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Showing posts from May, 2008

गजल

रचना गौड़ भारती जज्बात और महक जो काबू में आ जाते इंसान भी फ़रिश्तें की गिनती में आ जाते खत्म होगई थी रोशनाई लिखते लिखते वरना जज्बात हमारे भी कागज पे आ जाते पहले ही क्या कम थे यहां सागर खारे काबू कर न पाते तो आंख में आंसू आ जाते हर जख्म भरता नहीं बिना मरहम के कुछ शब्द ही होते जो इसके काम आ जाते शब्द स्पर्श से बड़े हैं हम भी ये बताते कुछ तो शब्द कहते हम और करीब आ जाते

मटका (पुरूष) और सुराही (स्त्री)

रचना गौड़ भारती कच्ची मिट्टी का घड़ा हो तुम मैं हूं तुम्हारी सुराही भीनी सी खुश्बू तुम में थी सुगंधित जल मैं भर लायी जीवन का लहू जमा हुआ- सा चलो मिलकर इसे पिघलाएं एक कुम्हार (परमात्मा), एक ही मिट्टी, तुम रहे तने, मुझे झुकाया ये कैसी प्रकृति टूटोगे तुम भी, बिखरूंगीं मैं भी काम एक ही है प्यास बुझाना प्यास जो बुझे तो प्यासे, खुदा से दुआ करना मटके से मेरी गर्दन कभी न लम्बी करना वरना ये दुनियां पकड़-पकड़ गिराएगी पानी पीकर खाली सुराही (भोग्यक्ता) जमीन पर लुढ़काएगी

निरक्षर मानव

रचना गौड़ भारती पेड़ के ओखल में कठफोड़वे का घर था वन पेड़ों से बेजोड़ था बीहड़ जंगल, लकड़ियों का खजाना जैसे जीव जन्तुओं से नहीं इसे खुदग़र्ज आदमियों से डर था वहीं हाथों में कुल्हाड़ी लिए कुछ लकड़ी चोरों का भी दल था कठफोड़वे और लोगों को जंगल से बराबरी का आसरा था पहली कुल्हाड़ी की ठेस वृक्ष व कठफोड़वे को एक साथ हिला गई तब कठफोड़वे की निगाह अपनी प्रहारी चोंच के प्रहार पर गई तने को आश्वासित कर वो उन लोगो पे जा टूटा अपने आसरे का सिला एक कठफोड़वे ने ऐसे दिया अब वृक्ष की हर शाखा भी झूम उठी तेज पवन के झौंकों से जैसे निकली ध्वनि, शुक्रिया कह उठी ये पेड़ एक विद्यालय के प्रांगण में था लोग जहां के अशिक्षित पर वृक्ष शिक्षा की तहजीब में था परोपकारिता और शिष्टता का पाठ एक वृक्ष व कठफोड़वा पढ़ गया अफ़सोस इतना ही रहा कि इंसानियत का मानव इससे क्यों निरक्षर रह गया ।

स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा

- मूलचन्द सोनकर 4 अब हम इस बात की चर्चा करेंगे कि स्त्रियाँ अपनी इस निर्मित या आरोपित छवि के बारे में क्या राय रखती हैं। इसको जानने के लिए हम उन्हीं ग्रन्थों का परीक्षण करेंगे जिनकी चर्चा हम पीछे कर आये हैं। लेख के दूसरे भाग में वि.का. राजवाडे की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास' के पृष्ठ १२८ से उद्धृत वाक्य को आपने देखा। इसी वाक्य के तारतम्य में ही आगे लिखा है, ‘‘यह नाटक होने के बाद रानी कहती है - महिलाओं, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता। अतएव यह घोड़ा मेरे पास सोता है।....घोड़ा मुझसे संभोग करता है, इसका कारण इतना ही है अन्य कोई भी मुझसे संभोग नहीं करता।....मुझसे कोई पुरुष संभोग नहीं कर रहा है इसलिए मैं घोड़े के पास जाती हूँ।'' इस पर एक तीसरी कहती है - ‘‘तू यह अपना नसीब मान कि तुझे घोड़ा तो मिल गया। तेरी माँ को तो वह भी नहीं मिला।'' ऐसा है संभोग-इच्छा के संताप में जलती एक स्त्री का उद्गार, जिसे राज-पत्नी के मुँह से कहलवाया गया है। इसी पुस्तक के पृष्ठ १२६ पर अंकित यह वाक्य स्त्रियों की कामुक मनोदशा का कितना स्पष्ट विश्लेषण

