यद्यपि मेरा प्रश्न परम्परागत ही है फिर भी! आप अपने आरम्भिक जीवन के उन संदर्भों या घटना विशेष पर प्रकाश डाले, जिसने आगे चलकर आप को लेखन के लिए प्रेरित किया?
देखिए, अधिकांश लोग लेखक से यही पूछता है कि आपकी प्रेरणा क्या है? पहले के जो लेखक और कवि थे, वे प्रेरणा झट से बता देते थे, लेकिन मैं आज तक प्ररेणा को खोज नहीं पाई कि कहाँ हैं! कई चीजें हैं मेरी जिन्दगी में, जैसे कि बचपन में कविताएँ मुझे अच्छी लगती थीं पढ़ने में, जब मेरे साथ के बच्चे समझते भी नहीं थे, हम दूसरी या तीसरी क्लास में थे तब जब बच्चे सोचते भी नहीं थे कि हम क्या पढ़ रहे हैं, लेकिन अब जब मुझसे प्रश्न होता है तब मेरे दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि मुझे कविता क्यूँ अच्छी लगती थी? बार-बार जिसे साहित्य कहते हैं मेरे बचपन में उसके जो बीज हैं या जो कुछ भी है, मैंने कई जगह लिखा है।
आओ हम सब झुला झुले,
पेंग बढ़ा कर नभ को छुले।
यह कविता मुझको बहुत अच्छी लगती थी। मैं जब तीसरी क्लास में थी तभी से। आज जब मैं उसके अर्थ खोजती हूँ तो मुझे उसका बहुत बड़ा अर्थ मिलता है।
आपने लेखन अपेक्षाकृत देर से आरम्भ किया, क्यों?
ऐसी स्थितियाँ नहीं हुई कि लेखन करती। उन दिनों, जिसमें छोटी कविता ने जन्म लिया उसके बाद मैं गुरूकुल चली गई, गुरूकुल में रही हूँ। अभी एक लेख भी आया है हंस में ‘गाँव में गुरूकुल' तो मैं गुरूकुल चली गयी दो सालों के लिये। वहाँ मुझे और साहित्य में रुचि आयी, जैसे शाम आ रही है, चिड़ियाँ लगीं चहकने। यह उस जमाने की याद है जब मेरी उम्र ८ साल थी। तो वहाँ जो है, पढ़ाई हाई लेविल की थी। उसके बाद जब मैं हाई स्कूल में पढ़ने गयी तो वहाँ मुझे वह माहौल नहीं मिला।
फिर कब मिला?
जब मैं ११वीं कक्षा में आई। ११वीं कक्षा में एक लड़का मेरे साथ पढ़ता था। मैं कोएजूकेशन में पढ़ी नहीं हूँ। मैं हमेशा लड़कों के स्कूल में पढ़ी हूँ, क्योंकि गाँव में लड़कियों के स्कूल नहीं होते थे। लड़कों का हो जाये यही बहुत है। एक लड़का पढ़ता था जब मैं ११वीं में थी वो मुझसे सीनियर था। शायद १२वीं कक्षा में था, शायद नहीं! टीचर के पास जँचने गई कापी में उसने एक कविता लिख दी उस लड़के ने, शायद उससे भी पहले की बात है। ठीक से त्मबंसस नहीं कर पा रही हूँ कि उसने मुझे कब एक पत्रा भी लिखा था। उस समय उम्र मेरी लगभग १४ साल की थी। उसे तुम प्रेम पत्र कह सकते हो और उसे पढ़कर या पाके एक उत्तेजना उत्पन्न हुई। बड़ा अच्छा-सा लगा था। जैसा कि किशोर अवस्था में होता है, वह सब मेरे साथ हुआ। मेरे हाथ भी काँपे उसे पकड़ते हुए। पढ़ते हुए। पढ़ा तो लगा यह प्रेम-व्रेम का चक्कर है। तो मैंने इधर-उधर देखा क्योंकि मैं सड़क पर खड़ी पढ़ रही थी, डर था कोई देख तो नहीं रहा। जबकि किसी को क्या पता मैं क्या पढ़ रही थी? लेकिन मन में एक चोर आया। उसके बाद जब मैंने वो कविता पढ़ी और अपने घर आकर मैंने ठण्डे दिमाग से सोचा कि यह लड़का लिख सकता है तो मैं क्यों नहीं लिख सकती हूँ। मुझे बहुत रुचि थी कविताओं में। अखबारों में से काटकर रख लेती थी कवितायें। उस समय ‘धर्मयुग' तथा ‘नवनीत' पत्रिका हमारे गाँव में आती थी। तो उनमें से काट-काट कर मैं कवितायें पढ़ती थी। हाँ, तो उस लड़के ने प्रेम पत्र लिखा तो मैंने कुछ नहीं कहा उससे, लेकिन मैंने पढ़ना और लिखना शुरू किया वहीं से। मैंने उसे लिखकर दिया भी नहीं कुछ। लेकिन वो बराबर मेरी कापी जहाँ भी मिलती थी कोई कविता