- डॉ० जी०सी० भट्टाचार्य
एक दिन शाम को कल्लू जी के सुपुत्र लल्लू स्कूल से घर लौटकर ही ज्यों चीखना चिल्लाना शुरू किया कि घर को सिर पर नहीं आसमान पर ही उठा लिया तो आखिरकार कल्लूजी का ध्यान भंग हो ही गया। वे नाराज तो हुए लेकिन बड़े शान्तभाव से पूछे - ''बेटा, बात क्या है?''
''मेरे जूते और क्या, पापा? मेरे जूते फट गए हैं। आज ही आपको मुझे नए जूते मँगवाकर देने होंगे, पापा, नहीं तो मैं स्कूल जाने से रहा। वहाँ मुझे सब लड़के कंगाल...दरिद्र कहकर चिढ़ाते हैं।''
कल्लू की पत्नी भी बेटे की तरफ हो ली और बैठे ठाले बेचारे कल्लू जी पर आफत ही आ पड़ी महीने की आखिरी के दिनों में। वे मौन हो गए। फिर बोले - ''घबड़ाओ मत बेटे, कल तुम्हें वैसे भी स्कूल नहीं जाना है और ... फिर परसों तक ... कोई न कोई इन्तजाम हो ही जाना है।''
''वह क्यों, पापा? कल मैं स्कूल क्यों नहीं जाऊगा?''
''क्योंकि कल इतवार है, बेटा।''
इससे पहले कि कोई उनसे यह पूछ लेता कि फिर वह छुट्टी के दिन जूते कहाँ से खरीद लाएँगे, कल्लू जी उठे और झट से एक चप्पल पहनकर घर से रफूचक्कर हो लिए।
लेकिन आश्चर्य की बात देखिए कि सोमवार को लल्लू नए चमचमाते जूते पहनकर ही स्कूल गया और माँ, बेटा दोनों खुश। हुई न बात कुछ अजीब सी। गृहस्थी चलानी हो तो ऐसी अनेक कलाकारी दिखानी होती है, लेकिन कल्लू जी के करामात को बिना जाने भला मुझे चैन कहाँ? अगले दिन उनसे पूछ ही लिया पर भला वे कब बताने वाले थे। इधर कई दिनों से वे कुछ नाराज भी चल रहे थे मुझ पर क्योंकि मैंने उनसे उधार के पड़े पैसे लौटाने को जो कह दिया था। मैंने सोचा - ''अब कल्लू जी न बताते हैं तो न सही। मुझे क्या? लेकिन वह क्या है कि एक कहावत है न? ''चिता दहति निर्जीव कँह, चिन्ता जीव समेट'', मेरी भी वही दशा हुई।
दो दिन बाद मेरा भतीजा चंचल अपने तेज तर्रार दोस्त बादल को लेकर घर पर आया तो वह मुझे देखकर भाँप लिया मेरी मनःस्थिति, बादल की जिद पर मुझे पूरी बात बतानी पड़ी। सुनकर वह मुस्कराकर कहा - ''इस पर क्यों आप चिन्तित होते हैं, चाचाजी? मैं परसों तक यह भेद आपको न बता दिया तो मेरा नाम बादल नहीं।'' कहकर वह चंचल के साथ बिना खेले ही चल पड़ा।
फिर तो करिश्मा ही हो गया।
एक दिन बाद सुबह ही चंचल आ पहुँचा और उसके आने के पाँच मिनट बाद कल्लू जी खुद आ धमके। ''अरे ओ पण्डितजी, घर पर हो कि नहीं? हो तो निकलो बाहर झट से अंडे से चूजे की तरह।''
''अरे, कल्लू जी। आप? सुबह सुबह, आइए, बैठिए। बात क्या है?''
''अरे, बात तो तुम्हें बतानी है रे पण्डितजी, सुबह का बुलावा तो भेजा तुम्हीं ने था।''
''मैं...मैंने आपको बुलाया था ...?''
