- डॉ० महेश चन्द्र शर्मा
भारतीय मनीषी आचार्य वामन का मत है कि''गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।'' आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस बात को इस प्रकार कहा है कि ''यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्धों में ही सबसे अधिक सम्भव होता है।''१ आचार्य शुक्ल की यह भी मान्यता है कि ''निबन्ध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तिगत विशेषता हो।'' डॉ० राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी का मत है कि ''निबन्ध एक व्यक्ति प्रधान विधा है। इसमें व्यक्तित्व की छाप सर्वाधिक गहरी होती है।''२
कहा जा सकता है कि निबन्ध एक ऐसी विधा है जिसमें निबन्धकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति सम्पूर्णतः लक्षित होती है। वैसे, यशस्वी साहित्यकार डॉ० नगेन्द्र ने तो ''साहित्य को आत्माभिमान व्यक्ति' ही माना है। पाश्चात्य आलोचक बेकन का मत है कि शैली ही व्यक्तित्व है। जिस लेखक की जैसी लेखन शैली होती है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है।
'निबन्ध' की विधा तथा लेखन शैली के महत्त्व के बारे में कुछ विचारकों के मत दे देने के बाद अब संक्षेप में डॉ० नगेन्द्र का परिचय प्रस्तुत करना संगत रहेगा।
यशस्वी साहित्यकार डॉ० नगेन्द्र नगाइच का जन्म ९ मार्च, सन् १९१५ को अलीगढ़ जनपद (उत्तर प्रदेश) के अतरौली नामक कस्बे में हुआ था तथा २७ अक्तूबर, सन् १९९९ ई. को प्रातः नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका तिरोधान हुआ।
नगेन्द्र जी दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर सेवानिवृत होने के उपरान्त स्वतन्त्र रूप से साहित्य साधना में संलग्न रहते थे। उन्होंने 'एमरिट्स प्रोफेसर' के पद पर भी कार्य किया था। वह आगरा विश्वविद्यालय (अब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय), आगरा से 'रीति काल के संदर्भ में देव का अध्ययन' शीर्षक शोध प्रबन्ध पर शोध उपाधि से अलंकृत हुए थे। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में डॉ० नगेन्द्र को प्राध्यापक, रीडर एवं प्रोफेसर के पदों पर नियुक्ति के समय विशेषज्ञ नियुक्त किया जाता था। अब हमें इनके शैलीकार रूप पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। डॉ० नगेन्द्र ने अपनी प्रखर कलम के द्वारा हिन्दी निबन्ध साहित्य की गरिमा को अद्वितीय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित की है।
डॉ० नगेन्द्र के निबन्धों में वैचारिक औदात्य के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व भी अभिव्यक्ति पा गया है। उनके निबन्धों में हमें एक सहृदय तथा भावुक निबन्धकार के गुण भलीभांति लक्षित होते हैं। कारण यह है कि नगेन्द्र जी का हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश एक कवि के रूप में हुआ था। इनकी प्रतिभा का विकास मूलतः आलोचनात्मक निबन्धकार के रूप में ही हुआ है। हिन्दी के पांक्तेय आलोचक के रूप में नगेन्द्र विशेषतः यशस्वी रहे हैं।