लिख देता था और मैं उसे ले आती थी। इसे तुम प्रेम कहोगे या एक सीख कहोगे या इसे एक मुकाबला कहोगे? उससे मुझे बहस पड़ गयी और मैं लिखने लगी। उसको मैंने कुछ नहीं लिखा। अब यह लम्बी कहानी है कि कहाँ तक मेरे संबंध हैं उससे, मेरा रिश्ता है मित्रों का। जो उसने जोड़ा था और मुझे पता भी नहीं था कि क्या होता है, लेकिन आज तक मैं भी निभाती आयी और वो भी निभाते आये और जब ‘इदन्नमम' छपा तो मैंने उन्हें भेजा। आप को याद होगा कि कोई लड़की आप के साथ पढ़ती थी तो उनकी चिट्ठी मिली कि हाँ, मैंने तुम को रोज याद किया है और मैं जब भी झाँसी जाती हूँ तो मुझे स्टेशन लेने वो आते हैं कहते हैं कि कवि तो मैं था तुम लेखिका बन गयी मैं कुछ भी नहीं बना।
कथा साहित्य आप के सृजन के केन्द्र में रहा है इसमें कहानी और उपन्यास दोनों आते हैं दोनों ही में आपने लिखा फिर भी कहानियों की अपेक्षा उपन्यास लेखन के क्षेत्र में आप अधिक सक्रिय दिखाई देती हैं क्यों?
यूँ तो मैं कविता से प्रभावित हुई किन्तु उस लड़के के सारी कंपटीशन स्पर्धा के बाद। मैं कविता अच्छी नहीं लिख सकती थी यह मालूम पड़ गया। मैं कहानी लिखने की कोशिश करने लगी, मुझे लगा कि कहानी में मैं अपनी बात कह सकती हूँ। कहानी से ही शुरू भी किया और कहानी जो है वह पहचान में भी आयी ‘चिन्हार' जब छप के आयी तो काफी अच्छा लगा। फिर ‘ललमनियाँ', ‘गोमा हँसती है', यह सब हुआ। मेरी आदत क्या थी कि मैं विवरण बिना दिये कहानी नहीं लिखती थी। विवरण लम्बे-लम्बे हो जाते थे। ‘गोमा हँसती है' कहानी पढ़ो तो वही आदत थी तो मुझे जो एक आसानी मिली वो उपन्यास लिखने में मिली यहाँ मैं पूरी चीजें मैं अपने मन से कर सकती थी। मैं जिन-जिन चीजों को लेना चाहती थी मैं ले सकती थी। बस इसीलिए उपन्यास लिखे, नहीं तो मैंने ऐसा नहीं सोचा था कि मैं कोई उपन्यास लिखूंगी। ऐसा कभी नहीं सोचा था।
संभवतः वास्तविकता यह है कि आप के उपन्यास और कहानियों के पात्र वास्तविक जीवन से लिए गए हैं। यहाँ तक की उनके नाम भी यथार्थ है। क्या कभी आपको ये नहीं लगा कि इससे इतिहास और साहित्य के अन्तर पर कोई प्रभाव पड़ेगा?
पहले तो मैं यह बताती हूँ कि मैंने क्यों उन्हीं नामों को लिया, मैं बदल भी सकती थी और बदले भी, जैसे मंदा का नाम मंदा नहीं है, लेकिन मंदा है और वो सारे पात्र जो ‘इदन्नमम' के हैं, कुसुमा भाभी बकायदा है, दादा है सब कुछ है। ‘चाक' में नहीं हैं तो यह समझ लो कि नाम बदलने पर मुझे थोड़ी मुश्किल होती है उस पात्रा का चरित्र चित्रण करने में, फिर भी मैंने किया, लेकिन जहाँ नाम नहीं बदले हैं वहाँ बहुत स्वभाविकता आ गयी है। जो आदमी मेरे सामने खड़ा हो जाता है उसके सारे पहलू देखे होते हैं जैसे-डोरीया। ऐसे कई पात्रा हैं उससे मुझे आसानी होती है पता नहीं इतिहास और साहित्य में लोग अन्तर करते हैं । ‘कही ईसूरी फाग' सारा इतिहास है, लेकिन वह उपन्यास हो गया तो उसमें बहुत कम अन्तर है। लोग चाहे कुछ कहें कि उसमें बहुत बड़ा गैप है, वास्तव में बहुत कम अन्तर है। एक दृष्टि की बात है। आप की दृष्टि सृजनात्मक है। तो वह साहित्य हो जाएगा यद्यपि आपकी दृष्टि खाली तथ्यात्मक हो तो वह इतिहास हो जाएगा। इससे क्या फ़र्क पड़ता है, दूरी कितनी होगी, नहीं होगी, इसको मुझे सोचना नहीं है। यह तो समीक्षक सोचेंगे। पाठक सोचेंगे आगे के...।
यथार्थ कथानक और पात्रों के वास्तविक नामकरण के कारण कभी आपको किसी विषम स्थिति का सामना तो नहीं करना पड़ा?
