- डॉ० सन्त कुमार टण्डन मैंने लम्बे समय तक चप्पल ही पहनी, जूते नहीं। बचपन से विद्यार्थी जीवन, यूनिवर्सिटी लेविल तक। चप्पल कम्फर्टेबिल रहती हैं। पैंट-शर्ट, सूट के साथ भी पैरों को कसे जूतों में डालना मुझे बुरा लगता था। जब सर्विस में आया, आफिस जाने लगा, तो भी चप्पल-प्रेमी बना रहा। लेकिन जब अधिकारी के पद पर पहुँचा, तो मेरे पदों पर चोट लगी। चप्पल छोड़ जूते पहिनना पड़ा। एक विवशता और रोज शेव करना। दोनों मुझे कष्टकर था, पर करना पड़ा। मुझे पच्चीस साल बाद राहत मिली, जबरदस्त राहत, जब मैं ऑफिसर की पोस्ट से रिटायर हुआ। दाढ़ी सप्ताह में दो बार बनने लगी और मैं रिटायर होते ही चटपट चप्पल खरीद लाया। बड़ा सुख, बड़ी चैन। लगा मुक्ति मिली। ये दोनों मुक्तियाँ सर्विस भी मुक्ति से कम सुख-चैन-दायिनी न थीं। अमूमन मैं अपने पदत्राण बंद रहने वाली (विदाउट लॉक) आलमारी में रखता हूँ। आज भी रखता हूँ, बजाय किसी खुले स्थान के। सो जूते मैं अपनी एक्सट्रा अलमारी में रख दिए-सदा-सर्वदा के लिए। चप्पल भी वहीं, उसी आलमारी में, उसी खाने में रखने लगा। जहाँ जूता-देव विराजमान थे। जूते और उनके ठीक बगल में चप्पलें। मैंने सुना ह...