- डॉ० नरेश
गौराँ की लाश को दोनों बहुओं ने मिलकर नहला दिया था। उसकी हिदायत के मुताबिक उसी के घाघरे को फाड़कर उसका कफ़न बना दिया गया था और अब उसकी लाश, घर के आँगन के बीचोंबीच पड़ी, अपनी अन्तिम यात्रा पर रवाना होने की प्रतीक्षा कर रही थी। लोग-बाग, रिश्तेदार, जिन-जिनको आना था, आ चुके थे लेकिन गौराँ के दोनों बेटे अन्दर के कमरे में बैठे अभी तक कोई निर्णय नहीं ले पाए थे।
दोनों बेटों को मालूम था कि जिस बात का निर्णय उनको करना है, वह कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है लेकिन इस समय वे दोनों बहुत भावुक हो रहे थे। बड़े वाला चौधरी राम नहीं चाहता था कि माँ की लाश के साथ पंचरत्नों के अलावा किसी अन्य धातु को जलाया जाए लेकिन छोटे वाला सालिगराम अपनी माँ की अन्तिम इच्छा पूरी करने पर बजिद था कि माँ की लाश के साथ ही पुरखों की हवेली की चाबियों का वह गुच्छा भी जलाया जाए, जिसे उनकी माँ दस वर्ष तक अपने कुर्ते की जेब में लिए-लिए फिरती रही थी और जिसके विषय में उसने अपने बेटे को शपथ देकर ताकीद की थी कि इस गुच्छे को उसकी लाश के साथ ही जला दिया जाए।
हुआ यह था कि डोली में बैठकर सालिग के पिता के घर आने के दिन से लेकर पचासी वर्ष की आयु तक गौराँ पुरखों की हवेली में रही थी। उसने उस हवेली के अच्छे-बुरे, सब दिन देखे थे। लम्बी आयु अपने आप में ही एक श्राप होती है इसलिए गौराँ ने अपने रहते पति, देवरों-देवरानियों, ननद-ननदोइयों तक का मरना ही नहीं देखा था, अपने बेटी-दामाद की भयानक मृत्यु का सदमा भी अपनी छाती पर झेला था। उसके मायके में तो एक-एक करके सभी चले गए थे और वह कई साल तक छह महीने में एक बार किसी न किसी मायके वाले की मृत्यु पर छाती पीटने राजगाँव जाती रही थी।
दूसरी पीढ़ी जवान हुई तो गौराँ के दोनों बेटों ने शहर में नौकरी कर ली। गाँव की जमीन आधी-पौनी तो उनके पिता ही बेच गए थे। शेष बची जमीन को वे कुछ साल तो बटाई-चकोते पर देते रहे लेकिन जब कुछ भी हाथ-पल्ले पड़ते न देखा, तो उन्होंने उसे भी बेच डाला। रह गई गाँव की हवेली, तो गौराँ के रहते उसे बेचना मुश्किल ही नहीं, असम्भव था। गौराँ किसी कीमत पर भी उस घर को छोड़ने को तैयार नहीं थी। उसकी एक ही रट थी कि जिस घर में मैं डोली में बैठकर आई हूँ, मेरी अर्थी भी उसी घर से उठेगी। इसी जिद में गौराँ अकेली, निपट अकेली, पुरखों की भीमकाय हवेली में पड़ी रही। उसके दोनों बेटे हर महीने उसे कुछ पैसे भेज देते थे तथा वह जैसे-कैसे दिन काटती रही थी।
दस वर्ष पहले जब उसकी आँखों की पुतलियों पर सफेद चादर सी उतर आई थी और उसके लिए धूप-छाँव के अतिरिक्त किसी दूसरे को पहचानना मुश्किल हो गया था तो सालिगराम उसे, बड़ी मुश्किल से मनाकर, मीरपुर ले आया था। चलते समय माँ-बेटे के बीच यह तय हुआ था कि ऑपरेशन से नजर ठीक होते ही वह उसे गाँव छोड़ जाएगा।