एक दम करना पड़ा है। बहुत-बहुत करना पड़ा है। अभी मेरी जो आत्मकथा आएगी। ‘कस्तूरी कुण्डल बसै' में तो २१ साल तक का ही जीवन है। तब तक मेरा लेखन शुरू नहीं हुआ था। लेकिन अब जो आएगी तो उसमें देखना जरा कि कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और लिखते वक्त तो मैं बड़ी स्वाभिकता से लिख जाती हूँ, लेकिन बाद में जो बवाल उठते हैं तो फिर मैं सोचती हूँ कि क्या इसके बारे में मैंने सोचा नहीं, लेकिन बच के निकलना मेरी शायद आदत में नहीं, मेरे स्वभाव में नहीं, यह खतरनाक खेल अपने आप कैसे हो जाते हैं यह मेरी समझ में उस वक्त नहीं आता जब मैं लिख रही होती हूँ। लिखता तो जाने कौन है! मैं तो काफी डरने वाली औरत हूँ (हंसती हैं) लिखते वक्त मेरे हाथ में जो कलम आती है तो फिर कुछ नहीं सोचती हूँ, मैं कहाँ हूँ, और मैं कैसे लिख रही हूँ, जब लोग कहते हैं कि आप कहाँ बैठ कर लिखते हैं तो मैं बता देती हूँ कि मैं यहाँ बैठकर लिखती हूँ, लेकिन किस मुद्रा में लिखती हूँ मुझे यह भी पता नहीं होता कि मैं किस मुद्रा में बैठी हूँ तो यह हालत हो जाती है लिखते वक्त!
हालांकि आपके सभी उपन्यास साहित्य जगत् में यथेष्ट रूप से चर्चित और प्रशंसित हुए लेकिन आपको अपना कौन-सा उपन्यास पसन्द है और क्यों? इधर आपके उपन्यास को लेकर के कुछ अजब टिप्पणियाँ हुईं और उन पर आरोप-प्रत्यारोप सीमा से पार होते क्यों दिखे इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
प्रतिक्रिया तो बाद में बताऊँगी, सबसे पहले तो यह बताती हूँ कि प्रिय कौन-कौन-सा है, हालाँकि यह शायद समझ लो कि लोग यह बहुत कोशिश करते हैं कि रचना चर्चित हो। प्रशंसित तो नहीं कहूँगी, मेरा हर उपन्यास चर्चित हुआ। मेरा कोई उपन्यास नहीं गया ऐसा जिसे नजरअन्दाज कर दिया गया हो। लोग कहना नहीं चाहते, वही मैंने कहा जिनको शालीनता के नाम पर ढँका गया। नैतिकता के नाम पर ढँका गया, सामाजिकता के नाम से ढँका गया और परम्परा के नाम पर ढँका गया। नाम तो अच्छे-अच्छे दे दिए लेकिन सब रूढ़ियाँ हैं और इनको ढँकना नहीं चाहिए। हमें अपनी बात खुलकर कहना चाहिए ताकि सबके सामने आए। तुम मुझसे पूछ रहे हो कि कौन-सा प्रिय है तो मुझे यहाँ प्रिय है ‘चाक'। मैं सबसे यही कहती हूँ, जो भी मुझसे पूछता है। ‘चाक' जो है न उसको कोई एवार्ड कभी नहीं मिला ‘इदन्नमम' को बहुत मिले, ‘अल्मा कबूतरी' को मिले। ज्यादातर को मिले, लेकिन ‘चाक' को कुछ नहीं मिला और ‘चाक' ज्यादातर लोगों को अप्रिय है इसलिए मुझे प्रिय है। वह लोगों को डराता रहता है, लेकिन फिर भी दबे स्वर में ‘चाक' ही प्रशंसित होता है। अभी भी एक साहब ने लिखा है कि सारंग जैसी स्त्री नहीं (हँसती हैं) सारंग जैसी अद्भुत स्त्री नहीं। फिर भी लोगों को क्यों पसन्द आ रही है सारंग। मुझे लगता है कि सारंग को मैंने पूरा अपना मन उड़ेल कर लिखा है।
‘विमर्श' स्त्री से संबंधित हो या दलित से, इस पर काफी विचार किया जा चुका है और हो भी रहा है। आपने भी काफी कहा और लिखा सूत्र-रूप में एक बार फिर मैं आपकी विचारधारा जानना चाहता हूँ?
