Skip to main content

चलते हो तो कोर्ट चलिए

हसन जमाल
मैं नहीं चाहता कि आपको कोर्ट-कचहरी के गलियारों में ले जाऊं। जहाँ मैंने अपनी जिन्दगी के चालीस बरस यूं गंवा दिये जैसे कोई जुए में अपनी जिन्दगी हार बैठा हो। सच पूछिये तो कोर्ट-कचहरी बहुत बुरी जगह है। ये मेरे चालीस सालों के अनुभवों का सार है। जो न्यायालय को अन्यायालय कहने के लिए मजबूर करता है। मैं नहीं समझता ऐसा लिखने पर मैं अदालत की मानहानि करने के दायरे में आ सकता हूँ। वैसे भी मैं अरूंधतिराय नहीं हूँ कि मीडिया मुझे हाथों-हाथ ले लेगा। सच तो ये है कि मैं कोर्ट से और पुलिस से बहुत डरता हूँ। कहना ये चाहिए कि जिसको अपनी इज्जत प्यारी है वो इधर का रूख न करे।
ये मेरी खुशनसीबी है कि कोर्ट में नौकरी करते हुए हमारे खानदान का कोई फर्द या कोई अजीज-रिश्तेदार किसी फौजदारी मुआमले में नहीं फंसा और मैं वाजिब, गैर वाजिब सिफारिशों से बच गया। तवक्को थी कि रिटायरमेंट के बाद भी कोई ऐसा मुआमला नहीं बनेगा कि मुझे कोर्ट के गलियारों के चक्कर लगाने में अपनी पेंट ढीली करनी पडे।
लेकिन महज मेरे चाहने भर से क्या हो सकता था। मौत की तरह मुसीबत भी किसी दिन, किसी भी वक्त टपक सकती है। चाहे आप उसके लिए मानसिक रूप से तैयार भी न हों। शुरू में वो इत्तिला ही थी, बीवी ने उड़ते-उड़ते खबर दी थी कि हमारा भतीजा जमील किसी मुआमले में फंस गया है। किसी लड़की का चक्कर बताते हैं।
सुबह अखबार में दो चीजों पर सबसे पहले नजर जाती है। पहले शोक सन्देश पर कि कोई अपना तो नहीं मर गया? मरने वाले का इतना दुख नहीं होता जितना इस तकलीफ़ का कि मय्‌यत में या उठावे में जाना पड़ेगा। दूसरी ये कि कल शहर में कौन-कौन सी वारदातें हुई। होटल सी-रॉक में तलवारें चल गयीं। गिरफ्तार शुदगान में किसी जमील का भी नाम था। हो सकता है, यह जमील कोई और हो, लेकिन शाम होते-होते ये बात पक्की हो गयी कि जो जमील हवालात में बन्द है। वो हमारे ही घर का है। कोर्ट में नौकरी करने के बावजूद मेरी बुनियादी बुजदिली और दब्बूपन हमेशा मुझे आगे बढ़कर कमान अपने हाथ में लेने से रोकते रहे हैं। होना तो ये चाहिए था कि मैं खुद थाने जाकर सुन-गुन लेता और उसे छुड़ा लाने की भरसक कोशिश करता, पर मैं भारतीय जनता की तरह मूकदर्शक बना ख़बरें लेता रहा ताकि मुझ पर आँच न आये कि मैं कुछ न कर सका।
जमील के बहुत भाई हैं। वे सब पड़ोस में अलग बड़े-से मकान में रहते हैं। जब हम सारे भाई उस मकान में शामिल रहते थे। तब ये बहुत छोटे थे। कई तो पैदा भी नहीं हुए थे। तब हमारे दुख-सुख साझे थे। अब हमारे सुख-दुख भी मकानों में बंट गये हैं। रोजमर्रा के मजों व तकलीफ़ों को शेअर करने का वो जमाना तो लालटेन के साथ ही चला गया। न वो तेल रहा, न बाती रही। अब कोई खास मौक़ा हो तब ही एक दूसरे के अलैक-सलैक करते हैं। इसमें भी वो पहली-सी गर्मजोशी कहाँ? एक ही मुहल्ले में आस-पास रहते हुए किसी को किसी की ख़बर नहीं रहती। चिट्ठी न आए तो समझो, खैरियत है।
मैं जरा वहमी स्वभाव का बंदा हूँ। भीतर ही भीतर खुदबुदाहट चल रही थी कहीं ऐसा न हो कि मुआमला हाथ से निकल जाए। मुझे बताया गया कि मुआमला गंभीर क़तई नहीं है। लड़के किसी बात पर आपस में लड़ पड़े थे। जमील तो मौके पर था ही नहीं। वो तो वारदात के कई घंटों बाद मौक़ा-ए-वारदात देखने के शौक़ में चला गया था। क्योंकि उसका एक दोस्त भी उस झगड़े में शामिल था। इतने में पुलिस की जीप आयी और जमील को यूं उठा कर ले गयी जैसे म्युनिसिपल बोर्ड की गाड़ियाँ डस्टबिन को उठा कर ले जाती हैं। जमील सड़क पर पड़ा हुआ या खड़ा हुआ कचरा तो नहीं था। मगर क्या करें, पुलिस कचरे और इंसान में फर्क़ नहीं समझती। रात ही से वो हवालात में बन्द था। उसकी बीवी समझती रही कि किसी दोस्त के यहाँ रह गया होगा। कहा जा रहा था कि अस्ल मुल्जिम का अता-पता बता दे तो छोड़ देंगे। जमील के पैरोकार भाई पुलिस की नेकनीयती और शराफ़त पर भरोसा किये हुए बैठे थे। पर मेरे अनुभव कह रहे थे कि जो एक बार हवालात में गया, वो जेल में जाकर ही छूटा। हमारे खानदान में कभी किसी ने हवालात के दर्शन नहीं किये थे। ये एक ऐसी आफ़त थी जिसका तोड़ या तो बहुत-सा रुपया हो सकता था या कोई तगड़ी सिफारिश। आशंका ये भी सता रही थी रात ही रात पुलिस ने एफ.आई.आर. दर्ज करने वाले से खुश होकर कहीं जमील का नाम भी हमलावरों में डाल दिया हो। ये आशंका बाद में सही साबित हुई।
मैं कबूतर की तरह आँखे मूँदे बैठा था कि अल्लाह सब ठीक करेगा। जब कबूतर की आँखे खुलीं, तो मालूम हुआ, मुआमला हाथ से निकल चुका है। अब कानूनी चाराजोई के सिवा कोई चारा नहीं। चूँकि आप कोर्ट के अहलकार रहे हो, इसलिए कुछ गाइड करो और हो सके तो हमारे साथ चलो। हम थाने-कचहरी का क ख ग भी नहीं जानते। जिन्दगी में पहला मौक़ा था जब हवालात में बन्द अजीज को देखने और ढाढ़स बंधाने जाना पड़ा। मेरी आँखे हैरत से फटी रह गयीं जब मैंने जमील को दूसरे मुलजिमान के साथ नंग- धडंग हालत में सिर्फ वी टाइप अंडर वियर में बेजबान जानवर की तरह खड़ा पाया मालूम नहीं, वो सब अपने आप से शर्मसार थे या मुझसे? ये सरासर सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों की खिलाफ़ वर्जी थी। गुस्से के मारे मेरा चेहरा सुर्ख़ हो गया। ये क्या तमाशा है? एक तो बिना जुर्म के गिरफ्तार कर लिया और दूसरे ऐसी बेइज्जती। यह कहाँ का कानून है भाई। पर पुलिस से अड़े कौन? क्या हुआ जो कोर्ट-कचहरी में सारी उम्र झक मारी। यथार्थ के धरातल पर तो तुम निरे दब्बू और गावदी हो। पुलिसिया लहजे को पचा पाने की तुम में ताब नहीं। सी.आई. के कमरे में तुम झांक आये थे।
वो तुम्हारा परिचित भी था, लेकिन कोर्ट के परिचय और थाने के परिचय में फ़र्क होता है। कहीं ऐसा न हो कि सबके सामने तुम्हारा पानी उतार दे। ये सब तो दो दिन बाद नॉर्मल हो जायेंगे, लेकिन तुम महीनों-सालों तक पानी-पानी होते रहोगे।
थाने के लॉन पर शरीक मुलजिमान के रिश्तेदार व हिमायती बैठे बीड़ी-सिगरेट फूंक रह थे। उनमें कई ऐसे थे जिन्हें कचहरी का भोमिया कहा जाता था। उन्हीं में से एक परिचित चेहरे को मुखातिब करते हुए मैंने मरी हुई आवाज में कहा था, सिर्फ शक के बिना पर इस हवालात में डालकर बेइज्जत करना सरासर गैर कानूनी है। लोग इसका विरोध क्यों नहीं करते हैं?
उसने हँसते हुए बताया कि बाबू साहेब, आपको आज मालूम हुआ है। ऐसा तो बरसों से हो रहा है, इसलिए कि हवालात में मुलजिम खुदकुशी न कर लें।
यूं तो थाने के अंदर मेरी हालत घरबाये हुए बन्दर जैसी थी, फिर भी चुहुल करने की मेरी आदत न गयी, क्या औरतों के साथ भी ऐसा ही सुलूक किया जाता है? उनके पास तो दुपट्टे और साड़ी का माकूल इंतिजाम होता है।''
वे सब हँसने लगे, आप भी क्या बात करते हैं बाबू साहेब। औरतों को नंगा करके खुद उन्हें अन्दर होना है क्या?
मैं अजब दुविधा में फंस गया था। विवेक कहता था कि सी.आई. से बात करूँ और माजरा समझाऊँ। कम-से-कम जमील को कपड़े तो पहनवा ही दूँ। क्या पता बात करने से बात बन जाए और आगे की हुज्जत व परेशानी से बच जाऊँ। लेकिन बरसों की पाली-पोसी पोली गरिमा ने मेरे पाँवों को जाम और दिमाग़ को सुन्न करके रख दिया। मुझे नहीं मालूम, मैं किस जज्बे की गिरफ्त में था। मुझे जमील से ज्यादा अपने वक़ार की फिक्र थी। सच पूछिये तो मुझे जमील पर गुस्सा भी आ रहा था जिसकी वजह से हमारे शरीफ खानदान की हेठी हुई थी और मुझे अपने कौल व क़रार को भूल जाना पड़ा था कि खुद न करे, कभी थाना कचहरी का रूख करना पडे। जमील की माँ इस सदमे का ताब न ला सकी। दिल की मरीजा को हॉस्पीटल में दाखिल करना पड़ा था। ये एक अलग मुसीबत थी।
जब बहुत सारे मुलजिमान हों, तो बहुत सारे सलाहकार पैदा हो जाते हैं, जो भांत-भांत की बोलियाँ बोलने लगते हैं। होना तो यह चाहिए था कि अगले कदम वे मेरी सलाह से उठाते, लेकिन वे सब इतनी उतावली में थे कि थाने से निकलते ही मैं एक बार फिर उनके लिए गैर जरूरी हो गया।
अगले दिन इत्तिला दी गयी कि जमानत के लिए फलां को वकील कर लिया गया है। मुझे मालूम था कि उस वकील की गैर जिम्मेदारी व ग़लत पैरवी की वजह से सलमान खान जैसे स्टार को भी जोधपुर-जेल की हवा खानी पड़ी थी। सलमान खान ग़लत सलाहकारों से टकरा गया था और आज तक हिरणों के शिकार के जुर्म में जोधपुर की धूल फांक रहा है। ये और बात है कि आखिर में वो संदेह का लाभ पाकर मुम्बई सिधार जायेगा।
मुझसे पूछा गया कि कैसा वकील है? मैं क्या बताता। वकील तो अच्छा है, लेकिन उसकी डेढ़ होश्यारी और ग़लत आदतें हमारे लिए परेशानियाँ खड़ी कर सकती हैं। वो बहुत ज्यादा लॉ-जर्नल्स पढ़ता है, इसीलिए अक्सर किसी न किसी मुद्दे पर जजों के साथ झोड़-झपाट हो जाती है। सुना है, कॉलेज के दौरान उन्हें शार्ट भी लगे थे। मेरे इस रहस्योद्घाटन पर पैरवीकार घबराये-क्या वकील बदल लें? .....नहीं, जमानत हो जाने दो, फिर देखेंगे....।
दरअस्ल ये कहानीनुमा रूदाद कभी न लिखी जाती, अगर जमील की जमानत के मुआमले में मेरा कोई रोल न होता। जमीनी सतह पर ये मेरी अभूतपूर्व रक्तचाप बढ़ाऊ परीक्षा थी। जिस शख्स ने सारी जिन्दगी कोर्ट में कुर्सी पर बैठे गुजारी थी, उसे अप्रत्याशित तौर पर अपने पैरों पर खड़ा हो जाना पड़ा। एक फरियादी के तौर पर। उसे मालूम था कि कहाँ जा के फाइल अटक जाती है? कहाँ फाइल को पहिये लगाने होते हैं और किन-किन की बेवजह खुशामदें करना पड़ती है? उसने सारी बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। पहली बार उस पर ये राज खुला कि दो हिम्मत और मुस्तैदी दिखाये, तो बहुत कुछ हासिल कर सकता है पर वो जन्मना ढीलामांचा था।
दूसरी तमाम फाइलों को परे खिसका कर मैंने परिचित स्टेनों से चिरौरी करके जमानत के आदेश टंकित करवाने में कामयाब हो गया, तो लगा, मन की मुराद मिल गयी। मैं अपने अनुभवों के आधार पर किसी मौके पर ढील बरतना, सुस्ती या लापरवाही दिखाना नहीं चाहता था। जमील के जेल से छूटने से ज्यादा मेरी अपनी प्रतिष्ठा दाव पर लगी हुई थी। मुझे मालूम था कि अगर आज निचली अदालत से रिहाई आदेश जारी नहीं हुए तो जमील को तीन दिन और जेल में रहना पड़ेगा। उस दिन शुक्रवार था। अगला दिन दूसरा शनिवार यानी छुट्टी का शनिवार और रविवार को तो आप जानते ही हैं।
क्रिकेट के जबान में कहा जाये तो अभी बहुत ओवर शेष थे। अभी सिर्फ दो बजे थे यानी पूरे तीन घंटे हमारे हाथ में थे। बस जरूरत थी सेशन जज साहब के एक दस्तखत की, जो हमारे नसीब से ऊपरी मंजिल के चैम्बर में बिराजे अपने एक दोस्त जज के पास लंचियाने लगे थे और अब गपियाने में मशगूल थे, क्योंकि दोनों जज साहिबान तकरीबन अपने-अपने अहम काम निपटा चुके थे और कुछ फुर्सत की घड़ियाँ गुजार लेना चाहते थे।
मैंने कोर्ट के रीडर से, जिस पर मेरे कई एहसानात थे, बार-बार दरख्वास्त की कि वो ऊपर जाए और आर्डर के नीचे सिग्नेचर करवा के लाये। हर बार उसका एक ही जवाब होता-साहब ने डिस्टर्ब करने से साफ़ मना कर रखा है। बस आते ही होंगे, मैंने अपने स्टाफ मैम्बर होने की दुहाई दी पर उसका रटा-रटाया जवाब-चिढ़ जायेंगे साहब। इसमें कुछ सचाई भी थी और कुछ नहीं भी। जजों के मूड का कोई भरोसा नहीं होता। कर दें, न भी करें। रीडर अगर चाहता तो खुद न जाकर चपरासी को बलि का बकरा बना सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। शायद अपनी अहमियत या मेरे रिटायरमेंट के बाद की औक़ात बताना चाहता था। वैसे उसके व्यवहार में हमदर्दी और अपनेपन की घुलावट बदस्तूर थी। घड़ी की सुइयों की सरकन के साथ मेरे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी।
तक़रीबन डेढ़ घंटे के लंबे इंतिजार के बाद जज साहब ऊपर मंजिल से अवतरित हुए। रूटीन में दस्तखात जैसे कुछ हुआ ही न हो। फिर अगली भाग-दौड़.....दरख्वास्त....चिरौरी....मान-मनोवल-जरा जल्दी....प्लीज, एकमोडेट करो भाई....एक मेज से दूसरी मेज....दूसरी मेज से सुदूर कमरा.....हर जगह टका-सा जवाब.....कर तो रहे हैं। और कहिए, कैसे हैं आप?....सेहत तो ठीक है आपकी....कोई काम-धाम? कैसे गुजरती है रिटायर्ड लाइफ़?......इधर आते ही नहीं....डिपार्टमेंट को भुला ही दिया....जैसे आम जुमले।
जमानत का आदेश लेकर हम ऊपर की मंजिल में पहुँचे जहाँ जमानत तस्दीक़ की जानी थी। कोर्ट खचाखच भरा हुआ था। मजिस्ट्रेट साहिबा अपने दूसरे कामों में मशगूल थीं। दरअसल जमील का मुकदमा उनकी अदालत का था ही नहीं, उन्हें सिर्फ लुक आफ्टर करना था। संबंधित अदालत का रीडर फाइल और जमानत के काग़जात लिए उनके सामने मुस्तैद खड़ा हो गया। हमारा वकील और हम लोग इस तरह खुश-खुश नजर आ रहे थे जैसे कोई बड़ा किला फतह कर लिया हो। इसके बावजूद अनहोनी की आशंका मेरे सर पर मंडरा रही थी। मुझे मालूम था कि कानून तो अपना काम करते-करते करता है, लेकिन परिस्थितियाँ अपना रोल पहले निभा जाती हैं। अगर कहीं कुछ रह गया तो....? बना-बनाया काम बिगड़ भी सकता है। जिस तरह थाने में आदमी पुलिस के रहमो-करम पर होता है, उसी तरह कचहरी में वकील, मुंशी, बाबू, रीडर, चपरासी, जज सभी मानो आपके सब्र का इम्तिहान लेने के लिए तैयार रहते हैं। अदालत माई-बाप के हाथ में कानून का क़लम होता है जो खंजर बनकर आपके सीने में उतर सकता है और आप आह भी नहीं कर सकते।
बड़ा वकील, जैसा कि मैंने बताया, झक्की था। उसकी अदालत थी कि अपने जरूरी काम निपटा कर ढाई-तीन बजे ही कोर्ट परिसर छोड़ दिया करता था और घर जाकर लॉ-जर्नलों में छुप जाता था। बकाया छोटे-मोटे काम उसके जूनियर निपटाया करते थे। हमारे हिस्से में जो जूनियर आया था, वो बड़े वकील का भतीजा था और मैं उसकी क़ाबिलियत से वाक़िफ़ था। खुदा न ख़ास्ता अगर कुछ ऊँच-नीच हुई, तो ये बंदा कैसे संभालेगा? क़ानूनी तौर पर मुझे कुछ बोलने का हक़ नहीं था और बाक़ी लोगों की हैसियत ख़ामोश फ़र्यादियों से ज्यादा कुछ न थी।
मेरी आशंका निर्मूल नहीं थी। तक़रीबन चार बजे हमारा नम्बर आया। मजिस्टे्रट साहिबा ने, जो नाजुक बदन की गोरी-चिट्टी कॉलेज स्टुडेंट जैसी लगती थी, देर तक कागजों को उल्टा-पलटा। केस फाइल को पढ़ा। जमानत के आदेश को बार-बार पढ़ा और कहा, तो ये कहा कि आदेश में एक मुल्जिम की वल्दियत ग़लत टंकित की गयी है, इसलिए सबसे पहले सेशन कोर्ट से टंकण त्रुटि दुरूस्त करायी जावे, वर्ना जमानत नहीं ली जाएगी। हमारा जूनियर वकील गिड़गिड़ाया, मैडम! बाकी दो की जमानत ले ली जाए। अगर हम तीसरे की वल्दियत दुरूस्त करने गये तो अदालत उठ जायेगी और हमारे फ़रीक़ जेल में पड़े रह जाएंगे। जमील की माँ तो अस्पताल में भर्ती है....प्लीज।
मजिस्ट्रेट साहिबा शायद ये मानस बना चुकी थी कि इन लोगों को किसी तरह टरकाना है, क्योंकि मुल्जिमों ने एक हिन्दू लड़की को सताया है। ये मुसलमान लड़के फ़ितरतन ही गुण्डे-बदमाश होते हैं। इन्हें माकूल तालीम मिलती नहीं। इसलिए स्त्री-जाति की गरिमा का भी इन्हें ख्याल नहीं रहता और इधर-उधर ताक-झांक करते हैं और मुँह मारते रहते है। ऐसों के साथ नर्मी का सुलूक किया ही नहीं जाना चाहिए। मालूम नहीं, कभी अपने साथ या अपनी किसी सहेली के साथ बीती घटना से वो बायस थी या सताने की और ताना अदा की शिकार। ये बात तो साफ थी कि हक़ीक़त का उसे जरा भी इल्म नहीं था। बेशक लड़की हिन्दू थी, मगर उस पर डोरे डालने वाले वैश्य समाज के दो प्रतिद्वंद्वी व्यापारी थे। इत्तिफ़ाक से जमील के पड़ोसी के साथ एक व्यापारी के कारोबारी संबंध थे शायद खेल में शरीक होने की लौंडियाना जिज्ञासा ने उसे इस मुक़ाम पर ला खड़ा किया था। शायद लड़की डबल गेम से उकता कर आख़िरी फै+सले पर पहुँच चुकी थी कि किसी एक के साथ पींगें बढ़ानी और दूसरे को रास्ते से हटाना है। पुलिस काग़जात से हक़ीक़त मालूम करना भूसे में से सुई निकालने जैसा अमल था। मजिस्ट्रेट साहिबा क्या जाने कि दोनों व्यापारी फ़िल्मी अन्दाज में सेफ़ गेम खेलने की ग़रज से घटना स्थल से दूर अपनी-अपनी गाड़ी में बैठे रहे और दोनों तरफ़ के अब्दुल्लाह दीवाने आपस में भिड़ गये। हक़ीक़तन एक लड़की के लिए दो भारी जेबों वाले नौजवान व्यापारियों का वह द्वंद्व युद्ध था, ऐसा युद्ध जिसमें योद्धा किराये के टट्टू थे या तमाशाबीन। घटना की तह में जाने वाले ये सवाल पूछ सकते हैं कि वक्त में आने की मोबाइली इत्तिला क्यों दी? वो तो एक निम्न मध्यवर्ग की लड़की थी। लड़की के माँ-बाप तो खौर लापरवाह थे, उसकी दादी भी उससे कभी नहीं पूछती थी कि ये नित-नये फैशनेबल कपड़े, जूते, तरह-तरह की चीजें कहाँ से आती हैं और ये जो सेल फ़ोन हर वक्त कान से सटाये रखती है, इसके माँ-बाप ने तो ख़रीद कर नहीं दिया था। फिर किसने दिया? जमाना बदल गया कि कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की से ज्यादा पूछताछ नहीं की जा सकती। अगर करोगे तो मुँह की खाओगे। लेकिन ये तमाम बातें कोर्ट के लिए आउट ऑफ फ़ोकस थी। फिलहाल फ़ोकस में विक्टिम हिन्दू लड़की थी और उसे तंग करने वाले मुसलमान लड़के।
हमारे वकील की गिड़गिड़ाहट का कुछ तो असर हुआ। मजिस्टे्रट साहिबा बोलीं कि ठीक है, बाक़ी दो की जमानतें ले ली जाएंगी। लेकिन आदेश को दुरूस्त करवाना पडेगा।
जमानतें कब ली जाएंगी, ये तय नहीं हो पाया। मजिस्ट्रेट साहिबा उठकर चैम्बर में चली गयीं, क्योंकि उनकी एक सहेली अपना काम निपटा कर उसके साथ चाय-वाय व गपशप के लिए आ गयी थी।
घड़ी की सुइयां तेजी से सरकने लगीं। जब कुछ अशुभ होना हो तो घड़ियाँ ऐसा ही करती हैं। हम सब कोर्ट रूम से निकलकर बाहर गलियारे में आ गये थे और रेलिंग के सहारे खडे होकर अदालत माई-बाप के रहमो-करम का इंतिजार करने लगे। साढे चार बज चुके थे। अचानक हमारा वकील बड़बड़ाता हुआ और मुझसे कहने लगा। रीडर साब आपको चलना होगा। वो तो फिर पलट गयीं। कहती हैं, पहले वल्दियत दुरूस्त कराओ, फिर जमानत तस्दीक की जाएगी और जामिनों की हैसियत के दस्तावेज भी मांग रही हैं। दस्तावेज जामिनों के पास इस वक्त मौजूद नहीं। हैसियत का हलफ़नामा ही काफी होता है। आपको तो मालूम है, सभी अदालतों में उसे स्वीकार किया जाता है। ये दस्तावेज मांग रही हैं, जरूर इसके मन में खोट है। आप चलो। शायद आपकी बात मान जाए।
मैं गया, पर मेरी बात नहीं मानी गयी। परिचय देने के बावजूद उसने जलील करके चैम्बर से निकल जाने का हुक्म सादिर कर दिया, आपको बोलने का अधिकार नहीं है। जो कहना होगा, आपका वकील कहेगा।
लेकिन ये तो सरासर अनजस्टिस है। मैं स्टाफ़ मैम्बर रहा हूँ और मैं एक वाजिब रिक्वेस्ट कर रहा हूँ.....प्लीज।
सो व्हाट? आप मेरे काम में दख़ल देंगे? निकलिए आप बाहर....
बौखलाया हुआ वकील मेरा चेहरा देखने लगा और मैं उसका। इस स्थिति की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। क्या पद से हटते ही आदमी इस क़दर नाकारा और बौना हो जाता है। कि उसकी जाइज बात भी नहीं सुनी जा सकती। मैं कोई बेजा सिफ़ारिश करने नहीं, अपने हक़ की बात कहने गया था। ऐसा भी नहीं था कि उसने मुझे नहीं पहचाना हो। वो अक्सर हमारे जज साहब के चैम्बर में आया करती थीं और मैं बहैसियत रीडर चाय-पानी का बन्दोबस्त करवाता था। ये कल ही की तो बात थी। चैम्बर में कुछ और लोग भी खड़े थे। मैंने खुद को समझाया कि शायद मजिस्ट्रेट साहिबा ने अपनी निश्पक्षता का प्रदर्शन करना चाहा हो।
लेकिन वह निश्पक्षता का प्रदर्शन नहीं, कुछ और ही मुआमला निकला।
बड़ा बेआबरू हो के मैं उसके कूचे से निकल तो आया, लेकिन कुछ देर बाद हताश व निराश वकील की दरख्वास्त पर फिर उस कूचे का रूख़ करना पड़ा। मेरे घर वाले और दूसरे पैरोकार मुझे बेबसी से तक रहे थे और मारे गैरत के मैं जमीन में गड़ा जा रहा था।
आप फिर आ गए। राम सिंह दरवाजा बंद कर दो। मुझे दोबारा देखकर वो चीख़ी जैसे मैं उसकी आबरू से खेलने जा रहा था। आबरू से तो वो मेरे खेल रही थी।
मैडम! जमील की माँ को सदमे से हार्ट अटैक आ गया है। वो आइसीयू में है। आगे दो दिन की छुट्टियाँ हैं, खुदा न करे... राम सिंह ने जो मेरी मातहती में कभी काम कर चुका था, कमाल की फुर्ती से दरवाजे की चिटखनी चढ़ा दी और मेरी दरख्+वास्त मेरे गले में घुट के रह गयी।
अब हम फिर कोर्ट रूम में खड़े थे। पाँच बजने में पाँच मिनट बाक़ी थे। मुझे मालूम था कि जमानत के काग़जात अक्सर पाँच बजे के देर बाद तक भी लिए जाते हैं ताकि किसी अधिकारी पर अनलॉफुल डिटेंशन का आरोप न लगे। मानवीय दृष्टिकोण से भी यह उचित था क्योंकि मुल्जिम तब तक इन्नोसेंट है जब तक उसका जुर्म साबित न हो जाए और वो मुल्जिम से मुजरिम न क़रार दिया जाए। जमानती के कार्यवाही के सम्बन्ध में ज्यादातर जजेज उदार होते हैं। मगर यहाँ तो मुआमला ही बरअक्स था।
आप कह सकते हैं कि इतने बरस कोर्ट में नौकरी की थी या झक मारी थी। कोर्ट का अमला तो उड़ती चिड़िया के पर काट लेता है, आप किस दुनियाँ में पड़े रह गये? उधर से लेखक होने का दावा करते हो। कहाँ गयी आपकी दबंगता? आपकी तर्क बुद्धि को ऐन वक्त पर लक़वा क्यों मार गया? क्यों नहीं ले आये कोई एप्रोच? एक जमानत ही तो तस्दीक़ करवानी थी, जमील को गैर क़ानूनी तौर पर रिहा तो नहीं करवाना था। मजिस्ट्रेट साहिबा की ड्यूटी थी कि फ़ौरन जमानत तस्दीक करके रिहाई आदेश जारी करती। आप क्यों नक्कू बन के रह गये? सारी उम्र काग़ज ही काले करते रह गये और जिन्दगी के सियाह-सफेद से जूझने का हुनर भी नहीं सीख पाये।
हाँ, मैं मानता हूँ कि जब-जब मुझ पर मुसीबतें-आफतें आती हैं, तो मेरी अक्ल गुम हो जाती है। हाईकोर्ट में कई जजेज थे जिनकी मातहती में मैंने काम किया था और वे मुझसे, मेरे काम से, मेरी निष्ठा से प्रभावित भी थे। किसी से फोन करवाया होता तो ये नौबत नहीं आती। अब तुम्हारे नक्कूपन की वजह से जमील को दो दिन और जेल में सड़ना पड़ेगा। खुदा न करे, इस अर्से में जमील की माँ को कुछ हो-हुआ गया तो क्या होगा। अपनी बेअक्ली व बेबसी पर मैं लगभग रूआंसा हो गया था।
इतने में रीडर बाहर आया और बोला, अब सोमवार को।
क्यों? क्यों? जमील हाजिर है, उनकी हैसियत के दस्तावेजात भी मंगवा लिए गये हैं। कहा तो था कि बाक़ी दो की जमानत तस्दीक़ कर दी जायेगी।
रीडर ने फ़ाइल मेरे सामने कर दी जिस पर लिखा था कि मुलजिमान जमानत पेश करने के लिए समय चाहते हैं। सबने मेरी तरफ़ देखा। मैंने माथा पीट लिया। मेरे मुँह से गाली निकली, उल्लू की पट्ठी ने वही किया जो वो शुरू से चाहती थी। अब दो दिन और जमील को जेल में रहना पड़ेगा।
मैं तेजी से चैम्बर की तरफ लपका। सबने मुझे यूं देखा जैसे मैं कोई जादूगर हूँ और अपनी तिलिस्मी चाबी से जमील को जेल से छुड़वा लूँगा। खुद मुझे अपनी लपक हास्यास्पद लग रही थी। मैं जानता था कि बददयानती से आर्डर शीट लिखाये जाने के बाद किसी रू-रिआयत की उम्मीद करना फ्जूल है। पर मैं इस पर भी यक़ीन रखता था कि कभी-कभी करिश्मे भी हो जाते है और ये भी कि आदमी को आखिरी वक्त तक अपनी कोशिश जारी रखनी चाहिए। मैं बड़े वकील पर झुंझला रहा था कि उसकी गैर मौजूदगी ने जीती हुई बाजी हार में बदल दी। अपनी शिकस्त का एहसास भी कुछ कम न था।
मैं लपका तो जरूर मगर बेसूद। चपरासी मेरी तरफ़ देख कर हंस रहा था और मैडम व उसकी सहेली जा चुकी थीं। ओह शिट! कहते हुए मैं चैम्बर के ही एक कुर्सी में धंस गया। चपरासी ने फ़ौरन पानी का गिलास मुझे पेश किया और बोला, जब-जब जो-जो होना होता है सो-सो होता है। आप फ़िकर न करें। मनडे को आपका भतीजा छूट जायेगा।
मेरे जी में आया कि गिलास खींचकर उसके मुँह पर दे मारूँ पर मैं ख़ामोश रहा और चुपके से उठ कर चल दिया। सब मेरी राह देख रहे थे। होंठ बंद थे पर सवाल एक ही था। क्या हुआ?
मैंने भी कोर्ट के रीडर की तरह मगर हारे हुए जुआरी की-सी मुर्दा आवाज में कहा, अब सोमवार को....
वे सब आपस में बतियाते हुए आगे निकल गये और मैं वहीं ठिठका खड़ा रह गया-गुबार देखते हुए। उन तमाम लोगों के चेहरों के हावभाव से ऐसा नहीं लगता था कि कोई बड़ा अनर्थ हो गया जबकि मेरा एहसास शिकस्ते-फ़ाश का था। जैसे मेरी दुनिया ही लुट गयी हो। एक जायज काम करवाने में भी मैं नाकाम रहा था, वो भी अपने ही विभाग में, आप मेरी अंदरूनी हालत का अंदाजा नहीं कर सकते।
मैं उसी शाम बड़े वकील के घर पर उलाहना देने पहुँचा। मैडम उसी की जाति की थी और वो उसके घर-परिवार वालों से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। उसने कहा वो साली है ही ऐसी-सेडिस्ट। कुछ तो पद की, कुछ जवानी की गर्मी उस पर चढ़ी है। फ़लाने जज साहब की बेटी है। सब उससे तंग हैं, मगर कुछ नहीं हो सकता। हाईकोर्ट में उसके संरक्षक बैठे हैं इसीलिए वो मनमानियाँ करती हैं और कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
मैं रजिस्ट्रार विजीलेंस से शिकायत करूँगा। जरूरत हुई तो सी.जे. से मिलने में न हिचकूँगा। ये साफ़-साफ़ अनलॉफुल डिटेंशन है। एक जज कैसे पंच परमेश्वर की कुर्सी पर बैठ कर इस तरह मनमानी कर सकता है..... गुस्से से मेरा चेहरा तमतमाने लगा था।
भोले न बनो रीडर जी। ऐसा तो रोज होता है। आपको आज पता चला है क्या? डायस पर बैठने और डायस के सामने खड़े होने में बहुत फ़र्क होता है। जब खुद पर बीतती है तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता है। बी प्रेक्टिकल हमारे हिसाब से दुनिया के कारोबार नहीं चलते। भूल जाना चाहिए। आप शिकायत भी नहीं कर सकते। कोई भी जज अपने हाथ काट के नहीं देता। उसने आर्डरशीट में जो लिख दिया, वही अटल सत्य है। अब उसे ब्रह्मा भी नहीं मेट सकते। और जो खुली हक़ीक़त है, वह मिथ्या। क़ानून और इन्साफ़ इसी के नाम है। काग़ज के परे की सच्चाई क़ानून को नजर नहीं आती, इसीलिए तो कहते हैं कि क़ानून अंधा होता है....
और क़ानून जब इस तरह बायस हो तो.....
तो....तो वो अपने हाथ-पैर बचा के काम करता है, जैसा इस लौंडिया ने किया। खुश रहो यार रीडर साहब, क्यों मुँह लटका के बैठ गये हो। हर बात को प्रेस्टिज प्लाइंट नहीं बनाते। दुनियादारी सीखो।
प्रेस्टिज प्वाइंट तो खैर वह मेरा बन चुका था। मैं दो दिनों तक विचार करता रहा कि अब किससे मिलना चाहिए और क्या हिकमते-अमली काम में लेनी चाहिए। मेरा जमीर कहता था कि एक रूटीन या जायज काम के लिए सिफ़ारिश नहीं की जानी चाहिए और विवेक की आवाज ये थी कि अगर सोमवार को भी मैडम ने खुराफ़ात की तो क्या होगा?
और ऐसा ही हुआ। सोमवार को कोर्ट में बैठते ही उसने ऐलान कर दिया कि वह पहले अपनी अदालत का काम देखेगी फिर एवजी अदालत को लुक आफ्टर करेगी। मैं आज तहैया करके आया था कि कुछ भी हो जाए, आज इस रांड को मनमानी न करने दूँगा। हाईकोर्ट के एक बडे अधिकारी से मेरी शनासाई थी। वो मेरी लेखकीय हैसियत से भी परिचित था और मेरा साथ दोस्ताना अंदाज में गुफ्तगू करता था। मैंने फ़ौरन हाईकोर्ट की राह ली। वो हमेशा की तरह बड़े तपाक से मिला। माजरा सुनकर देर तक हंसता रहा, फिर बोला, बड़े भावुक हो। इत्ती-सी बात पर परेशान हो गये। मैं उसे फ़ोन कर देता हूँ। कैसे नहीं करती है जमानत तस्दीक़, रहना नहीं है क्या उसे इस शहर में....आप तो मस्त रहा करो जी''
फिर उसने चपरासी से चाय-पानी लाने तथा पी.ए. को फ़ोन मिलाने के लिए कहा। वो मेरी हैरान-परेशान हालात का जैसे मजा ले रहा था।
आख़िरकार मैडम ने जमानत तस्दीक कर दी। वो दस्तावेजात भी न देखे जो तलब किये गये थे। रिहाई आदेश पर दस्तखत भी हो गये और शाम तक जमील जेल से छूटकर भी आ गया।
सब की जान में जान आयी। सबसे ज्यादा जमील की माँ की। जमील की रिहाई से सब खुश थे और मेरी तारीफ़ों के पुल बाँध रहे थे कि ये न होते तो बहुत परेशानी होती। भाभी जब अस्पताल में लौट कर आयीं तो मुझे देर तक दुआएँ देती रहीं।
फिर ये वाक़िया हरेक के लिए भूली-बिसरी दास्तान बन गया, लेकिन मेरे लिए नहीं...मुझे लगता है, जमील तो दो दिन जेल में रह के छूट आया पर मुझे हमेशा-हमेशा के लिए ऐसी कैद में डाल दिया है कि मैं लाख कोशिश करूँ तब भी इस कैद से आजाद नहीं हो सकता, क्योंकि ये कैद एक हस्सास इंसान की अपनी सोच और संवेदनाओं के ताने-बाने से बनी है और अपने बनाये हुए बंधनों से कोई क्योंकर मुक्त हो सकता है। एक ख़लिश-सी हर वक्त सीने में कसकती रहती है और एक आग धधकती रहती है जिसे कोई देख नहीं पाता ये महज जज्बाती होना नहीं है, बल्कि इससे बढ़ कर कुछ है.....।


Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार