृद्ध बनाती है। वे केवल लिखने के लिए नहीं लिखती। कोई एक अन्दरूनी फोर्स है जो उनसे लिखवा लेता है। यह सधी हुई लेखन की पहचान भी है। कभी-कभी तो बच्चे के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातों को तहरीर तैयार हो जाती है। उसे देख-पढ़ कर आश्चर्य भी होता है और अच्छा भी लगता है। नासिरा शर्मा का बहुचर्चित कहानी-संकलन है - ‘सबीना के चालीस चोर'। उसमें इसी नाम की एक अत्यंत मार्मिक कहानी है। इसके संवादों में चिन्तन के साथ सर्वथा नये गवाक्ष खुलते हैं। विचारों की लड़ियाँ तैयार होती हैं। स्वाभाविक रूप से कलम की नोक से उतरे हुए वाक्य बहुत कुछ कहते हैं।
इन संवादों के सवालिया जुमले सबीना के हैं। वह हिन्दू, मुसलमान, इंसान आदि की परिभाषाएँ जानना चाहती है। इन सबको भली प्रकार पहचानना चाहती है। शाहरूख और सबीना की बतकही में जीवन का दर्शन छिपा है। जन्म और मृत्यु की फिलासफी के नुक्ते साफ दिखाई पड़ते हैं। अगर पूरे माहौल में धुंआ भरा हो तो उसका असर छोटी-बड़ी सभी आँखों पर पड़ता है और नन्हें बच्चों का हृदय तो कोमल थाल होता है। चाहें उसमें कंटीली झाड़ी लगा दो या फूलों के पौधे। यह आपके विवेक के ऊपर निर्भर करता है। यह कहानी कई बेसिक सवाल उठाती है। यदि समाज और देशद्रोह की आग में जल रहे हों तो व्यक्ति पर आंच जरूर आएगी। हर दहाई में इकाई शामिल होती है। इस बात को लेखक की आँख भली प्रकार जानती-पहचानती है। अन्ततः संकेत से बात कही जाती है। किसी को बचाना बुरी बात नहीं है। यह कथन किसी वर्ग, जाति और फिरके का चोगा नहीं पहने है। अंततः लेखकीय निष्कर्ष निकलता है कि यदि इंसान और इंसानियत बने रहेंगे तो समाज बना रहेगा, परिवार की नींव भी सुदृढ़ होगी, देश भी खुशहाल होगा। नासिरा शर्मा को अपनी लेखकीय जिम्मेदारी का पूरा पता है - ‘आज के इस दौर में मेरी अपनी भी जिम्मेदारी है - अपने लेखन, समय और उस वर्ग के प्रति जो पीड़ित है और इसलिए भी कि मैं उसी सिलसिले की एक कड़ी हूँ और यह मेरा कर्तव्य भी है। इसलिए उन सारे शरीयत कानूनों को जो इंसान के विशेषकर औरत के फायदे में आते हैं लब बैक करती हूँ और अपनी आवाज में पाठकों की आवाज की गूँज सुनने की आशा करती हूँ जो मेरी तरह इन विचारों से सहमति रखते हैं क्योंकि यहाँ मसला केवल औरत का नहीं है, बल्कि उन इंसानी पीढ़ियों का है जो उसके आगोश में आँख खोलती और परवरिश पाती हैं।'' (खुदा की वापसी, संकलन निवेदन, पृ. १०)
मानव का नज+रिया बदलने में शताब्दियाँ खर्च हो जाती हैं। तब तन्द्रिल अवस्था में पड़े-पड़े अपना समय काटता रहता है। जब कभी विचारों के बगूले उठते हैं तब उस पर कुछ असर दीखता है। यह बात सही है कि मनुष्य कुत्ता-बिल्ली नहीं है कि डंडे की चोट खाकर भूल जाए। वह ऐसा ज्वालामुखी है जिसके फटने से ससागरा पृथ्वी कांप उठती है। क़लम की ताकत भी कम नहीं होती। कभी-कभी उसके प्रभाव से मनहूस रूढ़ियों की जड़ें हिल जाती हैं, बड़े-बड़े पहाड़ कांपने लगते हैं। लेखन और चिन्तन का प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है। पाखण्ड, जहालत और रूढ़ियों के अंधेरे को भेदने में साइंस को सदियाँ गुजर जाती है। न जाने कितनी जिन्दगियाँ चुक जाती हैं। लेकिन यह भी सच है कि सबेरे सकाल उजाले का पिटारा लेकर सूर्य आता है और जीवन में चहल-पहल नए सिरे से शुरू हो जाती है।