मैं तुमसे पहले कह रही थी ना कि जब मैंने लिखा तो एक सहज भाव से स्त्री की कहानी लिखी। मुझे नहीं पता था कि विमर्श क्या होते हैं? यह भी नहीं पता था कि जनवाद क्या होता है? प्रगतिवाद क्या होता है, यह जितने वाद हैं, क्या हैं? मैं दो समुदायों में रही हूँ। एक किसान दूसरा डॉक्टर, इसको चाहे तुम दो बिल्कुल विरोधी संस्कृतियाँ कह सकते हो, लेकिन अब मैं क्या करूँ संजोग की बात है कि मैं किसानों के बीच रही किसान की बेटी भी पढ़-लिख गयी और एक डॉक्टर से ब्याह दी गयी। पर मैं किसानों के यहाँ से आई और मैं दिल्ली की जो संस्कृति है उसको ज्यादा एडॉप्ट नहीं कर सकी चाह कर भी नहीं कर सकी। मेरे पति भी चाहते थे कि मैं दिल्ली की स्त्री बनू, दिल्ली का ‘स्त्री-विमर्श' सीखूँ, लेकिन मैं नहीं बन सकी, मैंने कोशिश बहुत की थी जब तुम पढ़ोगे ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' तब तुम बहुत हंसोगे कि मैंने कितनी- कितनी कोशिशें की थी। अपने को बदले की लेकिन कुछ न हो सका। मैं वही गाँव की रही हूँ। तो विमर्श को मैं क्या जानती। विमर्श नाम मैंने सुना ही नहीं था। मैं जानती भी नहीं थी। मैं सहज भाव से कहानियाँ और उपन्यास लिख रही थी यह तो समीक्षकों ने कहा, दिल्ली के लोगों ने कहा, साहित्य के लोगों ने कहा, कि ये ‘स्त्री विमर्श' है। मैंने कहा अच्छा। अच्छा मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा कि ‘स्त्री विमर्श' है या नहीं है। लेकिन हाँ, जब-जब मुझसे पुछा कि आप स्त्री हो के अपने को लेखिका मानती हैं या लेखक मानती हैं या स्त्री मानती हैं या खाली लेखक मानती हैं। मैंने कहा कि, मैं पहले स्त्री हूँ बाद में लेखक हूँ। फिर भी अनुभव और अनुमान में कुछ फ़र्क तो होता है। ‘स्त्री-विमर्श' की हम बात करते हैं तो अनुभव और अनुमान का फ़र्क है, लिखते तो पुरुष भी आये हैं लेकिन हम तो अनुभव को देते हैं। हमारा जीवन अपने हाथ में लिया तो हमें ऐसा लगा कि हम अपना जीवन ऐसा बनाना चाहते हैं हमारी इच्छा यह है। आपने हमारी इच्छा नहीं पूछी। नहीं पूछी तो हम कब तक चुप रहेंगे? अब हम आपको अपनी इच्छा बताते हैं जिस तरह पुरुष की नैसर्गिक इच्छाएँ हैं वो हम स्त्रियों की भी होती हैं। जो आप ने एकदम निष्क्रिय कर रखी है। आप को निष्क्रिय स्त्री अच्छी लगती है उसकी सारी इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ हो या कर्मेन्द्रियाँ निष्क्रिय हों। आप को अच्छी लगती है, शालीन लगती हैं, शालीनता, नैतिकता हमारी निष्क्रियता के नाम है ये शालीनता नैतिकता और कुलवधु और फलाने और ढिकाने और सब चीज है ये सब हमारी निष्क्रियता के नाम है। जब हम सक्रियता से आगे आते है तो हम कुलटा होते हैं। हम बदचलन होते हैं। हम उच्छृंखल होते हैं। क्या-क्या नाम नहीं दिये जाते है? ‘चाक' पर टिप्पणियाँ आई हैं वह सब मुझे पता है। सारंग आगे-आगे चलती है, इसलिए बदचलन है वह। उस पुरुषवादी सोच को यह सारंग जिस तरह आयी है पसन्द नहीं आयी है लोगों को, पुरुष तो न जाने कितनी बार सारी नैतिकता फलाँग जाता है, कोई गौर भी नहीं करता है। आज हमारे नेताओं को देखो अफसरों को देखों, यहाँ तक साधारण आदमी है उसको देखो, छोटे से छोटा आदमी है, मजदूर है, उसको देखो सब अपनी नैतिकता तुरन्त खत्म कर देते हैं, लेकिन उसको कोई गौर नहीं करता है सारी नैतिकता स्त्री के गले बधीं है। मतलब यह कि घर की सारी मर्यादा स्त्री ही निभायेगी, वह अपनी निष्क्रियता में शिखर पर होगी तभी निभायेगी! अगर वह जरा भी कुछ बोलती है, उसकी जुबान कुछ बोलती है, उसकी आँखें कुछ देखती हैं, उसके कान कुछ सुनते है, वह कुछ भी प्रतिक्रिया देती है, बस! वह अच्छी औरत नहीं है। अच्छी औरत वह है जो अपने कान बन्द रखे आँखों पर परदा डाले रखे, जुबान बन्द रखे, जवाब न दें, कहते हैं ना लड़कियों से, बेटी जवाब न देना। वह अच्छी औरत है, ऐसी अच्छी औरत मुझे नहीं बनना है। मैंने अपने उपन्यासों में यही कहा है। हम से पूछो कि हम अच्छी औरत कैसे बनेगें। हमसे भी तो पूछो आपने जो नियम बनाए, कानून बनाए, कायदे बनाये, हमारे लिए हम से तो पूछकर तो नहीं बनाए है ना? आप ने ही बनाएँ अब हम मानते ही चले जाएँ जरूरी तो नहीं!
