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उत्तर-आधुनिकतावाद को एक मुहावरे के रूप में अपनाये जाने से हिन्दी आलोचना का कोई ज्यादा भला होने वाला नहीं है : प्रो. मैनेजर पाण्डेय

देवेन्द्र चौबे, अभिषेक रौशन, उदय कुमार एवं रेखा पाण्डेय

प्रो. पाण्डेय, देरिदा कहते हैं कि इतिहास एक पाठ है, उसका कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है। देरिदा की इस धारणा के आलोक में उत्तर-आधुनिकता के बारे में आप क्या सोचते हैं?
देखिए, एक तो देरिदा खुद को उत्तर-आधुनिक नहीं मानते, और वैसे भी उत्तर आधुनिकतावाद का कोई सुनिश्चित अर्थ नहीं है। उत्तर-आधुनिकतावाद के बहुत सारे विचारक या कहिए कि जिनको उत्तर-आधुनिकतावाद का विचारक माना जाता है, उनमें से अनेक लोगों ने यह स्वीकार किया है कि हम उत्तर-आधुनिकतावादी नहीं हैं। इसलिए एक तो देरिदा के इस कथन को उत्तर-आधुनिकतावादी कथन नहीं माना जा सकता। इस कथन की अलग से व्याख्या और उस पर बात की जाए, यह समझ में आता है। आपके सवाल से एक बात यह भी जुड़ी हुई है कि जैसे देरिदा के इस कथन में सबसे अधिक महत्त्व अनिश्चितता को या .... को दिया गया है कि पाठ का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता, उसी तरह उत्तर-आधुनिकतावाद को अधिकांश स्थापनाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनका भी कोई निश्चित अर्थ नहीं है। इसलिए उत्तर-आधुनिकतावाद की तरह-तरह की व्याख्याएँ प्रचलित हुई हैं, बल्कि मैं अतिरंजना का खतरा उठाते हुए यह कह सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जितने मुँह उतनी बातें सुनाई पड़ती हैं। अब रही बात देरिदा के उस कथन की, तो उस कथन को दो-तीन संदर्भों में समझने की जरूरत है। पाठ के रूप में अब तक हम लोग लिखित पाठ जानते हैं और दर्शन के प्रसंग में यह परंपरा लम्बे काल से बनी हुई कि पुराने पाठों की नई व्याख्या करते हुए नई दार्शनिक दृष्टि का विकास होता रहा है; और मेरा ख्याल है कि जॉक देरिदा की मान्यता के मूल में दर्शन की यह परम्परा मौजूद है। पाठ का दूसरा रूप साहित्यिक कृतियों में दिखाई देता है। उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक को महत्त्व नहीं देते। स्वयं दो विचारकों ने, रोलाबार्थ और फूको ने लेखक के बदले पाठ को महत्त्व दिया है, या बल्कि रोलाबार्थ का तो यह कथन है कि लेखक की मृत्यु की कीमत पर ही पाठ और पाठक का महत्त्व स्थापित हो सकता है। तब पाठ से पाठक का सम्बन्ध ही आलोचना का केन्द्रीय तत्त्व होगा, पाठ से लेखक का सम्बन्ध नहीं। ऐसी स्थिति में, पाठक तो बदलते रहते हैं। हर युग के नए पाठक पुरानी रचनाओं का पुराने पाठों का नया अर्थ करते हैं। इसलिए जॉक देरिदा के इस कथन का एक अभिप्राय साहित्यिक पाठों के अर्थ की अनेकता भी है। आगे एक और स्तर पर इस बात को देखा जा सकता है। सबसे अधिक परेशानी यह है कि जॉक देरिदा सब कुछ को पाठ मानते हैं। ...तो इसका मतलब है कि संसार की घटनाएँ, स्थितियाँ ये सब पाठ हैं। अब यहीं से खतरनाक अर्थ की शुरूआत होती है। मान लीजिए कि उनके अनुसार हम मान लें कि इराक पर अमेरिकी हमला की घटना एक पाठ है, तो इतनी दूर तक तो सही होगा कि उसका एक अर्थ जार्ज बुश अपना लगाते हैं और दूसरा अर्थ इराक की जनता लगाती है और दोनों अर्थों की टकराहट हो रही है इतिहास की प्रक्रिया में। पर सवाल यह है कि वह दोनों में से किसी एक अर्थ को स्वीकार करें, क्योंकि यह कहना काफी नहीं होगा कि इस घटना रूपी पाठ के दो अर्थ हैं, बल्कि दो अर्थ कहने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए यह तो बाहर बैठे आदमी को बताना ही पड़ेगा कि वह किस अर्थ को सही समझता है। इसलिए जॉक देरिदा के इस कथन में अर्थ की अनिश्चितता के साथ-साथ विचारक की नैतिक स्थिति की भी अनिश्चितता है और ऐसी स्थिति में अर्थ का अनर्थ होने लगता है। मान लीजिए कि हम बाबरी मस्जिद के ध्वंश को भी एक घटना और पाठ के रूप में देखें तो उसका एक अर्थ हिन्दूवादी लोग करते हैं, दूसरा अर्थ मुसलमान करते हैं और तीसरा अर्थ इस देश के लोकतांत्रिक चेतना वाले लोग करते हैं और यह कहना कि तीनों अर्थ बराबर सही हैं कुछ भी कहना नहीं है, बल्कि अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचना है। इसलिए जॉक देरिदा के पाठ में फिसलन की संभावना बहुत है और इस तरह के मुहावरेदार वाक्यों के ऐसे ही खतरे हुआ करते हैं।
आज भारत में विचारधाराओं को लेकर जो सारी बहसें हो रही हैं उसमें उत्तर-आधुनिकतावाद से संबंधित बहस को आप किस रूप में देखते हैं?
देखिए, जहाँ तक मुझे मालूम है कि हिन्दुस्तान की बहुत सारी भाषाओं में उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में बातें हो रही हैं, बहसें हो रही हैं, हम उनको नहीं जानते, आप भी नहीं जानते। दो भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें होने वाली बहसों से हम परिचित हैं, एक तो हिन्दी दूसरी भाषा है अंग्रेजी। अंग्रेजी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद से संबंधित बहसें हैं, वह पश्चिम में होने वाली बहसों का विस्तार हैं। मुझे हिन्दुस्तान के किसी अंग्रेजी लेखक की ऐसी किताब या ऐसा लेख पढ़ने को नहीं मिला है जो उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में कोई नई बात कहता हो। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद पर जो बहस है वह और भी खराब स्तर की है। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद पर कोई गंभीर बहस हुई ही नहीं है, न तो उसकी व्याख्या करने वाली बहस, न उसके पक्ष को ठीक से प्रस्तुत करने वाली बहस और न उसका विरोध करने वाली बहस; बल्कि मैं तो अभी यही कह सकता हूँ कि हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जो कुछ लिखा गया है वह बहुत कुछ पश्चिम में और वह भी अंग्रेजी के माध्यम से उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जो बातें कही गयी हैं, उनकी पुनर्प्रस्तुति ही हिन्दी में हुई है। मतलब हिन्दी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद पर लिखने वाले हैं उनमें सबसे अधिक तो सुधीश पचौरी ही लिखते रहते हैं और जाहिर है कि वे काफी उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा में उत्तर-आधुनिकतावाद पर लिखते हैं। इसलिए उनके लेखन से भी उत्तर-आधुनिकतावाद का कोई स्वरूप लोगों के सामने स्पष्ट हुआ हो, ऐसा नहीं है। हाँ, इस बहस के प्रसंग में मैं यह जरूर कहूँगा कि असल में उत्तर-आधुनिकतावाद की बुनियादी बहस मार्क्सवाद से है। अपने यहाँ मार्क्सवादियों ने भी उत्तर-आधुनिकतावाद से पैदा हुए सवालों का कोई बहुत अच्छा उत्तर दिया हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। मेरी अपनी जानकारी में दो लोग हैं, एक तो प्रो. रणधीर सिंह और दूसरे एजाज अहमद, जिन्होंने उत्तर-आधुनिकतावाद पर गंभीरता से बहस करने की कोशिश की है मार्क्सवाद की ओर से बहस करने की कोशिश की है। इसलिए मैं कहूँगा कि अभी उत्तर-आधुनिकतावाद को ठीक से समझने-समझाने की जरूरत हिन्दी में बनी हुई है। देखिए, मैं विचार और आलोचना के प्रसंग में इस धारण को महत्त्व देता हूँ कि किसी भी विचार को अस्वीकार करने से बेहतर है कि उसको गलत साबित करना, अगर आपको वह गलत लगता है तो। क्योंकि अस्वीकार करने में कुछ बौद्धिक प्रयास नहीं लगता, गलत साबित करने में बौद्धिक प्रयास की जरूरत होती है। इसलिए हिन्दी में उत्साही मार्क्सवादियों ने उत्तर-आधुनिकतावाद को अस्वीकार करने का काम बहुत अधिक किया है और उसे गलत साबित करने का काम बहुत कम किया है।
उत्तर-आधुनिकतावाद के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि इससे स्थानीय स्वायत्तता और विकेन्द्रीकरण की जमीन मजबूत हुई है और उत्तर उपनिवेशवादी साहित्य, तीसरी दुनिया का साहित्य, नारी एवं अश्वेत लेखन, दलित साहित्य आदि केन्द्र में आए हैं। आप इस तर्क से कहाँ तक सहमत हैं?