नासिरा शर्मा की कहानियों को पढ़कर पता चलता है कि सफर शुरू करने से पहले उन्हें पक्का पता होता है कि उन्हें जाना कहाँ है। यही कारण है कि उनके किरदार अपने ठीक गंतव्य की ओर हमेशा आगे बढ़ते दीखते हैं। पाठक विचारों के घालमेल झेलने से बच जाता है। यह बात ‘संगसार', ‘इब्ने मरियम', ‘दूसरा ताजमहल', ‘सिक्का', ‘मरियम' और ‘बुतखाना' सरीखी कहानियों में देखी जा सकती है। ‘बुतखाना' नासिरा शर्मा की पहली कहानी है। मैं इन कहानियों के शिल्प कौशल की बात नहीं कर रहा हूँ इसलिए कि शिल्प कौशल तो रचना का साधन होता है साध्य नहीं। जब और जहाँ कोई लेखक शिल्प-कौशल को साध्य मानने पर उतारू हो जाता है तो रचना का ताना-बाना ढीला पड़ने लगता है।
नासिरा शर्मा जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की कथा लेखिका है। जहाँ आदमी और उसकी आदमीयत है वहाँ जि+न्दगी और उसका मर्म है। मर्म का आलेखन ही रचना को मार्मिक और जीवन्त बनाता है। लेखन में सजगता और सतर्कता ही उसे सर्वप्रिय बनाती है। नासिरा शर्मा की रचनाओं का पहला ड्राफ्ट अंतिम नहीं होता। अनेक सोच-विचार, चिन्तन अनुचिन्तन के बाद ही वह प्रकाशन योग्य बनता है और पाठकों के सामने आता है। इस शैली पर किसी पूर्ववर्ती और समकालीन लेखक की छाप या छाया की प्रतीति नहीं होती। उनका आत्म चिन्तन ही उनके लेखन का आधार बनता है, बनता आया है। यह विशेषता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। अपना घर, परिवार, व्यक्ति, समाज और देश जटिल समस्याओं का पुंज है। इन समस्याओं पर नासिरा शर्मा ने बड़ी बारीकी से सोचा है, विचार किया है। इन्हीं समस्याओं को आधार बनाकर कहानियों की इमारत खड़ी की गयी है। इसीलिए यह इमारत अपनी लगती है।
कोई दर्द और संवेदना जब रचनाकार के क़लम से उतरती है उसमें आत्मीयता की चमक के साथ-साथ विश्वसनीयता भी भरपूर मात्रा में रहती है। प्रस्तुति के इन आयामों को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि लेखिका के सोच का दायरा बड़ा है जिसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वस्तु-विधान झलक मारता है। परिणामतः ‘संगसार' कहानी ईरान की प्रथा या कुप्रथा पर सवालिया निशान लगाते हुए जन्म लेती है। इसकी कहानियों से लेखकीय प्रस्तुति का दायरा बढ़ता है और पाठक के लिए कलम एक सनातन बात रेखांकित करती है-’तो फिर भेजने दो उन्हें लानत उस सूरज पर जो जमीन को जिन्दगी देता है, उस मिट्टी पर जो बीज को अपने आगोश में लेकर अंकुर फोड़ने के लिए मजबूर करती है और इस कायनात पर जिसका दारोमदार इन्हीं रिश्तों पर कायम है जिसमें हर वजूद दूसरे के बिना अधूरा है।'' यह कथन कल भी सत्य था, आज भी सत्य है, कल भी सत्य रहेगा। जब अनुभव करते-करते समय राहगीर को आवाज देने लगता है तब ऐसे कथन कलम से झरने प्रारम्भ हो जाते हैं। यही वह उपलब्धि है जो रचनाकार की दृष्टि को शाश्वतता प्रदान करती है।
नासिरा शर्मा अपने समय की सर्वाधिक चर्चित रचनाकार हैं। उन्होंने देश-विदेश के जन मानस से विचारपूर्ण साक्षात्कार किया है। उसकी पीड़ा और दुःख-दर्द को केवल देखा और महसूस ही नहीं किया बल्कि उस पर अपना क़लम भी चलाया है। उनकी निष्ठा संवेदनाओं के साथ है। मानव द्वारा मानव को दी गई पीड़ा की बर्बरता के खिलाफ आवाज उठायी है। यह आवाज किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं है। जहाँ अवसाद है, उत्पीड़पन है, प्रताड़ना है वहाँ आप नासिरा शर्मा को खड़ी पायेंगे। इतना ही नहीं उनकी लेखनी दर्द और समस्या को अपने लेखन में रूप दे रही होगी। वे प्रकृत्या एक दबंग और सहिष्णु महिला हैं जो जाति और मजहब के कठघरे से बाहर निकल आयी हैं। साहित्य उनका जीवन है, रचना उनकी सांस है। अपनी तमाम घरेलू व्यस्तताओं के बावजूद जीवन और सांस के दायरे में वह सदैव रचनारत रहती हैं। वह उच्च आकांक्षाओं के भूधर पर नहीं चढ़ना चाहतीं। उनका कर्मठ और विचारशील जीवन ही ले जाए तो ले जाए।