स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा

- मूलचन्द सोनकर 3 अब आइये, विषय की ओर लौटते हैं। जिस ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' का डंका पीटकर हिन्दू धर्म और संस्कृति पर गर्व करने वाले घोषणा करते हैं कि हमारे धर्म-शास्त्रों में स्त्री को देवी का रूप मानकर उसकी पूजा करने का प्रावधान है, वह इसी मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के छप्पनवें श्लोक की पहली पंक्ति हैं। किसी ने भी यह सोचने की जरूरत नहीं समझा कि जिस मनु स्मृति ने स्त्रियों की अस्मिता को लांछित करने में कोई कोर-कसर बाक़ी न रखा हो उसमें यह श्लोक आया ही क्यों? लेकिन करें क्या, इस श्लोकार्द्ध का अर्थ ऊपर से देखने में इतना सीधा और सरल है कि इसको किसी के मन में कोई संशय ही नहीं पैदा होता। इसके अतिरिक्त यह कारण भी हो सकता है कि अधिकांश लोगों को यह पता ही न हो कि यह किस ग्रन्थ में है वास्तविक अर्थ तक कैसे पहुँचेगे। इस श्लोक को यदि श्लोक संख्या ५४ और ५५ के साथ पढ़ा जाये तो स्पष्ट होगा कि ‘पूजा' का आशय विवाह में दिया जाने वाला स्त्री धन है और मनु ने इससे दहेज प्रथा की शुरुआत की थी। स्त्री-विमर्श के पैरोकारों को चाहिये कि वे इस दुष्टाचार का

स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा

- मूलचन्द सोनकर 2 हमारे शास्त्र कन्या-संभोग और बलात्कार के लिये भी प्रेरित करते हैं। मनुस्मृति के अध्याय ९ के श्लोक ९४ में आठ वर्ष की कन्या के साथ चौबीस वर्ष के पुरुष के विवाह का प्रावधान है। ‘भारतीय विवाह का इतिहास'(वि.का. राजवाडे) के पृष्ठ ९१ पर उद्धृत वाक्य ‘‘चौबीस वर्ष का पुरुष, आठ वर्ष की लड़की से विवाह करे, इस अर्थ में स्मृति प्रसिद्ध है। विवाह की रात्रिा में समागम किया जाय, इस प्रकार के भी स्मृति वचन हैं। अतः आठ वर्ष की लड़कियाँ समागमेय हैं, यह मानने की रूढ़ि इस देश में थी, इसमें शक नहीं।'' इसी पुस्तक के पृष्ठ ८६-८७ तथा ९० के नीचे से चार पंक्तियों को पढ़ा जाय तो ज्ञात होता है कि कन्या के जन्म से लेकर छः वर्ष तक दो-दो वर्ष की अवधि के लिये उस पर किसी न किसी देवता का अधिकार होता था। अतः उसके विवाह की आयु का निर्धारण आठ वर्ष किया गया। क्या इससे यह संदेश नहीं जाता कि कन्या जन्म से ही समागमेय समझी जाती थी क्योंकि छः वर्ष बाद उस पर से देवताओं का अधिकार समाप्त हो जाता था। यम संहिता और पराशर स्मृति दोनों ही रजस्वला होने से पूर्व कन्या के विवाह की आज्ञा देते हैं (खट्टर काका पृष्ठ

स्त्री-विमर्श के दर्पण में स्त्री का चेहरा

- मूलचन्द सोनकर स्त्री और पुरुष के बीच सम्बन्ध का यही कटु यथार्थ है कि स्त्री पुरुष को उत्पन्न करती है परन्तु पुरुष उसका अमर्यादित शोषण करता है और ऐसा करने के लिये वह सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूप से अधिकृत है। इतना ही नहीं, पुरुष द्वारा स्त्री को भोग्य के रूप में मान्यता ‘उत्पादन द्वारा उत्पादक' के भक्षण का एक मात्र उदाहरण है। स्त्री के प्रति पुरुष की इस मानसिकता का विकास संभवतः सृष्टि-रचना के आदि सिद्धान्त में निहित है जहाँ सृष्टिकर्ता स्त्री नहीं पुरुष है। हिन्दू माइथालोजी में पशु-पक्षी इत्यादि के स्रोत का तो पता नहीं, मनुष्य की उत्पत्ति भी योनि से न होकर ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न हिस्से से हुई और वह भी मनुष्य के रूप में नहीं बल्कि वर्ण के रूप में। ऋग्‌वेद के पुरुष सूक्त से लेकर सभी अनुवर्ती गन्थों में उत्पत्ति का यही वर्ण-व्यवस्थायीय प्रावधान मिलता है और इसके लिये रचित मंत्र और श्लोकों का जो टोन है उनसे यही ध्वनित होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में केवल पुरुषों की ही उत्पत्ति हुई स्त्रियों की नहीं और अब, जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि दलित शूद्र के अंग न