डॉ० नगेन्द्र कृत मेरा व्यवसाय और साहित्य सृजन शीर्षक निबन्ध हमारे इस लेखक की आत्मपरक शैली का प्रतीक है। इस रचना में नगेन्द्र ने अपने आपको अपनी ही दृष्टि से देखा तथा परखा है। यह निबन्ध अध्यापकों-अध्यापिकाओं के लिये विशेषतः उपादेय है। इनकी मान्यता है कि 'अध्यापक वृत्तितः व्याख्याता और विवेकशील होता है। ऊँची श्रेणी के विद्यार्थियों और अनुसन्धाताओं को काव्य का मर्म समझाना उसका व्यावसायिक कर्तव्य व कर्म है।'' उन्होंने यह भी लिखा है कि ''अध्यापन का, विशेषकर उच्च स्तर के अध्यापन का, साहित्य के अन्य अंगों के सृजन से सहज सम्बन्ध न हो, परन्तु आलोचना से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।'' कक्षा के मंच पर अध्यापक किसी साहित्यिक समस्या को लेकर स्वयं निर्णय ले सकें तथा शिक्षार्थी वर्ग की निर्णय शक्ति का विकास कर सकें। यह निश्चय ही अध्यापक के धर्म की परिधि कहलाती है।
डॉ० नगेन्द्र के निबन्धों की भाषा शुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित, व्याकरण सम्मत तथा साहित्यिक खड़ी बोली है। गद्य भाषा की प्रमुख विशेषता यह है कि वह विषयानुरूप अपना स्वरूप बदलती चलती है। निबन्धों में सर्वत्र भाषा का रूप साफ सुथरा, शिष्ट, मधुर एवं समर्थ लक्षित होता है। भारत भूषण अग्रवाल ने 'नये शब्दों के निर्माण की दृष्टि से डॉ० नगेन्द्र का अवदान सर्वोपरि' माना है।
नगेन्द्र जी सामान्यतः गम्भीर तथा चिन्तन-प्रधान निबन्धकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। साहित्यिक आलोचनात्मक निबन्ध लेखन के आधार पर उन्होंने साहित्य की प्रभूत सेवाएँ की है। उनके निबन्धों में विचार-गाम्भीर्य, चिन्तन की मौलिकता तथा शैली की रोचकता का सहज समन्वय लक्षित होता है।
इनकी निबन्ध शैली में भावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की अद्भुत क्षमता लक्षित होती है। उनकी लेखन शैली अंग्रेजी साहित्य से प्रभावित रही है। कारण यह है कि वह अंग्रेजी साहित्य से सम्पूर्णतः प्रभावित प्रेरित होकर हिन्दी साहित्य साधना के मार्ग पर चले हैं।
उनके निबन्ध साहित्य में हमें निम्नस्थ शैलियों का व्यवहार सम्यक् रूपेण लक्षित होता है।
१. विवेचनात्मक शैली : वे मूलतः आलोचनात्मक एवं विचारात्मक निबन्धकार के रूप में समादृत रहे हैं। इस शैली में लेखक तर्कों द्वारा युक्तियों को सुलझाता हुआ चलता है। वह अत्यन्त गम्भीर एवं बौद्धिक विषय को अपनी कुशल विवेचना पद्धति के द्वारा सरल रूप में स्पष्ट कर देता है तथा विवादास्पद विषयों को अत्यन्त बोधगम्य रीति से समझाने की चेष्टा करता है। 'आस्था के चरण' शीर्षक निबन्ध संकलन इस शैली का उदाहरण है।
२. प्रसादात्मक शैली : इस शैली का प्रयोग जागरूक पाठक इनके निबन्ध साहित्य में सर्वत्र देख सकते हैं। इस शैली के द्वारा लेखक ने विषय को सरल तथा बोधगम्य रीति से प्रस्तुत करने का कार्य किया है। हम जानते हैं कि डॉ० नगेन्द्र का मन सम्पूर्णतः प्राध्यापन व्यवसाय में ही रमण करता रहा है। इसीलिए, लिखते समय वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि जो बात वह कह रहे हैं, उसमें कहीं किसी प्रकार की अस्पष्टता न रह जाए।
३. गोष्ठी शैली : 'हिन्दी उपन्यास' नामक निबन्ध में इन्होंने ''गोष्ठी शैली'' का व्यवहार किया है। सच पूछा जाए तो वे अपनी प्रतिभा के बल पर निबन्ध साहित्य में 'गोष्ठी शैली' की सृष्टि करने में सफल रहे हैं।
४. सम्वादात्मक शैली : 'हिन्दी साहित्य में हास्य की कमी' शीर्षक रचना में इस शैली का प्रयोग देखा जा सकता है। इस शैली में जागरूक अध्येताओं को स्पष्टता एवं विवेचना दोनों ही बातें लक्षित हो जाएंगी।
५. पत्रात्मक शैली : 'केशव का आचार्यत्व' नामक रचना में पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि डॉ. विजयेन्द्र स्नातक कृत 'अनुभूति के क्षण' नाम्नी रचना भी सम्पूर्णतः पत्रात्मक शैली की ही निबन्ध रचना है।
६. प्रश्नोत्तर शैली : डॉ० नगेन्द्र के लेखन में 'प्रश्नोत्तर शैली' का सौन्दर्य भी लक्षित हो जाता है। इस शैली में निबन्धकार स्वयं ही प्रश्न करता है तथा उसका उत्तर भी स्वयं ही देता है। डॉ० नगेन्द्र कृत 'साहित्य की समीक्षा' शीर्षक निबन्ध को इस शैली का अन्यतम उदाहरण कहना निरापद है।
७. संस्मरणात्मक शैली : 'अप्रवासी की यात्राएँ' नाम्मी कृति 'यात्रावृत्त' की विधा की एक प्रमुख कृति है। यह रचना डॉ० नगेन्द्र की संस्मरणात्मक शैली के सौन्दर्य का उदाहरण है। 'दद्दा : एक महान व्यक्तित्व' शीर्षक संस्मरणात्मक निबन्ध में हमें इस शैली का व्यवहार लक्षित होता है।
८. आत्मसाक्षात्कार की शैली : 'आलोचक का आत्म विश्लेषण' नाम्नी रचना में डॉ० नगेन्द्र का लेख इस शैली का प्रयोग करता हुआ लक्षित होता है। वस्तुतः निबन्ध की विधा में वे ऐसे शैलीकार के रूप में हमारे सामने आते हैं जो रचना में आद्योपान्त अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए चलते हैं। मेरी निश्चित धारणा है कि आत्म साक्षात्कार की शैली के माध्यम से रचना करना टेढ़ी खीर है। इस रचना की राह से होकर गुजरते हमें लेखक की सफलता की सराहना करने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
यह कहना निरापद है कि डॉ० नगेन्द्र ने निबन्ध लेखन के क्षेत्र में निम्नस्थ चार शैलियों की सृष्टि की है :
१. गोष्ठी शैली
२. सम्वादात्मक शैली
३. प्रश्नोत्तर शैली तथा
४. आत्मसाक्षात्कार की शैली
सच पूछा जाए तो इस बिन्दु पर डॉ० नगेन्द्र का व्यक्तित्व साहित्य के क्षेत्र में 'अनन्वय' का उदाहरण बन गया है।
डॉ० नगेन्द्र के जीवन का मूल लक्ष्य रहा है - अनवरत साहित्य साधना करना। उनके निबन्धों को साहित्य के क्षेत्र में 'कलात्मक रचनाएँ' मान लेना चाहिए। इनके निबन्धों में हमें एक सधे हुए शैलीकार का अभिव्यक्ति कौशल लक्षित होता है। इनके लेखन को यदि हम 'आदर्श गद्य लेखन' कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
सन्दर्भ -
१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, १५ वाँ संस्करण पृ० ४८२।
२. आचार्य शुक्ल और चिन्तामणि, पृ० ६२।
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कहा जा सकता है कि निबन्ध एक ऐसी विधा है जिसमें निबन्धकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति सम्पूर्णतः लक्षित होती है। वैसे, यशस्वी साहित्यकार डॉ० नगेन्द्र ने तो ''साहित्य को आत्माभिमान व्यक्ति' ही माना है। पाश्चात्य आलोचक बेकन का मत है कि शैली ही व्यक्तित्व है। जिस लेखक की जैसी लेखन शैली होती है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है।
'निबन्ध' की विधा तथा लेखन शैली के महत्त्व के बारे में कुछ विचारकों के मत दे देने के बाद अब संक्षेप में डॉ० नगेन्द्र का परिचय प्रस्तुत करना संगत रहेगा।
यशस्वी साहित्यकार डॉ० नगेन्द्र नगाइच का जन्म ९ मार्च, सन् १९१५ को अलीगढ़ जनपद (उत्तर प्रदेश) के अतरौली नामक कस्बे में हुआ था तथा २७ अक्तूबर, सन् १९९९ ई. को प्रातः नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका तिरोधान हुआ।
नगेन्द्र जी दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर सेवानिवृत होने के उपरान्त स्वतन्त्र रूप से साहित्य साधना में संलग्न रहते थे। उन्होंने 'एमरिट्स प्रोफेसर' के पद पर भी कार्य किया था। वह आगरा विश्वविद्यालय (अब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय), आगरा से 'रीति काल के संदर्भ में देव का अध्ययन' शीर्षक शोध प्रबन्ध पर शोध उपाधि से अलंकृत हुए थे। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में डॉ० नगेन्द्र को प्राध्यापक, रीडर एवं प्रोफेसर के पदों पर नियुक्ति के समय विशेषज्ञ नियुक्त किया जाता था। अब हमें इनके शैलीकार रूप पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। डॉ० नगेन्द्र ने अपनी प्रखर कलम के द्वारा हिन्दी निबन्ध साहित्य की गरिमा को अद्वितीय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित की है।
