डॉ० निरंजन कुमार
पिछले वर्षों में दलित, दलित चेतना, दलित आंदोलन व दलित साहित्य ने विचारकों, सामाजिक चिंतकों, साहित्यकारों एवं आलोचकों का ध्यान सर्वाधिक आकृष्ट किया है। इधर हिन्दी में भी दलित साहित्य एक स्थापित धारा बन चुकी है। दलित साहित्य आंदोलन के प्रमुख धारा बनने के बावजूद दलित और दलित चेतना पर बहस अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, खासतौर से इस बात पर विवाद बना हुआ है कि दलित कौन है? दलित चेतना का स्वरूप क्या है? और दलित साहित्य को कैसे परिभाषित किया जाए। प्रस्तुत लेख में प्रथम प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास किया गया है। अन्य दो के उत्तर भी इसी से जुड़े हैं।
‘दलित' शब्द १९वीं सदी के सुधारवादी आंदोलन (या नवजागरण) काल की उपज है। विवेकानंद, ऐनी बेसेंट, रानाडे आदि ने इस शब्द का अनेक बार प्रयोग किया है। अर्थात् इस शब्द का प्रयोग सवा सौ साल से ज्यादा समय से हो रहा है और तभी से इस शब्द की अर्थ व्याप्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। इस प्रकार से दलित शब्द का वर्तमान रूप अर्थ आधुनिक है लेकिन यह भी सही है कि दलितपन या दूसरे शब्दों में कहें तो इस शब्द से जुड़ी भावना प्राचीन काल में ही उत्पन्न हो गयी थी। व्युत्पत्ति के आधार पर पहले इसके अर्थ को देखा जाए। ‘दलित' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के धातु ‘दल्' से हुई है जिसका अर्थ है तोड़ना, कुचलना। संस्कृत शब्दकोशों में दलित शब्द के निम्न अर्थ किए गए हैं -
दलित-दला गया, मर्दित, पीसा गया।
मानक हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए डिप्रेस्ड (क्मचमेमक) मिलता है, इसके अतिरिक्त डाउनट्रोडेन ;क्वूद जतवककमदद्ध भी मिलता है।
हिन्दी शब्दकोशों में भी संस्कृत और अंग्रेजी के समान ही ‘दलित' का अर्थ है - मसला हुआ, रौंदा हुआ, खंडित, विनष्ट किया हुआ।
इस प्रकार ‘दलित' शब्द के विभिन्न शब्दकोशों में विभिन्न अर्थ संदर्भ मिलते हैं लेकिन उनकी व्यंजना कमोबेश एक है। दलित वर्ग इसी दलित शब्द से ही सम्बद्ध है। उपरोक्त अर्थ संदर्भों से यह तो स्पष्ट हो ही जाती है कि समाज के उस वर्ग को, जिसे सबसे निम्न समझा जाता है, जिसका उच्च वर्गों के लोगों में दलन किया, दबाकर रखा, दलित वर्ग कहा गया। लेकिन यह दलित वर्ग की सामान्य या अभिधात्मक संकल्पना है। देखा जाए तो आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, सांविधानिक लिंगीय दृष्टिकोणों से दलित शब्द भिन्न-भिन्न आयाम ग्रहण करता है।
आर्थिक दृष्टि से ‘दलित' एक ‘वर्गीय' शब्द है। भारत एक गरीब देश है। यहाँ की आधी से ज्यादा आबादी आर्थिक दृष्टि से दलित ही है। इस प्रकार यहाँ न केवल अछूत एवं शूद्र बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिाय, वैश्य आदि सभी जातियों के गरीब एवं अभावग्रस्त लोग ‘दलित' वर्ग में समाहित हो जाते हैं।
धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखें तो यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है जिसका आधार वर्ण व्यवस्था है। यह वर्ण व्यवस्था चार भागों में न होकर पाँच सोपानों में विभाजित है -
