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मध्यकालीन हिन्दी भक्तिकाव्य और नारी-विमर्श के आयाम

- प्रो. रमेश शर्मा
नारी-विमर्श वर्तमान साहित्य-चिन्तन का एक सुचिन्तित आयाम है। नारी-विमर्श और दलित-विमर्श हिन्दी साहित्य के मनीषियों के लिए आज उसी प्रकार लुभावने फैशन बन गए हैं, जिस तरह कभी मार्क्सवाद को हिन्दी मनीषियों ने अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए अपनी विशेष पहचान के रूप में एक साहित्यिक फैशन बनाकर अपनाया था। विमर्शन को कभी काल की सीमाओं में बाँधकर नहीं देखा जा सकता। इसे किसी सिद्धान्त विशेष के रूप में भी सीमित नहीं किया जा सकता। यह तो जीवन-संदर्भित चिन्तन का एक सतत्‌ प्रवाह होता है जो विभिन्न माध्यमों से विभिन्न रूपों में प्रकाशित होता है। जीवन के अनुभूतिगत प्रकाश का प्रकाशन ही विमर्शन है। साहित्य भी जीवन के अनुभूतिपरक प्रकाशन का एक माध्यम है। साहित्य की अबाध धारा जीवन के विविध आयामों को निरन्तर विमर्शन की ओर ले जाती है। नारी-विमर्श भी मानव के जीवन-संदर्भित विमर्श का एक आयाम है जिसके सम्यक्‌ स्वरूप तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम मानव-जीवन से उस प्रस्थान बिन्दु तक न जायें जहाँ मानव एक संस्कारित जीवन की ओर उन्मुख हुआ है।
मानव का सामाजिक स्वरूप और तज्जन्य सामाजिक व्यवस्था पुरुष और नारी के शारीरिक, मानसिक और भौतिक संदर्भों में सामरस्य हेतु बनी परस्पर सहमति का परिणाम है। मानव-जीवन में सामरस्य की खोज में हुए विमर्श का परिणाम ही समाज की परिवार व्यवस्था है। परिवार के रूप में स्त्री और पुरुष ने अपनी रागात्मिका वृत्ति को आधार बनाकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक ऐसी सामाजिक संस्था का विकास किया जिसका विस्फार ही सामाजिक संरचना और जीवन के अनेक संदर्भों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था है जिसका एक प्रधान अंग नारी है। अतः नारी-विमर्श की अवधारणा को हमें परिवार नामक संस्था की स्थापना के संदर्भ से ही देखना होगा।
यह सहज अनुमन्य है कि प्रारम्भ में मानव समाज के प्रादुर्भाव के समय नारी और पुरुष के कार्य-संसार का विभाजन उनकी प्रवृत्तियों और क्षमताओं के आधार पर दोनों की सहमति से ही हुआ होगा। नारी की इस सहमतिजन्य जीवन-अस्मिता के स्वरूप में ही हम आज के नारी-विमर्श के बीज खोज सकते हैं।
भारतीय सामाजिक चिन्तन और साहित्य में नारी-विमर्श की एक अविच्छिन्न श्रृंखला है जिसके आधारभूत तत्त्व नारी-देह की प्राकृतिक संरचना, नारी-मनोविज्ञान और नारी-जीवन के सामाजिक संदर्भ रहे हैं। आज की नारी-विमर्श सम्बन्धी धारा भी इन्हीं आधारभूत तत्त्वों से किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई हैं, नारी-विमर्श के प्रति अतिशय मोह और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के नारों से मोहित विद्वानों द्वारा अपनी पहचान बनाने की होड़ ने नारी-विमर्श को भटकाव के रास्ते पर लाकर छोड़ दिया है जिससे मानव-समाज का रचनातंत्रा चरमरा रहा है लेकिन उसके सामने नव निर्माण की कोई दिशा नहीं है।
प्राचीन भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक साहित्य में नारी की सृजनशक्ति को आधार बनाकर उसकी अर्थवत्ता को स्वीकार करते हुए नारी-विमर्श की नींव रखी गई है। भारतीय संस्कृति के प्राण आगम और निगम दोनों में ही नारी के महत्त्व और जीवन में उसकी अर्थवत्ता को स्वीकार किया गया है। मनुस्मृति भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मूलभूत दस्तावेज है। आज के बदलते संदर्भों में उस व्यवस्था पर अनेक प्रश्न-चिह्न लग जाते हैं क्योंकि कोई भी व्यवस्था काल प्रवाह के संदर्भ अप्रासंगिक हो जाती है और होनी भी चाहिए, लेकिन किसी भी व्यवस्था की सामाजिक संचेतना कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकती यदि वह मानव-मनोविज्ञान को आधार बनाकर चली है। मनुस्मृति के साथ भी ऐसा ही है, उसमें वर्णित सामाजिक व्यवस्था जिस मानव-मनोविज्ञान को आधार बनाती है वह सामाजिक संरचना के लिए कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकती। मानव-मनोविज्ञान की उपेक्षा कर अस्तित्त्व में आयी मार्क्सवादी सामाजिक व्यवस्था की दुर्दशा आपके सामने है। मनुस्मृति में सामाजिक संरचना के लिए नारी के रूप में एक जीवन-दृष्टि है, लेकिन रचनात्मक रूप में, ध्वंसात्मक रूप में नहीं, साथ ही मानव-मनोविज्ञान के गंभीर चिन्तन के बाद।
स्मृतियों में नारी-विमर्श को सामाजिक न्याय का आधार दिया गया है। मनु नारी के जीवन-संदर्भ में नारी को पुरुष के साथ समानता का अधिकार देते हुए कहते हैं-
यो भर्त्ता सा स्मृताङ्गना।
(जो भर्त्ता है वही भार्या है)
अन्यत्र भी -
स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधा रूपो बभूव ह।
स्त्री रूपो बामभागांशो दक्षिणांशः पुमान स्मृतः॥

मनु ही नहीं याज्ञवल्क्य भी परिवार के संदर्भ में नारी-विमर्श को केन्द्र में रखकर कहते हैं -
भर्तृभ्रातृ पितृजाति श्वश्रुश्वसुर देवरैः।
बन्धुभिश्च स्त्रिायः पूज्यां।
अर्थात्‌ समाज में नारी के सभी सम्बन्धिओं द्वारा नारी पूज्य है।
केवल स्मृतियों में ही नहीं भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन में भी शक्ति-परिकल्पना और शाक्त-साधना के रूप में नारी शक्ति की प्रकारान्तर से यथार्थ स्वीकृति रही है। देवी भागवत में स्त्री-शक्ति को समस्त कलात्मक जगत्‌ का पर्याय माना गया है -
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः,
स्त्रियः समस्ता सकला जगत्सु।
शक्ति संगम तंत्र में शक्ति रूपा नारी का स्वरूप वर्णन करते हुए नारी-विमर्श को सामाजिक संदर्भ में एक विशिष्ट आयाम के रूप में दिशा दी गई है -
‘नारी त्रैलोक्यजननी नारी त्रैलोक्यरूपिणी।
नारी त्रिभुवना धारा नारी देहस्वरूपिणी॥
...
न च नारी समं सौख्यं न च नारी समागतिः।
न नारी सदृशं भाग्यं न नारी सदृशो तपः॥
...
न नारी सदृशो योगो न नारी सदृशं यशः।
न नारी सदृशं मित्रं न भूतो न र्भाविष्यति॥
प्राचीन भारतीय चिन्त-धारा का यह नारी-विमर्श आध्यात्मिक चिन्ताधारा में विलीन होकर जीवन-व्यवहार में नारी-अस्मिता को बहुत सुदृढ़ आधार नहीं दे सका। पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था के विकास के साथ जिस पुरुष मनोविज्ञान का विकास हुआ वह नारी-मनोविज्ञान के प्रकाश में विकसित होने वाले नारी-व्यक्तित्व के सहज विकास में बाधक होता चला गया। इसी का परिणाम है कि सामाजिक व्यवस्था में नारी-जीवन अनेक विद्रूपताओं का शिकार होता चला गया। पुरुष के निरंकुश जीवन और उसकी सामंती मनोवृत्ति ने नारी के अधिकारों का अपहरण करके उसकी सहज अस्मिता पर संकट खड़ा कर दिया। मध्यकाल तक आते-आते नारी-जीवन अनेक विसंगतियों से भर गया था, यही कारण है कि हिन्दी भक्तिकाव्य धारा में नारी-विमर्श सशक्त होकर रचनाओं के रचनातंत्र और रचना-रहस्य के रूप में आया है। सन्त काव्य को छोड़कर हिन्दी भक्तिकाव्य की सम्पूर्ण काव्य-चेतना सामाजिक संदर्भ में नारी-विमर्श को ही केन्द्र में रखकर अपने रचनातंत्र का निर्माण करती है। नारी-जीवन की अस्मिता इस काव्यधारा के रचना रहस्य के रूप में अनुभावित की जा सकती है।
मध्यकाल तक नारी-जीवन सामान्यतः मानव-समाज की आधारभूत संस्था परिवार तक ही सीमित था। पारिवारिक संरचना को सुदृढ़ करने के लिए नारी-विमर्श को एक ऐसा मोड़ दे दिया गया जिसमें नारी व्यक्तित्व के सहज विकास की पूर्णतः उपेक्षा थी। नारी-विमर्श की यह धारा नारी-मनोविज्ञान की उपेक्षा कर उसे कृत्रिम आदर्शों पर बने सामाजिक साँचे में ढालने का प्रयत्न कर रही थी। हिन्दी भक्तिकाव्य धारा के नारी-विमर्श की इस विसंगति को पहचाना और अपनी सामाजिक चिन्ता को सामाजिक संदर्भ में विकृत हुए उस नारी-जीवन की ओर मोड़ दिया जिसकी बेड़ियों में कसी हुई नारी बिबस होकर कराह रही थी। नारी-विमर्श की यह करवट हमें हिन्दी सूफी कवियों ने अपनी रचनाओं के रचनातंत्रा के कथा सूत्रों के माध्यम से नारी-जीवन की पीड़ाओं को स्पष्ट रूप से उभारा और उसे आदिकालीन साहित्य में अभिव्यक्त नारी-विमर्श सम्बन्धी उस काव्य-चेतना से जोड़ा जो रासो काव्य में दबे स्वर में दिखाई दे रही थी। हिन्दी रासो-काव्य को यदि नारी-विमर्श की दृष्टि से देखा जाए तो वहाँ जीवन-अस्मिता को लेकर नारी का अन्तर्द्वन्द्व विद्रोह और स्वातंत्रय के लिए छटपटाहट दिखाई देती है। पृथ्वीराज रासो की पद्मावती हो या बीसलदेव रासो की राजमती, पुरुष प्रधानसमाज के निरंकुश तंत्रा को चुनौती देती हुई अपने अस्तित्त्व को प्रतिष्ठित करती हुई नारी की वैयक्तिक पहचान और नारी मुक्ति आन्दोलन की प्रेरणा-सी दिखाई देती हैं। सूफी काव्य धारा के अमर कवि जायसी अपनी रचना पद्मावत में कथा सूत्रों से जिस रचनातंत्रा की रचना करते हैं वह आदि से अन्त तक नारी-विमर्श के चारों ओर घूमता है। पद्मावत में पद्मावती और नागमती का जिन जीवन संदर्भों में रखकर जायसी प्रस्तुत करते हैं उससे नारी अस्मिता को केन्द्र में रखकर नारी-विमर्श को सही दिखा पाने के लिए एक सशक्त आधार मिलता है। पद्मावत में पद्मावती और नागमती की चरित्र-संकल्पना मानव-समाज में विसंगतियों से घिरे हुए नारी-जीवन की व्यथा-कथा है। यह कथा पुरुष-प्रधान समाज में नारी-अस्मिता के संदर्भ में अनेक प्रश्न खड़े करके नारी-विमर्श को गति प्रदान करती है जिसकी गूँज हमें आधुनिक काल की छायावादी कृति कामायनी तक दिखाई देती है। जायसी अपने नारी-विमर्श में नारी-जीवन की चिन्ताओं से ग्रस्त होकर इस संदर्भ में समाधान की व्यंजना भी करते दिखाई देते हैं। यहाँ पद्मावत में अभिव्यक्त नारी-विमर्श को सम्पूर्ण में लेना तो संभव नहीं है लेकिन एक-दो प्रसंगों पर विचार किया जा रहा है जिनको आधार बनाकर पद्मावत की व्याख्या नारी-विमर्श के संदर्भ की जा सकती है। यह हिन्दी के शोधकर्त्ताओं के लिए शोध का एक बिन्दु है।