यह समय गिरोहबाजी और खेमेबंदी का है। ये खेमे और गु्रपों में बंटे लोग धुंध में कैद जिन्दगी को न तो पहचानते हैं और न पहचानना चाहते हैं। उनकी मंशा सदैव यही रहती है कि उनका उल्लू सीधा होता रहे। स्वभाव से ये प्रतिक्रियावादी होते हैं इसलिए यहाँ जनहित और लोक साहाय्य की कोई बात न तो की जाती है और न हो सकती है। ऐसे माहौल में नासिरा शर्मा की लेखनी बेबाक बात कहती हुई सदैव आगे बढ़ती रहती है। इस अग्रगामिता में उनकी रचना के प्रति ईमानदार निष्ठा, अदम्य साहस और उत्साह प्रेरित लगन ही उन्हें लगातार तत्पर बनाए रखती है। उनमें समय और सम्बन्ध को अच्छी तरह पहचानने की समझ है। यद्यपि समय का सामना करना बहुत आसान नहीं होता पर उनका जुझारू व्यक्तित्व वह भी नयी ऊर्जा के साथ कर लेता है। इस सुफल के पीछे परिवार का साहित्यिक परिवेश, इलाहाबादी रचना-संस्कृति कारगर ढंग से काम करती रही है। वह किसी भी साहित्यिक व्यक्तित्व को बनाने में सक्षम है और उस पर नासिरा शर्मा को नाज भी है।
आगे बढ़ते समय में भाँति-भाँति के बदलाव आए हैं। ये बदलाव पुरुष की अपेक्षा नारी में अधिक दिखाई पड़ते हैं। पुरुष पहले भी आजाद था, आज भी आजाद है। नारी पहले भी परवशता की चक्की में पिसती रही है और इस बदले हुए जमाने में वह पूरी तरह आजाद नहीं है। यदि अनुपाततः देखा जाए तो पुरुष आज भी अपना वर्चस्व नारी से अधिक मानता है। सदियों से चली आती प्रथा के वशीभूत होकर पुरुष अपने को बड़ा मानता और कूतता रहा है। यह उसकी आदिम प्रवृत्ति किसी न किसी रूप में आज भी देखी-सुनी जा सकती है। कतिपय अपवाद मिल सकते हैं। उन्हें मैं छोड़ता हूँ। उन्हें निष्कर्ष में शामिल भी नहीं किया जा सकता। संघर्ष, मिलन, विछोह, दुःख-दैन्य, पीड़ा,मात्सर्य, धूप, छांव, सुबह, शाम, ऊब, थकान और पथरीला सफर ही तो जिन्दगी के शेड्स हैं। इन सारे तत्त्वों से भरपूर हैं नासिरा शर्मा की कहानियाँ, रचनाएँ। जिन्दगी फूलों की नरम और खुशबूदार सेज नहीं है। यद्यपि ऐसा हो नहीं पाता पर आदमी को, मानव मात्र को दूसरों की करुण कथाएँ सुनने का अवकाश निकालना चाहिए। लेखक का काम केवल इतना ही नहीं है कि वह यथार्थ का हृदय-विदारक चित्रण करे बल्कि उसे ऐसा परिवेश रचना चाहिए जिससे किसी भी आहत को देखकर उससे मिलकर आँखें नम हो सकें। यही परस्परावलम्ब की भावना ही साहित्य के उद्देश्य को पूरा करती है। नासिरा शर्मा की रचनाओं में एक ओर तो इन्द्रधनुषी रंगत है, दूसरी ओर पाठकों के मन को अपनी ओर खींचने की ऊर्जा है। निश्चय ही वह एक सिद्धहस्त रचना हैं।
नासिरा शर्मा के कथा-लेखन में शब्दों का अपव्यय नहीं होता। वाक्यों की बनावट और बुनावट उनकी अपनी है। वह उर्दू की आवश्यक शब्दावली से संवलित है। शब्द प्रयोगों की चातुरी से उनकी भाषा जानदार और धारदार बन गयी है। यह विशिष्टता उन्हें अपने समकालीनों से एकान्ततः अलग करती है। एक बार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि शब्दों के एक नहीं अनेक शेड्स होते हैं। लेखक को उन शेड्स की सही पहचान होनी चाहिए। मैं चाहता हूँ नासिरा शर्मा का लेखकीय सफर ऐसे ही जारी रहे। यह साहित्य के पाठकों के लिए गौरव की बात है।