देखिए, एक बात तो यह है कि हिन्दी में या सारी दुनिया में आपने जिन-जिन समस्याओं की चर्चा की है उन तीनों समस्याओं पर गंभीर बहसें उत्तर-आधुनिकतावाद के आने के बहुत पहले से चल रही हैं। मतलब स्त्रीकी स्वाधीनता और पराधीनता के प्रश्न पर बहस, भारतीय समाज के प्रसंग में दलितों की पराधीनता और स्वाधीनता पर बहस या फिर उसी से जुड़ा हुआ दलित साहित्य का प्रश्न और इसके साथ ही केन्द्र बनाम हाशिए का द्वंद्व, इन सब पर बहसें उत्तर-आधुनिकतावाद के आने के बहुत पहले से चल रही हैं। बात यह है कि उत्तर-आधुनिकतावाद केवल शब्द नहीं, बल्कि एक विचार प्रक्रिया के रूप में इतिहास पर आप ध्यान दें तो मालूम होगा कि कुल मिलाकर १९८० के आस-पास से इसकी शुरूआत होती है। थोड़ा पहले आप फूको को उसमें जोड़कर देखें तो थोड़ा और पीछे जाएँगे ७० के दशक में, अन्यथा सब लोग जानते हैं लेकिन स्त्रियों की स्वाधीनता के प्रश्न पर हम सारी दुनिया को छोड़ भी दें तो हिन्दी में ४० के दशक से बहस चल रही है कम या ज्यादे। मतलब महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक श्रृंखला की कड़ियाँ १९३५ के आस-पास उनके लिखे निबंधों का ऐसा संकलन है जो पुस्तकाकार १९४२ में छपा। मतलब हिन्दी में और हिन्दुस्तान में स्त्रियों की स्वाधीनता का सवाल देश की स्वाधीनता के सवाल से जुड़ा हुआ दिखाई देता है और उसके बाद आप देख सकते हैं हिन्दी में स्त्रियों की स्वाधीनता का एक बड़ा प्रमाण उनकी स्वतंत्र रचनाशीलता में दिखाई देता है। हिन्दी साहित्य में स्त्रियों को रचनाशीलता का इतिहास भी छिट-पुट ही सही बहुत पुराना है लेकिन व्यवस्थित रूप से उसकी शुरूआत नई कविता, नई कहानी के दौर से दिखाई देती है। अब रही बात दलित साहित्य की तो देखिए, हिन्दी में दलित साहित्य बाद में आया, पर मराठी में दलित साहित्य उत्तर-आधुनिकतावाद के बहुत पहले से स्थिर और स्थापित धारा के रूप में मौजूद है और हिन्दी के दलित लेखक उत्तर-आधुनिकतावाद से जितना परिचित हैं, प्रेरित हैं और प्रभावित हैं उससे बहुत अधिक वह मराठी के दलित लेखक से परिचित, प्रेरित और प्रभावित हैं। रही बात केन्द्र और हाशिए के द्वंद्व की, तो बहुत पहले बीसवीं सदी के दूसरे या तीसरे दशक की बात होगी, ...केन्द्र और हाशिए की बहस स्वयं आधुनिकतावादी विचार और रचनाशीलता में मौजूद रही है, इसलिए यह कहना कि उत्तर-आधुनिकतावाद के कारण स्त्रियों की स्वाधीनता, दलित लेखन या केन्द्र और हाशिए पर बहस की शुरुआत हुई उससे कोई दिशा मिली है मुझे एकदम ठीक नहीं लगता। हाँ, यह जरूर कहूँगा कि उत्तर-आधुनिकतावादी चिंतन ने इन तीनों प्रसंगों में थोड़ी मद्द की है, क्योंकि पहले के दिनों में ये सब विवाद के विषय के उत्तर-आधुनिकतावाद ने इन सबके महत्त्व को नए रूप में स्थापित करने में मद्द की है। इसलिए व्यक्ति की स्वायत्तता, समुदायों की स्वतंत्रता और समाज में हाशिए पर रहने वाले लोगों की ताकत का अहसास, यह उत्तर-आधुनिकतावाद की मद्द से बेहतर रूप में समझा गया है। इसलिए मैं यह जरूर कहूँगा कि ये सारी बहसें पुरानी हैं, पर उत्तर-आधुनिकतावाद ने इन बहसों को नई धार देने में मद्द की है।
मार्क्सवादी चिंतन का आधार आर्थिक विश्लेषण था। उत्तर-आधुनिकतावाद आर्थिक पक्ष के प्रति उदासीन है। क्या यह सही नहीं है कि आर्थिक पक्ष के प्रति उदासीनता के कारण ही मार्क्सवादी विचारक उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचना करते हैं?
हाँ, पर बात सही है। देखिए, उत्तर-आधुनिकतावाद असल में सामाजिक संरचना को महत्त्व नहीं देता और इसीलिए वह वर्ग को भी महत्त्व नहीं देता। मुझे तो लगता है कि यह उत्तर-आधुनिकतावाद का एक अंतर्विरोध है कि आप सुबह से शाम तक हाशिए के लोगों की बात तो करें, पर सर्वहारा की बात आते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगें। स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था के हाशिए पर रहता है सर्वहारा वर्ग। लेकिन मार्क्सवादियों ने असल में जब उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचना की है तो इसलिए भी की है कि उत्तर-आधुनिकतावादी, सामाजिक, राजनीतिक द्वंद्व, संघर्ष और किसी भी तरह से मुक्ति के प्रयास को महत्त्व नहीं देते। वे बल्कि अधिक से अधिक द्वंद्व को विचार के स्तर तक स्वीकार करते हैं; बहस के स्तर पर उसको मानते हैं, लेकिन सामाजिक व्यवहार में भी उसको लागू करना जरूरी है यह वे स्वीकार नहीं करते और तब मुझे वाल्टर बेंजामिन का एक कथन याद पड़ता है कि पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच लड़ाई विचारकों के दिमाग में नहीं, समाज में होती है। पर समाज में जो लड़ाई होती है वह लड़ाई किसी भी तरह से उत्तर आधुनिकतावादियों को स्वीकार नहीं। मुझे फूको का एक ... याद पड़ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि एक स्तर पर हम सब लोग आंतरिक द्वंद्व से गुजरते हैं। अब दिमाग के भीतर द्वंद्व हो यह वे मानते हैं लेकिन समाज में वह द्वंद्व हो और निर्णायक दौड़ तक पहुँचे, यह उनके लिए महत्त्व की बात नहीं है। वे यह बात पहली बार थोड़े कह रहे हैं। बहुत पहले जयशंकर प्रसाद कामायनी में कह चुके हैं कि -
देवों की विजय दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा
संघर्ष सदा उर अन्तर में
जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा।
मतलब यह कि मनुष्य की चेतना के भीतर अच्छी प्रवृत्तियों और बुरी प्रवृत्तियों जिसको वे दैवी और आसुरी प्रवृत्तियाँ कहते हैं उनके बीच द्वंद्व चलता ही रहता है। जयशंकर प्रसाद के इस कथन के लगभग ५०-६० साल बाद बहुत नई बात की तरह जो फूको ने कहा वह वही है जो जयशंकर प्रसाद कह चुके। इसलिए मार्क्सवादी जब उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करते हैं तो इसलिए भी कि उत्तर-आधुनिकतावादी मुक्ति को किसी धारणा और कोशिश को महत्त्व नहीं देते। उत्तर-आधुनिकतावादी दिमागी गुलामी की बात तो करते हैं पर सामाजिक और राजनीतिक गुलामी की बात नहीं करते और उस तरह की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए जो संघर्ष है उसको भी महत्त्व नहीं देते। इसलिए बहुत लोगों का ख्याल है कि उत्तर-आधुनिकतावाद ने एक तरह से संघर्षशील चेतना को लकवाग्रस्त करने का प्रयास किया है कि हर चीज केवल बौद्धिक बहस तक सीमित रह जाए। समाज में जो संघर्ष है और द्वंद्व हैं वह केवल बौद्धिक बहसों से हल नहीं होंगे।
उत्तर-आधुनिकतावादी मजदूरी को सेवा का नाम देते हैं इस पर आपकी कोई टिप्पणी....।
फ्रांस के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री थे। अभी उनकी क्मंजी हुई है। उन्होंने कहा है कि पंडिताऊ शास्त्रार्थ की प्रवृत्ति उत्तर-आधुनिकतावाद में दिखाई देती है। मतलब यह कि मजदूरी को सेवा कहना, उसमें से शोषण के बोध को गायब करना। शोषण का बोध नहीं होगा तो संघर्ष की संभावना भी नहीं होगी। इसीलिए मैं बार-बार कहा करता हूँ कि उत्तर-आधुनिकतावाद असल में पूँजीवाद के वर्तमान दौड़ की रक्षा करने वाली विचारधारा है।
उत्तर-आधुनिकतावादी कहते हैं कि सर्वहारा वर्ग खत्म हो गया वे सब मध्य वर्ग में शामिल हो गए हैं। उनकी इस मान्यता पर आपका क्या सोचना है?
अरे,मतलब सपने में ऐसा हो गया होगा। सपनों पर तो मेरा नियंत्रण नहीं है।जाकर पूछना चाहिए कि भारत जैसे देश में जहाँ लाखों मजदूर बेकार हैं और दस हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है ये जीवन से मुक्त होकर मध्य वर्ग में शामिल हुए हैं क्या? इस मूर्खतापूर्ण मान्यता पर मैं क्या कह सकता हूँ। आप उन किसानों से जाकर अब तो खैर कैसे पूछेंगे आप, जिन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके घर-परिवार के लोग बता सकते हैं कि वे मध्य वर्ग में शामिल हुए हैं या प्रेतों में शामिल हो गए हैं।यह बहुत ही भ्रामक, मैं कह सकता कि छल-छद्म से भरी हुई बातें हैं।
हिन्दी आलोचना में एक दौर ऐसा था जब आधुनिकता और-आधुनिकतावाद की चर्चा थी। आज उत्तर-आधुनिकतावाद की चर्चा जोरों पर है। आधुनिकता और-आधुनिकतावाद से उत्तर-आधुनिकतावाद की यह यात्रा साहित्य और समाज की वास्तविकताओं से कितना जुड़ा है?
भई देखो, बात यह है कि यह तो मैं मान सकता हूँ कि आजकल हिन्दी आलोचना में उत्तर-आधुनिकतावाद की चर्चा बहुत है, लेकिन मेरी जानकारी में हिन्दी में कोई उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना नहीं है, मैं सुधीश पचौरी को याद करते हुए यह बात कहना चाहता हूँ। उसका एक कारण है कि उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता भी हिन्दी में अभी उस तरह से विकसित नहीं हुई है जिसकी उत्तर-आधुनिकतावादी औजारों से ही व्याख्या करने की स्थिति बनती हो। इसलिए यह पूरी बहस ठोस आलोचना पर होने के बदले केवल विस्तार के स्तर पर मौजूद है। लेकिन आधुनिकता और आधुनिकतावाद से संबंधित जो बहस थी वह गहरे स्तर पर आलोचनात्मक बहस थी। क्योंकि आधुनिकता रचनाशीलता और-आधुनिकतावादी रचनाशीलता के विकास के साथ-साथ आधुनिक और-आधुनिकतावादी आलोचना का भी विकास हुआ। हिन्दी में उसका क्षेत्र बहुत लम्बा है। आप उसको आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर नामवर सिंह तक में देख सकते हैं और देखिए, जब आधुनिक कहा जाता है तो मैं तो मार्क्सवाद को भी आधुनिकता का ही एक रूप समझता हूँ। यद्यपि तब मार्क्सवादियों ने आधुनिकतावाद का विरोध किया लेकिन आधुनिक और-आधुनिकतावाद में फर्क करने की जरूरत है। मैं इसलिए आधुनिक विचारधाराओं के अन्तर्गत मार्क्सवाद को रखता हूँ, आधुनिकतावाद को इससे अलग रखता हूँ। जैसी रचनाशीलता, आधुनिकता और-आधुनिकतावाद के साथ हिन्दी में विकसित थी, वैसी रचनाशीलता और आलोचना अभी उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रेरित-प्रभावित होकर हिन्दी में विकसित नहीं हुई है।
आपने एक साक्षात्कार में कहा है कि आलोचना को कोई वाद वहीं तक मद्द कर सकता है जहाँ तक वह रचना की अर्थवत्ता और सार्थकता समझने में सहायक हो। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में यह बात कहाँ तक सच है?
देखिए, उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि यह हवा में तैरते विचारों को पकड़कर अपना व्यवसाय चलाने की कोशिश है। यह ठीक है कि मार्क्सवाद से या मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि से आप पुराने साहित्य की भी व्याख्या कर सकते हैं। लोगों ने कालिदास से लेकर भक्तिकाल होते हुए छायावाद तक की व्याख्या मार्क्सवादी दृष्टि से की है। मार्क्सवादी दृष्टि से गैर मार्क्सवादी रचनाओं की व्याख्या करना जिस तरह संभव है उसी तरह उत्तर-आधुनिकतावाद दृष्टि से गैर उत्तर आधुनिकतावादी और पुरानी रचनाओं की व्याख्या करना भी संभव है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब पहले उत्तर-आधुनिकतावाद की व्यवस्थित समझ विकसित हो। मेरी चिन्ता और शिकायत यह है कि अभी हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद की व्यवस्थित समझ ही पैदा नहीं हुई है। उत्तर-आधुनिकतावाद की एक स्थापना यह है कि साहित्य के प्रसंग में शास्त्रीय और लौकिक के बीच कोई फर्क नहीं है। ... अगर आप इसको रचना के स्तर पर देखना चाहें तो नागार्जुन की मंत्र कविता में इसको देखा जा सकता है। बाबा ने लौकिक और शास्त्रीय दोनों को मिलाने की कोशिश की है और बहुत सफल कोशिश की है। इस कोशिश के माध्यम से उन्होंने धारदार राजनीतिक समझ की कविता लिखी है मंत्र। अब कोई चाहे और उत्तराआधुनिकतावाद के भीतर लौकिक और शास्त्रीय के द्वंद्व और दोनों की एकता की जटिलता को समझता हो, तो वह नागार्जुन की इस कविता की ठीक से व्याख्या कर सकता है। लेकिन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए उत्तर- आधुनिकतावाद को एक मुहावरे के रूप में अपनाते जाने से हिन्दी आलोचना का कोई ज्यादे भला होने वाला नहीं है।
एक समय में मार्क्सवादी विचारधारा ने हिन्दी साहित्य की दिशा और दशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। क्या आपको लगता है कि उत्तर-आधुनिकतावाद वही भूमिका निभा पाएगा?
देखिए, ऐसा है कि मार्क्सवादी आलोचना ने हिन्दी आलोचना और हिन्दी साहित्य की दिशा बदलने में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उसका एक कारण यह भी था कि मार्क्सवादी आलोचना केवल साहित्यिक दृष्टिकोण नहीं है। वह एक साथ साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण है और इस व्यापक दृष्टि के तहत मार्क्सवादी आलोचना ने हिन्दी साहित्य में हस्तक्षेप किया और उसकी दिशा बदलने में एक भूमिका निभाई। उत्तर-आधुनिकतावाद इस तरह की समग्रता को स्वीकार नहीं करता। दूसरी बात यह भी है कि मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का विकास अपने देश में जनसंघर्षों की लम्बी परंपरा से जुड़कर हुआ था और उसी प्रकार की रचनाशीलता भी विकसित हुई थी। हिन्दी में अभी उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का भी ठीक से विकास नहीं है। मैंने नागार्जुन की एक कविता का उल्लेख किया यद्यपि यह कविता लिखते समय नागार्जुन ने किसी उत्तर-आधुनिकतावाद को ध्यान में नहीं रखा था और वे जानते भी नहीं थे कि उत्तर-आधुनिकतावाद क्या है। सजग रूप से उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक हिन्दी में मेरी जानकारी में एक ही है, वे हैं मनोहर श्याम जोशी, जो घोषित रूप से अपने उपन्यासों को उत्तर-आधुनिकतावादी मानते हैं और स्वीकार भी करते हैं। असल में जब तक हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का विकास नहीं होगा तब तक उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना भी ठीक से विकसित नहीं होगी। इसीलिए मैं सारांश के रूप में कहूँ तो उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना दृष्टि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, यद्यपि वह मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का स्थानापन्न कभी नहीं बनेगी। लेकिन उसकी एक भूमिका हो सकती है बशर्तें कि एक तो स्वयं उत्तर-आधुनिकतावाद की शक्ति और सीमाओं का स्पष्ट बोध हो और दूसरे उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का भी विकास हो और तीसरे इन दोनों के बीच एक द्वंद्वात्मक संबंध का निर्माण हो।
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