गौराँ ने चलते समय हवेली के सारे कमरे बन्द किए। जिन-जिन कमरों का दरवाजा किसी दूसरे कमरे में खुलता था, उन पर तो उसने मजबूती से साँकल चढ़ा दी लेकिन जिनका दरवाजा आँगन या बरामदे में खुलता था, उन पर उसने ताला डाल दिया। बाहर वाले बड़े दरवाजे समेत कुल मिलाकर आठ ताले डाले गए हवेली पर और आठों तालों की चाबियों को एक रस्सी में पिरोकर गौराँ ने मजबूत गाँठ लगाई और गुच्छे को अपने कुर्ते की जेब में रख लिया।
मीरपुर आकर उसकी आँखों की रोशनी तो थोड़ी बहुत लौट आई लेकिन चौधरी राम के छठे माले वाले फ्लैट का जीना उतरते हुए जो उसका पैर फिसला तो कूल्हे की हड्डी टूट गई। कई महीने तो आधी देह को प्लास्टर में लिए पड़ी रही गौराँ। प्लास्टर खुला तो मालूम पड़ा कि टूटी हुई हड्डी टेढ़ी हो गई है। फिर ऑपरेशन हुआ, फिर प्लास्टर चढ़ा, लेकिन हड्डी को न जुड़ना था, न जुड़ी। चलने-फिरने से लाचार गौराँ को इसलिए सालिगराम के घर भेज दिया गया ताकि वह एक-मंजिले सरकारी मकान में रहता था और उसके घर में एक छोटा-सा आँगन भी था। शाम के समय गौराँ समेत चारपायी उठाकर आँगन में ला दी जाती थी तो पीड़ा भोगने की आदी हो चुकी गौराँ को खुली हवा का आभास-सा हो जाता था।
सालिगराम की पत्नी शहर में ही पली-बढ़ी थी लेकिन उसके संस्कारों पर शहर का रंग नहीं चढ़ा था। अपनी कॉलोनी में लगभग सभी घरों के साथ उसका बोल-वाणी का, चाय-पानी का रिश्ता बना हुआ था। लगभग सभी घरों में उसका आना-जाना था और लगभग सभी घरों की औरतें और बच्चे उसके घर आते-जाते थे। कॉलोनी के बच्चों ने सालिगराम की माँ को दादी कहना शुरू किया तो वह पूरी कॉलोनी की दादी बन गई। अब तो चौधरी राम और सालिगराम की बहुएँ भी उसका जिक्र माँजी के स्थान पर दादी कहकर करने लगी थीं।
आँगन में लेटे-लेटे गौराँ को जब अपनी गाँव वाली हवेली की याद सताती तो वह अपने कुर्ते की जेब में से चाबियों का गुच्छा निकाल लेती और एक-एक चाबी को इस तरह अंगुलियों में घुमाती जैसे माला फेर रही हो। एक शाम जाने उसके मन में क्या आई कि उसने सालिगराम की बहू को आवाज देकर बुलाया और उसे अपने पास बिठाकर समझाने लगी।
''देख बहू! मेरी जिन्दगी का अब कोई भरोसा नहीं है। मैं मर जाऊँ तो तू यह गुच्छा मेरी जेब से निकाल लेना। ठहर, मैं तुझे समझाती हूँ। देख, यह जो चाबी है ना चपटी वाली, यह बाहर वाले बड़े दरवाजे की है। यह पीतल की चाबी मर्दाने की। यह दालान की, यह रसोईघर की। यह सामने वाले कमरे की सालिगराम की बहू ने प्यार से कहा, ''मुझे काहे को समझा रही हो माँजी? अभी तो आपको नीटू का ब्याह करना है। पतोहू आ ले, जब जाने की बात करना।''
''ना, यूँ तो मैं कौन-सा आज ही मरी पड़ी हूँ। पुराना घी खाया हुआ है मेरा। मगर क्या करूँ, इस कूल्हे की हड्डी ने लाचार बना दिया।''
''तो रखिए ना चाबियों का गुच्छा अपने पास।''
गौराँ ने आश्वस्त होकर गुच्छा फिर से जेब में डाल लिया।
शाम गहराई तो गौराँ को हिचकी लग गई। तीन-चार बार पानी पीने से भी हिचकी बन्द न हुई तो गौराँ को लगा कि कहीं यह मौत की हिचकी ही न हो। वह सोचने लगी - बहू को चाबियों का गुच्छा दे भी दूँ तो वह इसका क्या करेगी? गाँव में जाकर तो रहने से रही सालिग की बहू। सालिग ने तो अब मीरपुर के माडल टाउन में अपना मकान भी बनवा लिया है। चौधरी ने भी दो प्लाट खरीद रखे हैं। एक को बेचेगा तो दूसरे पर घर बनवा लेगा। नीटू, विक्की, सोनू, स्वीटी को तो गाँव के नाम से ही घिन आती है। मैं पोते-पोतियों को गाँव की बातें सुनाती थी तो उनको लगता था जैसे मैं चुटकुले सुना रही हूँ। कैसे समझ में आता उनकी कि जब उनके परदादा आँगन के बीचोंबीच चारपायी बिछाकर बैठते थे तो घर की सारी औरतें छुई-मुई होकर कमरों के अन्दर बन्द हो जाती थीं। क्या मजाल किसी की कि झाँक भी ले आँगन में। मेरे पति अपने पिता के लिए हुक्का ताजा करते, चिलम भरकर लाते और तब तक हुक्का गुड़गुड़ाते पिता के पाँव जब तक मैं, गज भर का घूँघट काढ़े, खाने की थाली लेकर वहाँ न पहुँच जाती।
सोचते-सोचते गौराँ की आँखों में अतीत की चमक जाग उठी। उसे लगा जैसे वह वर्षों पीछे लौट गई है। सास के मरने पर हवेली की बड़ी बहू बनकर पूरी हवेली का निरीक्षण कर रही है। पाँचों देवरों में से किसी के कमरे में से हँसी का स्वर ऊँचा होकर आता है तो वह जोर से खखार देती है और देवर जी के कमरे पर चुप्पी छा जाती है। दो कमरे अलग रखे गए हैं ननद-ननदोइयों के लिए। और कोई सगा-सम्बन्धी आ जाए तो उसके लिए भी अलग कमरे का बन्दोस्त हो जाता है।
आँखों में आई अतीत की चमक अचानक मद्धम पड़ने लगती है। सोचती है गौराँ - कौन जाकर रहेगा हवेली में? सालिग? चौधरी? बहुएँ? पोते-पोतियाँ?... ना, ना, ना, कोई नहीं जाएगा रहने पुरखों की उस हवेली में, जो सिर्फ रहने का घर नहीं थी, एक मन्दिर थी संस्कृति का, मर्यादा का। मगर अब जब उस मंदिर के देवी-देवता ही उठ चुके हैं तो वहाँ कोई किसके लिए जाएगा? लेकिन मेरे पुरखों की, पति की, श्वसुर की आत्माएँ तो देखती ही होंगी ऊपर से। शायद कभी-कभार आती भी हों उस हवेली में। उसे याद आया कितनी ही बार उसे किसी न किसी कमरे में कभी पति की, कभी सास की, कभी श्वसुर की तथा कभी देवर-देवरानी की आत्मा के मौजूद होने का आभास हुआ था।
चुप गहरी हो गई गौराँ की। काफी देर विचारशून्य-सी लेटी रही वह। फिर अचानक उसकी आवाज गूँज उठी -
''सालिग।''
''क्या है माँ?'' बगल के कमरे से निकलकर आए सालिगराम ने विनम्रता से पूछा।
''यहाँ बैठ, मेरे पास।''
सालिगराम माँ की चारपायी पर बैठ गया।
गौराँ ने जेब में हाथ डालकर चाबियों का गुच्छा निकाला और बोली,
''हाथ बढ़ा अपना।''
सालिगराम ने हाथ आगे बढ़ा दिया।
लगभग टटोलकर गौराँ ने उसका हाथ पकड़ा और चाबियों का गुच्छा उसकी हथेली पर रख दिया।
''ले बेटा! मेरा तो अब अन्त समय आ गया दीखे है। तुझे मेरी सौगंध यह चाबियों का गुच्छा मेरी देह के साथ जलाना है। ... बोल, जलाएगा ना?''
