Skip to main content

महादेवी वर्मा का नारी विषयक दृष्टिकोण

- डॉ. शोभारानी श्रीवास्तव
मानव जीवन के सर्वांगीण विकास में नर-नारी का समान योगदान है। भारतीय दर्शन एवं धर्म में ऐसी मान्यता है कि शिव शक्ति के बिना व्यक्ति शव के समान है। ‘शतपथ ब्राह्मण' में कहा गया है - पत्नी पुरुष की आत्मा का आधा भाग है। महाभारत में बताया गया है कि भार्या मनुष्य का आधा भाग है तथा श्रेष्ठतम्‌ मित्र है।
वेदकालीन संस्कृति में हमें नारियों के दो रूप मिलते हैं - दिव्य देवी रूप तथा सामाजिक। भारत में आर्य सभ्यता के पूर्व भी नारी को रहस्यमयी शक्ति ही माना गया था। यह भी तथ्य है कि अनेक देशों की संस्कृति में पशु और नारी में आत्मा की स्थिति ही नहीं स्वीकार की गई; किन्तु भारतीय संस्कृति ने नारी के आत्म रूप को ही नहीं उसके दिव्यात्म रूप को ऐसी प्रतिष्ठा दी जो देशकाल के परिवर्तन क्रम में परिवर्तित होते ही तत्त्वतः अपने मूल रूप में पहुँच गयी तथा भारतीय जीवन पद्धति में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
यदि केवल जन्म देने की रहस्यमयता ही स्त्री के महत्त्व का कारण होती तो तत्त्वतः पूजाई रूप प्राणिशास्त्रा के विज्ञान के विकास की चकाचौंध में खो जाता किन्तु उसका दिव्यात्मा रूप भारतीय संस्कृति में अनेक रूपों में स्थिति रहता है - भारत माता के रूप में, राष्ट्रीयता के रूप में, प्रकृति के रूप में, सांख्य दर्शन में, माया के रूप में, वेदान्त दर्शन में, शक्ति के रूप में, तंत्रा साधना में, राधा सीता के रूप में निगुण साधना में, सगुणोपासना में, ब्रह्म की अंशभूत प्रेयसी आत्मा के रूप में। अतः उसे भारतीय संस्कृति के विकास क्रम से भिन्न करके देखना असंभव है।
नारी का सामाजिक रूप उसके भावात्मक रूप से उसी प्रकार प्रभावित होता है जैसे वृक्ष के फल फूल धरती अंतर्निहित आर्द्रता से। सृष्टि में पुरुष तथा नारी की उत्पत्ति का एक ही केन्द्र है। वृहदारण्यक उपनिषद् कहता है कि ब्रह्म ने एकाकी न रहकर अपने आपको दो भागों में विभक्त कर लिया है, जिसके दक्षिण अंशक का पुरुष और वाम को नारी की संज्ञा दी गई।१
इस मान्यता ने दोनों की स्थिति समान कर दी है। शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप में ही यही अवधारणा प्रतिध्वनित होती है। वैदिक समाज में नारी के दो रूप प्राप्त होते हैं। एक में ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएँ, दूसरे में गृहधर्म का पालन करने वाली गृहणियाँ। विश्वास, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, श्रद्धा कामायनी वाक्‌ अंभ्रणी आदि ऋषिकाओं के सूक्तों में जीवन के प्रति जो आस्था तथा शक्ति आदि मिलती है उससे भारतीय संस्कृति की गरिमा बढ़ती है। दूसरा वर्ग नारी के पत्नी माता आदि रूप से संबंधित है। समाज की सबसे बड़ी संस्था पर ही सामाजिक सम्बन्ध आश्रित है। हमारी वैदिक संस्कृति यह सिद्ध करती है कि नारी का कर्म क्षेत्र केवल गृह ही नहीं था। वह संतान की रक्षा से राष्ट्र की रक्षा तक फैला हुआ था। ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी का स्वर आज भी भारतीय संस्कृति का जीवन गीत है - ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय।' भारतीय नारी की अतीत पृष्ठभूमि गौरवपूर्ण होने के साथ-साथ मानव विकास का एक उज्ज्वल आयाम भी है।
प्रथम ज्ञान की उस परम्परा ने जो नारी को परिग्रह का कारण, युक्तियों में बाधक तथा माया मानती थी और दूसरे युद्धों ने समाज में नारी की स्थिति को इतना प्रभावित किया कि वह सहयोगिनी से पुरुष की सम्पत्ति मानी जाने लगी। महाभारत और रामायण का समाज इसका ज्वलंत प्रमाण है। बौद्धकाल तक यह स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो उठी। स्मृति युग तक पहुँचते-पहुँचते समाज की संस्कृति तथा विकृति ऐसी संधि तक पहुँच गई कि पूर्व आदर्श तथा तात्कालिक विषम तथा यथार्थ का एक ही बिन्दु पर मिलना अनिवार्य हो गया।२
साहित्य में भी नारी का चित्रण समाजानुकूल ही हुआ है। उन्नीसवीं शती के सुधारकों ने महर्षि दयानंद, राजाराम मोहन राय ने नारी की व्यथा का अनुभव किया। वैदिक धर्म का पुनरुत्थान और ब्रह्म समाज का प्रारम्भ दोनों ही नारी जागरण के लिए वैतालिक सिद्ध हुए। इस सांस्कृतिक जागरण से भारत की अधोमुखी नारी की मुख छवि उज्ज्वल हुई। सहिष्णुता के लिए विख्यात नारी में विध्वंसक विद्रोह न स्वतंत्रता संग्राम में जागा, न स्वतंत्रता प्राप्ति के समय। यह आक्रोशपूर्ण विद्रोह आज जागा है।
नारी जागरण की दृष्टि से तो साहित्य उसके स्वत्व और व्यथा का समर्थ व्याख्याकार रहा है। कवियों के कंठ से भारत की जय के साथ-साथ नारी की जय भी ध्वनित हुई। बंकिम, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरत्‌चंद, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला आदि ने भारतीय नारी की महिमा की परिधि में उसकी युगान्तर दीर्घ मर्म व्यथा को वाणी दी। महिलाओं ने इस रचना पर्व में कितना सहयोग दिया है, यह हेमन्त कुमारी चौधरानी, सरोजनी नायडू, सुभद्रा कुमारी चौहान, तोरणा देवी आदि की रचनाओं से प्रकट है।
भारतीय नारी के जीवन में कितनी विडम्बना है किसी ने इसे त्यागमयी कहा, किसी ने ममतामयी देवी, किसी ने सहनशीलता और बलिदान की मूर्ति कहा तभी समझने लगी कि उसने बलिदान का पुरस्कार पा लिया। स्त्री किस प्रकार अपने हृदय को चूर-चूर कर पत्थर की देव प्रतिमा बन सकती है, यह देखना हो तो हिन्दू गृहस्थ की दुधमुँही बालिका से शापवती युवती में परिवर्तित होती हुई विधवा को देखना चाहिए जो किसी अज्ञात व्यक्ति के लिए अपने हृदय की, हृदय के समान ही प्रिय इच्छाएँ कुचल-कुचलकर निर्मूल कर देती है, सतीत्व और संयम के नाम पर अपने शरीर और मन को अमानुषिक यंत्रणाओं को सहने का अभ्यस्त बना लेती है और इस पर भी दूसरों के अमंगल के भय से आँखों में दो बूँद जल भी इच्छानुसार नहीं आने दे सकती। अर्द्धांगिनी की विडम्बना का भार लिए सीता सावित्री के अलौकिक तथा पवित्रा आदर्श का भार अपने भेदे हुए जीर्ण-शीर्ण स्त्रीत्व पर किसी प्रकार संभालकर क्रीतदासी के समाज अपने मद्यप दुराचारी और पशु से भी निकृष्ट स्वामी की परिचर्चा में लगी हुई और उसके दुर्व्यवहार को सहकर भी देवताओं से जन्म जन्मांतर में उसी का संग पाने का वरदान माँगने वाली पत्नी को देखकर कौन आश्चर्याभिभूत न हो उठेगा? पिता के संकेत मात्रसे अयोग्य से अयोग्य पुरुष का अनुगमन करने को प्रस्तुत स्त्री को देखकर किसका हृदय न भर आवेगा? पिता की अट्टालिका और वैभव से वंचित दरिद्र भगिनी को ऐश्वर्य का उपभोग करने वाले भाई की कलाई पर सरल भाव से रक्षाबंधन बाँधते देख कौन विश्वास कर सकेगा कि ईर्ष्या भी मनुष्य का स्वाभाविक विकार है और अनेक साहसहीन निर्जीव से पुत्रों द्वारा उपेक्षा और अनादर से आहत हृदय ले उनके सुख के प्रयत्न में लगी हुई माता को देखकर कौन ‘क्वचिदपिकुमाता न भवति' कहने वाले को स्त्री स्वभाव के गंभीर रहस्य का अन्वेषक न मान लेगा।३
महादेवी ने नारी समाज का जो चित्रण किया है वह बिल्कुल सत्य है। उन्होंने वकील बनकर नारी समाज की कोई वकालत नहीं की। ‘श्रृंखला की कड़ियाँ' में इलाचंद जोशी ने लिखा है - ‘‘महादेवी के जीवन का उद्देश्य केवल जीवन के अंधकारमय पथ को आलोकित करना ही नहीं था। युग-युग से समाज की कठिन लौह श्रृंखला द्वारा जीवन की काल कोठरी में कैद नारी समाज के प्रति उनकी जन्मजात सहानुभूति रही है। उन्होंने अपने ही पराक्रम से स्वयं अपनी श्रृंखला तोड़ी थी।''
‘श्रृंखला की कड़ियाँ' में उन्होंने जो कुछ कहा वह भारतीयता को समक्ष रखकर कहा है। उन्होंने केवल पुरुषों को ही भाषण व उपदेश नहीं दिए, प्रत्युत उन शिक्षित महिलाओं को भी समझाया है जो अपने कर्त्तव्यों को भूल बैठी है। ऐसी नारियों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा है - ‘‘यदि ये हमारी संस्कृति की रक्षक तथा भविष्य की निर्माता होतीं तो क्या इन्हें खिलौनों का-सा सारशून्य आडम्बर शोभा देता? जब इनके द्वार पर भविष्य की विधाता संतान प्रतीक्षा कर रही है, मानवता रो रही है, दैव गरज रहा है, पीड़ितों का हाहाकार गूँज रहा है, जीवन का अभिशाप बरस रहा है तब क्या भारत की नारी दर्पण के सम्मुख पाउडर क्रीम से खेलती होती? इस भूखे देश की मातृशक्ति को श्रृंगार का अवकाश ही कहाँ है? हमारे यहाँ संतान का अभाव नहीं है अभाव है माताओं का। अनाथालय भरे पड़े हैं, पाठशालाएँ पूर्ण हैं और फिर भी एक बहुत बड़ी संख्या में बालक-बालिकाएँ अनाथ की तरह मारे-मारे फिरते हैं। यदि हममें से कुछ स्वयं इनकी माता बनने का, इन्हें योग्य बनाने का व्रत ग्रहण कर लें, इन्हें मनुष्य बना देने में ही अपनी मनुष्यता को सार्थक समझ लें तो भविष्य में किसी दिन इनके द्वारा नवीन रूप-रेखा पाकर देश-समाज सब आज की नारी शक्ति पर श्रद्धांजलि चढ़ाने में अपना गौरव समझेंगे, इनके त्याग के इतिहास को अमरता देंगे।४
आने वाले युग में भारतीय समाज में स्त्री की क्या दशा होगी उसके अधिकारों की क्या सीमा होगी, आदि समस्याओं का समाधान आज की शिक्षित नारी पर निर्भर है। यदि वह सदा अपनी दुरवस्था के कारणों को स्मरण रख सके तो भावी समाज अवश्य सुन्दर बन सकता है, किन्तु यदि वह अपने विरोध को ही चरम लक्ष्य मान लें और पुरुष से समझौते के प्रश्न को ही पराजय का पर्याय समझ लें, तो जीवन की व्यवस्था अनिश्चित और विकास का क्रम शिथिल होता जाएगा।
इस तर्क प्रधान युग में कुछ स्त्रियाँ तो पुराने विश्वासों के विरोध में एक शब्द मुँह से नहीं निकालना चाहतीं, किन्तु कुछ ने घर से बाहर निकलकर कई महत्त्वपूर्ण कार्य कर डाले हैं जिनमें उन्हें पुरुषों से अधिक सफलता मिली है।
शताब्दियाँ बीत गईं, परिस्थितियाँ बदल गईं किन्तु नारी की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया और न ही समाज उसके जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन लाना चाहता है। समाज उसे, प्राचीन गौरव गाथाएँ सुनाकर बंधनों और कड़ियों में बाँधे रहना चाहता है। नारी को न तो अपने जीवन का कोई लक्ष्य ही बनाने का अधिकार है न समाज द्वारा निर्धारित विधान को तोड़ने का।
नारी जिन सिद्धान्तों को जानती है उन्हें आज उसे व्यावहारिक रूप देना होगा, क्योंकि ‘‘वही वृक्ष पृथ्वी तल पर बिना अवलम्ब के अकेला खड़ा रहकर झंझा के प्रहारों को मलय समीर के झोंकों के समान सहकर भी हरा-भरा, फल-फूल से युक्त रह सकेगा, जिनकी मूल-स्थिति शक्तियाँ विकसित और सबल है।''५
समाज को किसी न किसी दिन स्त्री के असंतोष को सहानुभूति के साथ समझकर उसे ऐसा उत्तर देना होगा कि जिसे पाकर वह अपने आपको उपेक्षित न माने और जो उसके मातृत्व के गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए उसे नवीन युग की संदेश वाहिका समझने में समर्थ हो। स्त्रियों के उज्ज्वल भविष्य की अपेक्षा रहेगी कि उसके घर बाहर में ऐसा सामंजस्य स्थापित हो सके जो उसके कर्त्तव्य को केवल घर या केवल बाहर ही सीमित न कर दे।
राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्तरों पर उसकी स्थिति आज की स्त्री से उच्चतर होनी अनिवार्य है। आगामी दशक की स्त्री स्वतंत्र देश की नागरिक होने के कारण अपने स्वत्व के लिए समाज से याचना करने की आवश्यकता नहीं समझेगी। युगों से दलित पीड़ित रहने के कारण जो हीनता के संस्कार बन गए थे; उन्हें आधुनिक भारतीय नारी ने अपने रक्त और प्रस्वेद से धो दिया है कि आगामी युग की नारी को उस पर कोई रंग नहीं चढ़ाना पड़ेगा।
सन्दर्भ :
१. महादेवी वर्मा, संभाषण, पृ. १०६।
२. वही, संभाषण, पृ. १०८।
३. महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, पृ. १४७।
४. योजराज थानी, गद्य लेखिका : महादेवी वर्मा।
५. योजराज थानी, गद्य लेखिका : महादेवी वर्मा, पृ. १७३।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...