पद्मावत में पद्मावती के प्रसंग में नारी-जीवन को उसके बाल्यकाल से विवाहोत्तर काल तक देखा गया है। पुरुष प्रधान समाज में नारी की अर्थवत्ता पुरुष की भोग्या के रूप में ही देखी जाती रही है। वह अपनी कुण्ठा से ग्रस्त होकर उसे वर्जनाओं के घेरे में बाल्यकाल से ही डालना चाहता है। वह नहीं चाहता कि विवाह से पूर्व किसी भी नारी को काम-भावना का बोध हो। पुरुष का यह सोच नारी के स्वाभाविक मनोविज्ञान के विपरीत है। स्वाभाविक विकास को वर्जनाओं की बेड़ियों में जकड़कर नहीं रोका जा सकता। पुरुष की इसी कुण्ठा का प्रतिफल है कि नारी-पुरुष सम्बन्धों को लेकर समाज में निरन्तर टकराहट की स्थिति बनी रहती है। जायसी पुरुष की इस कुण्ठा और नारी-मनोविज्ञान के अनुपम पारखी हैं। वे पद्मावती के विवाह पूर्व जीवन के द्वारा इसी तथ्य की व्यंजना करते हैं जो उनके नारी-विमर्श का एक क्रमबद्ध आयाम है। पद्मावती जब मात्रबारह वर्ष की है उसे पिता द्वारा वर्जनाओं की बेडियों में जकड़ दिया जाता है-
बारह बारह माहै भई रानी। राजै सुना संजोग सयानी।
सात खंड धौराहर तासू। सो पद्मिनी कहँ दीन निवास।
और दीनी संग सखी सहेली। जो संग करै रहसि रस केली।
सबै नवल पिउ संग न सोई। कँवल पास जनु बिगसी कोई।
जायसी जानते हैं कि पुरुष की ये वर्जनाएँ नारी के स्वाभाविक विकास को नहीं रोक सकती। पद्मावती में स्वाभाविक रूप से काम-भावना का विकास होता है और पुरुष की इस मनोवृत्ति को लक्ष्य कर अपने पिता को केन्द्र में रखकर पद्मावती नारी की वेदना व्यक्त करती है -
एक दिवस पद्मावति सनी। हीरामनि तइँ कहा सयानी।
सुनु हीरामनि कहौं बुझाई। दिन-दिन मदन सतावै आई।
पिता हमार न चालै बाबा। त्रासहि बोलि सकै नहिं माता।
जायसी पद्मावती के द्वारा माता के सन्दर्भ से पति के त्रास से नारी के घुटन भरे जीवन की व्यंजना करते हैं। नारी की क्या ही अजीब नियति रही है कि वह अपने पति को उचित सलाह भी देने में भी डरती है।
नारी-जीवन की यह नियति रही है कि वह हमेशा अपने भविष्य को लेकर अविश्वास और संशय से ग्रस्त रहती है। पितृगृह में रहते हुए जहाँ उसे वह अपना घर नहीं कह सकती, वहीं पतिगृह में होने वाले अनात्मीय व्यवहार को लेकर सदैव आशंकित रहती है। जायसी नारी-जीवन के इस आयाम को भी अपने नारी-विमर्श में बड़े सहज ढंग से उठाते हैं। विवाह के बाद नारी के प्रति ससुराल पक्ष से होने, व्यवहार और अत्याचारों की व्यंजना जायसी की इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
‘ए रानी! मन देसु विचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी।
जौ लगिं अहै पिता कर राजू। खेलि लेहु जो खेलहु आजू।
पुनि सासुर हम गवनव काली। कित हम कित यह सरवर पाली।
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेही। दारुन ससुर न निसरै देही।
पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुं काह।
दहुं सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निवाह॥
उपर्युक्त पंक्तियों के वाच्यार्थ पर यदि ध्यान दिया जाए तो इससे जायसी के नारी-विमर्श की उस भावभूमि की व्यंजना है जो नारी की उस नियति से जुड़ी हुई है जहाँ नारी हमेशा से दो परिवारों द्वारा स्वीकृति और अस्वीकृति के बीच झूलती रहती है। नारी का जीवन उस टूटी डाली की तरह है जो पति के परिवार रूपी वृक्ष के साथ हमेशा विजातीय ही बनी रहती है। उसका मन हमेशा अपने जीवन और भविष्य को लेकर आशंकित बना रहता है। नारी-जीवन की यह विसंगति इस शताब्दी में बहुत दूरी तक जस की तस बनी हुई है। यह भव्युला में नारी-मन की यह आशंका और पीड़ा जायसी के चिन्तक और संवेदनशील मन को झकझोरती है और वे पद्मावती के स्वर में नारी-विमर्श के एक आयाम को आधार देते हैं।
एक-दो प्रसंग ही नहीं पद्मावत का पूरा रचनातंत्र अपने वाच्यार्थ में मध्यकालीन भक्तिकाव्य में अभिव्यक्त नारी-विमर्श की एक कड़ी है। रत्नसेन द्वारा पद्मावती की प्राप्ति के लिए नागमती को छोड़कर जाना, अलाउद्दीन और देवपाल प्रकरण जायसी के नारी-विमर्श की अभिव्यक्ति के आयाम के रूप में देखे जा सकते हैं। जो नारी जीवन की नियमित और पुरुष-मनोविज्ञान पर विचार करने के लिए प्रेरक तत्त्व के रूप में हमारे सामने हैं।
हिन्दी रामभक्तिकाव्य धारा के पुरोधा तुलसी नारी-विमर्श के अनेक आयामों को लेकर अपनी रामकथा का ताना-बाना बुनते हैं। वहाँ कथा सूत्रा तो परम्परा से गृहीत हैं लेकिन रचनातंत्रा और रचना रहस्य तुलसी का अपना है। वे नारी-अस्मिता से जुड़े विविध प्रसंगों को उठाकर नारी-विमर्श की धारा को कई आयाम देते हैं। सीता स्वयंवर, सीता का वनगमन, सूर्पणखा प्रसंग, सीता-हरण प्रसंग, अहल्या प्रसंग, तारा, मन्दोदरी आदि के प्रसंग नारी-विमर्श के विविध आयामों की बड़े सशक्त ढंग से व्यंजना करते हैं। तुलसी पर नारी विरोधी होने का आरोप लगाने वाले तुलसी की काव्य-चेतना को नहीं देख पाते क्योंकि उनकी आँखों पर तो परम्परा-विरोध की पट्टी बँधी हुई है। वे नहीं देखते कि तुलसी किस प्रकार नारी के शील की जकड़न की कसमसाहट नारी के द्वारा ही व्यक्त करते हैं। तुलसी जानते हैं कि शील के नाम पर नारी की मानसिकता को किस प्रकार जकड़ दिया है कि उसके मन लड़की होने का एहसास उसे हमेशा विवशता का बोध कराता है। यहाँ तक कि अपने जीवन-साथी के वरण के लिए भी वह स्वतंत्र नहीं है। वरण तो दूर की बात अपने मन की बात वह किसी से कह भी नहीं सकती कि उसे कैसा वर चाहिए। सीता-स्वयंवर प्रकरण स्वयंवर प्रथा का एक मजाक-सा है। स्वयंवर में लड़की द्वारा अपने पति का स्वयं ही वरण करने की अवधारणा निहित है। तुलसी इस अवधारणा को अच्छी तरह जानते हैं। वे इस प्रकरण को रामकथा में उठाते हैं। गीतावली में तुलसी की सीता अपने होने वाले पति के सम्बन्ध में अपनी कामना प्रकट करना चाहती है लेकिन लड़की होने का बोध और तज्जन्य शील के बंधन में जकड़ी उसकी विवशता उसे अपनी कामना व्यक्त करने से रोक देती है -
पूजा पारवती भले भाय पाँय परिकै।
सजल, सुलोचन, सिथिल तनु पुलकित,
आवै न वचन, मन रह्‌यौ प्रेम भरिकै।
अंतरजामिनी, भवभामिनी, स्वामिनी सौं हैं,
कही चाहौं बात, मातु अन्त तौ हौं लरिकैं।
रामचरितमानस की रामकथा का धनुष यज्ञ प्रसंग नारी-जीवन की नियति को लेकर तुलसी के नारी विमर्श का एक आयाम है। तुलसी की रामचरित मानस की सीता राम से विवाह करना चाहती है लेकिन पिता की असंगत हठ को लेकर शंकित मन में उठता उसका करुण क्रन्दन नारी-जीवन की विवशता की कथा कह रहा है -
जानि कठिन सिव चाप विसूरति। चली राखि उर स्याम सुम्‌रति॥
तुलसी का नारी-विमर्श केवल सीता के मन के क्रन्दन की अभिव्यक्ति से ही संतुष्ट नहीं होता। वह नारी में छिपी विद्रोही भावना को सीता की माता के स्वर में व्यक्त करते हैं। सीता की माता राजा जनक की अविवेकपूर्ण प्रतिज्ञा से सीता के जीवन के प्रभावित होने की आशंका से पति के प्रति विद्रोही स्वर में मुखर हो उठती है-
सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठभल नाहीं।
...
