Skip to main content

रामभरोसे की आत्मकथा

- केवल गोस्वामी
रामभरोसे लाल को जीवन में तीन बार ही लोगों ने शुभकामनाएँ दीं और तीनों बार ही उनके साथ कुछ अशुभ घट गया इसलिए अब शुभकामनाएँ देने वालों से तो उन्हें डर लगने लगा है। नया साल शुरू होने से एक सप्ताह पहले और एक सप्ताह बाद तक वह भूमिगत हो जाते हैं कि शुभकामनाएँ देने वालों से बचा जा सके, किन्तु डाक से शुभकामनाएँ भेजने वालों को क्या कहें? डर के मारे रामभरोसे लाल ऐसे पत्रों को खोलते ही नहीं बिना पढ़े ही उन्हें भेजने वालों को लौटा देते हैं, है तो यह शिष्टाचार के विरूद्ध किन्तु ऐसे शिष्टाचार का वह अचार डालें जिसके कारण हफ्तों तक उनकी जान सांसत में रहे। वह शिष्टाचार और शुभकामनाओं के तीरों से बचने की भरसक कोशिश करते हैं, किन्तु नहीं बच पाते हैं।
हुआ यूं कि पोथी पढ़-पढ़ जग तो नहीं मुआ पर रामभरोसे लाल की आंखों पर वक्त से पहले मोटा चश्मा जरूर चढ़ गया तसल्ली उन्हें इस बात की थी कि उनके नाम से पहले अब लोग डाक्टर शब्द का भी प्रयोग करने लगे थे सुनने में उन्हें अच्छा तो लगता ही था क्योंकि साधारण से असाधारण की ओर संकेत रहता था यह शब्द और असाधारण लोग बहुत ज्यादा नहीं होते संसार में और जो होते हैं उन्हें फूलने का पूरा हक है। लोगों ने शुभकामनाएँ दी - भाई तुम्हारे पिताश्री तो जीवन भर प्राइमरी टीचर ही रहे पर तुमने अपनी मेहनत और लगन से वंश के नाम को चार चांद लगा दिए।
तब पहली बार शायद रामभरोसे लाल को राम को छोड़कर अपने पर भी भरोसा होने लगा था कि हां वह भी तीरंदाजी कर सकता है। मित्रों द्वारा डाक्टर पुकारे जाने पर उसे लगता जैसे उसका कद चार फुट से सवा चार फुट हो गया है। अब उसे आसमान के तारे तोड़ने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी।
ऐसे में कल्पनाओं के घोड़े न दौड़े यह तो हो ही नहीं सकता। वह विश्वविद्यालय के प्रांगण में विचरने लगा। शोध छात्रों द्वारा प्रशंसा किए जाने से वह कुछ-कुछ फूलने लगा। चेहरे पर एक प्रकार की चमक उसके अन्दर आकर्षण पैदा करने लगी। एक खूबसूरत डाक्टरनीनुमा पत्नी का सानिध्य भी वह महसूस करने लगा। किन्तु कल्पना के अड़ियल घोड़े अचानक रूक गए। रामभरोसे लाल को अचानक वास्तविकता का बोध होने से वह पुनः चार फुट का हो गया। आसमान के तारे बहुत दूर नजर आने लगे। इसका दोष भी उसने स्वयं को ही दिया। दरअसल वह अपने को कभी सही ढंग से प्रोजेक्ट वह कर ही नहीं पाया। जैसे किताब कैसे छपनी है कहां से छपनी है, किससे विमोचन कराना है, किससे समीक्षा लिखवानी है, इस जरूरी तैयारी से वह हमेशा बेगाना रहा है, इसीलिए हाशिए पर बैठा वह केन्द्र में खिलाड़ियों को हसरत भरी नजर से देखकर आहें भरता रहा है। इसका नुकसान सिर्फ किसी से नहीं हुआ प्रकाशक को भी अक्सर उसकी पुस्तकें रद्दी के भाव ही बेचनी पड़ी हैं। यहाँ तक कि वह अपनी डाक्टरेट की डिग्री को भी सही तरीके से नहीं भुना पाया और मार्किट में पिदड़ता चला गया।
निराश होकर एक दिन उसने पिताश्री से कहा -"पिताश्री मुझ जैसी संतान के होने से आपका संतानहीन होना कहीं अच्छा था।''