महिलाओं को लेकर साहित्य और समाज की सोच में इतना अंतर क्यों है? मेरा मतलब है कि स्त्रियों को लेकर साहित्य में हम जितने प्रोग्रेसिव हैं समाज में वह नहीं दिखता है ऐसा क्यों? प्रकारांतर से सिद्धांत और व्यवहार की गहरी खाई कब तक पटेगी?
देखो अभी जो साहित्य पुरुषों द्वारा आया है उसमें तो विद्रोह नाम की कोई चीज नहीं है। विरोध भी करते हैं तो बड़ी शान्ति के साथ, शान्त भी नहीं, बड़ा ही माईल्ड्, जिसे कहना चाहिए बहुत ही मुलायम, मुलायम विरोध कोई मानेगा क्या? जो स्त्रियों ने लिखा, वहाँ भी एक झिझक है। दो टूक नहीं, जब तक बेकरारी नहीं आती किसी चीज में तो पारदर्शिता कहाँ से आएगी? तो बात यह है, अब समाज में जम्प आएगा जैसे कि हम तुलसीकृत रामायण को पढ़ते हैं, तो सीता-सी लड़की होनी चाहिए, लक्ष्मण-सा भाई होना चाहिए, भरत-सा भाई होना चाहिए, राम-सा मर्यादा पुरुष होना चाहिए, ऐसा करते हैं कि नहीं और घर-घर उसकी गूँज है न? ऐसे ही यह साहित्य पढ़ा जाएगा। जो आज आ रहा है। अब तो नई लेखिकाओं द्वारा काफी अच्छा आ रहा है। जो आज की युवा पीढ़ी है वह उस तरह नहीं है जैसी पिछली थी। जो यह साहित्य आ रहा है पढ़ा जाएगा। अब तुम कहोगें की पढ़ा कैसे जाएगा? तुम तो आये हो न? ऐसे ही जो नई पीढ़ी है, पढ़कर आएगी और उस पर विचार करेगी। आज की पीढ़ी ऐसी भी नहीं है कि अंधानुकरण करे। वह विचार करती है। यह ही हमारी आशा है। यह युवा पीढ़ी पर लगी हुई है। यह ही जो विचारवान पीढ़ी है। ऐसे हार नहीं मान लेती। जब ये आएगी तो बदलाव आएगा। आ भी रहा है। क्या इतनी लड़कियाँ पहले तुम्हें बाहर दिखती थीं? नहीं! लड़कियों का रूझान ऐसा दिखता था? माना कि पहली-सी परम्पराएँ चल रही हैं आज भी, अगर लड़की अपनी मरजी से शादी करती है तो गाँव में मार दी जाती है। लेकिन ये तो एक गोट है जब जब बदलाव आता है तो विरोध भी तो होता है। बदलाव आता है तो दोनों तरफ। मार-काट होती है। उधर मर्यादाओं, नैतिकताओं और रूढ़ियों में टूटन-फूटन भी होती है। टूटन-फूटन वही करते हैं जो बदलाव लाना चाहते हैं। स्त्री हो या पुरुष? यह सब होता है, तब ही नया समाज बनता है। पुराने जमाने में यानी अंग्रेजों के जमाने में जो समाज था। वह आज नहीं है। ना पुरुष को ले के ना स्त्री को लेके। लेकिन स्त्री में थोड़ा बदलाव आया है, नाम को! और पुरुषों में तो बहुत आया है। जैसे मैं कहती हूँ कि, पुरुषों ने तो पैंट कमीज कोट तभी पहन लिया था जब अंग्रेज थे। स्त्री बिचारी ने कोई स्कर्ट नहीं पहना था, लेकिन अब स्त्री भी अपनी सोच से चल रही है। कुछ समझने लगी है। गाँव में भी थोड़ी शिक्षा पहुँची है। इसलिए बदलाव आएगा लेकिन पाँच हजार साल की स्त्रियों का इतिहास है वह एक दिन में नहीं बदल जाएगा।
बहुत सारे लेखक आलोचक अपने लेखन में तो स्त्री मुक्ति के समर्थक हैं, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में घोर पुरुषवादी हैं। इस संदर्भ में आपका क्या मानना है?
