श्याम सुशील
चित्रा जी, पिछले दिनों राष्ट्रीय सहारा में मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र यादव और निर्मला जैन के बीच काफी वाद-विवाद और प्रतिवाद हुआ-स्त्रीलेखन को लेकर। लेकिन उनकी बहसों के केन्द्र में, खासकर राजेन्द्र यादव के लिए स्त्रीलेखन का मतलब देह तक सीमित है। जबकि निर्मला जैन देह के साथ स्त्रीके मन की भी बातें करती हैं और इसी संदर्भ में उन्होंने कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और आप सबकी चर्चा की। इन बहसों को लेकर आप क्या सोचती हैं?
सुशील जी, स्त्रीविमर्श पर जिस तरह की साहित्यिक बहसें चल रही हैं, मुझे लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी सोच की बात कर रहा है और अपनी सोच को वह स्त्रीविमर्श की परिभाषा के रूप में रेखांकित होते देखना चाहता है। हालांकि यह बहुत स्वस्थ प्रक्रिया है कि स्त्रीविमर्श को लेखक, समीक्षक और विद्वानजन अपनी-अपनी तरह से परिभाषित कर रहे हैं और इससे हमें मुख्य बिन्दुओं तक पहुँचाने का रास्ता भी मिलता है। लेकिन रास्ता तब अवरुद्ध होता लगता है, जब राजेन्द्र यादव जैसे महत्त्वपूर्ण रचनाकार स्त्रीविमर्श को अपनी सोच से परिभाषित करने की कोशिश में उसे सीमित कर देते हैं। राजेन्द्र की चेष्टा हमें अवाक् करती है कि यह स्त्रीविमर्श को सही अर्थों में परिभाषित करने का प्रयत्न है या उसकी आड़ में स्त्रीदेह को ले करके अपनी कुण्ठाओं की अभिव्यक्ति है। यहाँ मुझे मल्लिका सेहरावत और राजेन्द्र यादव के स्त्रीविमर्श में कोई विशेष फर्क नज+र नहीं आता। औचित्य खोजने का पराक्रम-भर है। कुछ लोग समझते हैं कि देह से मुक्ति में ही स्त्रियों की मुक्ति है और उस मुक्ति को वह देह के निचले हिस्से में ही खोजते हैं। उन्हें स्त्रीधड़ के ऊपर एक अदद मस्तिष्क नज+र नहीं आता, जो पुरुषों के मुकाबले उतना ही उर्वर है। मुझे उसी मस्तिष्क की सामाजिक पहचान और मान्यता में ही स्त्रीविमर्श की सही परिभाषा नजर आती है। आधी आबादी की पहचान का संघर्ष और विमर्श उसी को अर्जित करने का संघर्ष है। स्त्रीधड़ के निचले हिस्से की बात करने वाला लेखक बड़ी चालाकी से स्त्रीधड़ के ऊपर अवस्थित उसके मस्तिष्क को अनदेखा और उपेक्षित कर उसकी पुरुष सत्तात्मकता को ही जाहिर कर रहा है ताकि वह स्त्रीधड़ के निचले हिस्से का अपने धड़ के ऊपर के मस्तिष्क के माध्यम से जिस तरह चाहे उपयोग कर सके। वह स्त्रियों को बेवकूफ बनाना चाहता है।
मैं समझती हूँ कि मस्तिष्क की पहचान के साथ ही आधी आबादी की समाज में निर्णायक भागीदारी को स्वीकृति हासिल हो जाएगी हासिल हो रही है, लेकिन अभी उसे अपनी धरती, अपना क्षितिज और अपना आकाश जहाँ और जिस सीमा तक उपलब्ध होना चाहिए, नहीं हो रहा, नहीं दिया जा रहा, बल्कि पुरुष वर्चस्व स्त्रीविमर्श के आन्दोलन से अतिरिक्त सतर्क और सावधान हो रहा है और उसे दिग्भ्रमित करने के अनेक मंच सृजित किए जा रहे हैं, जहाँ स्त्रीके परम हितैषी होने के दावे-प्रतिदावे ऊँची आवाज में किए जा रहे हैं। स्त्रीका दैहिक उत्पीड़न और बढ़ गया है, जब से वह अपने स्व की लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में डंके की चोट पर उतर आई है, चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो, राजनीति का क्षेत्र