''माँ! तुम कहीं नहीं जा रही हो अभी। डॉक्टर कहता है, तुम जल्दी ठीक हो जाओगी। फिर हम अपने गाँव चलेंगे। तुम अपने हाथों हवेली के ताले खोलना।''
''वो तो तू छोड़ सालिग। मेरी सौगंध याद रखना, नहीं तो मेरी आत्मा चाबियों के इसी गुच्छे में अटकी रहेगी।''
यह बात कल रात की ही तो है। आज सवेरे दिन निकलते-निकलते गौराँ ने शरीर त्याग दिया।
चाबियों का गुच्छा हाथ में लिए बैठा सालिगराम अपने बड़े भाई चौधरी राम के अनेक प्रश्नों का उत्तर देकर भी उसे इस पर राजी नहीं कर सकता था कि गुच्छे को माँ के मृत शरीर के साथ अग्नि-भेंट कर दिया जाए। आखिरी वार के तौर पर उसने माँ के शब्दों का हथियार उठाया और कहा,
''भैया! माँ की आत्मा इसी गुच्छे में अटकी रहेगी तो उसकी गति कैसे होगी?''
भीग आई पलकों को गमछे से सुखाते हुए चौधरी राम बोला,
''अटकी रहेगी तो और भी अच्छा है सालिग। हम माँ की आत्मा की छाया में पूरे परिवार को लेकर गाँव जाएँगे। हवेली का एक-एक ताला खोलेंगे। अपने बच्चों को उस मिट्टी से परिचित कराएँगे, जिसमें हमारी अपनी जड़ें दबी पड़ी हैं। हो सकता है, हमारे बच्चे उस मिट्टी की थोड़ी-सी सोंधी बास अपने साथ ले आएँ। हो सकता है, किसी पुराने की आत्मा वहाँ मौजूद हो और वे उसका आशीर्वाद भी पा लें। माँ की आत्मा साथ रहेगी तो देखकर सन्तुष्ट भी हो जाएगी। चलो, माँ की तेरहवीं उसकी हवेली में ही करेंगे। पूरा परिवार चलेगा। लाओ, चाबियाँ मुझे दे दो।''
बुझे मन के साथ लेकिन एक झूठी तसल्ली से बहलकर सालिगराम ने चाबियों का गुच्छा बड़े भाई के हवाले कर दिया। वह जानता था कि बच्चों के एक दिन गाँव चले जाने से न तो वे 'हवेली वाले' बन जाएँगे और न गाँव की मिट्टी में उनकी जड़ें ही बन जाएँगी। ... जो इच्छा भगवान् की।
चौधरी राम ने कंधे से पकड़कर सालिगराम को उठाया और दोनों भाई आँगन में आ गए, जहाँ पहले से ही प्रतीक्षारत सगे-संबंधी 'बहुत देर कर दी' का प्रश्न-चिह्न बने उनकी राह देख रहे थे।
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दोनों बेटों को मालूम था कि जिस बात का निर्णय उनको करना है, वह कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है लेकिन इस समय वे दोनों बहुत भावुक हो रहे थे। बड़े वाला चौधरी राम नहीं चाहता था कि माँ की लाश के साथ पंचरत्नों के अलावा किसी अन्य धातु को जलाया जाए लेकिन छोटे वाला सालिगराम अपनी माँ की अन्तिम इच्छा पूरी करने पर बजिद था कि माँ की लाश के साथ ही पुरखों की हवेली की चाबियों का वह गुच्छा भी जलाया जाए, जिसे उनकी माँ दस वर्ष तक अपने कुर्ते की जेब में लिए-लिए फिरती रही थी और जिसके विषय में उसने अपने बेटे को शपथ देकर ताकीद की थी कि इस गुच्छे को उसकी लाश के साथ ही जला दिया जाए।
हुआ यह था कि डोली में बैठकर सालिग के पिता के घर आने के दिन से लेकर पचासी वर्ष की आयु तक गौराँ पुरखों की हवेली में रही थी। उसने उस हवेली के अच्छे-बुरे, सब दिन देखे थे। लम्बी आयु अपने आप में ही एक श्राप होती है इसलिए गौराँ ने अपने रहते पति, देवरों-देवरानियों, ननद-ननदोइयों तक का मरना ही नहीं देखा था, अपने बेटी-दामाद की भयानक मृत्यु का सदमा भी अपनी छाती पर झेला था। उसके मायके में तो एक-एक करके सभी चले गए थे और वह कई साल तक छह महीने में एक बार किसी न किसी मायके वाले की मृत्यु पर छाती पीटने राजगाँव जाती रही थी।
