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स्त्री मुक्ति का प्रश्न

- कमल किशोर श्रमिक
नारी विमर्श पर कलम चलाने वाले हर पुरुष लेखक को पुरुष होने का एक जोखिम तो लेना ही होता है। उसे अन्तर्विरोधों के तहत प्रायः यह सुनना पड़ता है कि वह पुरुष होने के कारण नारी की परिस्थितियों एवं स्वभाव की जटिलताओं को नहीं समझ सकता। भले ही वह लेखक नारी विमर्श के मुद्दे पर मील का पत्थर प्रमाणित होने वाला इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध नारीवादी लेखक जान स्टूअर्ट मिल ही क्यों न हो। मिल १८वीं शताब्दी के दौर में स्त्री पुरुष समानाधिकारों का पक्षधर था। वह इस अवधारणा से भी सहमत नहीं था कि प्रकृति की ओर से एक पुरुष स्त्री से अधिक शक्तिशाली या अधिक बुद्धिमान होता है। अपनी शिक्षिका से प्रभावित लेखक अपनी अवधारणाओं में कहीं भी पुरुष सोच का पक्षधर नहीं है। हाँ, वह समाज संचालन की दृष्टि से स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में फ़र्क करते हुए स्त्री पुरुष दोनों के लिए एक सीमा रेखा के नियंत्राण में रहने पर बल देता है। मगर प्रसिद्ध नारीवादी फ्रांसीसी लेखिका सीमोन द बोउआर ने मिल की पुरुष होने के कारण एवं अपनी यौनमुक्ति की सीमाहीन अवधारणा के कारण मिल को अपनी आलोचना का पात्र बनाया है। हाँ, सीमोन ने अपने दोस्त सात्रा की आलोचना नहीं की। क्योंकि दोनों ही विवाह संस्था के विरोधी एवं व्यक्तिगत्‌ स्तर पर यौन मुक्त जीवन जीने के पक्षधर थे। सात्रा और सीमोन ने विवाह नहीं किया और जीवन भर शारीरिक संबंध रखते हुए दोस्तों की भाँति रहते रहे। उनके बीच एक अलिखित समझौता था कि वे कभी एक दूसरे के अन्यों से यौनिक संबंधों के बारे में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। उन्होंने इस समझौते का निर्वाह भी किया परन्तु व्यवहार में होता यह रहा कि सीमोन की महिला मित्रों के साथ जहाँ सात्रा अपने शारीरिक संबंध बना लेता था वहीं सात्रा के पुरुष मित्रों के साथ सीमोन अपने संबंध बना लेती थी। इस मुद्दे पर सीमोन की आत्मकथा में लिखा है कि इन संबंधों के कारण कभी-कभी वे भारी तनाव का अनुभव करते थे। अपनी व्यक्तिगत्‌ चेतना के कारण उन्होंने अंतिम समय तक अपने समझौते का निर्वाह तो किया, मगर नारी स्वतंत्रता के पूर्ण पक्षधर कार्लमार्क्स और जेनी मार्क्स की भाँति कभी स्वतंत्र, शांतिपूर्ण एवं स्नेहपूर्ण दाम्पत्य जीवन नहीं जी पाये। दो शब्दों में कहा जा सकता है कि शांतिपूर्ण समाज संचालन की दृष्टि से सात्रा और सीमोन के जीवन को आदर्श नहीं माना जा सकता। अमेरिका, यूरोप, फ्रांस एवं एशियाई देशों खासतौर से भारत के कुछ प्रतिशत लोगों का यौन मुक्त (फ्री सेक्स) जीवन का खोखलापन आज उजागर हो चुका है। पुरुषों की अपेक्षा ऐसा जीवन जीने वाली महिलायें ३७ प्रतिशत अभी भी बहुत कम हैं मगर जो भी है। वे परित्यक्ता जीवन जीती हुई यौनिक बीमारियों के कारण जहाँ डॉक्टरों के क्लीनिकों के चक्कर लगाती देखी जाती हैं और अपने अंदर एक खोखलापन महसूस करती हैं।
मानव सभ्यता के सांस्कृतिक इतिहास को देखने से पता चलता है कि आदिम कबीलाई युग तक मातृ प्रधान समाज रहा है। जहाँ एक स्त्री पुरुष की जननी होने के कारण कबीले की मुखिया होती थी। प्राकृतिक निर्भरता एवं सामाजिक विकास न होने के कारण उस समय सामाजिक सरोकारों का कोई विस्तार नहीं हुआ था और नहीं यौनिक संबंधों के बारे में किन्हीं विशेष विषयों का सूत्रापात हुआ था। यहाँ तक आपसी संबंधों में रिश्तों का निर्माण भी नहीं हुआ था, तथा नर और मादा के आधार पर आपस में यौनिक संबंध कायम थे। निस्संदेह आदिम समाज में आधुनिक समाज के वरअस्क जो विकास के नाम पर मनुष्यता द्रोही अपसंस्कृति निर्मित हो गई है। कुछ अच्छाइयाँ अवश्य थी, मगर हम आदिम सभ्यता की ओर पीछे नहीं लौट सकते। जान स्टूअर्ट मिल के अनुसार विकसित होते समाज के किसी कालखण्ड में स्त्री स्वयं पुरुष के प्यार में उसकी गुलाम बनती चली गई। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में आंशिक रूप से यह बात भले सत्य हो गई हो, सामाजिक विकास के नियमों के आधार पर यह विश्लेषण सही नहीं है। क्योंकि प्रेम के द्वारा स्वीकार की गई दासता लम्बे समय तक नहीं चल सकती है। हाँ, कार्लमार्क्स की यह ऐतिहासिक अवधारणा कि व्यक्तिगत्‌ सम्पत्ति के चलन के कारण एक पुरुष वर्ग विशेष ने उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लिया होगा और वस्तुओं के बंटवारे में जानदार स्त्री को भी वस्तु के रूप में बदल दिया गया होगा। कामों का बंटवारा और स्त्री की प्रसव कालीन दुर्बलता भी इसका कारक बनी होगी। बहरहाल यह सब आसानी से घटित नहीं हुआ है। मानव सभ्यता को इस स्थिति में पहुँचने के लिए करोड़ों वर्षों का समय खर्च करना पड़ा है। चूँकि मानव सभ्यता का इतिहास वर्गों के संघर्ष का इतिहास रहा है, अतः इतिहास के किसी कालखण्ड में अगर स्त्रियों ने अपने संघर्ष के द्वारा कुछ सामाजिक अधिकार प्राप्त कर लिए हों तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। यूँ भारतीय संस्कृति के इतिहास की गुफाओं में दाखिल होते समय हम धर्म को अनदेखा नहीं कर सकते और भारतीय धर्मों की नियमावली ने कभी भी स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान नहीं किये हैं।
वर्गों, धर्मों, वर्णों, जातियों, उपजातियों में बंटे भारतीय समाज में स्त्री जाति कभी देह(मादा), कभी वस्तु, कभी दासी के रूप में चिद्दित की गयी है। कौन वह जानता है कि वैदिक काल से लगा सामन्ती व्यवस्था तक दलितों और स्त्रियों को पठन-पाठन से लगाकर अनेकानेक सामाजिक अधिकारों से वंचित किया गया। पितृ प्रधान कन्यादान की भारतीय संस्कृति में वह पुरुष वर्ग की भोग्या बनी रही। उसकी मानसिक शारीरिक सभी क्षमताओं का पुरुष वर्ग द्वारा शोषण किया गया। यूँ अपोजिट सेक्स होने के यही कारण हैं कि उच्च वर्ग की रखैल स्त्री निम्न वर्ग के लोगों को अप्राप्य भी रही हैं और शायद यही कारण है कि पुरुष साहित्यकारों द्वारा लिखे साहित्य में भी स्त्री केन्द्रिय भूमिका का निर्वाह करती रही। मगर यहाँ भी उसकी तुलना कभी समंदर(पुरुष) में समाहित होती वहीं से कभी भौरों (पुरुषों) को रसप्लावित करती कली से, कभी वृक्ष (पुरुष) से लिपटी हुई लता से की गई है। संस्कृत साहित्य के महाकवि माघ और कालिदास से लगाकर हिन्दी के महाकवियों सूर, तुलसी, बिहारी आदि के काव्य में उक्त तथ्यों को आसानी से दृष्टिगत्‌ किया जा सकता है। भारतीय गणराज्यों की सामाजिक व्यवस्था में कला की अधिष्ठात्री(देवी) नर्तकी नगरवधू का वह सम्मान जिसकी पालकी में कंधा लगाने के लिए होड़ करते हुए सामन्त पुत्रों(राजकुमारों) की तलवारें टकराने के लिए म्यान से बाहर आ जाती थीं, कितना खोखला था। इसे यशपाल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘दिव्या' से आसानी से समझा जा सकता है। प्रश्न उठता है कि क्या इन उच्च वर्गीय नगर वधुओं की तुलना आधुनिक विश्व सुंदरियों से नहीं की जा सकती? आखिर इनकी सामाजिक अस्मिता क्या थी? कहने का तात्पर्य मात्रइतना है कि भारतीय इतिहास के हर कालखण्ड में स्त्री पुरुषों की दासी बनी रही।