ब्राह्मण, क्षत्रिाय, वैश्य, शूद्र और पंचम वर्ग। यह पंचम वर्ग उस शूद्र वर्ग से अलग है जो अस्पृश्यता अथवा छुआछूत से ग्रस्त नहीं है। पंचम वर्ग अतिशूद्र और अछूत अथवा अस्पृश्य भी कहलाता है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है शूद्रों की स्थिति पंचम वर्ग से बेहतर थी और उन्हें कई सामाजिक-धार्मिक अधिकार भी मिले हुए थे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम०एन० श्रीनिवास ने अपने ‘संस्कृतीकरण' की प्रक्रिया के अध्ययन में दिखाया है कि कैसे समाज की निम्न जातियाँ अपना आदिवासी कालक्रम में आर्थिक-रूप से मजबूत होकर जाति व्यवस्था में अपनी स्थिति उच्च कर सकी हैं। लेकिन अछूत और पंचम जातियाँ किसी भी तरीके से इस कार्य में सफल नहीं हो पाईं। जैसा कि ओवेन लिंच ने आगरा के जाटवों के अध्ययन से दिखाया। तमाम आर्थिक प्रगति और संख्या बल के बावजूद उनकी ऊर्ध्व गतिशीलता और उच्च सामाजिक प्रस्थिति को समाज ने अस्वीकार कर दिया। एफ०जी० बेली ने भी अपने उड़ीसा के एक गाँव की जाति संरचना के अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है। आर्थिक प्रगति कर जाने पर उड़ीसा के एक गाँव बिसिपाड़ा के तथाकथित पिछड़ी/शूद्र जातियों को कालक्रम में उच्च स्थान प्राप्त हुआ जबकि समान आर्थिक प्रगति के बावजूद अछूत जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठ जस की तस निम्न बनी रही।
स्पष्ट है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर अवस्थित समूह, जिसके विकास एवं प्रगति को सदा अवरुद्ध किया गया, उन्हें दबाकर रखा गया, वह शूद्र जातियाँ नहीं वरन् अतिशूद्र अथवा पंचम जातियां थीं जो अछूत थी अस्पृश्य भी थीं और विभिन्न निर्योग्यताओं से ग्रस्त भी।
सामाजिक दृष्टि से दलित शब्द एक और अर्थ ध्वनित करता है। इस वर्ग में न केवल अछूत जातियाँ हैं बल्कि समाज की मुख्यधारा से कटी जनजातियाँ भी शमिल हैं। ये जनजातियाँ अथवा आदिवासी राष्ट्र के विकास से अलग-थलग पड़ गए हैं बल्कि सच्चाई यह है कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से शोषित और वंचित हैं। स्थिति इतनी विकट है कि अनेक जनजातियाँ तो विलुप्त होने की अवस्था में हैं। एन्थ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के ‘पीपुल ऑफ इण्डिया प्रोजेक्ट' की रिपोर्ट में अनेक जनजातियों को लुप्त होने की खतरनाक अवस्था में दिखाया गया है। कुछ के नाम गिनाये जा सकते हैं - जारवा, ओन्गेज, बिरहोर, चेन्चु, माल पहाड़िया आदि।
लिंगीय दृष्टि से भी दलित शब्द की व्याख्या की गयी है। समाज के आधे हिस्से स्त्रिायाँ, जिसे सिमन दी बुउआ सेकंड सेक्स कहती है, अपने आप में एक तरह से दलित ही है। राजेन्द्र यादव इस दृष्टिकोण के सबसे बड़े प्रवक्ता है। वे जोर देकर कहते हैं कि भारतीय समाज में शूद्रों और स्त्रिायों की स्थिति कमोबेश समा रही है। विभिन्न आर्थिक, धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक निर्योग्यताओं से दोनों ही समान रूप से ग्रस्त रहे हैं, दोनों ही वंचित, शोषित, पीड़ित तथा समाज के अत्याचार के शिकार रहे हैं।
एक अन्य स्वर राजनीति का है। बहुजन समाज की राजनीति के दौरान उभरे इस विचार में अस्पृश्यों, पिछड़ों, मुसलमानों आदि को एक वर्ग में शामिल करते हुए उन्हें समान रूप से दलित मानकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश की गयी। पर इन समुदायों की समस्याएँ अलग-अलग हैं और इनके बीच कई अन्तर्विरोध भी हैं।
उपरोक्त विभिन्न दृष्टिकोण का थोड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषण कर लिया जाए।