देखो, सिद्धान्त गढ़ना तो बहुत आसान है, लेकिन उनको व्यावहारिक रूप देना उतना ही कठिन है। मैं बहुत से लोगों को देखती हूँ कि मंच से क्या-क्या बोलकर आते हैं और घर में क्या-क्या करते हैं? ताज्जुब भी होता है कि जैसा कहते हैं वैसा जीवन नहीं है उनको तो बदलना पड़ेगा, उनको अपने आपको बदलना पड़ेगा। अगर वह नहीं बदलेंगे तो उनके आगे की पीढ़ी बदलेगी। नहीं बदलेगी तो उनका निभाव नहीं है और स्त्री और पुरुष मिलकर ही एक समाज बनाते हैं। हर हालत में चाहे धीमा हो, परिवर्तन करना ही पड़ेगा। यह बहुत दिनों तक नहीं चलेगा कि आप कह कुछ रहे हैं और कर कुछ रहे हैं। यह दोगली नीति साहित्य को प्रभावशाली नहीं बनायेगी। तभी तो अभी तक स्त्रियों के लिए आदमी का कलेजा पिघला नहीं है। जबकि हमें उदाहरण दे देकर किताबें दिखाते हैं, कि देखो इसको पुरुष ने ही लिखी हैं और कितनी बढ़िया लिखी हैं। स्त्रियों को ठीक है वो हमदर्दी दे देते हैं, दया दे देते हैं लेकिन यह सब कहने की बातें हैं, दिखाने की बातें हैं, लेकिन व्यवहार में अपने लिए जो सुविधा चाहिए उसमें कमी नहीं होनी चाहिए।
महिला लेखन के संदर्भ में आप पर बहुत सारे आरोप-प्रत्यारोप लगाये जाते हैं विशेष रूप से यौन संदर्भों के चित्रण को लेकर, तो इस पर आप की क्या प्रतिक्रिया है?
मेरे ऊपर आरोप लगाये जाते हैं ना, जब तुम यही कह रहे हो कि महिला लेखन के संदर्भ में तो मैं महिला हूँ इसलिए आरोप लगाये जाते हैं, अगर यही चित्रण पुरुष करता है तो शायद यह इतना अजीब ना लगता। महिला कर रही है इसलिए बहुत अजीब लग रहा है, लेकिन उसके पहले कृष्णा सोबती ने भी लिखा है। शायद मैंने कुछ ज्यादा ही लिख दिया है? एक बात मैं पूछा करती हूँ और तुमसे पूछ रही हूँ जो स्त्री का शरीर है या पुरुष का शरीर है मान लो शरीर है। उसमें हर चीज का अपना महत्त्व है तो यौन संबंधों से इतना परहेज क्यों है। जबकि सृष्टि उसी से चलती है विवाह उसी से चलता है। जैसे विवाह संस्था को पवित्र और उच्च माना जाता है उसी से चलता है? है ना। चाहे वो विवाह स्त्री की राजी से हुआ हो या ना हुआ हो लेकिन जो यौन संबंध हैं वो जायज माने जाते हैं और पवित्र भी माने जाते हैं, जो नाजायज संबंध माने जाते हैं यौन संबंध हैं, वे समाज में हैं? यह तो है या नहीं हैं। बल्कि उस जायज संबंधों से ज्यादा नाजाइज संबंध पनपते हैं इस समाज में। जायज का हमारे लिए एक नियम बना दिया गया है। बस तो नियम तोड़ने की जो प्रवृत्ति होती है वह जन्मजात होती है। नियम में बंधकर कोई भी नहीं रहना चाहता है। पंछी भी नहीं रहना चाहता है, वो भी उड़ते हैं। यौन संबंधों का उतना ही महत्त्व हैं जितना हमारे मन का, दिमाग का है। है ना। बार-बार यही कहना चहाती हूँ कि ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का जितना महत्त्व है, यौन संबंध उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इससे इतना परहेज क्यों? अच्छा जैसे आप पत्नी बनाते हैं उसे कहते हैं