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Showing posts with the label लघु कथा

परिवीक्षा अवधि

नदीम अहमद स्कूल और कॉलेज के दिनों में नेतागिरी और उदण्डता का पर्याय बन चुका वो शख्स इन दिनों सरकारी नौकरी लगने पर किसी आज्ञाकारी बालक की तरह व्यवहार कर रहा था। उसको जानने वालों के लिए यह चमत्कारी परिवर्तन था। अपने एक परिचित के सामने उसने आखिर राज उगल ही दिया। ''यार! जैसे-तैसे यह परिवीक्षा अवधि पूरी हो जाये, बस। उसके बाद.......!'' जैनब कॉटेज, बड़ी कर्बला मार्ग, चौखूंटी, बीकानेर-०१

कथित अज्ञानता

नदीम अहमद ''भाई साहब! मेरे घर पर लगा बिजली मीटर बिल्कुल ठीक काम कर रहा था। दो महीने पहले ही मैंने नया मकान खरीदा है, पूर्व मकान मालिक भी शरीफ और ईमानदार है। बिजली मीटर से कभी भी छेड़छाड़ नहीं की गई थी लेकिन मेरे द्वारा मकान खरीदते ही मुझे बिजली खर्च का औसत बिल थमा दिया गया है।'' त्रुटि सुधार के लिए पिछले एक महीने से बिजली विभाग के चक्कर काट रहे उस शख्स ने वहीं पर आए हुए अपने दोस्त से यह सब कहा। दोस्त ने लापरवाह अंदाज में कहा, ''इतना परेशान होने की बजाय मीटर रीडर की थोड़ी सेवा कर दी होती तो आज यह नौबत नहीं आती।'' *******************************************

तांडव

नदीम अहमद घर की सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त, घर का हर प्राणी बेहाल, हैरान, परेशान, पूरा दिन हो गया, चूहे ने भी मानों सबको परेशान करने का मन बना रखा हो। उछल-कूद मचाता हुआ पूरे घर की सैर करने में लगा था। घर के लोगों ने अनेक उपाय किए लेकिन विफल। आंगन में लगा बूढ़ा पेड़ शान्त भाव से यह सब देख रहा था और सोच रहा था कि एक तरफ चूहे से घर के हट्टे-कट्टे लोग आजिज आ हुए हैं और दूसरी और इस देश में आतंकवाद, गरीबी भूखमरी वैमनस्या के दानव खुलेआम तांडव मचा रहे हैं, उनका क्या ? ******************************

खाजाना

नदीम अहमद नोखा से बस रवाना होते ही कंडक्टर ने बीकानेर का किराया पैंतीस रुपया बताया, टिकट हाथ में रख दिया। दोनों शिक्षिकाएं एक-दूसरे का मुंह देखने लगी। फिर उनमें से एक ने कहा, ''आप शायद इस रूट पर पहली बार आएं है, हम तो हमेशा २५/- रुपये ही देते हैं।'' ''आप जो पच्चीस रुपये देती हैं वो लेने वाले कंडक्टर के खाजाने में जाता है और यह जो पैंतीस रुपये लूंगा वो सरकारी खाजाने में जायेंगे।

पसंद ना पसंद

नदीम अहमद हाजी गफूर साहब कई दिनों से सत्तार भाई की लड़की की शादी अपने भतीजे के साथ करने के प्रस्ताव के सिलसिले में उनके घर आते रहे हैं। लेकिन आज सत्तार भाई का जवाब सुनकर उनके पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई। ''हाजी साहब! आपका भतीजा पढ़ा लिखा है। खानदान बहुत अच्छा है। सब....कुछ.....ठीक, दरअस्ल हाजी साहब आजकल लड़कियां भी पढ़ी-लिखी होने के कारण अपनी पसंद....'' सत्तार भाई भूमिका बांधकर भी मूल बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। बाद में एक ही सांस में सबकुछ कह गए। ''आपका भतीजा लम्बी दाढ़ी रखता है और टोपी पहनता है। इसलिए लड़की ने......।'' **************************************************

खांचों में बंटा आदमी

नदीम अहमद थुलथुले शरीर वाले सेठजी को मंदिर की सीढ़ियों से उतरकर गरीबों को पैसे बांटते और गायों को गुड़ खिलाते देखकर उधर से गुजर रही वो तवायफ ठिठक गई। उसकी आंखों के आगे पिछली रात का मंजर उभर आया जब ये सेठ किसी पालतु कुत्ते की तरह उसके तलवे चाट रहा था।

समय की बचत

नदीम अहमद डॉक्टर के घर पर उसके चैम्बर में पहुँचते ही बीमारी बताते हुए उसने एक्सरे, ब्लड रिपोर्ट, ई.सी.जी. रिपोर्ट डॉक्टर के आगे रख दी। ''सर, ये जांचे आज ही करवाई है;'' ''लेकिन मैंने तो लिखा नहीं'' ''सर, पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। दो घण्टे इंतजार के बाद आपने बग़ैर चैकअप किए ये जांचे करवा कर लाने को कहा था। इस बार समय की बचत का ख्याल करते हुए आपकी बताई हुई लैब से ये जांचे करवा ही आया हूँ।'' डॉक्टरा ने चुपचाप जांच रिपोर्ट्‌स पर सरसरी निगाह डाली और दवाईयाँ लिख दी। *************************** जैनब कॉटेज, बड़ी कर्बला मार्ग, चौखूंटी, बीकानेर-०१ ***************************

आखिरी दाव

नदीम अहमद अति महत्त्वाकांक्षी पिता जमाने की अंधी दौड़ में अपने पुत्र को आगे रखने के लिए किसी भी हद तक कुछ भी करने को तैयार था। प्रायोगिक परीक्षा में उसने व्याख्याता पर दबाव बनाया कि उसके पुत्र को उच्चतम नम्बर दिए जाये। उसने लालच भी दिया लेकिन व्याख्याता ईमान के पथ से डिगने को तैयार नहीं था। आखिर हताश, निराश पिता ने आखिरी दाव चल ही दिया कि उक्त व्याख्याता प्रायोगिक परीक्षा में अच्छे नम्बरों की एवज में उनसे रिश्वत मांग रहा है। ***********************************

राजनीति

अश्फाक कादरी नेताजी के घर पर कोहराम मचा था। उनके तीन दिन से लापता लाडले बेटे की क्षत विक्षत लाश शहर के गंदे नाले में मिली थी। नाते रिश्तेदार, कार्यकर्ता रोते बिलखते नेताजी के घर आ रहे थे, बढ़ चढ़कर अपनी पीड़ा और शोक बयान कर रहे थ, मगर नेतजी अपने ड्रांइंगरूम में पुलिस अधिकारियों के साथ सोच में डूबे थे। लाडले के हत्यारों को पता चल गया था, उसी के दोस्तों ने शराब के नशे में किसी बात पर उसे मार डाला था। मारपीट में मौत हाने पर लाश शहर के गंदे नाले में फेंक कर उसकी तलाश में उसके परिवार के साथ सहयोग में जुट गये थे। जब हत्या का राज खुलने पर पुलिस नेताजी से रिपोर्ट लिखने का आग्रह करी रही थी मगर नेताजी कोई जवाब देने के बजाय सोच में डूबे थे। एकाएक नेताजी की आखें में चमक उभर आयी और बोले इस हत्या में आपने जिन लड़कों के नाम बताये है। उनका कोई दोष नहीं है। मेरे बेटे की हत्या में गहरी साजिश रची गयी हैं। यह मेरे राजनीतिक विरोधियों की चाल है। मेरे बेटे को मेरे प्रतिद्वन्दी नेता भैयाजी ने मरवाया है। आप उसे तत्काल गिरफ्‌तार करें। मगर सर, गिरफ्‌तार लड़कों से पूछताछ में भैयाजी का कोई नाम सामने नहीं आया यह तो उ...

गुरू

अश्फाक कादरी भैयाजी चुनाव जीत गये! सलि जयघोष से गूंज उठा । जीत के ढोल बनजे लगे। उनके समर्थक खुशी से नाचने लगे। गुलाल उछलने लगा। कार्यकर्ताओं ने चैन भरी सांस ली। उनके प्रमाण पत्र लेकर जब भैयाजी बाहर निकले तो जाने-अनजाने समर्थकों ने उन्हें फूल मालाओं से लाद दिया। कंधों पर उठाकर जीप पर बिठा दिया और जुलूस बस्ती की ओर चल पड़ा। तभी भैयाजी की नजर दूर खड़े एक फटेहाल आदमी पर पड़ी, जो काफी समय से हाथ हिलाकर उनका अभिवादन कर रहा था। उन्हें कुछ याद आने लगा इस शहर में अपने गांव से खाली हाथ आये भैयाजी का खुले आसमान के नीचे बसेरा था। बेरोजगारी ने उन्हें जुर्म की दुनिया में धकेल दिया था। नई-नई बसी बस्ती में भैयाजी ने जमीनों पर कब्जा, जुआ, सट्टे का कारोबार शुरू कर दिया था जिससे उनका ठोर ठिकाना बनने लगा था, मगर पुलिस के रिकार्ड में वे जल्द ही हिस्ट्रीशीटर बन गये। उनके घर पुलिस के छापे पड़ने लगे। एक बार जब पुलिस का छापा पड़ा तो उनकी हाथापाई पुलिस से हो गयी। इसी लुका छिपी में भैया की मुलाकात एक मस्त मौला आदमी से हुई, जिसने उन्हें सबक दिया कि अगर तुम्हें इज्जत की जिन्दगी गुजारनी है तो नेता बन जा, नहीं तो कुत्ते ...

लोग क्या कहेगें

अश्फाक कादरी बाबूजी गुजर गये। जीवन भर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करने वाले बाबूजी के तीये की बैठक में समाज पूरा उमड़ पड़ा था। तीये की बैठक के बाद जब परिवार मिल बैठा तो उनके पीछे मृत्युभोज करने का प्रश्न सभी के सामने खड़ा था। बाबूजी पूरे समाज से प्यार करते थे, इसलिए उनके पीछे औसर (मृत्युभोज) तो होना चाहिए काकाजी बोल पड़े थे। मगर बाबूजी इसके खिलाफ थे बडा बेटा अपनी शंका व्यक्त करने लगा। लोग क्या कहेगें ? मंझला बेटा कहने लगा समाज में पैसे और मान सम्मान में हम किसी से कम है क्या ? जो बाप के मरते ही दो पैसे खर्च न कर सके। तभी छोटे की ऑंखों में चमक उभर आयी तो फिर बाबूजी के नाम पर महाप्रसाद करेगें, छोटा बोल पड़ा औसर से महाप्रसाद अच्छा है, समाज में इसका विरोध नहीं होगा और हमारी शान रह जायेगी। फिर बाबूजी के महाप्रसाद में सात मिठाईयां, दही बड़े, पकौड़ी, पक्की मंझला चहकते हुए बोला पूरे गांव को बुलाना चाहिए। तो फिर ओढावणी छोटे बेटे के ससुर ने झिझकते हुए पूछा। मायरा-मौसायरा आप देवें तो आपकी मर्जी है, हम आपको इन्कार नहीं करेगें बड़ा बोल उठा। मगर बाबूजी तो इसके खिलाफ थे ससुर ...

इश्क का चक्कर

- डॉ० सन्त कुमार टण्डन मैंने लम्बे समय तक चप्पल ही पहनी, जूते नहीं। बचपन से विद्यार्थी जीवन, यूनिवर्सिटी लेविल तक। चप्पल कम्फर्टेबिल रहती हैं। पैंट-शर्ट, सूट के साथ भी पैरों को कसे जूतों में डालना मुझे बुरा लगता था। जब सर्विस में आया, आफिस जाने लगा, तो भी चप्पल-प्रेमी बना रहा। लेकिन जब अधिकारी के पद पर पहुँचा, तो मेरे पदों पर चोट लगी। चप्पल छोड़ जूते पहिनना पड़ा। एक विवशता और रोज शेव करना। दोनों मुझे कष्टकर था, पर करना पड़ा। मुझे पच्चीस साल बाद राहत मिली, जबरदस्त राहत, जब मैं ऑफिसर की पोस्ट से रिटायर हुआ। दाढ़ी सप्ताह में दो बार बनने लगी और मैं रिटायर होते ही चटपट चप्पल खरीद लाया। बड़ा सुख, बड़ी चैन। लगा मुक्ति मिली। ये दोनों मुक्तियाँ सर्विस भी मुक्ति से कम सुख-चैन-दायिनी न थीं। अमूमन मैं अपने पदत्राण बंद रहने वाली (विदाउट लॉक) आलमारी में रखता हूँ। आज भी रखता हूँ, बजाय किसी खुले स्थान के। सो जूते मैं अपनी एक्सट्रा अलमारी में रख दिए-सदा-सर्वदा के लिए। चप्पल भी वहीं, उसी आलमारी में, उसी खाने में रखने लगा। जहाँ जूता-देव विराजमान थे। जूते और उनके ठीक बगल में चप्पलें। मैंने सुना ह...

आते रहना

- श्रीकृष्ण तिवारी गर्मी का महीना। यही कोई नौ बजा था। मैं नीम की छाया में बैठा था। पत्नी की याद में खोया हुआ था। घाव अभी ताजा था। आँखें मूदे हुये था। जैसे समाधिस्थ हो गया हूं। कानों में आवाज आई, ''दीदी, दीदी... ।'' आंख खुली। देखा एक अंधेड़ मङ्तिन (भिखारिन) महिला को। ''दीदी, अब नहीं है।'' तब तक नजदीक आ गई। बैठ गई। समझ गई। उसकी आंखों में आंसू बह रहे थे। ''कब?'' ''लगभग डेढ़ महीने हो रहे हैं।'' ''इतनी हट्टी-कट्टी। ऐ मालिक! तूने क्या किया। समय के पहले बुला लिया। मुझ जैसी मङ्तिन को भी बड़ा प्यार मिलता था। इतनी दयालु। भूखे-दूखे का ख्याल रखती थीं।'' मेरी डबडबाई आंखों को देखकर बड़ी ममता भरी बातें करने लगी। उसकी बात से बड़ी रहित मिलने लगी। अपनी बीवी के प्रति उसका लगाव देखकर मेरे भीतर उसके प्रति लगाव उभरने लगा। उसकी बातचीत बर्ताव से मन में आया, कहने को तो यह मङ्तिन है। गंवार है। उपेक्षित है। किन्तु इसके भीतर कितनील कृतज्ञता भरी है। जब तक वह रही, अपनी पत्नी की उपस्थिति का एहसास करता रहा। उसके हर शब्द मेरी ...

सुख की नींद

- ध्रुव जायसवाल देशराम के दरवाजे पर एक मुस्टंड और माफिया किस्म का व्यक्ति आया। उसके पीछे-पीछे काफी लोग बंदूक लेकर आये। देशराम उस मुस्टंड व्यक्ति को देखकर सहम गया। उसने मुस्टंड से कहा, ''आपके बिठलाने के लिये मेरे पास आपके योग्य कोई आसन या कुर्सी नहीं है। इसी टूटे तख्त पर बैठ जाइये। वैसे मैंने दशहरे के दिन कहीं मैदान में देखा है।'' मुस्टंड हँसा और बोला, ''तुमने ठीक पहचाना। मैं कुम्भकरण राजा रावण का ही भ्राता हूं। लेकिन अब मात्र याचक रह गया हूं।'' देशराम बोला, ''प्रभु, वह आपकी राक्षसी काया नहीं। बस आपकी बड़ी-बड़ी मूंछे और आंखें आज भी डराने वाली लगती हैं। यह खद्दर का कुर्ता यह खद्दर की टोपी आप पर बहुत बेमेल सी लगती है। वैसे मैं आपसे उस नींद की गोलियों के बारे में जरूर पूछूंगा। जिसे खाकर आप साल-साल भर सुख की नींद सोते रहते थे। मुझे बहुत टेंशन रहता है। समस्यायें इतनी रहती हैं कि नींद नहीं आती है।'' कुम्भकरण हँसा और बोला, ''उन नींद की गालियों का नाम लिखवा दूगा। मैं इस वक्त एक याचक बनकर तुम्हारे पास आया हूं। मैं चुनाव ल...

मुझे मनुष्य नहीं बनना

- डॉ. सय्यद मशकूर अली चारों तरफ खून ही खून, चीख-पुकार, लाठी चार्ज, गोली बारी, आगजनी, लूटपाट, छुरेबाजी एवं दंगे-फसाद। लोग जख्मी लोगों को पैरों तले रौंदते हुए चले जा रहे थे, मदद के लिये चिल्ला रहे थे -''हमें सहारा दो, हमें बचा लो।'' पर किसी के पास किसी का हाल सुनने का समय नहीं। जिसे जहाँ जगह मिल रही थी, वहीं सिर छिपा रहा था। सड़कों पर पड़ी लाशें कफन की फरियाद करतीं, नालियों में बहता खून पानी से भी शर्मिन्दा और मुहल्ले कर्फ्यू के कारण कब्रिस्तान से भी ज्यादा सुनसान। बच्चों के चेहरों पर भय और आँखों में निराशा। भूख से परेशान लोग पूछ रहे थे : ''ऐसा क्यों? कब तक यह जुल्म? कब तक मानवता पर यह अत्याचार? कब तक इंसान के खून से इतिहास के पन्ने भरे जायेंगे? कौन है, यह नरभक्षी? ऐसा क्यों करते हैं? कुछ समझ में नहीं आता।'' एक घंटे के लिये कर्फ्यू में ढ़ील। लोगों ने घरों से निकलकर पागलों की तरह भागना शुरू किया। इसी भाग-दौड़ में एक कीड़ा अपनी पुश्तैनी नाली वाली जगह से निकला और मनुष्य के पाँव से बचते-बचाते मिट्टी में रेंगना शुरू किया। दूसरी ओर से आते मोटे कीडे ने उसे दे...

अनचाहा बीच

- डॉ० जगदीश व्योम ''राजू को आज जाने क्या हो गया है?... वह टॉयलेट के बेण्टीलेटर पर रखे गोरैया के घोंसले को फेंकने जा रहा है। गोरैया तो उड़ गई, पर राजू उसके बच्चों को मार डालेगा ... देखिये आकर! ....'' - शीला ने अपने पति सोमेश से कहा और उल्ले पाँव लोट गई। सोमेश अधूरा चित्र छोड़कर घर पहुँचा। ''राजू बेटे! क्या बात है? गोरैया के बच्चों को क्यों मार रहे हो? ... तुम्हीं ने तो गोरैया को घोंसला रखने दिया था। तुम तो इन बच्चों को बहुत प्यार करते हो। फिर इन्हें मार क्यों रहे हो? ... इन्होंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा? - सोमेश ने राजू को समझाते हुए कहा। ''गोरैया ने मेरा खिलौना तोड़ डाला है। मैं इसके बच्चों को जिन्दा नहीं छोडूँगा। इन्हें मारूँगा...मारूँगा...मारूँगा। - कहते हुए राजू ने बेण्टीलेटर पर तड़ातड़ तीन-चार डण्डे मारे। गुस्से से राजू का मुँह लाल हो रहा था। ''तुम्हारा खिलौना गोरैया ने तोड़ा है, उसके बच्चों को क्यों मार रहे हो? ... ये तो बेचारे उड़ भी नहीं सकते .....।'' ''मारूँगा, आपको इससे क्या?'' - राजू ने चीखते हुए कहा...

बँटवारा

- सुशान्त सुप्रिय मेरा शरीर सड़क पर पड़ा था। माथे पर चोट का निशान था। कमीज पर खून के छींटे थे। मेरे चारों ओर भीड़ जमा थी। भीड़ उत्तेजित थी। देखते ही देखते भीड़ दो हिस्सों में बँट गई। एक हिस्सा मुझे हिन्दू बता रहा था। केसरिया झंडे लहरा रहा था। दूसरा हिस्सा मुझे मुसलमान बता रहा था। हरे झंडे लहरा रहा था। एक हिस्से ने कहा - इसे मुसलमानों ने मारा है। यह हिन्दू है। इसे जलाया जाएगा। इस पर हमारा हक है। दूसरा हिस्सा गरजा - इसे काफिरों ने मारा है। यह हमारा मुसलमान भाई है। इसे दफनाया जाएगा। इस पर हमारा हक है। फिर 'जय श्री राम' और'अल्लाहो अकबर' के नारे लगने लगे। मैं पास ही खड़ा यह तमाशा देख रहा था। क्या मैं मर चुका था? भीड़ की प्रतिक्रिया से तो यही लगता था। मैंने कहा - भाईयो, मैं मर गया हूँ तो भी पहले मुझे अस्पताल तो ले चलो। कम से कम मेरा'पोस्ट-मॉर्टम' ही हो जाए। पता तो चले कि मैं कैसे मरा। भीड़ बोली - ना बाबा ना। हम तुम्हें अस्पताल नहीं ले जा सकते। यह 'पुलिस केस' है। बेकार में कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पडेंगे। एक बार फिर 'जय श्री राम' और 'अल्लाहो अकबर' के...

कामयाबी का राज

- हसन जमाल वो लाशों का एक सौदागर था, लेकिन उसकी छवि एक मसीहा की सी थी वो एक महान देश का अभूतपूर्व प्रधानमंत्री था जिसकी रगों में नफरत का खून बहता था उसे घुट्टी में ही नफरतें पिलायी गयी थीं, फिर भी वो मुहब्बतों का अमीन कहलाता था। यहाँ तक कि दुश्मन-मुल्क के अवाम भी उसे अपना नजातदेहंदा मानते थे। उसकी आस्था अपने मुल्क के आवाम के लिये नहीं, नफरत की घुट्टी पिलाने वाली एक खूंख्वार तन्जीम में थी। वो उस तन्जीम के लिये कुछ भी कर सकता था। कुछ को गिरवी भी रख सकता था। दुनिया के सबसे बड़े शैतान को वो ''जी सर'' कहता था। उसके दौरे-हुकूमत में बेगुनाह शहरियों को चुन-चुन के मौत के घाट उतार दिया गया अबलाओं पर बलाएं टूट पड़ी। कीड़े-मकोडे की तरह रोज लोग मारे जाते थे पर आरपार की लड़ाई की हुंकार करता हुआ वीर-पुरुष शांति, अम्न व भाईचारे की जुगाली करता रहता था। उसके राज में दहशतगर्द दिल के करीब पहुंच गये थे, पर उसकी मुस्तकिल मुस्कुराहट में कुछ फर्क न आया था। उसके अपने चुनावी हलके में साड़ियों में लपेट-लपेट कर गरीब औरतों व बच्चों को मार डाला गया। उसने अपनी जीत को पुख्ता करने के लिये अपने ही मुल...

औरत और नदी

- धु्व जायसवाल बरसात का सुहाना मौसम। आकाश में बादल आते तो कभी बरस जाते या फिर वैसे ही बिना बरसे निकल जाते। चाँदनी रात थी। पूर्ण चन्द्र। चन्द्रमा कभी बादलों से ढक जाता तो पूरी तरह स्पष्ट हो जाता। पूरी चाँदनी बिखर जाती। ऐसे में हरहराती नदी के तट पर बैठना सुहाना लगता है। काफी रात हो गयी थी। तभी एक जवान औरत आयी और नदी के तट पर इधर-उधर निकार कर बैठ गयी। फिर चारों तरफ सन्नाटा पाकर और चन्द्रमा भी बादलों से अभी ढक गया था। कुछ अंधेरा सा हुआ। वह तट से उठी और नदी के पानी की तरफ जाने लगी। तभी नौका लिए एक मांझी आ गया। किनारे नौका किसी खूंटे से बाँधा और जाने लगा। सत्तरह-अट्ठारह साल की उम्र रही होगी उसकी। वह उस औरत के करीब आया और ठिठक उसे निहारता रहा। वह बोला, ''बड़ा सुहाना मौसम है। तुम्हें यहाँ इस चाँदनी रात में नदी के किनारे बैठना काफी अच्छा लग रहा होगा न।'' वह कुछ नहीं बोली, वह चुपचाप बैठ गयी। उस लड़के ने हँस कर पूछा, ''किसी को यहाँ आने का टाइम दे रखा है। लगता है वह अभी आया नहीं।'' उसने इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। सर झुकाये बैठी रही। फिर उस...

आशा - निराशा

- डॉ० सरला अग्रवाल सुधा काफी समय से जगह-जगह आवेदन पत्र भेज रही थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद उसे कहीं नौकरी नहीं मिल पा रही थी। साल भर पूर्व पति की फैक्ट्री भी अचानक चलते-चलते बन्द हो गई तो पूरे परिवार के भरण-पोषण का प्रश्न उसके सम्मुख मुँह बाये खड़ा हो गया। उसकी अपनी नौकरी भी उसी फैक्ट्री से जुड़ी थी, इस कारण वह भी बेकार हो गई थी। जुलाई का महीना था, बच्चों के स्कूल की भारी भरकम फीस, जमा करने का समय था, साथ ही उनकी पुस्तकें - कापियाँ तथा यूनिफार्म आदि भी खरीदनी थी, कई खर्चे सिर पर थे। जीवन के ऐसे भयंकर उतार-चढ़ाव देखकर सुधा हताश हो चली थी। छोटे-छोटे बच्चों का साथ कहीं कोई सहारा नहीं, मानों मंझदार में पड़ी नैया का कोई खिवैया ही न हो। एक स्थानीय नये खुले कॉलिज का विज्ञापन निकलने पर उसने अपना आवेदन पत्र तुरन्त वहाँ भेज दिया। अगले ही दिन वहाँ पर 'वॉक इन' इन्टरव्यू था। वह वहाँ जा पहुँची। भाग्य से उसका इन्टरव्यू बहुत अच्छा हुआ। उसे जीवन में आशा की सुनहरी किरणें प्रस्फुटित होती दिखाई देने लगीं। इकोनोमिक्स की लेक्चरशिप के लिए साक्षात्कार देकर जब वह कमरे से बाहर निकली तो प्रतीक्षार...