पिता पुराने जमाने के थे जो बात होने से पहले पसीज जाते थे - "धीरज रखो वत्स,'' अतिरिक्त स्नेह से उन्होंने कहा - "प्रभु श्रीराम पर भरोसा रखो, सब ठीक ही होगा।"
"मुझे तो प्रभु श्रीराम पर भरोसा है, किन्तु जब नौकरी की उम्र निकल जाएगी तो प्रभु श्रीराम भी कुछ नहीं कर पाएँगे, तब तो मुझे प्राइमरी टीचर भी कोई नहीं बनाएगा। हाँ, हतभाग।''
"दिल छोटा न करो वत्स!'' पिता ने सोहराब मोदी के अन्दाज में संवाद बोला - "प्राइमरी टीचर तुम जरूर बनोगे।'' कहते हुए पुत्र-प्रेम में उसी क्षण उन्होंने प्राण त्याग दिए। जाहिर है दो महीने के बाद अगर वह प्राण त्यागते तो पुत्र को उनके स्थान पर नौकरी नहीं मिलनी थी। अब सरकार ने अति उदारता का परिचय देते हुए उसे पिता का वह पद दे दिया। उसने कृतज्ञ होकर बैठक में पिता का चित्र टांगा। प्रतिदिन उस पर ताजे फूलों की माला टांगते हुए श्रद्धा के असीम बोझ से वह और भी छोटा दिखाई देने लगता।
दूसरी बार शुभकामनाएँ देने वालों ने उसके घर पर तब धावा बोला जब उसका विवाह एक सुघड़ सयानी प्राइमरी टीचर से हो गया। आज के समय में स्कूल मास्टरों की शादियां होना एक अनहोनी बात है। उसके कई शिक्षक साथियों की बारात इसीलिए लौट गई कि ऐन मौके पर लड़की के मां-बाप को असलियत का पता चल गया और वे बरबाद होने से बच गए। किन्तु रामभरोसे लाल इस मामले में इसलिए भाग्यशाली रहा कि उसके होने वाले ससुर साहब स्वयं अध्यापक थे, उनके सातों पुत्र अध्यापक थे, पुत्रवधुएँ भी टीचर थीं इसलिए उनकी यह साध थी कि उनकी एकमात्र लाड़ली बेटी का वर भी सुयोग्य अध्यापक हो, उनको रामभरोसे लाल में वे सारे गुण नजर आए जो एक आदर्श दामाद में वह देखना चाहते थे। पर उनकी लाड़ली बेटी के सपनों का राजकुमार वह कभी नहीं बन पाया, शादी होनी थी हो गई।
इस पर भी तारीफ श्रीमती रामभरोसे लाल की करनी ही पड़ेगी, उसने दोनों घरों की लाज निभाई। उसके सात भाई थे और रामभरोसे लाल की सात बहनें थी, उसने अकेले ही यह कोटा बड़ी हिम्मत के साथ पूरा किया। कहाँ मिलती है ऐसी संस्कारशील सहयोगी पत्नियाँ जो हर साल गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ पर जाने के बजाए प्रसूति-गृह ले जाएँ।
रामभरोसे लाल वर्षों तक स्कूल में प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों की नाक पोंछते हुए और घर में अपने बच्चों के पोतड़े धोते रहे इधर श्रीमती रामभरोसे अपने भरोसे एक के बाद एक पदोन्नति पाती रही और एक दिन प्राइमरी स्कूल की हैडमिस्ट्रेस बन गई। स्कूल का प्रशासनिक अनुभव घर में भी काम आने लगा। रामभरोसे लाल घर में भी और स्कूल का भी अकुशलता के लिए अभियोग पत्र पाते रहे और शुभकामनाएँ देने वालों की सात पुश्तों को कोसते रहे।
कहावत है बारह वर्ष बाद तो घूरे की भी सुनी जाती है। चूंकि रामभरोसेलाल तनिक बड़ा घूरा था इसलिए उसकी चौबीस वर्ष के बाद सुनी गई। उसकी पदोन्नति उच्चतर माध्यमिक शिक्षक के रूप में हो गई। पहले तो डाक्टर रामभरोसे लाल ने इस खबर को कोरी अफवाह समझा, जैसे उसके पिताश्री ने उसके कहने से अपने प्राण त्याग दिए थे तो उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ था, फिर उसकी शादी की बात पक्की हो गई तो उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ। इस बार भी उसके साथ लगभग ऐसा ही कुछ हुआ, उसे लगा उसके जख्मों पर नमक छिड़कने वाले गिरोह की यह कारस्तानी है, इस भरी दुनिया में उसके सच्चे हमदर्द थे ही कितने? किन्तु जब स्कूल के हैडमास्टर साहब ने प्रार्थना सभा में उसकी विदाई की घोषणा की और उसके गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की जो कि ऐसे अवसरों पर करना जरूरी होती है, नहीं तो जाने वाले की आत्मा प्रेत बनकर भटकती रहती है - तब कहीं जाकर डाक्टर रामभरोसे लाल को विश्वास हुआ कि अब वह प्राइमरी अध्यापक नहीं रहे अब बच्चों के नाक पोंछने से उसे हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई अब वह इस विद्यालय के लिए भूतपूर्व शिक्षक हो चुका था।
नन्हें विद्यार्थियों को भला इस सबसे क्या लेना-देना था उन्हें तो बस इतना ही पता था कि जो अपने कुर्ते की आस्तीन से कक्षा में उनकी नाक पोंछता था और कभी-कभी किसी बच्चे द्वारा कक्षा में छि-छि कर देने पर जमादार की न सुनने की अपेक्षा वह इसे भी साफ कर देता था, वह अब जा रहा है। वे योग-वियोग से परे थे उन्हें विश्वास था कि यदि यह सर चले गए तो कोई दूसरे सर आयेंगे वह भी यही काम किया करेंगे।
मित्रों-सम्बन्धियों ने इस बार फिर शुभकामनाओं का टोकरा पेश किया जिसे डाक्टर रामभरोसे लाल ने अतिशय शालीनता के साथ स्वीकार कर लिया। दावत के बिना प्रमोशन का क्या मतलब? रामभरोसे लाल इसके लिए भी तैयार हो गया। उसने प्रभु श्रीराम को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि रिटायरमेंट से पहले उसे दावत देने का मौका भी मिल गया, नहीं तो जिन्दगी भर वे लोग उसे कोसते रहते जिनसे यह दावत खा चुका था। नरक में जाकर भी उसे यह अनुगूँज सुनाई देती रहती।
एक ही मलाल उसे था कि अगर चार दशकों तक एक ही पद पर कार्य करते हुए वह रिटायर होता तो शायद गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में उसका नाम होता कि हिन्दुस्तान में एक शख्स प्राइमरी टीचर भर्ती हुआ और चालीस साल नौकरी करने के बाद उसी पद पर रिटायर हो गया और हाँ वह अपने को कवि लेखक भी कहता था। किन्तु फिर उसने सोचा प्रभु श्रीराम जो कहते हैं शायद उसी में उसकी भलाई हो, क्या पता गिनीज बुक वाले इस तरह के रिकार्ड को रिकार्ड मानते भी हैं या नहीं।
जिस उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में उसकी नियुक्ति हुई थी उसकी विशाल इमारत के चित्र उसकी कल्पनाओं में उभरने लगे। जिनके लिए उसने जीवन भर ज्ञान अर्जित किया है अब उन्हें सौंपने का उसे सुनहरा अवसर मिल रहा है। सभ्य-सुसंस्कृत छात्र-छात्राओं की जिज्ञासाएँ उसके कानों से अकरा रही थी और वह अभिभूत हो रहा था।
इस विद्यालय के प्राचार्य ने भी उस सुखद परम्परा का पालन करते हुए प्रार्थना सभा में डाक्टर रामभरोसे लाल के गुणों का पिटारा खोल दिया। इससे पहले कि वह स्वयं को सहज-समेट पाता उसे विद्यार्थियों के समुद्र के सम्मुख माइक पर धकेल दिया गया। यह भी परम्परा थी नए आने वाले को अपने बारे में अपने मुखारविंद से बताना पडता था, किन्तु रामभरोसे तो ठंडे पसीने से नहा रहे थे। उसकी टांगे उखड़े हुए पेड़ की तरह कांप रही थी दिल की रफ्तार का कोई अन्दाजा नहीं था, फिर भी डाक्टर रामभरोसे लाल बोले - प्रिय विद्यार्थियों! मैं आपको जीवन के अर्थ समझाने आया हूँ। साहित्य का अर्थ है स+हित। मैं तुम्हारे हितों की रक्षा के लिए आया हूँ।'' इसके बाद उनका गला रूँद्ध गया वह कुछ न बोल सके। ताली बजी के पिटी पर शोर खूब हुआ, होता ही रहा।
अपनी नई कक्षा में प्रवेश करने से पहले रामभरोसे लाल ने एक क्षण को आंखे मूंदी, चप्पल एक ओर उतार कर सच्चे मन से स्वर्गीय पिताश्री का स्मरण किया जिनके महान बलिदान की वजह से वह इस वंशानुगत एकरसता को तोड़ने में सफल हो गया।
ज्योंही पहला कदम कक्षा में धरा कलेजा मुंह को आ गया। एक हट्टा-कट्टा बालक एक स्वस्थ गोरी चिट्टी बालिका के गालों पर भरपूर चिकोटी भर रहा था।
"यह सरकारी स्कूलों की संस्कृति तो नहीं है डाकटर रामभरोसे लाल कहीं गलत स्कूल में तो नहीं आ गए।'' उसके भीतर भ्रांतियां बोलने लगीं।
तभी एक जोर का धमाका हुआ, जैसे कहीं पर विस्फोट हुआ हो? उसे पुनः भ्रम हुआ कहीं वह कश्मीर के किसी स्कूल में तो नहीं आ गया? फिर एक मधुर सीटी की आवाज आई। इतनी बड़ी संख्या में ज्ञान पिपासुओं को देखकर रामभरोसे गद्गद् हो गया।
कक्षा के विद्यार्थियों से पुस्तक मांग कर पढ़ाने को वह अनैतिक कार्य मानता था, इसीलिए उसने अपनी पुस्तक खरीदी थी पाठ को बड़े मनोयोग से तैयार किया था। वह अधीर था जीवन भर के अर्जित ज्ञान को बांटने के लिए। कलेजे के भीतर पनचक्की चल रही थी फिर भी उसने भरसक साहस बटोर कर कहा - "बच्चों पुस्तक निकालो।''
एक भरपूर सामूहिक ठहाका इसके उत्तर में उसे सुनने को मिला, रामभरोसे लाल भौचक्क! वह इस ठहाके के निहितार्थ नहीं समझ पाया। सारा ज्ञान पसीने के साथ जैसे बह गया।
"देखो बच्चो!'' आपात काल में यह उसके धैर्य की परीक्षा थी - "जैसे शस्त्र के बिना योद्धा नहीं सुहाता, वैसे ही पुस्तक के बिना वि+द्यार्थी होने का कोई अर्थ नहीं।''
अभी वह अपनी बात पूरी तरह से कह भी नहीं पाया था कि किसी कोने से एक बेढंगी सी आवाज आई "चाय वाला''। पूरी कक्षा से वह इस गुमराह बच्चों को खोजता कि गीदड़ की हाऊ ...हाऊ... की आवाजें आने लगी, फिर इसी तरह की कई आवाजें! मुहावरा जैसे उलट गया मंगल में जंगल हो गया। भाषा और साहित्य की मधुर सूक्तियाँ एक-एक करके उसके कांपते घुटनों से निकल कर गायब होने लगी, वह हनुमान चालीसा बुदबुदाने लगा।
घंटी बनने पर जैसे ही वह बाहर निकला कि हड़बड़ी में एक अन्य अध्यापक से टकरा गया। उसने छूटते ही उसे शुभकामनाएँ दे डाली और अपने माथे पर बने गूमड़ को दिखाते हुए मुस्करा दिया - "मैंने भी पहले दिन इसी जगह संस्कृत और संस्कृति की चर्चा की थी यह गूमड़ उसी का प्रसाद है ...''।
डाक्टर रामभरोसे लाल को लगा जीवन भर वह मूर्खताएँ करता आया है और अब तो उसने महामूर्खता ही कर डाली। अब भुगतो प्यारे भाई, शुभकामनाओं के तीरों को झेलो और हर पल कहते रहो - "भूत पिशाच निकट नहीं आवैं ....। इतिश्री रामभरोसे जीवन चरित प्रथम अध्याय!

Comments

Popular posts from this blog

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...