हो, चाहे सेना हो या गाँव। गाँव में हमारी आधी आबादी का बहुत बड़ा प्रतिशत जो अभी भी नाक तक घूँघट को खींच, सूर्य की ओर अपनी आँखें नहीं उठा पाता है, और इक्कीसवीं सदी में भी लोटा लेकर खेतों में जाने को मजबूर है और शोषित होता है इन सबकी लड़ाई चैतन्यशील स्त्रीलड़ रही है और निश्चय ही वो उसे पालतू भेड़-बकरी की परिभाषा से बाहर लाएगी और बताएगी कि तुम्हारे इस घूँघट के भीतर का जो मस्तिष्क है, वह पुरुषों के मस्तिष्क से किसी तरह से कम नहीं है और तुम्हारी देह को अपवित्र करने वाले जब कुएँ और तालाबों में डूबकर नहीं मरते तो तुम्हें भी डूबकर मरने की जरूरत नहीं है। इस बात को महिलाएँ समझ रही हैं, चेतना ग्रहण कर रही हैं और इसी का परिणाम है कि अब शहरों में जिन लड़कियों के साथ देह उत्पीड़न होता है, वो लड़कियाँ बस और टे्रन के नीचे जाकर स्वयं को खत्म नहीं कर रही हैं, बल्कि यह साहस दिखा रही हैं कि पुलिस स्टेशन में जाकर उन बलात्कारियों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करवा रही हैं। इन लड़कियों की अपने दैहिक शोषण के खिलाफ यह पहल, अपने उनके मस्तिष्क और उनकी चेतना की पहचान है क्योंकि उनके मस्तिष्क ने ही उन्हें यह साहस दिया कि अपने देह के निचले हिस्से के शोषण का प्रतिकार वे बेखौफ होकर करेंगी और उनके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ेंगी। मस्तिष्क की चेतना ने ही उन्हें यह साहस प्रदान किया है कि वे अपने धड़ के नीचे की लड़ाई भी लड़ सकें। जब तक वो अपने मस्तिष्क की चेतना से सम्पन्न नहीं थीं तब तक धड़ के नीचे की लड़ाई लड़ने की वो हिम्मत नहीं जुटा सकती थीं या अपने विषय में निर्णय नहीं ले सकती थीं कि उन्हें क्या करना चाहिए। दूसरे लोग निर्णय लेते थे कि देह के अपवित्र हो जाने के बाद उन्हें जीवित रहने का अधिकार नहीं है। यह निर्णय भी पुरुषसत्तात्मक समाज ने ही लिया था, क्योंकि वह अपनी स्त्रीमें किसी की साझेदारी नहीं चाहता था, उसके मन की बात तो दूर। इसी तरह से उसके घर में जो उसकी स्त्रीबनकर आने वाली होती, उसकी यौन शुचिता भी उसके लिए जरूरी थी।
अगर समाज में आधी आबादी को अपने मस्तिष्क की पहचान मिल जाएगी तो वह अपनी इच्छा-अनिच्छा की लड़ाई भी लड़ लेगी और अपने तईं होने वाले उत्पीड़नों का प्रतिकार साहस के साथ कर सकेगी। स्त्री विमर्श में स्त्री के मस्तिष्क के पहचान की लड़ाई की बात न करके राजेन्द्र यादव ने यह साबित कर दिया है कि वह स्त्री विरोधी व्यक्ति हैं फ्यूडिस्टिक आचरण वाले व्यक्ति हैं। उनके विषय में मन्नू जी ने भी यह बात स्वीकारी है। राजेन्द्र जी को वही स्त्रियाँ स्वचेतना सम्पन्न लगी हैं जो धड़ के नीचे वाले स्त्री विमर्श के समर्थन में आगे आईं और उनकी रचनाओं में भी, वक्तव्यों में भी यह एकपक्षीय स्त्री विमर्श रेखांकित हुआ है, शायद वह मन से उसकी समर्थक न हों।
आज हिन्दी आलोचना में स्त्री, दलित, आदिवासी आदि जिन मुद्दों पर बहसें हो रही हैं, उसे आप कितना जरूरी समझती हैं। जबकि आप हिन्दी आलोचना की परम्परा को देखें तो वहाँ सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक विकास की प्रक्रिया, मार्क्सवाद आदि बड़े-बड़े मुद्दे रहे हैं। एक लेखिका होने के नाते आपके लिए आलोचना या इस तरह के विमर्श का अर्थ क्या है?
