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ग़ज़ल

द्विजेंद्र द्विज

यह उजाला तो नहीं ‘तम’ को मिटाने वाला
यह उजाला तो उजाले को है खाने वाला

आग बस्ती में था जो शख़्स लगाने वाला
रहनुमा भी है वही आज कहाने वाला

रास्ता अपने ही घर का नहीं मालूम जिसे
सबको मंज़िल है वही आज दिखाने वाला

एक बंजर—सा ही रक़्बा जो लगे है सबको
वो हथेली पे भी सरसों है जमाने वाला

जिसकी मर्ज़ी ने तबाही के ये मंज़र बाँटे
था मसीहा वो यहाँ ख़ुद को बताने वाला

जबसे काँटों की तिजारत ही फली—फूली है
कोई मिलता ही नहीं फूल उगाने वाला

रतजगों के सिवा क्या ख़्वाब की सूरत देगा
हादिसा रोज़ कोई नींद उड़ाने वाला

उँगलियाँ फिर वो उठाएँगे हमारे ऊपर
फिर से इल्ज़ाम कोई उन पे है आने वाला

जा—ब—जा उसने छुपाए हैं कई फिर कछुए
फिर से ख़रगोश को कछुआ है हराने वाला

जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ न दिया
है कोई उनको यहाँ आग लगाने वाला

क्यों भला शब की सियाही का बनेगा वारिस
धूप हर शख़्स के क़दमों में बिछाने वाला

ख़ुद ही जल—जल के उजाले हों जुटाए जिसने
वो अँधेरों का नहीं साथ निभाने वाला

आईना ख़ुद को समझते है बहुत लोग यहाँ
आईना कौन है ‘द्विज’, उनको दिखाने वाला.
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