''नहीं तो क्या तुम्हारे भूत ने? अब झट से कुछ 'टको' भी यार, मुझे जल्दी है।''
तभी चंचल ने सामने आकर कहा - ''भूत नहीं चाचाजी, भविष्य ने, यानि कि बेटे ने बुलवाया था आपको बाप ने नहीं।''
''तुमने ... भला क्यों? '' कल्लू जी पहली बार कुछ विस्मित हुए। कल्लू जी चंचल को ही बादल और मेरा बेटा जानते थे।
चंचल ने अपने सुन्दर चेहरे में एक और सुन्दर भाव लाकर कहा - ''माफ कीजिएगा, चाचाजी, कुछ तो घर गृहस्थी मुझे ही देखनी पड़ती है। क्या करूँ मेरी माँ होती तो ... कहते हुए वह रोने लगा।
कल्लू जी एकदम से पिघल गए। बोले -''अरे, दिल छोटा न करो, बेटा, मैं हूँ न तुम्हारे कल्लू चाचा, मैं कब काम आऊँगा भला? देखो ने, सुबह ज्यों ही लल्लू से बुलाने की बात सुनी, दौड़ा चला आया कि नहीं?''
''हाँ, चाचा जी। मेरे पापा तो हैं भी बड़े सीधे और भोले आदमी। लोग उसी का फायदा उठाते रहते हैं नाजायज। लेकर देते समय मुकर जाते हैं।''
''क्या मतलब है तुम्हारा, बेटा, मैं तो कुछ समझा नहीं...।'' कहते हुए कल्लू जी रुक गए। शायद कुछ खतरा भाँपकर।
चंचल कहाँ रुकने वाला था - वह झट से कहा - ''अब क्या आपकी कहूँ मैं चाचाजी? छोटा मुँह, बड़ी बात। अब आप ही देखिए न, कुछ शायद आपके पास भी बनता हो, पापा का पैसा, वह लल्लू के स्कूल में दाखिले के समय ... शायद आठ सौ लगा था, न?'' मुस्कराते हुए चंचल के सुन्दर मुखचन्द्र ने कल्लू जी को बेहद परेशान कर दिया।
''न...न...कौन? किसने कह दिया तुम्हें यह सब फिजूल की बातें? यह क्या हुआ काम तुम्हारा, पण्डितजी? सुबह घर बुलाकर बच्चे से मेरा अपमान करवाते हो इबलिश की तरह।'' कल्लूजी नाराज हो उठे।
राजकुमार जैसी सुन्दर चन्द्रमुख पर चंचल ने विनती का भाव लाकर कहा -''आप नाराज न हो, चाचाजी प्लीज। मुझे माफ कर दें। दरअसल मुझे एक कथा सुनानी थी आज, इसलिए आपको बुलवाना पड़ा था। सो मैं शुरू करता हूँ आपकी इजाजत से। उस दिन शनिवार था, सुनिए पापा आप भी, कल्लू चाचा के पास न एक पैसा था और न किसी से कुछ माँगने की स्थिति में ही थे। कारण आप समझ लीजिए। वे एक चप्पल पहनकर घर से निकल तो लिए लेकिन जाए तो जाए कहाँ? सोच विचारकर वे रामू मोची के घर पहुँचे। वह उनका पुराना मित्र था और घर पर जूते चप्पल नाप लेकर खुद ही बना कर बेचा करता था। कुछ लोग इसे ठीक भी मानते थे क्योंकि जूता बिल्कुल सही नाप का और आरामदायक बना देता था वह। पैसा भी कुछ कम ही लेता था। अब पैसे तो थे नहीं सो कल्लू चाचा ने उनसे एक समझौता करने लगे कि ...।''
''अरे, अरे, रुक जा मेरे बेटे, रुक जा छुक-छुक रेलगाड़ी, यह सब तुम क्या मनगढ़न्त कहानी सुनाए जा रहे हो, भला? आँय, मैं ठहरा व्यस्त आदमी, सुबह-सुबह बैठकर यह सब कहाँ सुन सकता? मैं तो अपने यार पण्डितजी से मिलने आया था, ज+रा काम था।'' कल्लू जी चंचल को टोककर एकदम से खड़े हो गए।
''हाँ भाई पण्डितजी, तुम्हें अपना उधार चुकाने ही तो आया था मैं आज, सो भूल रहा था। यह ...यह लो, गिन लो भाई, मैं चला ... फिर मिलता हूँ ...।'' कहते हुए कल्लूजी उड़न पटाखे की तरह गोल हो गए। मैं हाथ में आठ सौ के करारे नोटों को लेकर चंचल के दूधिया गुलाबी चेहरे को देखता जा रहा था कि दरवाजे पर बादल प्रगट हो गया। वह अन्दर आकर मुझसे लिपट गया खिलखिलाकर हँसते हुए। अब चंचल भी हँस पड़ा। मुझे तो बड़ी हैरानी हो रही थी। नाराज होकर कहा - ''आज इतनी हँसी क्यों छूट रही है तुम्हारी, बादल? किए क्या हो कल्लूजी के साथ दुष्टता, पहले बताओ। नहीं तो वह कसकर गुदगुदी लगाऊँगा तुम्हें कि ...।'' सुनते ही बादल हँसते हुए भाग खड़ा हुआ।
''अरे बाप रे, नहीं चाचाजी। इ पर फिर गुदगुदी। मैं तो मर ही जाऊँगा ... आप अपने इस सुन्दर सलोने भतीजे से ही पूरी बात सुन लीजिए, मैं चला हि..हि..हि।''
मैंने चंचल का हाथ पकड़ कर पास खींच लिया। ÷÷अब बोलो तुम ही कि माँजरा क्या है?''
चंचल ने कहा -÷÷चाचाजी, कल्लू चाचा ने पिछली बार मुझे उल्लू बनाकर रसगुल्ले के पैसे वसूल लिए थे न, इसलिए बादल मुझसे सब कुछ कहलवा रहा था, खुद सामने न आकर। असल में वह है एक नम्बर का जासूस। लल्लू के स्कूल में वह खुद जाकर उससे न जाने कैसे दोस्ती करके रामू मोची तक पहुँच कर सारा भेद मालूम कर लिया था, एक ही दिन में।''
''पर भेद क्या है, यह तो बताओ, चंचल।''
''आप अब भी नहीं समझे चाचाजी?'' रामू मोची से कल्लू चाचा यही समझौता किए थे कि वे उन्हें एक बढ़िया जूता लाकर देंगे। बदले में वह लल्लू के लिए एक जूता बना देगा सस्ता वाला। रामू को तो फायदा ही था। वह तैयार हो गया। फिर क्या था, चप्पल वहीं छोड़कर कल्लू चाचा संकट मोचन मन्दिर चले गए शाम के बाद दर्शन करने। शनिवार वहाँ बहुत भीड़ होती है। सो लौटते वक्त किसी का - नया चमचमाता जूता पहन लेना तो बच्चों का खेल है।
कम से कम पाँच छः सौ के तो थे ही जूते। उसे रामू को देकर चप्पल पहने वे घर आ गए और अगले दिन सुबह लल्लू को साथ ले जाकर उसके पैर का नाप दे आए। फिर क्या था? सोमवार सुबह नए जूते तैयार। अधिक से अधिक दो ढ़ाई सौ के पड़े होंगे। कल्लू चाचाजी की कल तनख्वाह मिली तो लल्लू से बादल ने उनको बुला भेजा और मुझे कथावाचन के लिए भेज दिया। हि..हि.. सुनते ही बेचारे कल्लू चाचा भीगी बिल्ली बनकर .... हि.. हि.. हि।''
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एक दिन शाम को कल्लू जी के सुपुत्र लल्लू स्कूल से घर लौटकर ही ज्यों चीखना चिल्लाना शुरू किया कि घर को सिर पर नहीं आसमान पर ही उठा लिया तो आखिरकार कल्लूजी का ध्यान भंग हो ही गया। वे नाराज तो हुए लेकिन बड़े शान्तभाव से पूछे - ''बेटा, बात क्या है?''
''मेरे जूते और क्या, पापा? मेरे जूते फट गए हैं। आज ही आपको मुझे नए जूते मँगवाकर देने होंगे, पापा, नहीं तो मैं स्कूल जाने से रहा। वहाँ मुझे सब लड़के कंगाल...दरिद्र कहकर चिढ़ाते हैं।''
कल्लू की पत्नी भी बेटे की तरफ हो ली और बैठे ठाले बेचारे कल्लू जी पर आफत ही आ पड़ी महीने की आखिरी के दिनों में। वे मौन हो गए। फिर बोले - ''घबड़ाओ मत बेटे, कल तुम्हें वैसे भी स्कूल नहीं जाना है और ... फिर परसों तक ... कोई न कोई इन्तजाम हो ही जाना है।''
''वह क्यों, पापा? कल मैं स्कूल क्यों नहीं जाऊगा?''
''क्योंकि कल इतवार है, बेटा।''
इससे पहले कि कोई उनसे यह पूछ लेता कि फिर वह छुट्टी के दिन जूते कहाँ से खरीद लाएँगे, कल्लू जी उठे और झट से एक चप्पल पहनकर घर से रफूचक्कर हो लिए।
लेकिन आश्चर्य की बात देखिए कि सोमवार को लल्लू नए चमचमाते जूते पहनकर ही स्कूल गया और माँ, बेटा दोनों खुश। हुई न बात कुछ अजीब सी। गृहस्थी चलानी हो तो ऐसी अनेक कलाकारी दिखानी होती है, लेकिन कल्लू जी के करामात को बिना जाने भला मुझे चैन कहाँ? अगले दिन उनसे पूछ ही लिया पर भला वे कब बताने वाले थे। इधर कई दिनों से वे कुछ नाराज भी चल रहे थे मुझ पर क्योंकि मैंने उनसे उधार के पड़े पैसे लौटाने को जो कह दिया था। मैंने सोचा - ''अब कल्लू जी न बताते हैं तो न सही। मुझे क्या? लेकिन वह क्या है कि एक कहावत है न? ''चिता दहति निर्जीव कँह, चिन्ता जीव समेट'', मेरी भी वही दशा हुई।
दो दिन बाद मेरा भतीजा चंचल अपने तेज तर्रार दोस्त बादल को लेकर घर पर आया तो वह मुझे देखकर भाँप लिया मेरी मनःस्थिति, बादल की जिद पर मुझे पूरी बात बतानी पड़ी। सुनकर वह मुस्कराकर कहा - ''इस पर क्यों आप चिन्तित होते हैं, चाचाजी? मैं परसों तक यह भेद आपको न बता दिया तो मेरा नाम बादल नहीं।'' कहकर वह चंचल के साथ बिना खेले ही चल पड़ा।
फिर तो करिश्मा ही हो गया।
एक दिन बाद सुबह ही चंचल आ पहुँचा और उसके आने के पाँच मिनट बाद कल्लू जी खुद आ धमके। ''अरे ओ पण्डितजी, घर पर हो कि नहीं? हो तो निकलो बाहर झट से अंडे से चूजे की तरह।''
''अरे, कल्लू जी। आप? सुबह सुबह, आइए, बैठिए। बात क्या है?''
''अरे, बात तो तुम्हें बतानी है रे पण्डितजी, सुबह का बुलावा तो भेजा तुम्हीं ने था।''
''मैं...मैंने आपको बुलाया था ...?''
''नहीं तो क्या तुम्हारे भूत ने? अब झट से कुछ 'टको' भी यार, मुझे जल्दी है।''
तभी चंचल ने सामने आकर कहा - ''भूत नहीं चाचाजी, भविष्य ने, यानि कि बेटे ने बुलवाया था आपको बाप ने नहीं।''
''तुमने ... भला क्यों? '' कल्लू जी पहली बार कुछ विस्मित हुए। कल्लू जी चंचल को ही बादल और मेरा बेटा जानते थे।
चंचल ने अपने सुन्दर चेहरे में एक और सुन्दर भाव लाकर कहा - ''माफ कीजिएगा, चाचाजी, कुछ तो घर गृहस्थी मुझे ही देखनी पड़ती है। क्या करूँ मेरी माँ होती तो ... कहते हुए वह रोने लगा।
कल्लू जी एकदम से पिघल गए। बोले -''अरे, दिल छोटा न करो, बेटा, मैं हूँ न तुम्हारे कल्लू चाचा, मैं कब काम आऊँगा भला? देखो ने, सुबह ज्यों ही लल्लू से बुलाने की बात सुनी, दौड़ा चला आया कि नहीं?''
''हाँ, चाचा जी। मेरे पापा तो हैं भी बड़े सीधे और भोले आदमी। लोग उसी का फायदा उठाते रहते हैं नाजायज। लेकर देते समय मुकर जाते हैं।''
''क्या मतलब है तुम्हारा, बेटा, मैं तो कुछ समझा नहीं...।'' कहते हुए कल्लू जी रुक गए। शायद कुछ खतरा भाँपकर।
चंचल कहाँ रुकने वाला था - वह झट से कहा - ''अब क्या आपकी कहूँ मैं चाचाजी? छोटा मुँह, बड़ी बात। अब आप ही देखिए न, कुछ शायद आपके पास भी बनता हो, पापा का पैसा, वह लल्लू के स्कूल में दाखिले के समय ... शायद आठ सौ लगा था, न?'' मुस्कराते हुए चंचल के सुन्दर मुखचन्द्र ने कल्लू जी को बेहद परेशान कर दिया।
''न...न...कौन? किसने कह दिया तुम्हें यह सब फिजूल की बातें? यह क्या हुआ काम तुम्हारा, पण्डितजी? सुबह घर बुलाकर बच्चे से मेरा अपमान करवाते हो इबलिश की तरह।'' कल्लूजी नाराज हो उठे।
राजकुमार जैसी सुन्दर चन्द्रमुख पर चंचल ने विनती का भाव लाकर कहा -''आप नाराज न हो, चाचाजी प्लीज। मुझे माफ कर दें। दरअसल मुझे एक कथा सुनानी थी आज, इसलिए आपको बुलवाना पड़ा था। सो मैं शुरू करता हूँ आपकी इजाजत से। उस दिन शनिवार था, सुनिए पापा आप भी, कल्लू चाचा के पास न एक पैसा था और न किसी से कुछ माँगने की स्थिति में ही थे। कारण आप समझ लीजिए। वे एक चप्पल पहनकर घर से निकल तो लिए लेकिन जाए तो जाए कहाँ? सोच विचारकर वे रामू मोची के घर पहुँचे। वह उनका पुराना मित्र था और घर पर जूते चप्पल नाप लेकर खुद ही बना कर बेचा करता था। कुछ लोग इसे ठीक भी मानते थे क्योंकि जूता बिल्कुल सही नाप का और आरामदायक बना देता था वह। पैसा भी कुछ कम ही लेता था। अब पैसे तो थे नहीं सो कल्लू चाचा ने उनसे एक समझौता करने लगे कि ...।''
''अरे, अरे, रुक जा मेरे बेटे, रुक जा छुक-छुक रेलगाड़ी, यह सब तुम क्या मनगढ़न्त कहानी सुनाए जा रहे हो, भला? आँय, मैं ठहरा व्यस्त आदमी, सुबह-सुबह बैठकर यह सब कहाँ सुन सकता? मैं तो अपने यार पण्डितजी से मिलने आया था, ज+रा काम था।'' कल्लू जी चंचल को टोककर एकदम से खड़े हो गए।
''हाँ भाई पण्डितजी, तुम्हें अपना उधार चुकाने ही तो आया था मैं आज, सो भूल रहा था। यह ...यह लो, गिन लो भाई, मैं चला ... फिर मिलता हूँ ...।'' कहते हुए कल्लूजी उड़न पटाखे की तरह गोल हो गए। मैं हाथ में आठ सौ के करारे नोटों को लेकर चंचल के दूधिया गुलाबी चेहरे को देखता जा रहा था कि दरवाजे पर बादल प्रगट हो गया। वह अन्दर आकर मुझसे लिपट गया खिलखिलाकर हँसते हुए। अब चंचल भी हँस पड़ा। मुझे तो बड़ी हैरानी हो रही थी। नाराज होकर कहा - ''आज इतनी हँसी क्यों छूट रही है तुम्हारी, बादल? किए क्या हो कल्लूजी के साथ दुष्टता, पहले बताओ। नहीं तो वह कसकर गुदगुदी लगाऊँगा तुम्हें कि ...।'' सुनते ही बादल हँसते हुए भाग खड़ा हुआ।
''अरे बाप रे, नहीं चाचाजी। इ पर फिर गुदगुदी। मैं तो मर ही जाऊँगा ... आप अपने इस सुन्दर सलोने भतीजे से ही पूरी बात सुन लीजिए, मैं चला हि..हि..हि।''
मैंने चंचल का हाथ पकड़ कर पास खींच लिया। ÷÷अब बोलो तुम ही कि माँजरा क्या है?''
चंचल ने कहा -÷÷चाचाजी, कल्लू चाचा ने पिछली बार मुझे उल्लू बनाकर रसगुल्ले के पैसे वसूल लिए थे न, इसलिए बादल मुझसे सब कुछ कहलवा रहा था, खुद सामने न आकर। असल में वह है एक नम्बर का जासूस। लल्लू के स्कूल में वह खुद जाकर उससे न जाने कैसे दोस्ती करके रामू मोची तक पहुँच कर सारा भेद मालूम कर लिया था, एक ही दिन में।''
''पर भेद क्या है, यह तो बताओ, चंचल।''
''आप अब भी नहीं समझे चाचाजी?'' रामू मोची से कल्लू चाचा यही समझौता किए थे कि वे उन्हें एक बढ़िया जूता लाकर देंगे। बदले में वह लल्लू के लिए एक जूता बना देगा सस्ता वाला। रामू को तो फायदा ही था। वह तैयार हो गया। फिर क्या था, चप्पल वहीं छोड़कर कल्लू चाचा संकट मोचन मन्दिर चले गए शाम के बाद दर्शन करने। शनिवार वहाँ बहुत भीड़ होती है। सो लौटते वक्त किसी का - नया चमचमाता जूता पहन लेना तो बच्चों का खेल है।
कम से कम पाँच छः सौ के तो थे ही जूते। उसे रामू को देकर चप्पल पहने वे घर आ गए और अगले दिन सुबह लल्लू को साथ ले जाकर उसके पैर का नाप दे आए। फिर क्या था? सोमवार सुबह नए जूते तैयार। अधिक से अधिक दो ढ़ाई सौ के पड़े होंगे। कल्लू चाचाजी की कल तनख्वाह मिली तो लल्लू से बादल ने उनको बुला भेजा और मुझे कथावाचन के लिए भेज दिया। हि..हि.. सुनते ही बेचारे कल्लू चाचा भीगी बिल्ली बनकर .... हि.. हि.. हि।''
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