डॉ० नगेन्द्र के निबन्धों में वैचारिक औदात्य के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व भी अभिव्यक्ति पा गया है। उनके निबन्धों में हमें एक सहृदय तथा भावुक निबन्धकार के गुण भलीभांति लक्षित होते हैं। कारण यह है कि नगेन्द्र जी का हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश एक कवि के रूप में हुआ था। इनकी प्रतिभा का विकास मूलतः आलोचनात्मक निबन्धकार के रूप में ही हुआ है। हिन्दी के पांक्तेय आलोचक के रूप में नगेन्द्र विशेषतः यशस्वी रहे हैं।
डॉ० नगेन्द्र कृत मेरा व्यवसाय और साहित्य सृजन शीर्षक निबन्ध हमारे इस लेखक की आत्मपरक शैली का प्रतीक है। इस रचना में नगेन्द्र ने अपने आपको अपनी ही दृष्टि से देखा तथा परखा है। यह निबन्ध अध्यापकों-अध्यापिकाओं के लिये विशेषतः उपादेय है। इनकी मान्यता है कि 'अध्यापक वृत्तितः व्याख्याता और विवेकशील होता है। ऊँची श्रेणी के विद्यार्थियों और अनुसन्धाताओं को काव्य का मर्म समझाना उसका व्यावसायिक कर्तव्य व कर्म है।'' उन्होंने यह भी लिखा है कि ''अध्यापन का, विशेषकर उच्च स्तर के अध्यापन का, साहित्य के अन्य अंगों के सृजन से सहज सम्बन्ध न हो, परन्तु आलोचना से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।'' कक्षा के मंच पर अध्यापक किसी साहित्यिक समस्या को लेकर स्वयं निर्णय ले सकें तथा शिक्षार्थी वर्ग की निर्णय शक्ति का विकास कर सकें। यह निश्चय ही अध्यापक के धर्म की परिधि कहलाती है।
डॉ० नगेन्द्र के निबन्धों की भाषा शुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित, व्याकरण सम्मत तथा साहित्यिक खड़ी बोली है। गद्य भाषा की प्रमुख विशेषता यह है कि वह विषयानुरूप अपना स्वरूप बदलती चलती है। निबन्धों में सर्वत्र भाषा का रूप साफ सुथरा, शिष्ट, मधुर एवं समर्थ लक्षित होता है। भारत भूषण अग्रवाल ने 'नये शब्दों के निर्माण की दृष्टि से डॉ० नगेन्द्र का अवदान सर्वोपरि' माना है।
नगेन्द्र जी सामान्यतः गम्भीर तथा चिन्तन-प्रधान निबन्धकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। साहित्यिक आलोचनात्मक निबन्ध लेखन के आधार पर उन्होंने साहित्य की प्रभूत सेवाएँ की है। उनके निबन्धों में विचार-गाम्भीर्य, चिन्तन की मौलिकता तथा शैली की रोचकता का सहज समन्वय लक्षित होता है।
इनकी निबन्ध शैली में भावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की अद्भुत क्षमता लक्षित होती है। उनकी लेखन शैली अंग्रेजी साहित्य से प्रभावित रही है। कारण यह है कि वह अंग्रेजी साहित्य से सम्पूर्णतः प्रभावित प्रेरित होकर हिन्दी साहित्य साधना के मार्ग पर चले हैं।
उनके निबन्ध साहित्य में हमें निम्नस्थ शैलियों का व्यवहार सम्यक् रूपेण लक्षित होता है।
१. विवेचनात्मक शैली : वे मूलतः आलोचनात्मक एवं विचारात्मक निबन्धकार के रूप में समादृत रहे हैं। इस शैली में लेखक तर्कों द्वारा युक्तियों को सुलझाता हुआ चलता है। वह अत्यन्त गम्भीर एवं बौद्धिक विषय को अपनी कुशल विवेचना पद्धति के द्वारा सरल रूप में स्पष्ट कर देता है तथा विवादास्पद विषयों को अत्यन्त बोधगम्य रीति से समझाने की चेष्टा करता है। 'आस्था के चरण' शीर्षक निबन्ध संकलन इस शैली का उदाहरण है।
२. प्रसादात्मक शैली : इस शैली का प्रयोग जागरूक पाठक इनके निबन्ध साहित्य में सर्वत्र देख सकते हैं। इस शैली के द्वारा लेखक ने विषय को सरल तथा बोधगम्य रीति से प्रस्तुत करने का कार्य किया है। हम जानते हैं कि डॉ० नगेन्द्र का मन सम्पूर्णतः प्राध्यापन व्यवसाय में ही रमण करता रहा है। इसीलिए, लिखते समय वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि जो बात वह कह रहे हैं, उसमें कहीं किसी प्रकार की अस्पष्टता न रह जाए।
३. गोष्ठी शैली : 'हिन्दी उपन्यास' नामक निबन्ध में इन्होंने ''गोष्ठी शैली'' का व्यवहार किया है। सच पूछा जाए तो वे अपनी प्रतिभा के बल पर निबन्ध साहित्य में 'गोष्ठी शैली' की सृष्टि करने में सफल रहे हैं।
४. सम्वादात्मक शैली : 'हिन्दी साहित्य में हास्य की कमी' शीर्षक रचना में इस शैली का प्रयोग देखा जा सकता है। इस शैली में जागरूक अध्येताओं को स्पष्टता एवं विवेचना दोनों ही बातें लक्षित हो जाएंगी।
५. पत्रात्मक शैली : 'केशव का आचार्यत्व' नामक रचना में पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि डॉ. विजयेन्द्र स्नातक कृत 'अनुभूति के क्षण' नाम्नी रचना भी सम्पूर्णतः पत्रात्मक शैली की ही निबन्ध रचना है।
६. प्रश्नोत्तर शैली : डॉ० नगेन्द्र के लेखन में 'प्रश्नोत्तर शैली' का सौन्दर्य भी लक्षित हो जाता है। इस शैली में निबन्धकार स्वयं ही प्रश्न करता है तथा उसका उत्तर भी स्वयं ही देता है। डॉ० नगेन्द्र कृत 'साहित्य की समीक्षा' शीर्षक निबन्ध को इस शैली का अन्यतम उदाहरण कहना निरापद है।
७. संस्मरणात्मक शैली : 'अप्रवासी की यात्राएँ' नाम्मी कृति 'यात्रावृत्त' की विधा की एक प्रमुख कृति है। यह रचना डॉ० नगेन्द्र की संस्मरणात्मक शैली के सौन्दर्य का उदाहरण है। 'दद्दा : एक महान व्यक्तित्व' शीर्षक संस्मरणात्मक निबन्ध में हमें इस शैली का व्यवहार लक्षित होता है।
८. आत्मसाक्षात्कार की शैली : 'आलोचक का आत्म विश्लेषण' नाम्नी रचना में डॉ० नगेन्द्र का लेख इस शैली का प्रयोग करता हुआ लक्षित होता है। वस्तुतः निबन्ध की विधा में वे ऐसे शैलीकार के रूप में हमारे सामने आते हैं जो रचना में आद्योपान्त अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए चलते हैं। मेरी निश्चित धारणा है कि आत्म साक्षात्कार की शैली के माध्यम से रचना करना टेढ़ी खीर है। इस रचना की राह से होकर गुजरते हमें लेखक की सफलता की सराहना करने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
यह कहना निरापद है कि डॉ० नगेन्द्र ने निबन्ध लेखन के क्षेत्र में निम्नस्थ चार शैलियों की सृष्टि की है :
१. गोष्ठी शैली
२. सम्वादात्मक शैली
३. प्रश्नोत्तर शैली तथा
४. आत्मसाक्षात्कार की शैली
सच पूछा जाए तो इस बिन्दु पर डॉ० नगेन्द्र का व्यक्तित्व साहित्य के क्षेत्र में 'अनन्वय' का उदाहरण बन गया है।
डॉ० नगेन्द्र के जीवन का मूल लक्ष्य रहा है - अनवरत साहित्य साधना करना। उनके निबन्धों को साहित्य के क्षेत्र में 'कलात्मक रचनाएँ' मान लेना चाहिए। इनके निबन्धों में हमें एक सधे हुए शैलीकार का अभिव्यक्ति कौशल लक्षित होता है। इनके लेखन को यदि हम 'आदर्श गद्य लेखन' कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
सन्दर्भ -
१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, १५ वाँ संस्करण पृ० ४८२।
२. आचार्य शुक्ल और चिन्तामणि, पृ० ६२।
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