स्त्री मुक्ति का प्रश्न

- कमल किशोर श्रमिक नारी विमर्श पर कलम चलाने वाले हर पुरुष लेखक को पुरुष होने का एक जोखिम तो लेना ही होता है। उसे अन्तर्विरोधों के तहत प्रायः यह सुनना पड़ता है कि वह पुरुष होने के कारण नारी की परिस्थितियों एवं स्वभाव की जटिलताओं को नहीं समझ सकता। भले ही वह लेखक नारी विमर्श के मुद्दे पर मील का पत्थर प्रमाणित होने वाला इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध नारीवादी लेखक जान स्टूअर्ट मिल ही क्यों न हो। मिल १८वीं शताब्दी के दौर में स्त्री पुरुष समानाधिकारों का पक्षधर था। वह इस अवधारणा से भी सहमत नहीं था कि प्रकृति की ओर से एक पुरुष स्त्री से अधिक शक्तिशाली या अधिक बुद्धिमान होता है। अपनी शिक्षिका से प्रभावित लेखक अपनी अवधारणाओं में कहीं भी पुरुष सोच का पक्षधर नहीं है। हाँ, वह समाज संचालन की दृष्टि से स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में फ़र्क करते हुए स्त्री पुरुष दोनों के लिए एक सीमा रेखा के नियंत्राण में रहने पर बल देता है। मगर प्रसिद्ध नारीवादी फ्रांसीसी लेखिका सीमोन द बोउआर ने मिल की पुरुष होने के कारण एवं अपनी यौनमुक्ति की सीमाहीन अवधारणा के कारण मिल को अपनी आलोचना का पात्र बनाया है। हाँ, सीमोन ने अपने दोस्त

शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में दलित संदर्भ

डॉ० जगत सिंह बिष्ट समकालीन हिंदी कहानी साहित्य में शैलेश मटियानी एक महत्त्वपूर्ण नाम है। हिंदी कहानी साहित्य के कथा सम्राट प्रेमचंद के बाद सर्वाधिक कहानी रचनाएँ शैलेश ने ही दी है। इनके समय-समय पर करीब ३० कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए थे। अब शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ, उनके पुत्र राकेश मटियानी के संपादकत्व में प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद से पाँच खंडों में प्रकाशित हो चुकी है जिसमें शैलेश मटियानी की करीब २५० कहानियाँ संगृहीत है। शैलेश मटियानी का कहानी साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है क्योंकि इनके कहानी साहित्य के वृत के अंतर्गत विविध क्षेत्रों, वर्गों और संप्रदायों संबद्ध जीवन संदर्भों का चित्रण हुआ है किंतु इनके कहानी साहित्य में भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय जीवन संदर्भों का सर्वाधिक निरूपण हुआ है। वस्तुतः शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित यह निम्न वर्ग कुमाऊँ के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से संबद्ध है। किंतु इनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित, पीड़ित, शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग, संप्रदाय से संबद्ध

सारिका और धर्म युग पत्रिका

आदाब मैं अलीगढ़ से वाड्रमय पत्रिका निकालता हूं.अगला अंक राही मासूम रजा परकेन्दित होगा.क्या किसी पुस्तकालय से सारिका और धर्म युग पत्रिका का संकलन मिल सकता है .कृप्या अवगत कराये.मेहरबानी होगी. धन्यवाद- - www.vangmay.com http://vangmaypatrika.blogspot.com http://dalitank.blogspot.com http://kabirank.blogspot.com http://muslimkahanikar.blogspot.com www.radiosabrang.com Dr. Firoz Ahmad Editor- Vangmaya Patrika B-4, Liberty Homes, Abdullah College Road Civil Lines, Aligarh, 202002 India ph.no.91 941 227 7331

विमर्श

फ़ीरोज हिन्दी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में उपन्यास, कहानी और कविता ही मुख्यधारा में है। इधर जब से दलित विमर्श का हंगामा है तो ‘आत्म चरित' की चर्चा भी छुट-पुट रूप में हो रही है, परन्तु साहित्य की दूसरी विधाओं की चर्चा न के बराबर है। गौरतलब यह है कि साहित्य के प्रभाव की दृष्टि से जो भूमिका मुख्यधारा की विधाओं की है, दूसरी विधाएं उसमें पीछे नहीं। प्रमाण के रूप में हम आत्मकथा की बढ़ी मांग को देख सकते हैं। दलित विमर्श में इसकी बढ़ी हुई अहमियत इस बात को साबित करती है कि दूसरी सभी विधाओं की भी भूमिका वही है जो आत्मकथा की। बस प्रतीक्षा है तो विमर्श और आन्दोलन की। इत्तेफाक से स्त्रीविमर्श के पुराधाओं का ध्यान मुख्य धारा की विधाओं की तरफ से इधर-उधर हुआ ही नहीं। साक्षात्कार भी उन्हीं गैर अहम्‌ मान ली गयी साहित्यिक विधाओं में ऐसी विधा है जो कि बहुआयामी है। सूचना क्रान्ति ने इसके क्षेत्र को व्यापक और प्रभावशाली बनाया है। समाचार और सूचना प्रेषण के प्रामाणिक स्वरूप के रूप में इसको स्थापित किया है। साहित्य के क्षेत्र में भी इसकी भूमिका का पता इसी तथ्य से चलता है कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं न