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मैं कहानी का होल टाइमर समीक्षक हूँ : मधुरेश

साधना अग्रवाल
हिन्दी कथा आलोचना के क्षेत्र में लगभग ३५ वर्षों से आप निरन्तर सक्रिय रहे हैं। हिन्दी कहानी और उपन्यास पर आपकी कई पुस्तकें छपकर चर्चित हुई हैं। मेरे मन में यह जानने की उत्सुकता है कि कविता, कहानी जैसी रचनात्मक विधा से शुरुआत न करके आपने किन कारणों से कहानी समीक्षा से लेखन का आरम्भ किया?
मैंने कई जगह इस बात का उल्लेख किया है कि अपने लेखन की शुरुआत मैंने कहानी से ही की थी। सन्‌ १९५६ में जब मैं बरेली कालेज, बरेली में इंटर में पढ़ता था, कालेज की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा मेरी कहानी बुघिया को प्रथम पुरस्कार मिला था जबकि उस प्रतियोगिता में एम.ए. के भी कई छात्र सम्मिलित थे। तब कुछ स्थानीय पत्रों में एक-दो कहानियाँ छपी भी थीं। बाबाशाह नामक अपनी एक कहानी मैंने यशपाल को सम्मति और संशोधन को भी भिजवाई थी। रांगेय राघव ने मेरी एक कहानी का शीर्षक ऊपर खाल नीचे खून रखा था। इसी दौर में मैंने कुछ अंग्रेजी कहानियों का अनुवाद भी किया जो तब की कहानी और ज्ञानोदय प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे थे। लेकिन इसी बीच मैंने कहीं अश्क को लिखा गया प्रेमचंद का एक पत्रपढ़ा जिसमें उन्होंने नए लेखकों को खूब सारा साहित्य, इतिहास, दर्शन आदि पढ़ने का सुझाव दिया। इस पत्र के प्रभाव में ही मैंने बी.ए. में हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य के साथ दर्शन भी पढ़ा फिर तीन-चार वर्ष मैंने कुछ नहीं लिखा - यह सोचकर कि अब पूरी तैयारी के बाद ही लिखूंगा। जब मैंने एम.ए. अंग्रेजी साहित्य में किया तो पढ़ने का और अधिक अवसर मिला। वह कुंजियों और गाइडों का दौर नहीं था। इसके बाद कहानी लिखने के बदले मैंने लहर की संपादिका मनमोहिनी जिनसे मेरा पत्राचार था और जिन्हें मैं मोना जी कहता था के सुझाव पर लहर के लिए यशपाल पर अपनी पहली टिप्पणी लिखी जो दिसम्बर ६७ के अंक में छपी। उसके बहुत पहले यशपाल से मेरा पत्राचार शुरू हो चुका था। वस्तुतः उस टिप्पणी के बाद आलोचना भीगे कंबल की तरह मुझ पर सवार हो गई। वैसे उसके बाद भी काफी समय तक मुझे लगता था कि कहानी ही मेरा मूल क्षेत्र है लेकिन आलोचना ने मुझे कभी छोड़ा ही नहीं। बाद में कुछ संस्मरण अवश्य लिखे जो कभी-कभार अभी भी लिख लेता हूँ।
जिस समय आपने लिखना शुरू किया कहानी समीक्षा का परिदृश्य कैसा था? यह धारणा प्रचलित है कि कहानी समीक्षा की शुरुआत डॉ. नामवर सिंह ने कहानी एवं नई कहानियाँ के अपने स्तम्भ से की। आगे चलकर धनंजय वर्मा, देवीशंकर अवस्थी, गोपाल राय तथा विजय मोहन सिंह भी इस क्षेत्र में आये। इन लोगों के बीच कहानी समीक्षा में किस तरह आपने अपने लिए स्पेस बनाया?
जब मैं कथालोचना के क्षेत्र में आया नामवर सिंह भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में निकलने वाली नई कहानियाँ में अपना स्तम्भ हाशिए पर लिख रहे थे। कहानी की आलोचना में धनंजय वर्मा, देवीशंकर अवस्थी, सुरेन्द्र चौधरी और विजय मोहन सिंह सक्रिय थे। इनमें सबसे अधिक क्षमतावान आलोचक सुरेन्द्र चौधरी थे। लेकिन कुछ तो इसलिए कि उन्होंने बहुत व्यवस्थित ढंग से कुछ नहीं लिखा और कुछ प्रकाशन के प्रति उनकी उदासीनता के कारण आज भी उनकी लिखी अधिकतर आलोचना पत्रिकाओं में दबी पड़ी है। बाद में देवीशंकर अवस्थी की पत्नी श्रीमती कमलेश अवस्थी ने अपने पति की पुस्तकों के प्रकाशन की दिशा में जैसी निष्ठा और समर्पण भाव से अपनी सक्रियता दिखाई वैसा दुर्भाग्य से सुरेन्द्र चौधरी के साथ नहीं हुआ। उनकी नई कहानीः प्रकृति और पाठ अपने समय में खूब चर्चित रही। बाद में उसकी लंबी भूमिका अलग से भी पुस्तक रूप में छपी। रेणु पर उनका एक महत्त्वपूर्ण और सुलिखित मोनोग्राफ साहित्य अकादमी से आया। लेकिन इससे कहीं अधिक उनका साहित्य आज भी असंकलित पड़ा है। धनंजय वर्मा की छवि नई कहानी की बदनाम त्रायी - मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर के जेबी आलोचक की ही अधिक रही। कलकत्ता कथा - समारोह में बाकायदा उन्हें ऐसा कहा गया। गोपाल राय ने कहानी पर कभी नहीं लिखा, वे पूरी तरह से उपन्यास के आलोचना और अनुसंधान-कर्ता ही बने रहे। देवीशंकर अवस्थी द्वारा संपादित नई कहानी : संदर्भ और प्रकृति और विवेक के रंग उनके आलोचना-विवेक की साझी है। कहानी पर वे अधिक नहीं लिख सके। लेकिन नई कहानी के बाद की कहानी की उनकी पहचान बहुत प्रामाणिक और विश्वसनीय है। विजय मोहन सिंह ने भी मुख्यतः सातवें दशक की कहानी पर ही अपने को केंद्रित किया। अज्ञेय उनके प्रिय लेखक थे। प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यास में प्रेम की प्रकृति पर ही उन्होंने अपना शोध कार्य किया। पहले नामवर सिंह और बाद में अशोक वाजपेयी का संरक्षण उन्हें मिला। कहानी पर उनकी दो पुस्तकें भी छपीं जो समय-समय पर लिखे गए उनके लेखों और सभी समीक्षाओं के संकलन थे। कुछ कहानीकारों का उन्होंने स्वतंत्र मूल्यांकन भी किया, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, मुक्तिबोध, रघुवीर, रेणु, अमरकांत आदि, लेकिन पूर्वग्रह कराने का यह पूर्व ग्रह उन पर भी हावी रहा कि कवियों द्वारा लिखी कहानियाँ ही अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसीलिए कहानी को सामाजिक विकास की समानांतरता में वे नहीं देख सके। कुल मिलाकर मेरे सामने यही परिदृश्य था और यहीं से मुझे शुरू करना था।
कहानी समीक्षा पर अपकी आरम्भिक पुस्तक आज की कहानी : विचार और प्रतिक्रिया है जो वस्तुतः आप द्वारा लिखित समीक्षाओं का संकलन है। आज इस पुस्तक को लगभग लोग भूल चुके हैं। शायद इसका दूसरा संस्करण भी नहीं हुआ, जबकि आपके कथा-आलोचक के विकास को समझने में यह पुस्तक मद्द करती है। अब पीछे मुड़कर देखने पर अपनी इस पुस्तक को आप किस रूप में लेते हैं?