धर्मपत्नी है ना। लेकिन उससे यौन संबंध ना हों तो? यौन संबंध तो होते ही हैं, उसी को आपने नाम दिया है ना। फर्क इतना होता है पत्नी सब करती है बिना कुछ दिए लिए। आपके लिए हाजिर रहती है। आपकी इच्छा से, चाहें उसकी इच्छा हो या ना हो और जो दूसरी औरत है आपसे कुछ ले के तब आपके लिए हाजिर होती है, इच्छा उसकी भी हो या ना हो। आप उसकी इच्छा कभी नहीं देखते हैं, तीसरी रखैल जो होती है वो भी आपकी इच्छा लेकिन आप सबको बराबरी का दर्जा नहीं देते हैं। रखैल, वेश्या यह नाम आपने दिया है स्त्री को। तो यह क्या यौन संबंधों के वर्णन से कम बड़ा अपराध है? उस पर कभी गौर किया कि नहीं? मेरा तो अपराध मान लिया आपने वेश्याओं की बस्तियाँ अलग बसा दी और कहा कि जब मेरी इच्छा करेगी तो मैं वहाँ आ जाऊँगा। एक मेरी पत्नी हो और एक और रह रही है वो तो रखैल है उसको तो सिर्फ सरंक्षण देना है। आपने तो इतनी सुविधा पैदा कर ली, जब स्त्री और पुरुष की बराबरी की बात करती हूँ, यौन के स्तर पर तो आपको बुरा क्यों लगता है? बुरा इसलिए लगता है क्योंकि मैं उस व्यवस्था को तोड़ रही हूँ! इसीलिए आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं, लेकिन जब यह चीजे रूकेंगी नहीं तो आरोप-प्रत्यारोप सब खण्डित हो जायेंगे। बार-बार यही तो कह रही हूँ कि जब समानता के लेविल पर आती है तो विरोध तो उसका बहुत करते हैं लेकिन छुप-छुप के उसे ही पढ़ते हैं।
वर्तमान हिन्दी कथा साहित्य को आप किस मुकाम पर पाती हैं। हिन्दी कथा साहित्य में महिलाओं की स्थिति को आप लेखन के रूप में किस प्रकार देखती हैं। स्थिति क्या संतोषजनक है या अभी और स्पेस (स्थान) है?
जो नब्बे का दशक आया ये काफी आशाएँ लाया है। लग रहा है कि स्त्री को लेकर जो साहित्य लिखा जा रहा है वह दिन पर दिन विकास कर रहा है। जो पुरानी एक झिझक थी वह टूट रही है, तमाम विरोधों के बावजूद भी! हालाँकि जो लेखिकाएँ ७० के दशक में थी वह आज भी हैं। शुरू में जो नई पीढ़ी आई या हम जैसे लोगों ने बदलाव की बातें की तो उन्हें बुरा लगा, लेकिन अब वो गौर करती हैं कि नहीं... तभी कुछ हो सकता है। अभी जो हो रहा है उससे तो वाकई आशा दिखती है उतना लिखने वालों से नहीं लगती। जितनी की पढ़ने वालों से लगती है। जो रिसर्च करते हैं उनसे लगती है, कि ये क्यूँ इसकी आशा करते हैं जिनका इतना विरोध हो रहा है उससे आशा करते हैं। क्योंकि वह भी उसी तरह सोच रहे हैं जैसे हमने सोचा है जैसा आजकल सभी सोच रहे हैं। उसमें उनकी रुचि है। ऐसा नहीं है कि उन्हें कुछ मिल नहीं रहा है, वह पुराने पर भी कर सकते हैं! जब मैं इसको देखती हूँ तो तब मुझे बड़ा ही सकारात्मक फीड-बैक मिलती है। हिम्मत बंधती है। आगे चलने का उत्साह होता है, इसीलिए साहित्य बिल्कुल नये स्तर से विकासमान तो है ही ।
चूँकि आप का संबंध ग्रामीण और शहरी परिवेश में रहा है और आपने दोनों ही जीवन को संभवता निकट से देखा है तो कोई ऐसा पक्ष या अन्तर जो आप को गहराई से कचोटता है?
देखो, २० साल तक जीवन काटा था गाँव में। अभी संबंध बना हुआ है। आना-जाना बना हुआ है। जितना मैं यहाँ रहती हूँ शहर में, उसका एक तिहाई हिस्सा मैं जरूर वहाँ रहती हूँ गाँव में। यहाँ का जीवन एक तो रूटीन है। सुबह जाना शाम को आना। यहाँ का जीवन केवल केबल टी.वी. पर जिया जाता है। मेरा शायद इससे जो काम है वह बिखर रहा है। यहाँ केवल पैसा कमाने के नीयत से आए हैं ये किसी के दिमाग से जाता नहीं है। क्योंकि कोई यहाँ का निवासी नहीं है। सभी अपने अपने घर छोड़-छोड़ कर यहाँ पर आए हैं, तो वह सोचते हैं कि हम पैसा कमाने के लिए आए हैं, चौथी बात यहाँ सुविधाएँ हैं वह सुविधाएँ ही कहीं तक कमजोर करती हैं आदमी को। अब कोई भी कह सकता है क्या सुविधा नहीं होनी चाहिए? गाँव में भी सुविधाएँ जा रही हैं तो वहाँ भी कमजोर हो जाएगा, लेकिन जिस तरह से आदमी सुविधाओं को ले रहा है वह खतरनाक है। सुविधाएँ जिस दिन गाँव में पहुँच जाएंगी गाँव-गाँव तो नहीं रह जाएगें। उनके अन्दर एक भावना रहती है। एक जुझारूपन होता है। वह भी खत्म होता चला जाएगा। रिमोट कंट्रोल वाला जीवन जहाँ भी होगा वहाँ यही सब होगा क्योंकि तुम देखते होगे। मैं उदाहरण दूँ कि, रिमोट कंट्रोल से जो बम फूटते हैं वह तीर-तलवार वाले युग से हीन हैं, क्योंकि इनमें तीर-तलवार वाली वीरता नहीं है। रिमोट कंट्रोल से जो बम विस्फोट करते हैं वो सब पीठ पीछे की बात हैं। तो उसी से पता चलता है कि उनमें कितना साहस बच गया है। पहले पीठ पर वार करना कायरता माना जाता था। अब पीठ पर ही वार करना उचित है। यह सब चीजें मैं स्त्रिायों में पाती हूँ। गाँव की स्त्री संघर्षों का सामना करती है, उसके अन्दर साहस है यहाँ की स्त्री सिर्फ अपने को बचाने में अपनी सुरक्षा में, सुख-सुविधाओं की तलाश में रहती है। जल्दी में जैसे पुरुष भी है, स्त्री भी है। यहाँ तो सभी बहुत जल्दी में हैं। सभी को सफलता चाहिए, लेकिन सफलता और सार्थकता में बहुत अन्तर है। आप सफल हो सकते हैं लेकिन आप का काम सार्थक नहीं हो सकता है। बहुत से पी.एच-डी. करने वाले जो आते हैं वह वायवा करा के डिग्री ले जाते हैं, लेकिन उनका काम कितना सार्थक होता है? काम तो ऐसा होना चाहिए कि हमारा हो या तुम्हारा किसी का काम हो उसको आगे आने वाली पीढ़ी देखे। वही चीज सार्थक है, लेकिन यही चीज यहाँ मुझे दिखाई नहीं देती है। जो संघर्ष करते हैं किसी भी स्थिति में वह साहस न खोकर और कुछ नया करने की जिद रखते हैं। देखो, खाली डे्रस बदलने से हम नहीं बदलते हैं खाली जो वेशभूषा बदलने से भाषा बदलने से हम नहीं बदलते हैं, हमको बदलना है तो अपना पूरा संस्कार बदलना होगा। इसके लिए न भाषा बदलने की जरूरत है न डे्रस बदलने की जरूरत होती है। वस्तुतः आधुनिकता बाहरी न हो, मैं तो नहीं कहूँगी नहीं होनी चाहिए। भइया खूब करो लेकिन आधुनिकता अन्दर से हो तो वह सार्थक है। एक पत्रा छपा है वार्ग्थ के अंक में। मैंने विजय बहादूर सिंह के जो कि एक समीक्षक हैं के नाम लिखा, मुझसे उन्होंने मेरी शैली के बारे में कहा था। आपकी शैली कुछ नयी नहीं है तो, मैंने कहा कि शैली के दो रूप होते हैं एक तो हम ऊपर से उसका रूप बदलते हैं उपन्यास हम किस शैली में लिखेंगे कैसे लिखेंगे या हम पाठक को कैसे आकर्षित करेंगे दूसरी अंदूरुनी लेबिल पर होती है तो मैं अंदूरुनी स्तर के बदलाव की पक्षधर हूँ। यदि आप को लगा कि मेरे उपन्यासों की स्त्री पात्रों ने पुरुष पात्रों के अन्दूरुनी जो रूढ़ संस्कार को तोड़ दिया यदि कुछ किया है तो निश्चित ही शैली में बदलाव आएगा।
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उनकी बेबाकी ही उनके लेखन की ताकत है .