नासिरा शर्मा ने स्त्री-विमर्श पर अपने किरदारों के माध्यम से समय-समय पर काफ़ी कुछ कहा है। वैसे हिन्दी कथा साहित्य में, पत्र-पत्रिकाओं में काफ़ी कहा-सुनी होती रहती है। इस प्रकार की प्रस्तुतियों से यह पता नहीं चलता है कि जिस नारी की चर्चा हो रही है वह कौन है? उसकी शिक्षा का स्तर क्या है? समाज में वह नगण्य है या उसकी कोई इज्जत है। वह अशिक्षित है या क ख अथवा अलिफ बे से परिचित है। बस नारी-नारी की रट लगाकर विमर्श का ताना-बाना तैयार हो जाता है और लेखक को नारीवादी होने की सौगात मिल जाती है और तो और कतिपय कलमों की साहित्यिक दुकानदारी नारी-विमर्श के ही बल पर चल रही है। उनके लिए यह घाटे का सौदा नहीं है।
इस महादेश में स्त्री या नारी मात्र कह देने से बात स्पष्ट नहीं होती है। वस्तुतः इसमें कई पर्तें हैं। विमर्श के पहले इस बात का खुलासा होना चाहिए कि किस नारी पर बात हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम उजाले में और उजाला फेंक रहे हैं। उन अंधी गलियों की ओर किसी क़लम या विचार का ध्यान नहीं जा रहा है जो सदियों से गाढ़ी कालिमा से ओत-प्रोत हैं। वहाँ तरक्की की किरणें नहीं पहुँच पातीं। लेखक यदि जहालत और पिछड़ेपन के घुप्प अंधेरे को अपने विचारों की रोशनी से नहीं भेद सकता तो उसका सारा प्रयास बेमतलब और बेमानी हैं। कभी-कभी तो अंधेरे और उजाले का कंट्रास्ट भी आकर्षण का कारण बनता है और लेखक तो समय का पारखी और द्रष्टा होता है। वह अंधेरा, उजाला, ज्ञान-अज्ञान को और इनके फर्क को भली भाँति जानता है। नासिरा शर्मा इन तथ्यों से भली भाँति परिचित है।
एक नारी वह है जो वंश वल्लरी को आगे बढ़ा रही है। एक वह है जो भाई के हाथ में राखी बांध रही है। एक नारी वह भी है जो आगे परिजनों की समृद्धि और सुख के लिए दुआएँ माँग रही है। कभी-कभी तो दुखियारी नारी की आँखों में गंगा-यमुना उमड़ती देख कर लगता है कि प्रकृति ही अपने कीमती मोती लुटाने को विवश है। अशिक्षा के अंधेरे में डूबी हुई नारी, स्वजनों से प्रताड़ित और तिरस्कृत नारी भी इसी धरती पर समाज में है। फैशन और वैभव के नशे में चूर नारी, शिक्षा पायी अहंकार के आडम्बर में कृत्रिामता से ढकी नारी, सर्वगुण सम्पन्न नारी के रूप और स्वभाव अलग ही दिखते हैं। शाम को चूल्हा जलाने के लिए बाग़ और जंगल से लकड़ी तोड़ती और बीनती नारी, आवां दहकाने के लिए गोबर बटोरती नारी, कंडे या उपले पाथने वाली नारी, दंवरी हांकने वाली नारी, नरिया खपरा तैयार करने वाली नारी, घर का रख रखाव करने और साज-सज्जा तैयार करने वाली नारी, डोंगी पर सवार होकर पेट-पूजा के लिए मछली मारने वाली नारी के अनेक और अनगिनत रूप है। यही नारी सड़क के किनारे भारी हथौड़ा थामे पत्थर तोड़ती है। अंगौछे के पालने में मुलुर-मुलुर देखते बच्चे को पिलाने को दूध तो उतरता ही नहीं। आँसुओं से आँखें लबालब भरी हैं पर उसे माँ और मेहनतकश दुखिया माँ बच्चे को पिलाए कैसे। नारी की अनेक रूपता की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है। लेखनी भी थक जाएगी और चाहते हुए भी मैं कह नहीं पाऊँगा।
वास्तविकता यह है कि लेखक चुनाव करता है। इस चुनाव में रुचि, अभिरुचि और परिवेश सभी काम करते हैं। नासिरा शर्मा के जीवन का अधिकांश हिस्सा शहरों में बीता है पर गाँव से वह एकान्ततः अपरिचित नहीं है। उनकी अनुभूतियों की परिधि दूर-दूर तक फैली हुई है। असल बात यह है कि अपनी सारी रचनाओं में वे इंसान की तकलीफों की साक्षी बनती है। प्रतीत होती है, उनकी कहानियों में उभरी घटनाएँ उनकी फर्स्ट हैण्ड नालेज पर आधारित हैं। वे अपनी रचनाओं की इमारत दोयम दर्जे की सहायक