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आते रहना

- श्रीकृष्ण तिवारी
गर्मी का महीना। यही कोई नौ बजा था। मैं नीम की छाया में बैठा था। पत्नी की याद में खोया हुआ था। घाव अभी ताजा था। आँखें मूदे हुये था। जैसे समाधिस्थ हो गया हूं। कानों में आवाज आई, ''दीदी, दीदी... ।'' आंख खुली। देखा एक अंधेड़ मङ्तिन (भिखारिन) महिला को।
''दीदी, अब नहीं है।'' तब तक नजदीक आ गई। बैठ गई। समझ गई। उसकी आंखों में आंसू बह रहे थे।
''कब?''
''लगभग डेढ़ महीने हो रहे हैं।''
''इतनी हट्टी-कट्टी। ऐ मालिक! तूने क्या किया। समय के पहले बुला लिया। मुझ जैसी मङ्तिन को भी बड़ा प्यार मिलता था। इतनी दयालु। भूखे-दूखे का ख्याल रखती थीं।''
मेरी डबडबाई आंखों को देखकर बड़ी ममता भरी बातें करने लगी। उसकी बात से बड़ी रहित मिलने लगी। अपनी बीवी के प्रति उसका लगाव देखकर मेरे भीतर उसके प्रति लगाव उभरने लगा।
उसकी बातचीत बर्ताव से मन में आया, कहने को तो यह मङ्तिन है। गंवार है। उपेक्षित है। किन्तु इसके भीतर कितनील कृतज्ञता भरी है। जब तक वह रही, अपनी पत्नी की उपस्थिति का एहसास करता रहा। उसके हर शब्द मेरी जख्म पर मलहम का काम कर रहे थे।
आते रहना, कहकर विदा किया।
ओह! इस श्रेणी की महिलाओं में भी इतनी शालीनता, एहसास एवं शब्दों में जादू भरा होता है।
बड़ा गाँव, इब्राहिमपुर,(केदार नगर)
जिला अम्बेडकर नगर, उ०प्र०
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