शायद यही कारण है कि भारतीय इतिहास एक पुरुष प्रधान इतिहास है। कुछ अपवादों की बात अगर छोड़ दें तो कला, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, धर्मदर्शन आदि विषयों की कोई भी प्रतिभावान स्त्री लेखिका हमें हजारों वर्ष तक भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर दिखाई नहीं देती। आखिर इसका कारण क्या है? कारण है समान अवसरों का प्राप्त न होना। जिस देश में महिलाओं को पढ़ने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था, उस देश में किसी स्त्री से लेखिका बनने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। हिन्दी की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई को अपनी काव्य क्षमताओं के प्रदर्शन के लिए कितना जोखिम उठाना पड़ा है, इसे कौन नहीं जानता। प्रसिद्ध लेखिका वर्जीनिया वुल्फ का यह कथन कितना सटीक है कि अगर प्रसिद्ध नाटककार सेक्सपियर की कोई बहन होती और उसकी भी मानसिक क्षमतायें सेक्सपियर के बराबर होती तो भी क्या वह एक प्रसिद्ध नाटककार बन सकती थी? इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सेक्सपियर के काल में उसके देश में स्त्रियों की सामाजिक अस्मिता क्या थी? यहाँ सीमोन द बोउआर के इस कथन का स्वागत किया ही जाना चाहिए कि स्त्री पैदा नहीं होती बना दी जाती है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी आप्रासंगिक नहीं होगा कि इतिहास के हर काल खण्ड में कुछ पुरुष ऐसे अवश्य रहें होंगे जिन्होंने स्त्रियों की सोचनीय व्यवस्था के बारे में औचित्यपूर्ण ढंग से सोचा होगा। कई बार शोषक वर्ग के लोग भी अपनी वैक्तिक चेतना के आधार पर शोषित वर्ग की पक्षधरता ग्रहण करते दृष्टिगत्‌ होते हैं। वाल्टेयर एक पादरी का पुत्र था। जिसने पादरी एवं चर्च की कठोर आलोचना की थी। मार्क्स मध्यमवर्गीय पिता का पुत्र था, जो जीवन भर मजदूर वर्ग के लिए संघर्ष करता रहा। भारतीय इतिहास में राजा राममोहन राय के पूर्व किसी स्त्री ने सती प्रथा के विरुद्ध आवाज नहीं उठाई थी। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि दलित लेखकों या नारीवादी लेखिकाओं का यह तर्क अधिक विवेकपूर्ण नहीं है कि स्त्री समस्याओं को मात्र स्त्री ही लिख सकती है या दलित समस्याओं को केवल दलित लेखक ही समझ सकते हैं। सच तो यह है कि कई बार उत्पीड़ित वर्ग के लोग अपने महाप्रभुओं के सोच में इतना ढल जाते हैं कि अपने उत्पीड़न के विरुद्ध सोचने की चेतना खो बैठते हैं। इतिहास में पन्ना धाय का या आज भी गांवों में सवर्ण युवकों को देख दलित वृद्धों को चारपाई से उठकर खड़े हो जाने को इसी उदाहरण के रूप में चिद्दित किया जा सकता है। उक्त अवधारणा द्वंद्ववादी दृष्टि से गलत नहीं है। वर्तमान समय जिसे कथित भूमण्डलीकरण का युग कहा जा सकता है में साम्राज्यवादी संस्कृति भी स्त्री को मुक्ति प्रदान करने का दावा कर रही है। पुरुषों की भाँति स्त्रियों की आबादी का एक हिस्सा इस अवधारण का शिकार है। वह अपनी वर्गीय समृद्धता को अपनी मुक्ति मान बैठा है। आज बाज+ार की संस्कृति जिसका एक मात्रउद्देश्य समृद्ध वर्ग को अधिक से अधिक समृद्ध बनाना है। केवल सर्वहारा संगठनों में ही बिखराव नहीं पैदा कर रहा है बल्कि दलितों और स्त्रियों के संगठनों को भी विभाजित करने का प्रयास कर रहा है। आज अमेरिका यूरोप से लगाकर भारत तक में ऐसे नारी संगठन या लेखिकायें मौजूद हैं जो साहित्य में भी आधुनिक या उत्तर आधुनिक विश्लेषण के नाम पर स्त्री के वर्गीय सोच को केवल विकृत ही नहीं कर रही हैं बल्कि पुरुष वर्ग को वर्ग शत्रु के रूप में चिद्दित कर रही हैं और प्रतिशोध की भावना से पुरुषजनित दुर्गुणों को भी अपनाने की वकालत कर रही है। यह भी सत्य है कि स्त्री पर योनिसचिता की भावना पुरुषों की वनिस्पत अधिक लादी गई है, मगर चरित्राहीन व्यक्ति को भी देश का समाज पसंद नहीं करता। यह भी उचित है कि हर स्त्री को अपने देह के मालिकाने का हक मिलना ही चाहिए, मगर बॉडी लैंग्वेज के नाम पर देह मुक्ति से यौनमुक्ति(फ्री सेक्स) तक का सफर सामाजिक संबंधों या रिश्तों को खोखला बना सकता है। तनाव, कुण्ठा, हिंसा से लगाकर यौनिक बीमारियाँ या एड्स पैदा कर सकता है। यहाँ प्रसिद्ध छायावादी कवयित्राी महादेवी वर्मा की नारी विमर्श पर केन्द्रित पुस्तक ‘श्रृंखला की कड़ियाँ' का जिक्र करना चाहता हूँ। इस पुस्तक में महादेवी ने जहाँ पुरुषों के बराबर स्त्रियों के लिए सभी सामाजिक, राजनैतिक अधिकारों के औचित्य को तर्कपूर्ण ढंग से व्यवस्थित किया है वहीं स्त्री को पुरुषों के अवगुणों से बचने की सलाह भी दी है। महादेवी का कहना है कि स्त्री जाति को अपने स्त्री योचित गुणों पर गर्व करना चाहिए और मुक्तता अर्थात्‌ चरित्रहीनता का अनुकरण नहीं करना चाहिए। यौन मुक्तता का नारा देने वाली लेखिकाओं से मैं कहना चाहता हूँ कि इस तरह आप विकृत मानसिकता वाले पुरुष वर्ग से सहयोग करने जा रही हैं। साम्राज्यवादी आर्थिक उदारीकरण की बाजारवादी संस्कृति यही तो चाहती है। वह स्त्री देह को अपने उत्पाद बेचने के लिए विज्ञापन की भाँति इस्तेमाल करती है। मैं स्त्री देह को प्राइवेट फर्म बना दिया जाए इस पक्ष में कतई नहीं हूँ, मगर स्त्री हो या पुरुष उसे यौन संबंधों के पूर्ण स्वतंत्रता यानी स्वच्छंदता दिये जाने का समर्थक भी नहीं हूँ। आज महानगरों की पंच सितारा संस्कृति में ऐसे पुरुष भी पाए जाते हैं जो पुरुष वैश्या की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। चंद समृद्ध वर्ग की महिलायें जो आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भर भी हैं, इन्हें अपने साथ यौनिक संबंधों के लिए ले जाती है। क्या मात्रस्त्री होने के कारण इन महिलाओं के क्रियाकलापों को सामाजिक दृष्टि से सराहा जा सकता है? सामाजिक जीवन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए कुछ मर्यादित सीमा रेखा होनी ही चाहिए और स्त्री पुरुष दोनों के लिए समान होनी चाहिए।
सही स्त्री स्वतंत्रता या पुरुष स्वतंत्रता दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। क्योंकि स्त्री पुरुष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इनकी समस्या का समाधान भी बिना व्यवस्था परिवर्तन के संभव नहीं है। आज सामन्ती संस्कृति की मार से पीड़ित ग्रामीण क्षेत्र की स्त्रियों को मुक्ति की सर्वाधिक आवश्यकता है। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र की अशिक्षित महिलायें मानसिक रूप से इतना दबा दी गई है कि इनके अंदर अपने दुख का अहसास तो है मगर दुखों से मुक्ति की चेतना का अभाव है। यह सब अपने दुखों को पूर्व जन्म के कर्मों का फल समझती हैं। इसका निराकरण शिक्षा के द्वारा संभव है। मगर अर्थ प्रधान बाजारवादी संस्कृति में जहाँ अशिक्षित जन मुक्ति की चेतना से वंचित रह जाते हैं वहीं शिक्षित लोग बाजारवादी सांस्कृतिक भटकाव के शिकार बन जाते हैं। मीडिया भी धनपशुओं की होती है। अतः वह भी अपने वर्ग की चाकरी में लगी रहती है। प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? कैसे स्त्री की चेतना को जगाया जाए कि वह अपने वर्ग के पक्षधर पुरुष के साथ कदम ब कदम आगे बढ़ते हुए सम्पूर्ण वर्गीय मुक्ति के प्रयासों में लग सके। इसके लिए जहाँ हमें मीडिया का विकल्प तलाशना चाहिए वहीं चेतनाशील स्त्री पुरुषों को ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में काम करना चाहिए। क्योंकि इन्हें मुक्ति की अधिक आवश्यकता है और यह सब बाजारवादी सांस्कृतिक भ्रमों से मुक्त भी हैं।

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