मेरी पहली पुस्तक आज की हिंदी कहानी : विचार और प्रतिक्रिया सन्‌ ७१ में ग्रंथ निकेतन, पटना से छपी थी। उसे मेरे मित्रप्रो. गोपाल राय ने छापा था। उसमें संकलित अधिकतर निबंध और समीक्षायें मैंने बिसौली जैसे कस्बे में रहकर लिखी थीं। उसके निबंध तब अनेक महत्त्वपूर्ण पत्रिाकाओं - आलोचना, कल्पना, राष्ट्रवाणी कहानी तथा विकल्प आदि के विशेषांकों में छपे थे और उन्होंने मेरे बनते हुए आलोचक की पहचान को सघन किया था। उनमें से हिन्दी की चौदह श्रेष्ठ कहानियाँ : पुरानी पीढ़ी का योगदान मैंने शिवदान सिंह चौहान के अनुरोध पर आलोचना के चार खण्डीय स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य विशेषांक के लिए लिखा था। नई कहानी के लेखक तब प्रेमचंद या कैसी भी परम्परा से अपने को जोड़ कर देखने में परहेज बरत रहे थे। यह निबंध मैंने छह महीने की तैयारी के बाद लिखा था। नई कहानी ने पुरानी पीढ़ी से क्या और कैसे लिया है इसका सोदाहरण उल्लेख इसमें विस्तार से हुआ था। इस लेख के लिखे जाने की प्रक्रिया में अनेक लेखकों - जैनेन्द्र कुमार, विष्णु प्रभाकर, अश्क, निर्गुण आदि से मेरा पत्राचार हुआ। बाद में कमल जोशी ने इससे प्रभावित होकर मुझे अपनी अनेक पुस्तकें भिजवाईं। अपने पत्रों में उन्होंने यह भी सूचनायें दीं कि कैसे राजेन्द्र यादव कभी आनंद परिहार और कभी किसी अन्य छद्म नाम से कल्पना, ज्ञानोदय आदि में उनके विरुद्ध लिखते रहे हैं - अपनी षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति के रहते। बाद में राजेन्द्र यादव ने उस लेख को पढ़कर मुझे पहला पत्र लिखा - अपने घोर विरोध और असहमतियों का उल्लेख करते हुए। भैरव प्रसाद गुप्त, शानी, अमरकान्त आदि के पत्र भी मुझे मिले और निबंधों की भी सघन और व्यापक पहचान बनी। वैसे उस किताब का कोई और संस्करण नहीं हुआ। लेकिन उसके कुछ निबंध मैंने सिलसिला में शामिल किए थे और हिन्दी कहानी : अस्मिता की तलाश में वह प्रायः सारी महत्त्वपूर्ण सामग्री ले ली गई है। इसका मतलब मेरे विचार से साधना जी यही है कि वे निबंध आज भी कुछ न कुछ महत्त्व रखते हैं - चालीस वर्ष बाद भी। कहानी की आलोचना में वह मुझे स्थापित करने वाली किताब है। तब विक्टर बालिन, नामवर सिंह, रमेश कुंतल मेघ आदि ने उस पर बहुत उत्साहवर्धक प्रतिक्रियायें भी प्रेषित की थीं। उसने मेरी आगे की राह तय भी की और आसान भी। मेरी दृष्टि में यही उसका महत्त्व है।
जहाँ तक मुझे याद है आपकी पुस्तक सिलसिला : समकालीन कहानी की पहचान' के अन्त में आपने महत्त्वपूर्ण कथा समीक्षकों पर भी विचार किया है। इस पुस्तक में खासकर डॉ. नामवर सिंह को आपने ठीक से याद किया है। नामवर जी के प्रति आपके पूर्वग्रह के कोई खास कारण हैं?
मेरी पुस्तक सिलसिला १९७९ में आई। सहयात्री के अंतर्गत उसमें नामवर सिंह और धनंजय वर्मा पर लेख हैं। नामवर जी पर लिखा गया लेख मूलतः रणधीर सिन्हा द्वारा सम्पादित आलोचक नामवर सिंह के लिए लिखा गया था और पहले वह वहीं छपा भी था। नामवर जी को मैंने पर्याप्त निकट से देखा है। उनका स्नेह भी मुझे मिला है एक समय मेरे अनुरोध पर वे पी-एच.डी. के मेरे गाइड भी थे भले ही वह काम कभी हुआ नहीं। बाद में उनकी उखाड़-पछाड़ काटने जमाने वाली प्रवृत्ति और जिसे वे रणनीतिक आलोचना कहते हैं। उस रुख को देखने-समझने के बाद मुझे कष्ट हुआ। शिष्यों और लाभार्थियों की जो भारी भीड़ उनके साथ रही आई है, उनमें से ही अनेक बाद में उनके विरोधी भी साबित हुए हैं। मेरी सबसे बड़ी पीड़ा अपने को उनका धीरे-धीरे नष्ट करते जाना रही है। व्याख्यान, चर्चा, विवाद का खून उनके मुंह को लग जाने से वे वह बहुत कुछ नहीं कर सके जो सिर्फ वे ही कर सकते थे। पहले वे प्रायः कहते थे कि रिटायरमेंट के बाद जमकर बैठेंगे और काम करेंगे। वैसा कुछ नहीं हुआ। मेरी पीड़ा कहीं न कहीं उन्हें नष्ट होते देखने की ही पीड़ा है। पिछले कुछ समय से मुझे लगता रहा है कि नामवर सिंह पर अपना संस्मरण और उनके पत्रों के प्रकाशन की दिशा में मुझे गंभीर होना चाहिए। शायद यहीं उसका सही समय है। उनके प्रति मेरे अनेक पूर्वग्रह मेरी उपेक्षाओं के आहत होने से उपजे हैं। वैसे भी लल्लो चप्पो और ठकुर सुहाती मेरा स्वभाव नहीं है। मैंने कभी सचमुच उन्हें बहुत प्यार और सम्मान दिया है।
हिन्दी कहानी की पहचान के बाद फिर आपने उसकी अस्मिता की तलाश की है। क्या आप पहचान और अस्मिता को अलग-अलग परिभाषित करना चाहेंगे?
जिसे आप कहानी की मेरी आलोचना में हिन्दी कहानी की पहचान' कह रही हैं वह वस्तुतः मेरी पुस्तक सिलसिला का उपशीर्षक था। यह पुस्तक सन्‌ ७९ में आई थी। हिन्दी कहानीःअस्मिता की पहचान सन्‌ ९७ में अर्थात्‌ उसके लगभग अठारह वर्ष बाद आई। हिन्दी में सामान्यतः आलोचना पुस्तकों के दूसरे संस्करण कम ही निकलते हैं। अस्मिता वस्तुतः पहचान का ही विस्तार है। अस्मिता की पहचान में कुछ निबंध मेरी पहली पुस्तक के भी हैं। सिलसिला में वे दो या तीन थे, यहाँ अधिक हैं। लेकिन इससे अधिक वह इन बीच के अठारह वर्षों में लिखी गई कहानी का मूल्यांकन ही अधिक है।
हिन्दी कहानी का विकास लिखकर आपने कथा आलोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेकिन आपकी कहानी समीक्षा सम्बन्धित पुस्तकें देखने के बाद ऐसा लगता है कि आपमें पुनरावृत्ति बहुत ज्यादा है। क्या कभी आपने इस पर विचार किया है?
हिन्दी कहानी का विकास सचमुच पाठकों द्वारा पसंद की गई है। तीन वर्षों में उसके तीन संस्करण हुए हैं। हार्ड बाउंड के साथ उसका पेपर बैक्स संस्करण भी हुआ था। उसी श्रृंखला में फिर आगे चलकर मैंने उपन्यास और आलोचना पर भी पुस्तकें लिखीं और वे भी पढ़ी गईं। पहले की पुस्तकें मेरे पूर्व लिखित निबंधों और समीक्षाओं का संकलन थीं। यह पुस्तक एक बार में योजना बनाकर व्यवस्थित रूप में लिखी गई थी। स्वाभाविक है कि इसमें अपनी ही पूर्व प्रकाशित बहुत-सी सामग्री का उपयोग हुआ है। जिसे आप पुनरावृत्ति कह रही हैं वह नयी कहानी : पुनर्विचार और मेरी नई किताब कहानीकार जैनेन्द्र कुमार : पुनर्विचार में भी मिलेगी क्योंकि संबंधित लेखकों पर आधार सामग्री तो एक ही है और मेरी ही है।
उपन्यास समीक्षा के क्षेत्र में आप देर से आये। कहानी पर तो आपकी कई पुस्तकें हैं लेकिन उपन्यास की आलोचना पर हिन्दी उपन्यास का विकास और हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान ही क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं है कि कहानी समीक्षा आपके लिए अपेक्षतयः सुविधाजनक है। हिन्दी उपन्यास का विकास तो बिल्कुल नई पुस्तक है इस क्षेत्र में लेकिन हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान में आपने न केवल महत्त्वपूर्ण उपन्यासकारों पर विचार किया है बल्कि महत्त्वपूर्ण उपन्यासों पर भी। फिर भी ऐसा लगता है कि हमारे समय के कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यास छूट गये हैं और कुछ ऐसे उपन्यास सम्मिलित कर लिये गये हैं जो हिन्दी उपन्यास की सार्थकता की पहचान ठीक से नहीं कराते। क्या यह इसलिए हुआ कि प्रकाशित समीक्षाओं को एक जगह एकत्र कर लिया जाए?
मेरे लेखन की शुरुआत सन्‌ ६२ में हुई। कहानी पर मेरी पहली किताब सन्‌ ७१ में आई। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं में उपन्यास पर मेरा लिखना प्रायः साथ ही शुरू हुआ। मुझे अभी भी याद है कि उपन्यास पर मेरी पहली समीक्षा ठाकुर प्रसाद सिंह के कुब्जा सुंदरी पर थी जो लहर में ही छपी थी। इसके बाद मैंने यशपाल, अश्क, रेणु, भगवती चरण वर्मा, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश आदि के कुछ उपन्यासों पर समीक्ष में लिखीं। इस दौर में गोपाल राय द्वारा संपादित समीक्षा में मैं अधिकतर उपन्यासों की समीक्षा और वार्षिक सर्वेक्षण से संबंधित निबंध लिखे। हिन्दी उपन्यास पर मेरी पहली पुस्तक सम्प्रति है जिसकी जानकारी शायद आपको नहीं है। यह सन्‌ ८३ में आई। उसके पूर्व सन्‌ ८० में साहित्य अकादेमी से देवकीनंदन खत्री पर मेरा मोनोग्राफ छप चुका था। वहीं से दूसरा मोनोग्राफ रांगेय राघव पर सन्‌ ८८ में आया। स्पष्ट ही इन सबमें उपन्यासों पर ही विस्तार से लिखा गया है। हिंदी उपन्यास का विकास भी वस्तुतः इस पूर्व लिखित और प्रकाशित सामग्री के आधार पर ही बनी पुस्तक है। जहाँ तक हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान का सवाल है, वह एक तरह से उपन्यास पर मेरे लेखन का एक प्रतिनिधि चयन भी मानी जा सकती है। इसे संपूर्णता देने की दृष्टि से ही मैंने कुछ सामग्री देवकीनंदन खत्री और हिन्दी उपन्यास का विकास से भी ली है। ऐसी पुस्तकें योजनाबद्ध तरीके से नहीं लिखी जातीं। अपनी लिखित और पूर्व प्रकाशित सामग्री को संकलित करने की इच्छा भी स्वाभाविक है। इस तरह वह सामग्री कम से कम उसमें की कुछ सुरक्षित और संरक्षित रह जाती है। अच्छी से अच्छी पुस्तक में भी चयनित सामग्री के होने न होने को लेकर चुनौती दे सकती हैं। हिंदी उपन्यास : सार्थक की पहचान की अधिक समीक्षायें नहीं छपीं। प्रायोजित समीक्षकों के इस दौर में इसे मेरी और मेरे प्रकाशक की सीमा भी माना जा सकता है, लेकिन इसके प्रकाशन से मुझे संतोष है।
स्वतंत्र रूप से आपने या तो यशपाल पर विचार किया है या कहानीकार जैनेन्द्र कुमार पर। मेरे ध्यान में रांगेय राघव और यशपाल पर प्रकाशित आपके मोनोग्राफ भी हैं। मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि आपने कथालोचना के व्यावहारिक पक्ष पर ही ज्यादा ध्यान दिया सैद्धान्तिक पक्ष पर कम, ऐसा क्यों?
हवाई और सैद्धांतिक आलोचना के दौर में भी मेरी भरसक यही कोशिश रही कि आलोचना लेखकों और कृतियों पर केंद्रित हो। मैंने देवकीनंदन खत्री, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, रांगेय राघव, अमृतलाल नागर, भैरव प्रसाद गुप्त आदि पर पुस्तकें और मोनोग्राफ लिखे हैं। नयी कहानी : पुनर्विचार में भी नई कहानी आंदोलन के दौर के सोलह लेखकों पर समग्रता में विचार करने की कोशिश की गई है। मुझे इस बात का संतोष है कि अपने विचारों से बाहर के अनेक लेखकों पर मैंने विस्तार से लिखा है। इसका नया उदाहरण जैनेन्द्र की कहानियों पर मेरी किताब है। आपकी यह बात शायद ठीक है कि मैंने आलोचना के व्यवहारिक पक्ष पर ही अधिक लिखा है। हिन्दी में जनवादी आलोचना के दौर में घोर सैद्धांतिक लेखन हुआ और बाद में पूर्वग्रह घराने के लेखकों ने विचार को लगभग आलोचना से निष्कासित करके साहित्य में स्वायत्तता के नाम पर निर्जन, वीरान टापू बसाने की कोशिश की। मेरा मानना है कि सिद्धांत रचना में से ही अर्जित और विकसित होने चाहिए। पूर्वग्रह घराने के लोग आलोचना को जब विचारों का उपनिवेश बनाने की प्रवृत्ति का विरोध करते हैं तो वे वस्तुतः समय के वैचारिक दबावों से रचना को अलग और ऊपर रखने की ही वकालत करते हैं। रचना के मूल्यांकन का यह अवैज्ञानिक और अतार्किक रूप है। अपने समय के प्रति सच्ची रचना ही आगे आने वाले समय में भी पुनर्पाठ की संभावनाएँ जगाती है। किसी सैद्धांतिक समझ के अभाव में सार्थक व्यावहारिक आलोचना नहीं लिखी जा सकती। मेरी कोशिश रही है कि सिद्धांतों के किसी बाहरी जाप के बजाय व्यावहारिक आलोचना में से ही वे सिद्धांत उभरकर सामने आयें। ऐसी आलोचना अपनी प्रकृति में अधिक ग्रह्य, विश्वसनीय और पठनीय भी होगी।
क्या आपके मन में कभी हिन्दी कहानी का सौन्दयच्चास्त्र या हिन्दी उपन्यास का सौन्दर्य शास्त्र लिखने की बात नहीं उठी? जबकि हिन्दी आलोचना का मार्क्सवादी सौन्दय शास्त्र लिखने की बात जब-तब उठती ही रही बल्कि पहल ने मार्क्सवादी सौन्दय शास्त्र पर एक अंक भी केन्द्रित किया था।
सौंदय शास्त्र की शास्त्रीय अवधारणा ने मुझे कभी आकर्षित नहीं किया। शायद इसी कारण कहानी या उपन्यास का सौंदय शास्त्र लिखने का विचार भी मन में कभी नहीं आया। प्रेमचंद ने ही बहुत पहले सौंदर्य की कसौटी बदलने का सवाल उठाया था। जिस मार्क्सवादी सौंदय शास्त्र के निर्माण और विकास की बात हिंदी में जब-तब की जाती रही है वह वस्तुतः जीवन के संदर्भ में विकसित और निर्मित सौंदर्यबोध है। सौंदय शास्त्रे को मैं जीवन की परिपूर्णता और सलीके से उसे जीने की कला के अतिरिक्त और कुछ नहीं मान पाता। रचना की परिवर्तित अंतर्वस्तु के साथ उसका सौंदर्यबोध भी बदलता है। नयी कहानी : पुनर्विचार में आंदोलन और पृष्ठभूमि की चर्चा के प्रसंग में मैंने कहानी के इस परिवर्तित सौंदर्यबोध की चर्चा भी विस्तार से की है। हिन्दी में प्रायः ही नागार्जुन, त्रिलोचन आदि कवियों के प्रसंग में एक नए और परिवर्तित सौंदय शास्त्र की बात उठती रही है। यशपाल पर आने वाली अपनी पुस्तक यशपाल : रचनात्मक पुनर्वास की एक कोशिश में मैंने यह दिखाने की कोशिश की है जिसे यशपाल का परम्परागत और रूढ़ शिल्प कहा और समझा जाता है। वह वस्तुतः कथानक हृास और उपन्यास में चरित्रकी तोड़-फोड़ के दौर में एक क्रांतिकारी कदम था। यशपाल मिली हुई दुनिया के विरुद्ध संघर्ष करके एक नई दुनिया बनाने के सपने को साकार करना चाहते हैं। भरे पूरे कथानक और पात्रों के द्वारा ही वे ऐसा कर पाते हैं। उनकी कला अपनी प्रकृति में ठीक वैसी ही कला है जो जीवन को सलीके से जीने की राह दिखाती है। जीवन की परिपूर्णता की इस कला को साधना ही वस्तुतः एक परिवर्तित सौन्दर्यबोध को विकसित करना है। हिंदी में मार्क्सवादी सौंदय शास्त्र के निर्माण और विकास की दिशा भी इससे बहुत अलग और भिन्न नहीं होगी।
मेरी जिज्ञासा आपसे यह जानने की भी है कि हिन्दी कथा-आलोचना खासकर कहानी समीक्षा पर कहानीकारों द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि आठवें दशक से लेकर बीसवीं सदी के अन्त तक लिखी कहानियों का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ। इस आरोप को आप किस रूप में लेते हैं?
साधना जी, हिन्दी कथा-समीक्षा के विरुद्ध सबके लिए कहने को काफी कुछ हैं। कभी-कभी आलोचकों में से भी कुछ उसे लतियाते देखे-सुने जाते हैं। स्थिति सचमुच बहुत अच्छी भी नहीं है। हिंदी में कहानी पर्याप्त विकसित विधा है और निरन्तर वह उत्कर्ष की ओर बढ़ रही है। काफी समय तक उसे हिन्दी में केंद्रीय विधा का गौरव भी दिया जाता रहा है। यदि सचमुच ही किसी विधा को केंद्रीय कहकर स्थापित किया जा सकता है। कहानीकारों और कहानी की तुलना में कहानी के आलोचक बहुत कम हैं। आठवें दशक से बीसवीं सदी तक की ही कहानी का नहीं, पुराने कहानीकारों का भी ढंग से मूल्यांकन नहीं हुआ है। हिन्दी में प्रायोजित समीक्षाओं के इस दौर में यह काम और भी मुश्किल हुआ है। उन पुराने लोगों से अलग किसी को क्या मिलने वाला है? लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस परवर्ती दौर की कहानी का मूल्यांकन हुआ ही न हो। कहानी पर मेरी ही पांच किताबें हैं। हिन्दी कहानी का विकास में मैंने अखिलेश और सारा राम तक की कहानियों को लिया है, बेशक उसके दूसरे संस्करण में, लेकिन इधर बिना देखे-पढ़े ही कथा-समीक्षा को गलियाने और लतियाने की प्रवृत्ति तेजी से विकसित हुई है। अपने मन की आलोचना न होने पर... विलम्बित आलोचना की स्थिति में भी, लेखक सारी खीझ आलोचना पर उतारता है। आज हिन्दी में कहानी की आलोचना में दस आलोचक मुश्किल से मिलेंगे। कहानीकार हजारों में हैं। स्वाभाविक है कि सबका वैसा व्यवस्थित और संपूर्ण मूल्यांकन संभव नहीं है। यह गजब की आपा-धापी का दौर है। अपने अलावा किसी को और की चिंता ही जैसे नहीं है। अपने नाम के अलावा लेखक जैसे आलोचना में और कुछ पढ़ना ही नहीं चाहता। मुझे लगता कि हिन्दी कथालोचना की स्थिति सचमुच वैसी ही है जैसा उसका स्यापा आए दिन देखने-सुनने को मिलता है। महत्त्वपूर्ण लेखकों, प्रवृत्तियों और पुस्तकों की उपेक्षा उसने कभी नहीं की। यदि लेखक में दम है जो आलोचक झक मारकर उसका मूल्यांकन करेगा और वैचारिक असहमतियों के बावजूद मेरी नई पुस्तक कहानीकार जैनेन्द्र कुमार : पुनर्विचार इसका प्रमाण है।
आरोप तो यह भी लगाया जाता है कि कहानी समीक्षा का कोई होल टाइमर समीक्षक नहीं मिला। ऐसे समीक्षक अनेक मिले जिनके लेखन में न निरन्तरता थी और न व्यवस्थित ढंग से कथा आलोचना करने की फुर्सत। बेशक हांडी के चावल की तरह जब-तब कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियों को टटोलने की कोशिश जरूर की। क्या इस आरोप का कोई ठोस आधार आपको लगता है?
बार-बार अपने को ही सामने रखना और उदाहरण बनाकर चलना अच्छी बात नहीं है। लेकिन जिसे आप कहानी का होल टाइमर समीक्षक कह रही हैं। मैं वही हूँ। मैं पिछले ब्यालीस वर्षों से लिख रहा हूँ - सिर्फ और सिर्फ कथा-समीक्षा। कहानी का इतिहास भले ही न लिखा हो, लेकिन जो लिखा है सब मिलकर वह इतिहास ही है। जिसे आप आलोचक के प्रसंग में उसकी निरन्तरता कहती है और सचमुच भी उसका बहुत मूल्य है, मैंने कभी उसे भी छीजने और सूखने नहीं दिया है। मेरे साथ और बाद के अन्य आलोचक जो कभी बहुत सक्रिय थे अब लिखना छोड़ बैठे हैं। मैं कह चुका हूँ कि कहानी की तुलना में आलोचना बेशक बहुत अपर्याप्त है। लेकिन मैं फिर उसे दोहराना चाहूँगा कि महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय लेखकों, प्रवृत्तियों, कहानियों का इसी आलोचना ने भरपूर नोटिस लिया है। कभी संपादक भी बहुत जिम्मेदारी के साथ इस प्रक्रिया में शिरकत करते थे। इसके कम से कम दो उदाहरण मैं अपने ही प्रसंग में दे सकता हूँ। जब आलोचना के स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य विशेषांक के लिए पुरानी पीढ़ी का योगदान पर लिखने के लिए शिवदान सिंह चौहान ने मुझे आमंत्रिात किया तो कहानियों की एक सूची भिजवाकर यह सुझाव भी दिया कि इन कहानियों को आधार बनाया जा सकता है। मूल रूप में मुझे १२ कहानियाँ चुननी थीं। संख्या अधिक होने पर उन्होंने १४ की छूट दी। जिन कहानियों की सूची उन्होंने भिजवाई थी, मैंने उनमें से आधी कहानियाँ भी उस लेख में शामिल नहीं की लेकिन इससे संपादक के रूप में उनकी सजगता का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है। आगे चलकर ज्ञानरंजन ने आधार के एक कहानी विशेषांक का संपादन किया। तब तक शायद पहल शुरू नहीं हुई थी। तब जेराक्स वाला दौर नहीं हुआ था। मुझे आज भी याद है कि लेख के लिए मेरी स्वीकृति के बाद उन्होंने कहानी, कल्पना सहित कुछ अन्य पत्रिकाओं में छपी कहानियों के कटिंग मुझे भिजवाए थे। इसके बाद भी यह छूट उन्होंने मुझे दी थी कि इनके अतिरिक्त भी यदि कोई महत्त्वपूर्ण कहानी हो तो मैं अपनी ओर से शामिल कर सकता हूँ। इसी तरह कभी शैलेश मटियानी ने विकल्प के कथा विशेषांक के लिए कुछ समीक्षार्थ कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण संग्रह भिजवाये थे। उनमें राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, मन्नू भण्डारी से लेकर तब की एकदम नवोदित कहानीकार सुधा अरोड़ा के बग़ैर तराशे हुए की याद मुझे अभी भी है। उन्होंने सुधा अरोड़ा को लिखा था और उन्होंने वह संग्रह सीधे मुझे भिजवाया था। मुझे नहीं लगता कि संपादन के प्रति ऐसी निष्ठा और ईमानदारी आज बची रह गई है। आज संपादक से असहमति का मूल्य उसकी काली सूची में शामिल होना है - चाहे नामवर सिंह हों, चाहे राजेन्द्र यादव हों या प्रभाकर जो पत्रिका में लेखक को कुछ मानदेय भी देते है, उनके संपादक जो आलोचक के कटोरे में जैसे भीख का सिक्का डालते हैं। क्या सचमुच आपको नहीं लगता कि इन स्थितियों ने भी स्वस्थ, विश्वसनीय और जेनुइन आलोचना को लगातार मुश्किल किया है? आलोचक से ही यह अपेक्षा क्यों की जाती है कि एक साथ वह इन सब मोर्चों पर लड़े? बयालीस वर्षों की अपनी रचनात्मक-आलोचनात्मक सक्रियता के बावजूद आज भी अपनी पसंद की किताब पर लिख पाना मेरे लिए हमेशा ही सुकर नहीं होता। यह जरूरी नहीं कि अपनी रुचि संपादक की रुचि से मिलती हो। इधर संपादकों के मन में आलोचक की इच्छा और रुचि का सम्मान निरन्तर छीजता गया है। वह दौर अब इतिहास की बात है जब रामविलास शर्मा से घोर असहमतियों के बीच शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय, प्रकाश चंद्र गुप्त, हंसराज रहबर आदि उनके समालोचक में लिखते थे और रामविलास शर्मा, एक संपादक के रूप में, अज्ञेय को भी अपनी पत्रिाका में लिखने को आमंत्रिात करते थे। आलोचक इसी धरती का जीव है, अपने समय के प्रभावों और दबावों से वह कैसे और कहाँ तक मुक्त रह सकता है। उग्र असहमतियों की हम चाहे कितनी ही बात करें, मूल रूप से हम चापलूसी और ठकुर सुहानी वाली दुनिया में ही रह रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि लेखक की चिप्पी हटाने के बाद उसके नीचे संपादक का नाम साफ दिखाई देता है। मुझे लगता है कि इस पूरे परिवेश को ध्यान में रखकर ही आलोचना पर कोई सार्थक टिप्पणी की जा सकती है।
आज कहानी की एक सदी पूरी होने पर क्या आप महसूस करते हैं कि हिन्दी कहानी का विकास ठीक दिशा में हुआ? संक्षेप में आप कहानी के टर्निंग प्वाइंट और प्रवृत्तियों के बारे में यदि खुलासा करें तो वास्तविकता उजागर होगी?
मुझे तो यही लगता है कि सौ वर्षों में हिन्दी कहानी ने बिना अधिक भटके अपना रास्ता तय किया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है किसी यूरोपीय या भारतीय भाषा की कहानी के मुकाबले इस विकास और कुल मिलाकर हिन्दी कहानी की उपलब्धियों को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। आरम्भिक कहानियों के संदर्भ में मौलिकता और कलात्मक का सवाल जरूर उठाया जा सकता है लेकिन प्रेमचंद के हिन्दी में आने के पूर्व यानी १९१६ से पहले ही हिन्दी में प्रसाद की अनेक महत्त्वपूर्ण कहानियों के साथ ही माधवराव सप्रे, बंग महिला, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि की कहानियाँ आ चुकी थीं। ये कहानियाँ एक ओर यदि कहानी को सामाजिक राष्ट्रीय संदर्भों से जोड़ती हैं वहीं रचना विधान की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। हिन्दी कहानी का पहला चरण यही है। प्रेमचंद का हिन्दी में आना और दो दशकों की उनकी रचनात्मक सक्रियता उसका दूसरा कारण है। जैनेन्द्र और अज्ञेय से हिन्दी कहानी का तीसरा चरण माना जा सकता है। प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी में जैनेन्द्र और यशपाल दो धाराओं के प्रतिनिधि लेखकों के रूप में भी रेखांकित किए जा सकते हैं। हिन्दी कहानी में नई कहानी का आंदोलन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है। आज हम इस स्थिति में हैं कि उसका तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन कर सकें, ऐसी ही एक विनम्र कोशिश नयी कहानी : पुनर्विचार में मैंने की भी है और उसकी उपलब्धियों के साथ उसकी सीमाओं को देख सकें। हिन्दी में कहानी-समीक्षा की शुरुआत वस्तुतः इस आंदोलन की ही देन है। इसके बाद सातवें दशक और समकालीन कहानी के रूप में कहानी के इस विकास को रेखांकित किया जा सकता है। नई कहानी के बाद आंदोलन कई हुए लेकिन सचेतन कहानी, अकहानी, जनवादी कहानी आदि के वे आंदोलन नई कहानी के रचनात्मक उत्कर्ष तक नहीं पहुँचे। आज उनका महत्त्व सिर्फ कहानी के इतिहास की दृष्टि से ही बचा रह गया है। अपनी पुस्तक हिन्दी कहानी का विकास में मैंने इसी तरह हिन्दी कहानी के विकास और प्रवृत्तियों को समझने की कोशिश की है।
समकालीन कथा समीक्षा में सक्रिय आलोचकों को आप किस रूप में देखते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आज हिन्दी में गम्भीर समीक्षा नहीं लिखी जा रही। ज्यादातर समीक्षाएं जो समाचार पत्रों या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रों में छपती हैं, बेरोजगार का धन्धा हैं।
आपकी यह बात काफी हद तक ठीक है कि हिन्दी कहानी की सक्रियता के अनुपात में उसकी समीक्षा वैसी गंभीरता से नहीं लिखी जा रही है। लेकिन मैं कह चुका हूँ कि इसके लिए एक ओर यदि संपादक जिम्मेदार हैं, वहीं हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि पिछले दशकों में आलोचना के क्षेत्र में कितने कम लोग उभरकर आए हैं। आलोचना एक गंभीर साहित्यिक उद्यम है। वह पूरी तैयारी और समर्पण की मांग करती है। लोगों के पास अधिक रुकने और ठहरने का धैर्य नहीं है - वे तत्काल अपनी उपलब्धियों और किए गए श्रम का प्रतिफल चाहते हैं। इस दृष्टि से आलोचना उन्हें हताश करती है। चापलूसी और ठकुर सुहाती वाली आलोचना की उम्र अधिक नहीं होती। हिन्दी में प्रायोजित समीक्षकों की चर्चा इधर आम है। संपादकों और लेखकों का पूरा नेटवर्क सक्रिय देखा जा सकता है। पत्रिकाओं, प्रतिष्ठानों और संपादकों के अपने गुट हैं। समग्रता और वस्तुपरकता का आग्रह कहीं दिखाई नहीं देता। लोगों का बस चले तो वे अपने विरोधियों का नाम ही मिटा दें। बात आलोचना के जनतंत्र और विचार की तानाशाही के विरोध की जाती है जबकि सबसे बड़े तानाशाह वे लोग ही हैं। इन स्थितियों में आमतौर पर आलोचना और खासतौर पर कथालोचना के संकट को समझना अधिक मुश्किल नहीं है। पिछले दिनों जो कुछ नाम इस दिशा में उभरकर आए हैं उनमें वीरेन्द्र यादव, रविभूषण, गोपेश्वर सिंह आदि के नाम तत्काल ध्यान में आ रहे हैं। नवजागरण के संदर्भ में कर्मेन्द्र ने भी ठीक-ठिकाने का काम किया है। एक खास चीज जो ध्यान आकृष्ट करती है वह बड़ी संख्या में महिला आलोचकों की उपस्थिति है जो इससे पहले हिन्दी में कभी नहीं रही। अर्चना वर्मा, अनामिका, सुधा सिंह, रोहिणी अग्रवाल आदि अनेक नाम हैं जो इस दिशा में सक्रिय हैं और उम्मीद जगाते हैं। चाहें तो आप अपना नाम भी इनमें जोड़ सकती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति कथा-आलोचना में नियमित और निरन्तर हस्तक्षेप न करने के बावजूद कभी-कभार बहुत अच्छी समीक्षा लिखकर सन्नाटे को तोड़ देता है। आखिरी कलाम पर आकार में छपी अरुण प्रकाश की समीक्षा एक ऐसी ही समीक्षा है।
आपकी दृष्टि में आज नई पीढ़ी में ऐसे कौन समीक्षक हैं जिन पर भरोसा किया जा सकता है?
अरविंद त्रिापाठी, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी - इनमें से कोई पूरी तरह कथालोचक नहीं है। पंकज चतुर्वेदी की आलोचना तो पूरी तरह काव्य-केन्द्रित है, लेकिन आलोचना में इन्होंने अपनी पहचान बनाई है और अपेक्षाएँ जगाई हैं। इनके अपने-अपने संरक्षक और गॉड-फादर हैं - जिन्हें आलोचना में उसका रोल-मॉडल भी कहा जा सकता है। कहीं न कहीं इससे उनका अपना आलोचना-व्यक्तित्व कुंठित और विकास बाधित भी होता है, इनकी आलोचनात्मक तैयारी में भी गुणात्मक अंतर हो सकता है, लेकिन फिर भी इनके विकास का अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं है। मुझे लगता है कि जो काम कभी देवीशंकर अवस्थी ने विवेक के रंग के माध्यम से किया था, वैसे प्रयास अभी भी किए जाने चाहिए। इसके भी पहले या फिर इसी के आस-पास यही काम बालकृष्ण राव ने विवेचना के माध्यम से किया था। हिन्दी की आरम्भिक समीक्षाओं का भी एक चयन आना चाहिए। आज प्रायोजित और साधारण समीक्षाओं के दौर में जो कुछ अच्छी, चमकदार और विश्वसनीय समीक्षायें लिखी जा रही है उन्हें अलग से रेखांकित किए जाने की जरूरत है। ऐसा करके ही शायद और लोगों को वैसी समीक्षाएँ लिखने के लिए उत्प्रेरित किया जा सकता है।
मैं समीक्षा क्यों लिखता हूँ शीर्षक लेख जो आपकी पुस्तक हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान की पीठिका के रूप में प्रकाशित है, पुस्तक समीक्षा को गम्भीर और दायित्वपूर्ण रचनात्मक कर्म मानते हुए आपने अनुभव का साक्ष्य दिया है कि हिन्दी में आलोचना को सहने और झेल पाने के माद्दे का विकास बहुत कम हुआ है जबकि आपके शब्दों में ही उपेक्षा की मुद्रा अपनाने वाले लेखक भी अच्छी प्रशंसात्मक समीक्षा के लिए जमीन-आसमान के कुलावे मिलाते देखे जाते हैं' इस विडम्बानात्मक स्थिति पर आपकी टिप्पणी क्या है?
मैं समीक्षा क्यों लिखता हूँ? नामक जिस लेख का उल्लेख किया है वह लंबे समय तक हंस में बिना छपे पड़ा रहा। लगभग गुस्से की हालत में उसे वापस मंगवाकर मैंने साक्षात्कार में भिजवाया था। क्या छपने पर उसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। मैंने सचमुच बेहद जुनूनी भाव से समीक्षा-कर्म किया है और आज भी उसे छोड़ा नहीं है। हिन्दी का आलोचक विकसित और स्थापित हो जाने के बाद समीक्षा-कर्म को हिकारत से देखने लगता है। हिन्दी में अश्क और अज्ञेय ने अपने बाद की पीढ़ी के युवा लेखकों पर खूब लिखा है। सामान्यतः बहुत तेजावी समीक्षा में लिखना मेरी प्रकृति नहीं है। लेकिन फिर भी अनेक अवसरों पर मेरी समीक्षाओं ने अश्क, विष्णु प्रभाकर, अमृत लाल नागर जैसे बड़े और स्थापित लेखकों को भी दुखी किया है। इस विडम्बनापूर्ण स्थिति पर मैं यही कह सकता हूँ कि यह हमारे समाज में व्याप्त ढोंग का ही एक हिस्सा है। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू वाली यह प्रवृत्ति मैंने अनेक युवा और विकासशील लेखकों में भी देखी है। लेकिन इन्हीं के बीच प्रियवंद जैसे कुछ लेखक भी हैं। अक्षरा में अपने उपन्यास परछाई नाच पर मेरी लिखी समीक्षा पढ़कर उन्होंने बहुत कृतज्ञ भाव से मुझे पत्र लिखा और अपनी किताबों के बारे में पूछा कि मेरे पास न होने पर वे मुझे भिजवा सकते हैं। यद्यपि मेरी समीक्षा में उस उपन्यास के नकारात्मक पक्षों की चर्चा भी थी।
एक तरफ तो समीक्षा कर्म को आप महत्त्वपूर्ण मानते हैं दूसरी तरफ ठीक गोपाल राय और परमानंद श्रीवास्तव की तरह समीक्षा लिखने में, चुनाव करने में सावधानी नहीं बरतते? क्या यही कारण तो नहीं कि आप जैसे समीक्षकों की छवि पाठकों में जैसी बननी चाहिए नहीं बनी।
यह स्थिति सचमुच बहुत अंतर्विरोधी है कि एक ओर तो पुस्तक समीक्षा को घटिया, हेय और उपेक्षणीय काम समझा जाता है वहीं, प्रायः ही पुस्तक समीक्षा की स्तरीय पहचान के लिए लोग मुझे शाबासी भी देते हैं। आपकी यह बात ठीक है कि पुस्तकों के चयन के मामले में मैंने अधिक सावधानी शायद नहीं बरती है। ख़ासतौर से शुरू के दौर में। लेकिन जब ऐसा नहीं होता था तब भी मैं अपने संपादक-मित्रों प्रकाशकों या फिर स्वयं लेखक को लिखकर अपनी पसंद की किताब पर लिखे जाने को तरजीह देता था। कभी अपनी समीक्षा की रचना-प्रक्रिया पर लिखूंगा तो इस प्रसंग की चर्चा भी करूँगा। एक समीक्षक के रूप में मेरी चिंता यह भी होती है कि अपने समय की महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय पुस्तकें छूटें नहीं। मैं इसे अपने समय के रचनात्मक प्रवाह के बीच होना और बने रहना कहता रहा हूँ। लेकिन चुनाव में अधिक सतर्क न रहने के अपने खतरे तो हैं ही। एक ओर इसके लिए यदि मेरी प्रशंसा की जाती है कि अपने समकालीन आलोचकों में मेरे यहाँ अपेक्षाकृत लेखकों और पुस्तकों की एक बड़ी और व्यापक दुनिया मिलती है तो वहीं शायद जैसा कि आप कहती हैं, पाठकों में एक समीक्षक के रूप में मेरी वैसी छवि नहीं बन पाती जैसी बननी चाहिए। लेकिन मैं दूर तक इससे सहमत हो पाने की स्थिति में नहीं हूँ। ढेरों लेखकों और पाठकों के पत्र मुझे मिलते हैं। प्रायोजित समीक्षकों के इस दौर में ईमानदारी, वस्तुपरकता और विश्वसनीयता से मुझे जोड़कर देखा जाता है। इससे संतोष मिलना स्वाभाविक है। महत्त्वपूर्ण शायद यह भी है कि मैंने लिखा क्या है। प्रायोजित और अतिरेकपूर्ण समीक्षा मैंने नहीं लिखी। संपादकों की ऐंठ और अकड़ मुझसे नहीं बर्दाश्त होती। पिछले आठ-दस वर्षों से पुस्तकों पर अपने को केन्द्रित करने का यह भी यह बड़ा कारण है। इससे समीक्षा कर्म अपने आप खत्म हो जाता है। फिर भी कसौटी समय माजरा, कथाक्रम, वागर्थ, तद्भव, साक्षात्कार, समीक्षा, अकम्‌ आदि में मैं नई किताबों पर विस्तार से लिखता रहा हूँ। ये समीक्षायें चयन के संबंध में मेरी सतर्कता का संकेत भी देती हैं।
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