दूसरी पीढ़ी जवान हुई तो गौराँ के दोनों बेटों ने शहर में नौकरी कर ली। गाँव की जमीन आधी-पौनी तो उनके पिता ही बेच गए थे। शेष बची जमीन को वे कुछ साल तो बटाई-चकोते पर देते रहे लेकिन जब कुछ भी हाथ-पल्ले पड़ते न देखा, तो उन्होंने उसे भी बेच डाला। रह गई गाँव की हवेली, तो गौराँ के रहते उसे बेचना मुश्किल ही नहीं, असम्भव था। गौराँ किसी कीमत पर भी उस घर को छोड़ने को तैयार नहीं थी। उसकी एक ही रट थी कि जिस घर में मैं डोली में बैठकर आई हूँ, मेरी अर्थी भी उसी घर से उठेगी। इसी जिद में गौराँ अकेली, निपट अकेली, पुरखों की भीमकाय हवेली में पड़ी रही। उसके दोनों बेटे हर महीने उसे कुछ पैसे भेज देते थे तथा वह जैसे-कैसे दिन काटती रही थी।
दस वर्ष पहले जब उसकी आँखों की पुतलियों पर सफेद चादर सी उतर आई थी और उसके लिए धूप-छाँव के अतिरिक्त किसी दूसरे को पहचानना मुश्किल हो गया था तो सालिगराम उसे, बड़ी मुश्किल से मनाकर, मीरपुर ले आया था। चलते समय माँ-बेटे के बीच यह तय हुआ था कि ऑपरेशन से नजर ठीक होते ही वह उसे गाँव छोड़ जाएगा।
गौराँ ने चलते समय हवेली के सारे कमरे बन्द किए। जिन-जिन कमरों का दरवाजा किसी दूसरे कमरे में खुलता था, उन पर तो उसने मजबूती से साँकल चढ़ा दी लेकिन जिनका दरवाजा आँगन या बरामदे में खुलता था, उन पर उसने ताला डाल दिया। बाहर वाले बड़े दरवाजे समेत कुल मिलाकर आठ ताले डाले गए हवेली पर और आठों तालों की चाबियों को एक रस्सी में पिरोकर गौराँ ने मजबूत गाँठ लगाई और गुच्छे को अपने कुर्ते की जेब में रख लिया।
मीरपुर आकर उसकी आँखों की रोशनी तो थोड़ी बहुत लौट आई लेकिन चौधरी राम के छठे माले वाले फ्लैट का जीना उतरते हुए जो उसका पैर फिसला तो कूल्हे की हड्डी टूट गई। कई महीने तो आधी देह को प्लास्टर में लिए पड़ी रही गौराँ। प्लास्टर खुला तो मालूम पड़ा कि टूटी हुई हड्डी टेढ़ी हो गई है। फिर ऑपरेशन हुआ, फिर प्लास्टर चढ़ा, लेकिन हड्डी को न जुड़ना था, न जुड़ी। चलने-फिरने से लाचार गौराँ को इसलिए सालिगराम के घर भेज दिया गया ताकि वह एक-मंजिले सरकारी मकान में रहता था और उसके घर में एक छोटा-सा आँगन भी था। शाम के समय गौराँ समेत चारपायी उठाकर आँगन में ला दी जाती थी तो पीड़ा भोगने की आदी हो चुकी गौराँ को खुली हवा का आभास-सा हो जाता था।
सालिगराम की पत्नी शहर में ही पली-बढ़ी थी लेकिन उसके संस्कारों पर शहर का रंग नहीं चढ़ा था। अपनी कॉलोनी में लगभग सभी घरों के साथ उसका बोल-वाणी का, चाय-पानी का रिश्ता बना हुआ था। लगभग सभी घरों में उसका आना-जाना था और लगभग सभी घरों की औरतें और बच्चे उसके घर आते-जाते थे। कॉलोनी के बच्चों ने सालिगराम की माँ को दादी कहना शुरू किया तो वह पूरी कॉलोनी की दादी बन गई। अब तो चौधरी राम और सालिगराम की बहुएँ भी उसका जिक्र माँजी के स्थान पर दादी कहकर करने लगी थीं।
आँगन में लेटे-लेटे गौराँ को जब अपनी गाँव वाली हवेली की याद सताती तो वह अपने कुर्ते की जेब में से चाबियों का गुच्छा निकाल लेती और एक-एक चाबी को इस तरह अंगुलियों में घुमाती जैसे माला फेर रही हो। एक शाम जाने उसके मन में क्या आई कि उसने सालिगराम की बहू को आवाज देकर बुलाया और उसे अपने पास बिठाकर समझाने लगी।
''देख बहू! मेरी जिन्दगी का अब कोई भरोसा नहीं है। मैं मर जाऊँ तो तू यह गुच्छा मेरी जेब से निकाल लेना। ठहर, मैं तुझे समझाती हूँ। देख, यह जो चाबी है ना चपटी वाली, यह बाहर वाले बड़े दरवाजे की है। यह पीतल की चाबी मर्दाने की। यह दालान की, यह रसोईघर की। यह सामने वाले कमरे की सालिगराम की बहू ने प्यार से कहा, ''मुझे काहे को समझा रही हो माँजी? अभी तो आपको नीटू का ब्याह करना है। पतोहू आ ले, जब जाने की बात करना।''
''ना, यूँ तो मैं कौन-सा आज ही मरी पड़ी हूँ। पुराना घी खाया हुआ है मेरा। मगर क्या करूँ, इस कूल्हे की हड्डी ने लाचार बना दिया।''
''तो रखिए ना चाबियों का गुच्छा अपने पास।''
गौराँ ने आश्वस्त होकर गुच्छा फिर से जेब में डाल लिया।
शाम गहराई तो गौराँ को हिचकी लग गई। तीन-चार बार पानी पीने से भी हिचकी बन्द न हुई तो गौराँ को लगा कि कहीं यह मौत की हिचकी ही न हो। वह सोचने लगी - बहू को चाबियों का गुच्छा दे भी दूँ तो वह इसका क्या करेगी? गाँव में जाकर तो रहने से रही सालिग की बहू। सालिग ने तो अब मीरपुर के माडल टाउन में अपना मकान भी बनवा लिया है। चौधरी ने भी दो प्लाट खरीद रखे हैं। एक को बेचेगा तो दूसरे पर घर बनवा लेगा। नीटू, विक्की, सोनू, स्वीटी को तो गाँव के नाम से ही घिन आती है। मैं पोते-पोतियों को गाँव की बातें सुनाती थी तो उनको लगता था जैसे मैं चुटकुले सुना रही हूँ। कैसे समझ में आता उनकी कि जब उनके परदादा आँगन के बीचोंबीच चारपायी बिछाकर बैठते थे तो घर की सारी औरतें छुई-मुई होकर कमरों के अन्दर बन्द हो जाती थीं। क्या मजाल किसी की कि झाँक भी ले आँगन में। मेरे पति अपने पिता के लिए हुक्का ताजा करते, चिलम भरकर लाते और तब तक हुक्का गुड़गुड़ाते पिता के पाँव जब तक मैं, गज भर का घूँघट काढ़े, खाने की थाली लेकर वहाँ न पहुँच जाती।
सोचते-सोचते गौराँ की आँखों में अतीत की चमक जाग उठी। उसे लगा जैसे वह वर्षों पीछे लौट गई है। सास के मरने पर हवेली की बड़ी बहू बनकर पूरी हवेली का निरीक्षण कर रही है। पाँचों देवरों में से किसी के कमरे में से हँसी का स्वर ऊँचा होकर आता है तो वह जोर से खखार देती है और देवर जी के कमरे पर चुप्पी छा जाती है। दो कमरे अलग रखे गए हैं ननद-ननदोइयों के लिए। और कोई सगा-सम्बन्धी आ जाए तो उसके लिए भी अलग कमरे का बन्दोस्त हो जाता है।
आँखों में आई अतीत की चमक अचानक मद्धम पड़ने लगती है। सोचती है गौराँ - कौन जाकर रहेगा हवेली में? सालिग? चौधरी? बहुएँ? पोते-पोतियाँ?... ना, ना, ना, कोई नहीं जाएगा रहने पुरखों की उस हवेली में, जो सिर्फ रहने का घर नहीं थी, एक मन्दिर थी संस्कृति का, मर्यादा का। मगर अब जब उस मंदिर के देवी-देवता ही उठ चुके हैं तो वहाँ कोई किसके लिए जाएगा? लेकिन मेरे पुरखों की, पति की, श्वसुर की आत्माएँ तो देखती ही होंगी ऊपर से। शायद कभी-कभार आती भी हों उस हवेली में। उसे याद आया कितनी ही बार उसे किसी न किसी कमरे में कभी पति की, कभी सास की, कभी श्वसुर की तथा कभी देवर-देवरानी की आत्मा के मौजूद होने का आभास हुआ था।
चुप गहरी हो गई गौराँ की। काफी देर विचारशून्य-सी लेटी रही वह। फिर अचानक उसकी आवाज गूँज उठी -
''सालिग।''
''क्या है माँ?'' बगल के कमरे से निकलकर आए सालिगराम ने विनम्रता से पूछा।
''यहाँ बैठ, मेरे पास।''
सालिगराम माँ की चारपायी पर बैठ गया।
गौराँ ने जेब में हाथ डालकर चाबियों का गुच्छा निकाला और बोली,
''हाथ बढ़ा अपना।''
सालिगराम ने हाथ आगे बढ़ा दिया।
लगभग टटोलकर गौराँ ने उसका हाथ पकड़ा और चाबियों का गुच्छा उसकी हथेली पर रख दिया।
''ले बेटा! मेरा तो अब अन्त समय आ गया दीखे है। तुझे मेरी सौगंध यह चाबियों का गुच्छा मेरी देह के साथ जलाना है। ... बोल, जलाएगा ना?''
''माँ! तुम कहीं नहीं जा रही हो अभी। डॉक्टर कहता है, तुम जल्दी ठीक हो जाओगी। फिर हम अपने गाँव चलेंगे। तुम अपने हाथों हवेली के ताले खोलना।''
''वो तो तू छोड़ सालिग। मेरी सौगंध याद रखना, नहीं तो मेरी आत्मा चाबियों के इसी गुच्छे में अटकी रहेगी।''
यह बात कल रात की ही तो है। आज सवेरे दिन निकलते-निकलते गौराँ ने शरीर त्याग दिया।
चाबियों का गुच्छा हाथ में लिए बैठा सालिगराम अपने बड़े भाई चौधरी राम के अनेक प्रश्नों का उत्तर देकर भी उसे इस पर राजी नहीं कर सकता था कि गुच्छे को माँ के मृत शरीर के साथ अग्नि-भेंट कर दिया जाए। आखिरी वार के तौर पर उसने माँ के शब्दों का हथियार उठाया और कहा,
''भैया! माँ की आत्मा इसी गुच्छे में अटकी रहेगी तो उसकी गति कैसे होगी?''
भीग आई पलकों को गमछे से सुखाते हुए चौधरी राम बोला,
''अटकी रहेगी तो और भी अच्छा है सालिग। हम माँ की आत्मा की छाया में पूरे परिवार को लेकर गाँव जाएँगे। हवेली का एक-एक ताला खोलेंगे। अपने बच्चों को उस मिट्टी से परिचित कराएँगे, जिसमें हमारी अपनी जड़ें दबी पड़ी हैं। हो सकता है, हमारे बच्चे उस मिट्टी की थोड़ी-सी सोंधी बास अपने साथ ले आएँ। हो सकता है, किसी पुराने की आत्मा वहाँ मौजूद हो और वे उसका आशीर्वाद भी पा लें। माँ की आत्मा साथ रहेगी तो देखकर सन्तुष्ट भी हो जाएगी। चलो, माँ की तेरहवीं उसकी हवेली में ही करेंगे। पूरा परिवार चलेगा। लाओ, चाबियाँ मुझे दे दो।''
बुझे मन के साथ लेकिन एक झूठी तसल्ली से बहलकर सालिगराम ने चाबियों का गुच्छा बड़े भाई के हवाले कर दिया। वह जानता था कि बच्चों के एक दिन गाँव चले जाने से न तो वे 'हवेली वाले' बन जाएँगे और न गाँव की मिट्टी में उनकी जड़ें ही बन जाएँगी। ... जो इच्छा भगवान् की।
चौधरी राम ने कंधे से पकड़कर सालिगराम को उठाया और दोनों भाई आँगन में आ गए, जहाँ पहले से ही प्रतीक्षारत सगे-संबंधी 'बहुत देर कर दी' का प्रश्न-चिह्न बने उनकी राह देख रहे थे।
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