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि विधि गति कछु जात ना जानी॥
रामकथा के उपर्युक्त प्रसंग तो तुलसी के नारी-विमर्श की भूमिका भर कहे जा सकते हैं। रामकथा के पूरे रचनातंत्रा में तुलसी के नारी-विमर्श को यदि देखना है तो उसमें नारी जीवन संदर्भों पर गंभीरता से शोध करनी होगी।
हिन्दी भक्तिकाव्यधारा में कृष्णकाव्य का रचनातंत्र तो एक प्रकार से नारी-अस्मिता की भावभूमि का पर्याय कहा जा सकता है। यदि आध्यात्मिक आवरण को हटाकर कृष्ण कथा को सामाजिक संरचना के संदर्भ में देखा जाए तो वहाँ पुरुष-मनोविज्ञान और नारी-मनोविज्ञान के संदर्भ में नारी-जीवन की अस्मिता का ऐसा संसार दिखाई देता है जिसमें नारी जीवन की मुस्कराहट तो बहुत कम है लेकिन उसकी कराह ही अधिक दिखाई देती है। उसमें क्रमबद्ध रूप में पुरुष-मनोविज्ञान के जाल में फँसती हुई नारी पश्चाताप और करुण क्रन्दन ही अधिक दिखाई देता है जो नारी-विमर्श का एक यथार्थ परक आयाम है। सूरसागर की कृष्ण कथा ही नहीं साहित्य लहरी का नायिका भेद भी सूर के नारी-विमर्श का एक आयाम है। यहाँ हम कुछ उदाहरणों से सूर के नारी-विमर्श पर दृष्टिपात करेंगे।
सूरसागर में भ्रमरगीत प्रकरण नारी-विमर्श का एक सशक्त बिन्दु है। भ्रमरगीत प्रकरण में गोपियों के रूप में यदि नारी-जीवन को देखा जाए तो वह समाज का एक ऐसा यथार्थ है जो आज भी हमारे सामने एक ज्वलंत समस्या के रूप में विद्यमान है। सूर कृष्ण के द्वारा गोपियों की उपेक्षा को वर्ग-चेतना के संदर्भ में देखना चाहते हैं। सूर की गोपियाँ कृष्ण को दो रूपों में देखती हैं। १. गोकुल के कृष्ण-जो गोपाल है, उनके ग्रामीण परिवेश के साथी हैं। २. मथुरा के कृष्ण जो राजा है - यादवनाथ हैं। गोकुल से मथुरा जाकर कृष्ण का वर्ग बदल जाता है। वह सामान्य ग्वाले से राजा हो जाते हैं और वहाँ जाकर एक नारी कुब्जा को अपना लेते हैं। कुब्जा तन से कुब्जा हो या न हो लेकिन वह मन से कुब्जा है ही, जो गोपियों के कृष्ण को गोपियों से छीन लेती है। कृष्ण भी राजा होकर गोपियों को छोड़ देते हैं और पराकाष्ठा तो तब होती है, जब वे उद्धव के द्वारा गोपियों को दूसरे आलम्बन के वरण का संदेश देते हैं। सूर के नारी-विमर्श की व्यंजना इस बिन्दु पर निम्न पंक्तियों में देखी जा सकती है -
१. कहौ कहाँ तैं आये हौ।
जानति हौं अनुमान मनो तुम जादवनाथ पठाए हौ॥
...
मधुवन की कामिनी मनोहर तहँहिं जाहु जहँ भाए हौ॥
२. हमको जोग, भोग कुब्जा को काके हिमै समात।
नारी-विमर्श के संदर्भ में यदि सूर के इन प्रकरणों को देखा जाए तो आज भी ऐसे धूर्त पुरुष मिलते हैं जो पढ़-लिख अच्छा पद प्राप्त करते ही अपनी अशिक्षित ग्रामीण पूर्व परिणीता को धोखे में छोड़कर उसके विश्वास को तोड़ते हुए उसे उसकी नियति पर छोड़ देते हैं इसके साथ समाज में ऐसी कुब्जाएँ भी है नारी के अधिकारों पर आघात करके ऐसे पुरुष को अपनी धूर्तता के जाल में फँसा लेती हैं और हद तो तब होती है जब ऐसी स्त्री-पुरुष नारी के प्रति संवेदनापूर्ण लेखन करते हुए बेशर्मी के साथ नारी-विमर्श का झण्डा थाम लेते हैं।
सूर की साहित्यलहरी सूर के नारी-विमर्श को एक नया आयाम देती है। साहित्य लहरी के वर्ण्य-विषय के केन्द्र में नायिका-भेद है। नायिका-भेद में स्वकीया नायिका का स्वरूप नारी का पूर्ण आदर्श माना गया है। सूर नारी-विमर्श के धरातल पर खड़े होकर इस रूप में पुरुष द्वारा थोपे गए आदर्श की स्वीकृति-अस्वीकृति के बीच झूलते दिखाई देते हैं। सूर की राधा के स्वकीया के रूप में चित्रित आदर्श पर एक गोपी व्यंग करती हुई कहती है -
राधे कियौ कौन सुझाव।
प्रानपति वेदन विभूषित सुन गुन चितचाव॥
भानुवंसी रस सुधागृह हैं न निकसन पाव।
रजनिचर गुन जान....॥
गोपी राधा के रूप में नारी द्वारा पुरुष के लिए एक पक्षीय सर्वतो भावेन समर्पण पर प्रश्न चिह्न लगाती है। गोपी का यह प्रश्न चिह्न नारी-जागरण की भूमिका के लिए सूर के नारी-विमर्श की रूपरेखा की एक दिशा है।
साहित्य लहरी में नायिका-भेद के प्रसंग से सूर ने नारी-जीवन और नारी-अस्मिता से सन्दर्भित अनेक प्रश्न उठाकर नारी-विमर्श को यथार्थ दिशा देने का प्रयास किया है। पुरुष द्वारा अल्पवयस्यक बालिका के यौन-शोषण की समस्या को सूर मुग्धा नायिका के एक भेद अज्ञात यौवना के प्रसंग से उठाते हैं। काम भावना से प्रेरित पुरुष यह नहीं देखता कि जिस पर कुदृष्टि डाल रहा है वह शारीरिक और मानसिक रूप से काम-संदर्भों के लिए उपयुक्त है या नहीं। साहित्य लहरी के निम्न पद में नारी-जीवन से संबंधित इस ज्वलंत समस्या की व्यंजना करते हुए सूर पुरुष द्वारा विवेक से काम लेने की सलाह देते हैं -
हरि उर पलक धारौ धीर।
हित तिहारे करत मनसिज सकल सोभातीर॥
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि मध्यकालीन हिन्दीभक्ति काव्य धारा आध्यात्मिक चेतना पर आधारित कोरा भाव-विलास ही नहीं है, उसमें कहीं वाच्यार्थ में तो कहीं प्रतीकार्थ में सामाजिक चिन्ताओं का सन्निवेश है और उसमें भी विशेषकर नारी जीवन की विषमताओं का, जो नारी-विमर्श की धारा को युगानुरूप निरन्तर गति देती हैं। हिन्दी के शोध कर्त्ताओं और विद्वानों से भक्त साहित्य में नारी-विमर्श को एक अविच्छिन्न कड़ी के रूप में देखे जाने की अपेक्षा की जा सकती है।

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डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क