सामग्री से नहीं तैयार करती हैं। यही कारण है कि उनमें प्रतीति और विश्वास की भरपूर चमक है। पाठक जैसे-जैसे रचना की अन्तर्यात्रा करता है, यह चमक और चटख होती जाती है। बीच में पाठक को कहानी के अंत का अहसास नहीं होता है। इसे मैं नासिरा शर्मा के शिल्प-विधान की खूबी मानता हूँ। बम्बइया सिनेमा में कहानी के परिणाम का पता पर्दे के दृश्यों से काफी पहले चल जाता है। नासिरा शर्मा मूलतः और अन्ततः साहित्यकार हैं इसलिए नतीजे तक धीरे-धीरे पहुँचती हैं। एक झटके से सारा दृश्य चाक्षुष नहीं होता है।
नासिरा शर्मा की लेखिका को हमेशा, हर क्षण यह ध्यान रहता है कि यह मज+मून किसके लिए लिखा जा रहा है। इसी कारण उनका कलाम सदैव अलर्ट रहता है। उन्हें इस बात का पक्का पता है कि कोई भी नक्शा जिन्दगी का सफर नहीं है। सफर में तो तलवे घिसने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर मंजिल मिल पाती है। नारी-विमर्श के सिलसिले में अपने साक्षात्कारों में, छोटे-मोटे लेखों में जो कुछ और जितना कहा है उसके संदर्भ में कुछ बातें दृष्टव्य हैं। नासिरा शर्मा स्वयं एक नारी हैं। उनका लालन-पालन सम्भ्रान्त परिवार में हुआ है। जन्मना मुस्लिम होने के साथ उन्होंने एक हिन्दू (ब्राह्मण) के साथ प्रेम विवाह किया है। इस क्रांतिकारी कदम का लाभ उन्हें जीवन जीने में कितना मिला है यह तो वही जानें पर दोहरे अनुभव और जानकारी से लेखन में एक सुथरापन आया है, साथ ही उनका दायरा भी विस्तृत हुआ है।
जिस लेखक के जेहन में जात-पांत, वर्ग अभिमान, औरत-मर्द का सोच जितना ज्यादा होता है उसका लेखन उतने ही प्रश्न वाचक चिद्दों से घिर जाता है। असल बात तो यह है कि इंसान और इंसानियत ईश्वरीय वरदान हैं। हर लेखक और लेखिका के हृदय में इसका सम्मान होना चाहिए। आप नासिरा शर्मा की कोई भी रचना उठा लीजिए उसमें इंसानियत की पताका फहराती हुई मिलेगी। इसी बिन्दु पर अदब का मक़सद पूरा हो जाता है। साथ ही रचना साहित्य की कोटि में आकर कालजयी हो जाती है। नासिरा शर्मा का सम्पूर्ण लेखन प्राथमिक ज्ञान (First Hand Knowledge) प्राप्त कर लेने के बाद शुरू होता है इसीलिए उसकी प्रामाणिकता अविश्वसनीय नहीं होती। उनकी सोच बनवाटी और छद्म से भरा हुआ नहीं होता है। इसी कारण वह मानवीय यथार्थ के दायरे के अंदर रहता है। अपने हमजोली और समकालीन कलमों से वह अलग और विशिष्ट लगती हैं। उनकी कहानियाँ पहले रेखाओं में उभरती है। बाद में उनमें रंग भरा जाता है तब कहीं जाकर पूरा चित्रा पाठक के सामने आता है। यह सारा क्रिया-कलाप स्वतः हो जाता है। इसे हम लेखक की कारीगरी की विशेषता कह सकते हैं जो आगे चलकर उसकी पहचान बन जाती है।
विश्व विख्यात चित्राकार पिकासो ने एक बार कहा था - ‘मैं कोई दृश्य पेण्ट करता हूँ जो बहुत खूबसूरत है, बाद में उसे मिटा देता हूँ। थोड़ी देर के बाद वह अत्यंत सुन्दर हो जाता है।' लेखक को उसकी रचना की सुन्दरता का पता लेखन के बाद ही चलता है और कभी-कभी तो यह सुन्दरता लेखक नहीं बल्कि पाठक जांचता-परखता है। सही निर्णय तो वही करता है। नासिरा शर्मा की कहानियों में यह बात स्पष्ट रूप से झलकती है कि कलम के कौशल से सारे आइने खिड़कियों में तब्दील हो गए हैं। ऐसा अन्य लेखकों में बहुत कम देखने को मिलता है।
कथा साहित्य लिखने वाले और पढ़ने वाले को जिन्दगी की बारीक और पूरी जानकारी होनी चाहिए। बिना जानकारी के लिखना और पढ़ना दोनों अधूरा रहता है। नासिरा शर्मा के लेखकीय स्वभाव में व्यक्ति और समाज को भली प्रकार जानने परखने की ललक है। यह ललक ही उनके लेखन को समृद्ध बनाती है। वे केवल लिखने के लिए नहीं लिखती। कोई एक अन्दरूनी फोर्स है जो उनसे लिखवा लेता है। यह सधी हुई लेखन की पहचान भी है। कभी-कभी तो बच्चे के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातों को तहरीर तैयार हो जाती है। उसे देख-पढ़ कर आश्चर्य भी होता है और अच्छा भी लगता है। नासिरा शर्मा का बहुचर्चित कहानी-संकलन है - ‘सबीना के चालीस चोर'। उसमें इसी नाम की एक अत्यंत मार्मिक कहानी है। इसके संवादों में चिन्तन के साथ सर्वथा नये गवाक्ष खुलते हैं। विचारों की लड़ियाँ तैयार होती हैं। स्वाभाविक रूप से कलम की नोक से उतरे हुए वाक्य बहुत कुछ कहते हैं।
इन संवादों के सवालिया जुमले सबीना के हैं। वह हिन्दू, मुसलमान, इंसान आदि की परिभाषाएँ जानना चाहती है। इन सबको भली प्रकार पहचानना चाहती है। शाहरूख और सबीना की बतकही में जीवन का दर्शन छिपा है। जन्म और मृत्यु की फिलासफी के नुक्ते साफ दिखाई पड़ते हैं। अगर पूरे माहौल में धुंआ भरा हो तो उसका असर छोटी-बड़ी सभी आँखों पर पड़ता है और नन्हें बच्चों का हृदय तो कोमल थाल होता है। चाहें उसमें कंटीली झाड़ी लगा दो या फूलों के पौधे। यह आपके विवेक के ऊपर निर्भर करता है। यह कहानी कई बेसिक सवाल उठाती है। यदि समाज और देशद्रोह की आग में जल रहे हों तो व्यक्ति पर आंच जरूर आएगी। हर दहाई में इकाई शामिल होती है। इस बात को लेखक की आँख भली प्रकार जानती-पहचानती है। अन्ततः संकेत से बात कही जाती है। किसी को बचाना बुरी बात नहीं है। यह कथन किसी वर्ग, जाति और फिरके का चोगा नहीं पहने है। अंततः लेखकीय निष्कर्ष निकलता है कि यदि इंसान और इंसानियत बने रहेंगे तो समाज बना रहेगा, परिवार की नींव भी सुदृढ़ होगी, देश भी खुशहाल होगा। नासिरा शर्मा को अपनी लेखकीय जिम्मेदारी का पूरा पता है - ‘आज के इस दौर में मेरी अपनी भी जिम्मेदारी है - अपने लेखन, समय और उस वर्ग के प्रति जो पीड़ित है और इसलिए भी कि मैं उसी सिलसिले की एक कड़ी हूँ और यह मेरा कर्तव्य भी है। इसलिए उन सारे शरीयत कानूनों को जो इंसान के विशेषकर औरत के फायदे में आते हैं लब बैक करती हूँ और अपनी आवाज में पाठकों की आवाज की गूँज सुनने की आशा करती हूँ जो मेरी तरह इन विचारों से सहमति रखते हैं क्योंकि यहाँ मसला केवल औरत का नहीं है, बल्कि उन इंसानी पीढ़ियों का है जो उसके आगोश में आँख खोलती और परवरिश पाती हैं।'' (खुदा की वापसी, संकलन निवेदन, पृ. १०)
मानव का नज+रिया बदलने में शताब्दियाँ खर्च हो जाती हैं। तब तन्द्रिल अवस्था में पड़े-पड़े अपना समय काटता रहता है। जब कभी विचारों के बगूले उठते हैं तब उस पर कुछ असर दीखता है। यह बात सही है कि मनुष्य कुत्ता-बिल्ली नहीं है कि डंडे की चोट खाकर भूल जाए। वह ऐसा ज्वालामुखी है जिसके फटने से ससागरा पृथ्वी कांप उठती है। क़लम की ताकत भी कम नहीं होती। कभी-कभी उसके प्रभाव से मनहूस रूढ़ियों की जड़ें हिल जाती हैं, बड़े-बड़े पहाड़ कांपने लगते हैं। लेखन और चिन्तन का प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता है। पाखण्ड, जहालत और रूढ़ियों के अंधेरे को भेदने में साइंस को सदियाँ गुजर जाती है। न जाने कितनी जिन्दगियाँ चुक जाती हैं। लेकिन यह भी सच है कि सबेरे सकाल उजाले का पिटारा लेकर सूर्य आता है और जीवन में चहल-पहल नए सिरे से शुरू हो जाती है।
नासिरा शर्मा की कहानियों को पढ़कर पता चलता है कि सफर शुरू करने से पहले उन्हें पक्का पता होता है कि उन्हें जाना कहाँ है। यही कारण है कि उनके किरदार अपने ठीक गंतव्य की ओर हमेशा आगे बढ़ते दीखते हैं। पाठक विचारों के घालमेल झेलने से बच जाता है। यह बात ‘संगसार', ‘इब्ने मरियम', ‘दूसरा ताजमहल', ‘सिक्का', ‘मरियम' और ‘बुतखाना' सरीखी कहानियों में देखी जा सकती है। ‘बुतखाना' नासिरा शर्मा की पहली कहानी है। मैं इन कहानियों के शिल्प कौशल की बात नहीं कर रहा हूँ इसलिए कि शिल्प कौशल तो रचना का साधन होता है साध्य नहीं। जब और जहाँ कोई लेखक शिल्प-कौशल को साध्य मानने पर उतारू हो जाता है तो रचना का ताना-बाना ढीला पड़ने लगता है।
नासिरा शर्मा जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की कथा लेखिका है। जहाँ आदमी और उसकी आदमीयत है वहाँ जि+न्दगी और उसका मर्म है। मर्म का आलेखन ही रचना को मार्मिक और जीवन्त बनाता है। लेखन में सजगता और सतर्कता ही उसे सर्वप्रिय बनाती है। नासिरा शर्मा की रचनाओं का पहला ड्राफ्ट अंतिम नहीं होता। अनेक सोच-विचार, चिन्तन अनुचिन्तन के बाद ही वह प्रकाशन योग्य बनता है और पाठकों के सामने आता है। इस शैली पर किसी पूर्ववर्ती और समकालीन लेखक की छाप या छाया की प्रतीति नहीं होती। उनका आत्म चिन्तन ही उनके लेखन का आधार बनता है, बनता आया है। यह विशेषता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। अपना घर, परिवार, व्यक्ति, समाज और देश जटिल समस्याओं का पुंज है। इन समस्याओं पर नासिरा शर्मा ने बड़ी बारीकी से सोचा है, विचार किया है। इन्हीं समस्याओं को आधार बनाकर कहानियों की इमारत खड़ी की गयी है। इसीलिए यह इमारत अपनी लगती है।
कोई दर्द और संवेदना जब रचनाकार के क़लम से उतरती है उसमें आत्मीयता की चमक के साथ-साथ विश्वसनीयता भी भरपूर मात्रा में रहती है। प्रस्तुति के इन आयामों को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि लेखिका के सोच का दायरा बड़ा है जिसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वस्तु-विधान झलक मारता है। परिणामतः ‘संगसार' कहानी ईरान की प्रथा या कुप्रथा पर सवालिया निशान लगाते हुए जन्म लेती है। इसकी कहानियों से लेखकीय प्रस्तुति का दायरा बढ़ता है और पाठक के लिए कलम एक सनातन बात रेखांकित करती है-’तो फिर भेजने दो उन्हें लानत उस सूरज पर जो जमीन को जिन्दगी देता है, उस मिट्टी पर जो बीज को अपने आगोश में लेकर अंकुर फोड़ने के लिए मजबूर करती है और इस कायनात पर जिसका दारोमदार इन्हीं रिश्तों पर कायम है जिसमें हर वजूद दूसरे के बिना अधूरा है।'' यह कथन कल भी सत्य था, आज भी सत्य है, कल भी सत्य रहेगा। जब अनुभव करते-करते समय राहगीर को आवाज देने लगता है तब ऐसे कथन कलम से झरने प्रारम्भ हो जाते हैं। यही वह उपलब्धि है जो रचनाकार की दृष्टि को शाश्वतता प्रदान करती है।
नासिरा शर्मा अपने समय की सर्वाधिक चर्चित रचनाकार हैं। उन्होंने देश-विदेश के जन मानस से विचारपूर्ण साक्षात्कार किया है। उसकी पीड़ा और दुःख-दर्द को केवल देखा और महसूस ही नहीं किया बल्कि उस पर अपना क़लम भी चलाया है। उनकी निष्ठा संवेदनाओं के साथ है। मानव द्वारा मानव को दी गई पीड़ा की बर्बरता के खिलाफ आवाज उठायी है। यह आवाज किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं है। जहाँ अवसाद है, उत्पीड़पन है, प्रताड़ना है वहाँ आप नासिरा शर्मा को खड़ी पायेंगे। इतना ही नहीं उनकी लेखनी दर्द और समस्या को अपने लेखन में रूप दे रही होगी। वे प्रकृत्या एक दबंग और सहिष्णु महिला हैं जो जाति और मजहब के कठघरे से बाहर निकल आयी हैं। साहित्य उनका जीवन है, रचना उनकी सांस है। अपनी तमाम घरेलू व्यस्तताओं के बावजूद जीवन और सांस के दायरे में वह सदैव रचनारत रहती हैं। वह उच्च आकांक्षाओं के भूधर पर नहीं चढ़ना चाहतीं। उनका कर्मठ और विचारशील जीवन ही ले जाए तो ले जाए।
यह समय गिरोहबाजी और खेमेबंदी का है। ये खेमे और गु्रपों में बंटे लोग धुंध में कैद जिन्दगी को न तो पहचानते हैं और न पहचानना चाहते हैं। उनकी मंशा सदैव यही रहती है कि उनका उल्लू सीधा होता रहे। स्वभाव से ये प्रतिक्रियावादी होते हैं इसलिए यहाँ जनहित और लोक साहाय्य की कोई बात न तो की जाती है और न हो सकती है। ऐसे माहौल में नासिरा शर्मा की लेखनी बेबाक बात कहती हुई सदैव आगे बढ़ती रहती है। इस अग्रगामिता में उनकी रचना के प्रति ईमानदार निष्ठा, अदम्य साहस और उत्साह प्रेरित लगन ही उन्हें लगातार तत्पर बनाए रखती है। उनमें समय और सम्बन्ध को अच्छी तरह पहचानने की समझ है। यद्यपि समय का सामना करना बहुत आसान नहीं होता पर उनका जुझारू व्यक्तित्व वह भी नयी ऊर्जा के साथ कर लेता है। इस सुफल के पीछे परिवार का साहित्यिक परिवेश, इलाहाबादी रचना-संस्कृति कारगर ढंग से काम करती रही है। वह किसी भी साहित्यिक व्यक्तित्व को बनाने में सक्षम है और उस पर नासिरा शर्मा को नाज भी है।
आगे बढ़ते समय में भाँति-भाँति के बदलाव आए हैं। ये बदलाव पुरुष की अपेक्षा नारी में अधिक दिखाई पड़ते हैं। पुरुष पहले भी आजाद था, आज भी आजाद है। नारी पहले भी परवशता की चक्की में पिसती रही है और इस बदले हुए जमाने में वह पूरी तरह आजाद नहीं है। यदि अनुपाततः देखा जाए तो पुरुष आज भी अपना वर्चस्व नारी से अधिक मानता है। सदियों से चली आती प्रथा के वशीभूत होकर पुरुष अपने को बड़ा मानता और कूतता रहा है। यह उसकी आदिम प्रवृत्ति किसी न किसी रूप में आज भी देखी-सुनी जा सकती है। कतिपय अपवाद मिल सकते हैं। उन्हें मैं छोड़ता हूँ। उन्हें निष्कर्ष में शामिल भी नहीं किया जा सकता। संघर्ष, मिलन, विछोह, दुःख-दैन्य, पीड़ा,मात्सर्य, धूप, छांव, सुबह, शाम, ऊब, थकान और पथरीला सफर ही तो जिन्दगी के शेड्स हैं। इन सारे तत्त्वों से भरपूर हैं नासिरा शर्मा की कहानियाँ, रचनाएँ। जिन्दगी फूलों की नरम और खुशबूदार सेज नहीं है। यद्यपि ऐसा हो नहीं पाता पर आदमी को, मानव मात्र को दूसरों की करुण कथाएँ सुनने का अवकाश निकालना चाहिए। लेखक का काम केवल इतना ही नहीं है कि वह यथार्थ का हृदय-विदारक चित्रण करे बल्कि उसे ऐसा परिवेश रचना चाहिए जिससे किसी भी आहत को देखकर उससे मिलकर आँखें नम हो सकें। यही परस्परावलम्ब की भावना ही साहित्य के उद्देश्य को पूरा करती है। नासिरा शर्मा की रचनाओं में एक ओर तो इन्द्रधनुषी रंगत है, दूसरी ओर पाठकों के मन को अपनी ओर खींचने की ऊर्जा है। निश्चय ही वह एक सिद्धहस्त रचना हैं।
नासिरा शर्मा के कथा-लेखन में शब्दों का अपव्यय नहीं होता। वाक्यों की बनावट और बुनावट उनकी अपनी है। वह उर्दू की आवश्यक शब्दावली से संवलित है। शब्द प्रयोगों की चातुरी से उनकी भाषा जानदार और धारदार बन गयी है। यह विशिष्टता उन्हें अपने समकालीनों से एकान्ततः अलग करती है। एक बार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि शब्दों के एक नहीं अनेक शेड्स होते हैं। लेखक को उन शेड्स की सही पहचान होनी चाहिए। मैं चाहता हूँ नासिरा शर्मा का लेखकीय सफर ऐसे ही जारी रहे। यह साहित्य के पाठकों के लिए गौरव की बात है।
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