‘दलित' शब्द की वर्गवादी व्याख्या मार्क्सवादी चिंतकों ने की। इन विद्वानों में राजकिशोर के अतिरिक्त मराठी विद्वान नामदेव ढसाल, म०न० वान खेड़े, नारायण सुर्वे आदि ‘दलित' का वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। यहाँ दलित शब्द के अन्तर्गत आर्थिक रूप से निम्न सभी वर्णों के लोगों को समाहित कर लिया जाता है। लेकिन यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि आर्थिक रूप से सभी वंचित लोगों की सामाजिक प्रस्थिति समान नहीं होती। हमारे समाज में एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक प्रस्थिति वह नहीं होगी जो कि एक गरीब ‘अछूत' जाति के व्यक्ति की। बल्कि परंपरागत रूप से तो कई बार धन, शक्ति, यश एवं गुण से हीन ब्राह्मण भी धनवान, शक्तिशाली, गुणवान अछूत से सामाजिक स्तर पर उच्च होता है। तुलसीदास की यह पंक्तियों द्रष्टव्य हैं -
पूजिय विप्रासील गुन हीना
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि वर्गीय विभाजन एक दम निरर्थक है। बल्कि बदलते हुए समय में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था और पूंजीवाद के राक्षस ने अपने पाँव चारों तरफ पसारना शुरू कर दिया है उसमें इस दृष्टिकोण की उपयोगिता और सार्थकता निश्चित रूप से बढ़ जाती है जैसा कि शरण कुमार लिंबाले लिखते हैं - ‘‘व्यापक सामाजिक और राजनैतिक ऐक्य की भूमिका को ध्यान रखते हुए वान खेड़े, ढसालकृत परिभाषा समाज जागृति संगठन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज भारतीय समाज और राजनैतिक जीवन में जिस उच्च स्वर से जिस ‘बहुजनवाद' की भाषा बोली जा रही है, उसका निनाद वानखेड़े, ढसाल की परिभाषा में सुनने को मिलता है। दलित साहित्य को आंदोलन माना जाए तो वानखेड़े, ढसाल की भूमिका व्यापक हित और विधायक दृष्टि से उचित लगती है।
राजेन्द्र यादव की मान्यता, कि स्त्री को भी दलित वर्ग के अन्तर्गत मानना चाहिए, को भी परख लिया जाए। यह तो सही है कि जैविक दृष्टि से प्रकृति ने स्त्री-स्त्री में भेद नहीं किया है स्त्री चाहे द्विज हो अथवा अछूत, वह शारीरिक रूप से समान है, पुरुष वर्ग के शारीरिक दाहन-शोषण की समान भुक्तभोगी है। लेकिन सवाल यहाँ यह भी है कि स्त्री क्या एक जैविक इकाई मात्रा है? जैविक सत्ता के अतिरिक्त स्त्री की एक सामाजिक सत्ता भी है। इसीलिए पुरुष वर्ग के अधीन होने के बावजूद एक द्विज स्त्राी अछूत स्त्री से अपने को अलग समझती है। द्विज स्त्री वर्ण गर्व से आप्लावित होती है वहीं अछूत स्त्री एक ग्लानि से पीड़ित। इस प्रकार दलित स्त्री को दोहरा अभिशाप झेलना पड़ता है। वह वर्णवादी समाज और पुरुष वर्ग दोनों के अत्याचारों का शिकार होती है। इसीलिए दलित स्त्री को ‘दलित' में ‘दलित' की संज्ञा भी दी जाती है। यहाँ निष्कर्ष यही निकलता है कि सभी स्त्रिायों को एक ही दलित श्रेणी में रखा जाना सही नहीं होगा। राजनैतिक दृष्टिकोण के अन्तर्विरोधों को पहले ही देखा जा चुका है।