मेरे लिए साहित्यिक आलोचना या विमर्श का अर्थ समाज के सर्वांगीण सरोकारों से है। स्त्रीविमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श को भी उसी परिप्रेक्ष्य में संतुलन और विवेक और विवेच्य दृष्टि के साथ देखा, परखा और मूल्यांकित किया जाना जरूरी है, नहीं तो किसी की भी पक्षधरता का अतिवाद साहित्य के सरोकारों के संतुलन को डगमगाता है। एक तरफ आप पँसेरी चढ़ा दीजिए और दूसरी तरह सेर भी न रखिए तो तराजू असंतुलित हो जाएगा और न्याय नहीं होगा। बल्कि दलित और स्त्रीविमर्श की अतिवादिता ने चाहे वह लेखकों के द्वारा हो या समीक्षकों के विकासशील समाज की किशोर और युवा पीढ़ी की कठिनाइयों और जटिलताओं को लगभग अनदेखा कर रही है; जिनके कंधों पर विकासशील समाज की समृद्धि, संस्कार और एक समतामूलक समाज का सपना टिका हुआ है। आज अगर किसान आत्महत्या कर रहा है तो नई पीढ़ी भी चौंधियाते मॉलों की छठी और सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर रही है। इन गाँठों को आखिर कौन खोलेगा, कौन मूल्यांकित करेगा? समीक्षक को वर्गरहित, जातिरहित तथा गुटबंदी रहित हो कर के रचना को रचनात्मक उसकी समग्रता में मूल्यांकित करने की आवश्यकता है। मुझे लगता है कि लेखकों के साथ वह भी (आलोचक) खेमों में बँटकर और ओछी राजनीति में उलझकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की परम्परा को विस्मृत कर चुके हैं, बल्कि उससे आगे बढ़कर जो नए प्रतिमान उन्हें स्थापित करने चाहिए थे, मुझे लगता है कि कुछ विद्वान ही ऐसा कर पा रहे हैं।
कुछ ऐसे आलोचकों के बारे में आप बताएँ, जिन्होंने हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित किए हैं या कर पा रहे हैं?
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा में डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विजय मोहन सिंह, शिवकुमार मिश्र, मैनेजर पाण्डेय, सुधीश पचौरी, मधुरेश, पुष्पपाल सिंह, निर्मला जी हैं। निर्मला जैन जितनी विदुषी हैं, उसका स्वतंत्रउपयोग उन्होंने नहीं किया। निर्मला जी जैसी विदुषी ने अपनी एक स्वतंत्रसत्ता नहीं बनाई। कभी वो नामवर जी की आवाज लगीं, कभी नगेन्द्र जी की आवाज लगीं, कभी राजेन्द्र यादव की। उन्होंने इन लोगों से स्वतंत्रकिसी कृति की स्थापना नहीं की। हाँ, देवीशंकर अवस्थी और मलयज ने आलोचना में जिस स्वस्थ परम्परा की शुरूआत की, दुख इस बात का है कि वे असमय हमसे छिन गए। इन लोगों ने उन लोगों के लेखन की शक्ति को रेखांकित किया। जिनके नाम कुछ दिग्गजों ने कभी नहीं लिये।
हिन्दी के नए आलोचकों से आपकी उम्मीदें क्या हैं? किन लोगों में आपको संभावनाएँ दीखती हैं, जो आलोचना में नई चीजों को लेकर आ रहे हैं?
नए लोगों में अजय तिवारी, महेश दर्पण, देवेन्द्र चौबे, अरविन्द त्रिापाठी, ज्योतिष जोशी, अनामिका, पंकज चतुर्वेदी और इधर साधना अग्रवाल भी एक निष्पक्ष समीक्ष्य दृष्टि विकसित कर रही हैं। अच्छी बात यह है कि ये लोग किसी एक खाँचे से पोषित पल्लवित नहीं हो रहे। इनका मेग्नीफाइन ग्लास सूक्ष्म से सूक्ष्म पक्षों की परिणितियों को भी दृष्टि में रखता है और ये चरित्रों के दबावजन्य प्रभावों और उनसे उपजी मनोवैज्ञानिक संरचनाओं का अध्ययन गहरी संवेदना और सरोकारों के साथ जिस तरह चलनी से चाल कर, निथारकर जिस तरह से हमारे सामने रखते हैं, किसी भी रचना या कृति को, सहमतियों और असहमतियों के बावजूद-उसके निकट से निकटतर होने का पाठकीय अवसर उपलब्ध होता है, जो दुराग्रह जनित नहीं लगता है।
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चित्रा जी, पिछले दिनों राष्ट्रीय सहारा में मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र यादव और निर्मला जैन के बीच काफी वाद-विवाद और प्रतिवाद हुआ-स्त्रीलेखन को लेकर। लेकिन उनकी बहसों के केन्द्र में, खासकर राजेन्द्र यादव के लिए स्त्रीलेखन का मतलब देह तक सीमित है। जबकि निर्मला जैन देह के साथ स्त्रीके मन की भी बातें करती हैं और इसी संदर्भ में उन्होंने कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और आप सबकी चर्चा की। इन बहसों को लेकर आप क्या सोचती हैं?
सुशील जी, स्त्रीविमर्श पर जिस तरह की साहित्यिक बहसें चल रही हैं, मुझे लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी सोच की बात कर रहा है और अपनी सोच को वह स्त्रीविमर्श की परिभाषा के रूप में रेखांकित होते देखना चाहता है। हालांकि यह बहुत स्वस्थ प्रक्रिया है कि स्त्रीविमर्श को लेखक, समीक्षक और विद्वानजन अपनी-अपनी तरह से परिभाषित कर रहे हैं और इससे हमें मुख्य बिन्दुओं तक पहुँचाने का रास्ता भी मिलता है। लेकिन रास्ता तब अवरुद्ध होता लगता है, जब राजेन्द्र यादव जैसे महत्त्वपूर्ण रचनाकार स्त्रीविमर्श को अपनी सोच से परिभाषित करने की कोशिश में उसे सीमित कर देते हैं। राजेन्द्र की चेष्टा हमें अवाक् करती है कि यह स्त्रीविमर्श को सही अर्थों में परिभाषित करने का प्रयत्न है या उसकी आड़ में स्त्रीदेह को ले करके अपनी कुण्ठाओं की अभिव्यक्ति है। यहाँ मुझे मल्लिका सेहरावत और राजेन्द्र यादव के स्त्रीविमर्श में कोई विशेष फर्क नज+र नहीं आता। औचित्य खोजने का पराक्रम-भर है। कुछ लोग समझते हैं कि देह से मुक्ति में ही स्त्रियों की मुक्ति है और उस मुक्ति को वह देह के निचले हिस्से में ही खोजते हैं। उन्हें स्त्रीधड़ के ऊपर एक अदद मस्तिष्क नज+र नहीं आता, जो पुरुषों के मुकाबले उतना ही उर्वर है। मुझे उसी मस्तिष्क की सामाजिक पहचान और मान्यता में ही स्त्रीविमर्श की सही परिभाषा नजर आती है। आधी आबादी की पहचान का संघर्ष और विमर्श उसी को अर्जित करने का संघर्ष है। स्त्रीधड़ के निचले हिस्से की बात करने वाला लेखक बड़ी चालाकी से स्त्रीधड़ के ऊपर अवस्थित उसके मस्तिष्क को अनदेखा और उपेक्षित कर उसकी पुरुष सत्तात्मकता को ही जाहिर कर रहा है ताकि वह स्त्रीधड़ के निचले हिस्से का अपने धड़ के ऊपर के मस्तिष्क के माध्यम से जिस तरह चाहे उपयोग कर सके। वह स्त्रियों को बेवकूफ बनाना चाहता है।
मैं समझती हूँ कि मस्तिष्क की पहचान के साथ ही आधी आबादी की समाज में निर्णायक भागीदारी को स्वीकृति हासिल हो जाएगी हासिल हो रही है, लेकिन अभी उसे अपनी धरती, अपना क्षितिज और अपना आकाश जहाँ और जिस सीमा तक उपलब्ध होना चाहिए, नहीं हो रहा, नहीं दिया जा रहा, बल्कि पुरुष वर्चस्व स्त्रीविमर्श के आन्दोलन से अतिरिक्त सतर्क और सावधान हो रहा है और उसे दिग्भ्रमित करने के अनेक मंच सृजित किए जा रहे हैं, जहाँ स्त्रीके परम हितैषी होने के दावे-प्रतिदावे ऊँची आवाज में किए जा रहे हैं। स्त्रीका दैहिक उत्पीड़न और बढ़ गया है, जब से वह अपने स्व की लड़ाई लड़ने के लिए मैदान में डंके की चोट पर उतर आई है, चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो, राजनीति का क्षेत्र हो, चाहे सेना हो या गाँव। गाँव में हमारी आधी आबादी का बहुत बड़ा प्रतिशत जो अभी भी नाक तक घूँघट को खींच, सूर्य की ओर अपनी आँखें नहीं उठा पाता है, और इक्कीसवीं सदी में भी लोटा लेकर खेतों में जाने को मजबूर है और शोषित होता है इन सबकी लड़ाई चैतन्यशील स्त्रीलड़ रही है और निश्चय ही वो उसे पालतू भेड़-बकरी की परिभाषा से बाहर लाएगी और बताएगी कि तुम्हारे इस घूँघट के भीतर का जो मस्तिष्क है, वह पुरुषों के मस्तिष्क से किसी तरह से कम नहीं है और तुम्हारी देह को अपवित्र करने वाले जब कुएँ और तालाबों में डूबकर नहीं मरते तो तुम्हें भी डूबकर मरने की जरूरत नहीं है। इस बात को महिलाएँ समझ रही हैं, चेतना ग्रहण कर रही हैं और इसी का परिणाम है कि अब शहरों में जिन लड़कियों के साथ देह उत्पीड़न होता है, वो लड़कियाँ बस और टे्रन के नीचे जाकर स्वयं को खत्म नहीं कर रही हैं, बल्कि यह साहस दिखा रही हैं कि पुलिस स्टेशन में जाकर उन बलात्कारियों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करवा रही हैं। इन लड़कियों की अपने दैहिक शोषण के खिलाफ यह पहल, अपने उनके मस्तिष्क और उनकी चेतना की पहचान है क्योंकि उनके मस्तिष्क ने ही उन्हें यह साहस दिया कि अपने देह के निचले हिस्से के शोषण का प्रतिकार वे बेखौफ होकर करेंगी और उनके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ेंगी। मस्तिष्क की चेतना ने ही उन्हें यह साहस प्रदान किया है कि वे अपने धड़ के नीचे की लड़ाई भी लड़ सकें। जब तक वो अपने मस्तिष्क की चेतना से सम्पन्न नहीं थीं तब तक धड़ के नीचे की लड़ाई लड़ने की वो हिम्मत नहीं जुटा सकती थीं या अपने विषय में निर्णय नहीं ले सकती थीं कि उन्हें क्या करना चाहिए। दूसरे लोग निर्णय लेते थे कि देह के अपवित्र हो जाने के बाद उन्हें जीवित रहने का अधिकार नहीं है। यह निर्णय भी पुरुषसत्तात्मक समाज ने ही लिया था, क्योंकि वह अपनी स्त्रीमें किसी की साझेदारी नहीं चाहता था, उसके मन की बात तो दूर। इसी तरह से उसके घर में जो उसकी स्त्रीबनकर आने वाली होती, उसकी यौन शुचिता भी उसके लिए जरूरी थी।
अगर समाज में आधी आबादी को अपने मस्तिष्क की पहचान मिल जाएगी तो वह अपनी इच्छा-अनिच्छा की लड़ाई भी लड़ लेगी और अपने तईं होने वाले उत्पीड़नों का प्रतिकार साहस के साथ कर सकेगी। स्त्री विमर्श में स्त्री के मस्तिष्क के पहचान की लड़ाई की बात न करके राजेन्द्र यादव ने यह साबित कर दिया है कि वह स्त्री विरोधी व्यक्ति हैं फ्यूडिस्टिक आचरण वाले व्यक्ति हैं। उनके विषय में मन्नू जी ने भी यह बात स्वीकारी है। राजेन्द्र जी को वही स्त्रियाँ स्वचेतना सम्पन्न लगी हैं जो धड़ के नीचे वाले स्त्री विमर्श के समर्थन में आगे आईं और उनकी रचनाओं में भी, वक्तव्यों में भी यह एकपक्षीय स्त्री विमर्श रेखांकित हुआ है, शायद वह मन से उसकी समर्थक न हों।
आज हिन्दी आलोचना में स्त्री, दलित, आदिवासी आदि जिन मुद्दों पर बहसें हो रही हैं, उसे आप कितना जरूरी समझती हैं। जबकि आप हिन्दी आलोचना की परम्परा को देखें तो वहाँ सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक विकास की प्रक्रिया, मार्क्सवाद आदि बड़े-बड़े मुद्दे रहे हैं। एक लेखिका होने के नाते आपके लिए आलोचना या इस तरह के विमर्श का अर्थ क्या है?
मेरे लिए साहित्यिक आलोचना या विमर्श का अर्थ समाज के सर्वांगीण सरोकारों से है। स्त्रीविमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श को भी उसी परिप्रेक्ष्य में संतुलन और विवेक और विवेच्य दृष्टि के साथ देखा, परखा और मूल्यांकित किया जाना जरूरी है, नहीं तो किसी की भी पक्षधरता का अतिवाद साहित्य के सरोकारों के संतुलन को डगमगाता है। एक तरफ आप पँसेरी चढ़ा दीजिए और दूसरी तरह सेर भी न रखिए तो तराजू असंतुलित हो जाएगा और न्याय नहीं होगा। बल्कि दलित और स्त्रीविमर्श की अतिवादिता ने चाहे वह लेखकों के द्वारा हो या समीक्षकों के विकासशील समाज की किशोर और युवा पीढ़ी की कठिनाइयों और जटिलताओं को लगभग अनदेखा कर रही है; जिनके कंधों पर विकासशील समाज की समृद्धि, संस्कार और एक समतामूलक समाज का सपना टिका हुआ है। आज अगर किसान आत्महत्या कर रहा है तो नई पीढ़ी भी चौंधियाते मॉलों की छठी और सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर रही है। इन गाँठों को आखिर कौन खोलेगा, कौन मूल्यांकित करेगा? समीक्षक को वर्गरहित, जातिरहित तथा गुटबंदी रहित हो कर के रचना को रचनात्मक उसकी समग्रता में मूल्यांकित करने की आवश्यकता है। मुझे लगता है कि लेखकों के साथ वह भी (आलोचक) खेमों में बँटकर और ओछी राजनीति में उलझकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की परम्परा को विस्मृत कर चुके हैं, बल्कि उससे आगे बढ़कर जो नए प्रतिमान उन्हें स्थापित करने चाहिए थे, मुझे लगता है कि कुछ विद्वान ही ऐसा कर पा रहे हैं।
कुछ ऐसे आलोचकों के बारे में आप बताएँ, जिन्होंने हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित किए हैं या कर पा रहे हैं?
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी की परम्परा में डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विजय मोहन सिंह, शिवकुमार मिश्र, मैनेजर पाण्डेय, सुधीश पचौरी, मधुरेश, पुष्पपाल सिंह, निर्मला जी हैं। निर्मला जैन जितनी विदुषी हैं, उसका स्वतंत्रउपयोग उन्होंने नहीं किया। निर्मला जी जैसी विदुषी ने अपनी एक स्वतंत्रसत्ता नहीं बनाई। कभी वो नामवर जी की आवाज लगीं, कभी नगेन्द्र जी की आवाज लगीं, कभी राजेन्द्र यादव की। उन्होंने इन लोगों से स्वतंत्रकिसी कृति की स्थापना नहीं की। हाँ, देवीशंकर अवस्थी और मलयज ने आलोचना में जिस स्वस्थ परम्परा की शुरूआत की, दुख इस बात का है कि वे असमय हमसे छिन गए। इन लोगों ने उन लोगों के लेखन की शक्ति को रेखांकित किया। जिनके नाम कुछ दिग्गजों ने कभी नहीं लिये।
हिन्दी के नए आलोचकों से आपकी उम्मीदें क्या हैं? किन लोगों में आपको संभावनाएँ दीखती हैं, जो आलोचना में नई चीजों को लेकर आ रहे हैं?
नए लोगों में अजय तिवारी, महेश दर्पण, देवेन्द्र चौबे, अरविन्द त्रिापाठी, ज्योतिष जोशी, अनामिका, पंकज चतुर्वेदी और इधर साधना अग्रवाल भी एक निष्पक्ष समीक्ष्य दृष्टि विकसित कर रही हैं। अच्छी बात यह है कि ये लोग किसी एक खाँचे से पोषित पल्लवित नहीं हो रहे। इनका मेग्नीफाइन ग्लास सूक्ष्म से सूक्ष्म पक्षों की परिणितियों को भी दृष्टि में रखता है और ये चरित्रों के दबावजन्य प्रभावों और उनसे उपजी मनोवैज्ञानिक संरचनाओं का अध्ययन गहरी संवेदना और सरोकारों के साथ जिस तरह चलनी से चाल कर, निथारकर जिस तरह से हमारे सामने रखते हैं, किसी भी रचना या कृति को, सहमतियों और असहमतियों के बावजूद-उसके निकट से निकटतर होने का पाठकीय अवसर उपलब्ध होता है, जो दुराग्रह जनित नहीं लगता है।
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