जनजातियों अथवा आदिवासियों को दलित समुदाय के अन्तर्गत शामिल करना भी उचित नहीं होगा। जनजातीय अथवा आदिवासी समाजों की अलग परेशानियाँ हैं, यद्यपि वे भी कम भयानक नहीं हैं लेकिन मुख्यधारा से वे परंपरगत रूप से कह रहे हैं और वर्णव्यवस्था से एक तरह से वे बाहर ही हैं। मुख्यधारों में शामिल होने पर भी उन्हें अछूतेपन की समस्या से वैसा ग्रस्त नहीं होना पड़ा है जैसा कि अछूत जातियों को। एम०एन० श्रीनिवास ने अपने अध्यापन में इस बात को दिखाया है कि अनेक जनजातियों ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को अपनाकर वर्णव्यवस्था में अपेक्षाकृत उच्च गतिशीलता कर उच्च प्रस्थिति का दावा किया और समाज ने उन्हें मान्यता भी दी। उदाहरण के लिए गोंड जनजाति का इस सन्दर्भ में नाम लिया जा सकता है। (जिन्होंने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया द्वारा कालक्रम में क्षत्रिाय प्रस्थिति का दावा किया और उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी मिली।) यह अनायास नहीं है कि भारत सरकार के ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग, जो अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण का कार्य समग्र रूप से देखती थी को दो भागों में बांट दिया गया है। अब अनुसूचित जाति आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग दो अलग-अलग निकाय बना दिए गए हैं।
समग्र रूप से देखें तो आज की परिस्थितियों में दलित शब्द एक रूढ़ अर्थ ग्रहण कर चुका है। वर्तमान में दलित शब्द पूर्व की अछूत या पंचम जातियों के पयार्य के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है जो विभिन्न सामाजिक निर्योग्यताओं से ग्रस्त रही हैं। दलित साहित्य के अधिकांश साहित्यकार व्यावहारिक रूप से ‘दलित' शब्द का यही अर्थ ग्रहण करते हैं। हालांकि सैद्धांतिक रूप से कई दलित चिंतकों-साहित्यकारों ने दलित शब्द को अपेक्षाकृत एक व्यापक अर्थ में ग्रहण करने की वकालत की है, आदिवासियों आदि समुदाय को भी शामिल करने पर जोर दिया है लेकिन इस व्यापक दृष्टिकोण की सीमाओं को उपर्युक्त विवेचन में दिखलाया जा चुका है।
यहीं पर इस बात पर भी विचार कर लिया जाए कि प्राचीनकाल के अन्त्यज अथवा कल के हरिजन आज स्वयं को दलित कहना अधिक पसंद क्यों करते हैं। दरअसल ‘दलित' शब्द जहाँ व्यक्ति को अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और अपने इतिहास पर दृष्टिपात करने को बाध्य करता है, वहीं अवगति, वर्तमान स्थिति और तिरस्कृत जीवन के विषय में सोचने के लिए भी विवश करता है। ...दलित शब्द आक्रोश, चीख, वेदना, पीड़ा, चुभन, घुटन और छटपटाहट का प्रतीक है। ...दलित शब्द आज प्रेरणा और विद्रोह का पर्यायवाची भी है। स्पष्ट है कि ‘दलित' शब्द एक ओर जहाँ इस शोषित-पीड़ित समुदाय की वेदना, पीड़ा और छटपटाहट को अभिव्यक्त करता है, वहीं दूसरी तरफ यह विद्रोह और मुक्ति की प्रेरणा भी देता है। एक नये समाज के निर्माण की आकांक्षा, जो समानता, स्वतंत्राता और बन्धुत्व पर आधारित हो, कुछ ऐसी ही अभिव्यंजना ‘दलित' शब्द से ध्वनित होती है और यही दलित चेतना और दलित साहित्य की पृष्ठभूमि में भी दृष्टिगोचर होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
डॉ० नरेन्द्र सिंह - दलितों के रूपान्तर की प्रक्रिया, पृ० ७
(सं०) शिवराम वामन आप्टे - संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९८१
(सं०) महेन्द्र चतुर्वेदी एवं भोलानाथ तिवारी - व्यावहारिक हिन्दी-अंग्रेजी कोश
(सं०) रामचन्द्र वर्मा - संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर, पृ० ४६८
राजकिशोर - ‘अगर मैं दलित होता' धर्मयुग, १९९४, पृ० २२
एम०एन० श्रीनिवास - आधुनिक भारत में जातिवाद तथा अन्य निबन्ध, दिल्ली, १९९२
रजत रानी मीनू - नवें दशक की दलित कविता, दलित साहित्य प्रकाशन, नयी दिल्ली, १९९६, पृ० २-३
शरण कुमार लिंबाले - दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्रा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, २०००, पृ० ७६-७७
सोहनपाल सुमनाक्षर - विश्व धरातल पर दलित साहित्य, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली, १९९९, पृ० ९-११
पिछले वर्षों में दलित, दलित चेतना, दलित आंदोलन व दलित साहित्य ने विचारकों, सामाजिक चिंतकों, साहित्यकारों एवं आलोचकों का ध्यान सर्वाधिक आकृष्ट किया है। इधर हिन्दी में भी दलित साहित्य एक स्थापित धारा बन चुकी है। दलित साहित्य आंदोलन के प्रमुख धारा बनने के बावजूद दलित और दलित चेतना पर बहस अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, खासतौर से इस बात पर विवाद बना हुआ है कि दलित कौन है? दलित चेतना का स्वरूप क्या है? और दलित साहित्य को कैसे परिभाषित किया जाए। प्रस्तुत लेख में प्रथम प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास किया गया है। अन्य दो के उत्तर भी इसी से जुड़े हैं।
‘दलित' शब्द १९वीं सदी के सुधारवादी आंदोलन (या नवजागरण) काल की उपज है। विवेकानंद, ऐनी बेसेंट, रानाडे आदि ने इस शब्द का अनेक बार प्रयोग किया है। अर्थात् इस शब्द का प्रयोग सवा सौ साल से ज्यादा समय से हो रहा है और तभी से इस शब्द की अर्थ व्याप्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। इस प्रकार से दलित शब्द का वर्तमान रूप अर्थ आधुनिक है लेकिन यह भी सही है कि दलितपन या दूसरे शब्दों में कहें तो इस शब्द से जुड़ी भावना प्राचीन काल में ही उत्पन्न हो गयी थी। व्युत्पत्ति के आधार पर पहले इसके अर्थ को देखा जाए। ‘दलित' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के धातु ‘दल्' से हुई है जिसका अर्थ है तोड़ना, कुचलना। संस्कृत शब्दकोशों में दलित शब्द के निम्न अर्थ किए गए हैं -
दलित-दला गया, मर्दित, पीसा गया।
मानक हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए डिप्रेस्ड (क्मचमेमक) मिलता है, इसके अतिरिक्त डाउनट्रोडेन ;क्वूद जतवककमदद्ध भी मिलता है।
हिन्दी शब्दकोशों में भी संस्कृत और अंग्रेजी के समान ही ‘दलित' का अर्थ है - मसला हुआ, रौंदा हुआ, खंडित, विनष्ट किया हुआ।
इस प्रकार ‘दलित' शब्द के विभिन्न शब्दकोशों में विभिन्न अर्थ संदर्भ मिलते हैं लेकिन उनकी व्यंजना कमोबेश एक है। दलित वर्ग इसी दलित शब्द से ही सम्बद्ध है। उपरोक्त अर्थ संदर्भों से यह तो स्पष्ट हो ही जाती है कि समाज के उस वर्ग को, जिसे सबसे निम्न समझा जाता है, जिसका उच्च वर्गों के लोगों में दलन किया, दबाकर रखा, दलित वर्ग कहा गया। लेकिन यह दलित वर्ग की सामान्य या अभिधात्मक संकल्पना है। देखा जाए तो आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, सांविधानिक लिंगीय दृष्टिकोणों से दलित शब्द भिन्न-भिन्न आयाम ग्रहण करता है।
आर्थिक दृष्टि से ‘दलित' एक ‘वर्गीय' शब्द है। भारत एक गरीब देश है। यहाँ की आधी से ज्यादा आबादी आर्थिक दृष्टि से दलित ही है। इस प्रकार यहाँ न केवल अछूत एवं शूद्र बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिाय, वैश्य आदि सभी जातियों के गरीब एवं अभावग्रस्त लोग ‘दलित' वर्ग में समाहित हो जाते हैं।
धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखें तो यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज एक श्रेणीबद्ध समाज है जिसका आधार वर्ण व्यवस्था है। यह वर्ण व्यवस्था चार भागों में न होकर पाँच सोपानों में विभाजित है -
ब्राह्मण, क्षत्रिाय, वैश्य, शूद्र और पंचम वर्ग। यह पंचम वर्ग उस शूद्र वर्ग से अलग है जो अस्पृश्यता अथवा छुआछूत से ग्रस्त नहीं है। पंचम वर्ग अतिशूद्र और अछूत अथवा अस्पृश्य भी कहलाता है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है शूद्रों की स्थिति पंचम वर्ग से बेहतर थी और उन्हें कई सामाजिक-धार्मिक अधिकार भी मिले हुए थे। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम०एन० श्रीनिवास ने अपने ‘संस्कृतीकरण' की प्रक्रिया के अध्ययन में दिखाया है कि कैसे समाज की निम्न जातियाँ अपना आदिवासी कालक्रम में आर्थिक-रूप से मजबूत होकर जाति व्यवस्था में अपनी स्थिति उच्च कर सकी हैं। लेकिन अछूत और पंचम जातियाँ किसी भी तरीके से इस कार्य में सफल नहीं हो पाईं। जैसा कि ओवेन लिंच ने आगरा के जाटवों के अध्ययन से दिखाया। तमाम आर्थिक प्रगति और संख्या बल के बावजूद उनकी ऊर्ध्व गतिशीलता और उच्च सामाजिक प्रस्थिति को समाज ने अस्वीकार कर दिया। एफ०जी० बेली ने भी अपने उड़ीसा के एक गाँव की जाति संरचना के अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है। आर्थिक प्रगति कर जाने पर उड़ीसा के एक गाँव बिसिपाड़ा के तथाकथित पिछड़ी/शूद्र जातियों को कालक्रम में उच्च स्थान प्राप्त हुआ जबकि समान आर्थिक प्रगति के बावजूद अछूत जातियों की सामाजिक प्रतिष्ठ जस की तस निम्न बनी रही।
स्पष्ट है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर अवस्थित समूह, जिसके विकास एवं प्रगति को सदा अवरुद्ध किया गया, उन्हें दबाकर रखा गया, वह शूद्र जातियाँ नहीं वरन् अतिशूद्र अथवा पंचम जातियां थीं जो अछूत थी अस्पृश्य भी थीं और विभिन्न निर्योग्यताओं से ग्रस्त भी।
सामाजिक दृष्टि से दलित शब्द एक और अर्थ ध्वनित करता है। इस वर्ग में न केवल अछूत जातियाँ हैं बल्कि समाज की मुख्यधारा से कटी जनजातियाँ भी शमिल हैं। ये जनजातियाँ अथवा आदिवासी राष्ट्र के विकास से अलग-थलग पड़ गए हैं बल्कि सच्चाई यह है कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से शोषित और वंचित हैं। स्थिति इतनी विकट है कि अनेक जनजातियाँ तो विलुप्त होने की अवस्था में हैं। एन्थ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के ‘पीपुल ऑफ इण्डिया प्रोजेक्ट' की रिपोर्ट में अनेक जनजातियों को लुप्त होने की खतरनाक अवस्था में दिखाया गया है। कुछ के नाम गिनाये जा सकते हैं - जारवा, ओन्गेज, बिरहोर, चेन्चु, माल पहाड़िया आदि।
लिंगीय दृष्टि से भी दलित शब्द की व्याख्या की गयी है। समाज के आधे हिस्से स्त्रिायाँ, जिसे सिमन दी बुउआ सेकंड सेक्स कहती है, अपने आप में एक तरह से दलित ही है। राजेन्द्र यादव इस दृष्टिकोण के सबसे बड़े प्रवक्ता है। वे जोर देकर कहते हैं कि भारतीय समाज में शूद्रों और स्त्रिायों की स्थिति कमोबेश समा रही है। विभिन्न आर्थिक, धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक निर्योग्यताओं से दोनों ही समान रूप से ग्रस्त रहे हैं, दोनों ही वंचित, शोषित, पीड़ित तथा समाज के अत्याचार के शिकार रहे हैं।
एक अन्य स्वर राजनीति का है। बहुजन समाज की राजनीति के दौरान उभरे इस विचार में अस्पृश्यों, पिछड़ों, मुसलमानों आदि को एक वर्ग में शामिल करते हुए उन्हें समान रूप से दलित मानकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश की गयी। पर इन समुदायों की समस्याएँ अलग-अलग हैं और इनके बीच कई अन्तर्विरोध भी हैं।
उपरोक्त विभिन्न दृष्टिकोण का थोड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषण कर लिया जाए।
‘दलित' शब्द की वर्गवादी व्याख्या मार्क्सवादी चिंतकों ने की। इन विद्वानों में राजकिशोर के अतिरिक्त मराठी विद्वान नामदेव ढसाल, म०न० वान खेड़े, नारायण सुर्वे आदि ‘दलित' का वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। यहाँ दलित शब्द के अन्तर्गत आर्थिक रूप से निम्न सभी वर्णों के लोगों को समाहित कर लिया जाता है। लेकिन यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि आर्थिक रूप से सभी वंचित लोगों की सामाजिक प्रस्थिति समान नहीं होती। हमारे समाज में एक गरीब ब्राह्मण की सामाजिक प्रस्थिति वह नहीं होगी जो कि एक गरीब ‘अछूत' जाति के व्यक्ति की। बल्कि परंपरागत रूप से तो कई बार धन, शक्ति, यश एवं गुण से हीन ब्राह्मण भी धनवान, शक्तिशाली, गुणवान अछूत से सामाजिक स्तर पर उच्च होता है। तुलसीदास की यह पंक्तियों द्रष्टव्य हैं -
पूजिय विप्रासील गुन हीना
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि वर्गीय विभाजन एक दम निरर्थक है। बल्कि बदलते हुए समय में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था और पूंजीवाद के राक्षस ने अपने पाँव चारों तरफ पसारना शुरू कर दिया है उसमें इस दृष्टिकोण की उपयोगिता और सार्थकता निश्चित रूप से बढ़ जाती है जैसा कि शरण कुमार लिंबाले लिखते हैं - ‘‘व्यापक सामाजिक और राजनैतिक ऐक्य की भूमिका को ध्यान रखते हुए वान खेड़े, ढसालकृत परिभाषा समाज जागृति संगठन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज भारतीय समाज और राजनैतिक जीवन में जिस उच्च स्वर से जिस ‘बहुजनवाद' की भाषा बोली जा रही है, उसका निनाद वानखेड़े, ढसाल की परिभाषा में सुनने को मिलता है। दलित साहित्य को आंदोलन माना जाए तो वानखेड़े, ढसाल की भूमिका व्यापक हित और विधायक दृष्टि से उचित लगती है।
राजेन्द्र यादव की मान्यता, कि स्त्री को भी दलित वर्ग के अन्तर्गत मानना चाहिए, को भी परख लिया जाए। यह तो सही है कि जैविक दृष्टि से प्रकृति ने स्त्री-स्त्री में भेद नहीं किया है स्त्री चाहे द्विज हो अथवा अछूत, वह शारीरिक रूप से समान है, पुरुष वर्ग के शारीरिक दाहन-शोषण की समान भुक्तभोगी है। लेकिन सवाल यहाँ यह भी है कि स्त्री क्या एक जैविक इकाई मात्रा है? जैविक सत्ता के अतिरिक्त स्त्री की एक सामाजिक सत्ता भी है। इसीलिए पुरुष वर्ग के अधीन होने के बावजूद एक द्विज स्त्राी अछूत स्त्री से अपने को अलग समझती है। द्विज स्त्री वर्ण गर्व से आप्लावित होती है वहीं अछूत स्त्री एक ग्लानि से पीड़ित। इस प्रकार दलित स्त्री को दोहरा अभिशाप झेलना पड़ता है। वह वर्णवादी समाज और पुरुष वर्ग दोनों के अत्याचारों का शिकार होती है। इसीलिए दलित स्त्री को ‘दलित' में ‘दलित' की संज्ञा भी दी जाती है। यहाँ निष्कर्ष यही निकलता है कि सभी स्त्रिायों को एक ही दलित श्रेणी में रखा जाना सही नहीं होगा। राजनैतिक दृष्टिकोण के अन्तर्विरोधों को पहले ही देखा जा चुका है।
जनजातियों अथवा आदिवासियों को दलित समुदाय के अन्तर्गत शामिल करना भी उचित नहीं होगा। जनजातीय अथवा आदिवासी समाजों की अलग परेशानियाँ हैं, यद्यपि वे भी कम भयानक नहीं हैं लेकिन मुख्यधारा से वे परंपरगत रूप से कह रहे हैं और वर्णव्यवस्था से एक तरह से वे बाहर ही हैं। मुख्यधारों में शामिल होने पर भी उन्हें अछूतेपन की समस्या से वैसा ग्रस्त नहीं होना पड़ा है जैसा कि अछूत जातियों को। एम०एन० श्रीनिवास ने अपने अध्यापन में इस बात को दिखाया है कि अनेक जनजातियों ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को अपनाकर वर्णव्यवस्था में अपेक्षाकृत उच्च गतिशीलता कर उच्च प्रस्थिति का दावा किया और समाज ने उन्हें मान्यता भी दी। उदाहरण के लिए गोंड जनजाति का इस सन्दर्भ में नाम लिया जा सकता है। (जिन्होंने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया द्वारा कालक्रम में क्षत्रिाय प्रस्थिति का दावा किया और उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी मिली।) यह अनायास नहीं है कि भारत सरकार के ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग, जो अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण का कार्य समग्र रूप से देखती थी को दो भागों में बांट दिया गया है। अब अनुसूचित जाति आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग दो अलग-अलग निकाय बना दिए गए हैं।
समग्र रूप से देखें तो आज की परिस्थितियों में दलित शब्द एक रूढ़ अर्थ ग्रहण कर चुका है। वर्तमान में दलित शब्द पूर्व की अछूत या पंचम जातियों के पयार्य के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है जो विभिन्न सामाजिक निर्योग्यताओं से ग्रस्त रही हैं। दलित साहित्य के अधिकांश साहित्यकार व्यावहारिक रूप से ‘दलित' शब्द का यही अर्थ ग्रहण करते हैं। हालांकि सैद्धांतिक रूप से कई दलित चिंतकों-साहित्यकारों ने दलित शब्द को अपेक्षाकृत एक व्यापक अर्थ में ग्रहण करने की वकालत की है, आदिवासियों आदि समुदाय को भी शामिल करने पर जोर दिया है लेकिन इस व्यापक दृष्टिकोण की सीमाओं को उपर्युक्त विवेचन में दिखलाया जा चुका है।
यहीं पर इस बात पर भी विचार कर लिया जाए कि प्राचीनकाल के अन्त्यज अथवा कल के हरिजन आज स्वयं को दलित कहना अधिक पसंद क्यों करते हैं। दरअसल ‘दलित' शब्द जहाँ व्यक्ति को अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और अपने इतिहास पर दृष्टिपात करने को बाध्य करता है, वहीं अवगति, वर्तमान स्थिति और तिरस्कृत जीवन के विषय में सोचने के लिए भी विवश करता है। ...दलित शब्द आक्रोश, चीख, वेदना, पीड़ा, चुभन, घुटन और छटपटाहट का प्रतीक है। ...दलित शब्द आज प्रेरणा और विद्रोह का पर्यायवाची भी है। स्पष्ट है कि ‘दलित' शब्द एक ओर जहाँ इस शोषित-पीड़ित समुदाय की वेदना, पीड़ा और छटपटाहट को अभिव्यक्त करता है, वहीं दूसरी तरफ यह विद्रोह और मुक्ति की प्रेरणा भी देता है। एक नये समाज के निर्माण की आकांक्षा, जो समानता, स्वतंत्राता और बन्धुत्व पर आधारित हो, कुछ ऐसी ही अभिव्यंजना ‘दलित' शब्द से ध्वनित होती है और यही दलित चेतना और दलित साहित्य की पृष्ठभूमि में भी दृष्टिगोचर होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
डॉ० नरेन्द्र सिंह - दलितों के रूपान्तर की प्रक्रिया, पृ० ७
(सं०) शिवराम वामन आप्टे - संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९८१
(सं०) महेन्द्र चतुर्वेदी एवं भोलानाथ तिवारी - व्यावहारिक हिन्दी-अंग्रेजी कोश
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