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हिन्दी कथालोचना और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

- मधुरेश
हिन्दी उपन्यास के विकास के साथ ही उसका आलोचना के समानान्तर विकास के संकेत भारतेन्दु काल में ही मिलने लगे थे। उपन्यास के रूप में विकसित कथा-रूप की ओर ही लोगों का ध्यान नहीं गया था, १८८२ में प्रकाशित'परीक्षागुरू' के तत्काल बाद उस पर अनेक दृष्टियों से की जाने वाली प्रतिक्रिया में भी ध्यान खींचती है। लेकिन कुछ तो सुदीर्घ काव्य परम्परा पर ही अपने को मुख्यतः केन्द्रित किये रहने के कारण और कुछ अच्छे उपन्यासों की अल्पता के रहते कथालोचना की इस परम्परा का समुचित विकास नहीं हो सका। इसके बाद द्विवेदी युग में इस दिशा में छिट-पुट प्रयास जारी अवश्य रहे लेकिन महावीर प्रसाद द्विवेदी सहित आत्म आलोचकों की चिन्ता का मुख्य केन्द्र खड़ी बोली काव्य का विकास ही था जो तब तक अपनी सुस्पष्ट पहचान बना रहा था। विरोध और सराहना के दो छोरों के बीच प्रेमचन्द्र ही वस्तुतः पहले लेखक थे जो हिन्दी कथालोचना को एक गंभीर उद्यम के रूप में प्रेरित करते दिखाई देते हैं ।
हिन्दी कथालोचना के इस दौर में जिन लेखकों ने कथा साहित्य के अध्ययन विश्लेषण की गंभीर शुरूआत की वे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और इलाचन्द्र जोशी हैं। इन दोनों ने ही विश्व साहित्य की खिड़की हिन्दी उपन्यास के नये निकले आँगन में खोली। दोनों ने ही विश्व और भारत में मुख्यतः बंगला साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी कथा साहित्य के मूल्यांकन की पहल की। इनमें इलाचन्द्र जोशी अपनी व्यक्तिवादी अहंवृत्ति के कारण कथा साहित्य आस्वादक कम उसके एकांगी आलोचक और दोष-दर्शक ही अधिक बने रहे। शरतचन्द्र पर लिखे गये अपने संस्मरणों में अपने अध्ययन का बखान करते हुए वे शरतचन्द्र पर जिस तरह टिप्पणी करते हैं उससे उनकी इस अहंवृत्ति को समझा जा सकता है। इसके विपरीत पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी बहुत विनम्र भाव से लेखक और रचना तक जाते हैं और आस्वाद को आलोचन के मूल कारक के रूप में रेखांकित करते हैं। जोशी और बख्शी जी की आलोचना दृष्टियों का यह अंतर उनके समूचे आलोचना कर्म का दिशा निर्देशक है। प्रेमचन्द सहित प्रायः सारे लेखकों के प्रति इलाचन्द्र जोशी का रवैया एकांगी और नकारात्मक है जबकि बख्शी जी एकांगिता से बचते हुए भी मूलतः लेखक और रचना के सकारात्मक पक्षों की गंभीर पड़ताल करते हैं। जोशी की तुलना में हिन्दी कथा साहित्य की उनकी आलोचना अधिक व्यापक तो है ही, अधिक तलस्पर्शी और विश्वसनीय भी है।
पदुमलाल बख्शी का जन्म १८९४ में हुआ था और इस तरह वे इलाचन्द्र जोशी से छह वर्ष बडे थे। उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक'हिन्दी कथा-साहित्य' सन्‌ १९५४ में नाथूराम प्रेमी के हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित हुई थी। शरतचन्द्र की अपनी सुप्रसिद्ध जीवनी 'आवारा मसीहा' इन्हीं नाथूराम प्रेमी को समर्पित करते हुए विष्णु प्रभाकर ने उन्हें 'हिन्दी प्रकाशन का भीष्म पितामह' कहकर उन्हें उचित रूप से सम्मानित किया है। वे प्रेमचन्द और जैनेन्द्र के भी आरम्भिक प्रकाशक थे और शरतचन्द्र सहित बंगला कथा-साहित्य के व्यवस्थित और प्रामाणिक प्रकाशन की दृष्टि से उनकी भूमिका को ऐतिहासिक भी माना जा सकता है। अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में इन्हीं नाथूराम प्रेमी ने पदुमलाल बख्शी की 'हिन्दी कथा-साहित्य' को आलोचना की 'पैनी दृष्टि गहन अध्ययन और समन्वय वृत्ति' के कारण अपने क्षेत्र की एक उल्लेखनीय कृति कहकर प्रस्तुत किया है।
पदुमलाल बख्शी की 'हिन्दी कथा-साहित्य' सन्‌ १९५२ में लिखी जाकर १९५४ में प्रकाशित हुई। इसके पूर्व विश्व साहित्य पर लिखकर वे अपनी आलोचना के व्यापक परिप्रेक्ष्य का संकेत दे चुके थे। हिन्दी कथा साहित्य में सम्मिलित कुछ अध्यायों के शीर्षकों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि पुस्तक की प्रकृति और अपेक्षायें क्या हैं । 'भारतीय कथा-साहित्य का विकास', 'आधुनिक कथा-साहित्य का आदिकाल', 'हिन्दी में बंग-भाषा के उपन्यास', 'प्रेमचन्द और सामाजिक समस्या', 'व्यक्ति और समाज', 'आधुनिक कथा-साहित्य में नारी समस्या', 'प्रेम और विवाह की समस्या', 'कल्पना और सत्य', 'ऐतिहासिक उपन्यास', 'उपन्यास का भविष्य' आदि पन्द्रह अध्यायों में पूरी पुस्तक विभाजित है जिनमें अंतिम दो अध्याय - 'हिन्दी की आख्यायें' और 'कहानियों की श्रेष्ठता' - उपन्यास के अतिरिक्त कहानी पर केन्द्रित हैं। इस सामग्री का ऐतिहासिक महत्त्व है क्योंकि जब यह लिखी गयी कहानी पर कुछ पाठ्योपयोगी सामग्री के अतिरिक्त हिन्दी में कुछ नहीं था। कहानी की शास्त्रीय आलोचना की दृष्टि से भी पहली उल्लेखनीय पुस्तक जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की 'कहानी का रचना-विधान' इसके प्रकाशन के कई वर्ष बाद सन्‌ १९५६ में आई।
पदुमलाल बख्शी अपने को आलोचक नहीं मानते और विनम्र भाव से इसे स्वीकार करते हैं कि चूंकि हर पाठक आलोचक होता है और उसे भी किसी श्रेष्ठ रचना के स्तर तक उठने के लिये सर्जनात्मक कल्पना एवं चयन विवेक की आवश्यकता होती है, अभ्यास के परिणाम स्वरूप वह स्वयं भी रचना के गुण-दोषों की मीमांसा की क्षमता अर्जित कर लेता है। उनकी स्पष्ट स्वीकृति हैं, 'मैं कथा-साहित्य का आलोचक नहीं हूँ। आलोचक होने से घबराता भी हूँ' (हिन्दी कथा-साहित्य, संस्करण १९५४, पृ० ४) इसी प्रसंग में वे आगे स्पष्ट करते हैं कि बाल्यकाल से ही उनकी उपन्यास पढ़ने में रूचि थी। आगे चलकर उसका क्षेत्र विस्तार हुआ। बंग-भाषा से हिन्दी में अनुवादित होने वाले उपन्यासों के साथ उन्होंने देवकी नंदन खत्री के उपन्यासों की जादुई दुनिया में अपने को खड़ा पाया। फिर जहाँ एक ओर प्रेमचन्द-प्रसाद और परवर्ती कथा-साहित्य का अभिरूचि पूर्वक व्यवस्थित अध्ययन उन्होंने किया वहीं विदेशी कथा साहित्य में रूसी और फ्रेंच उपन्यासकारों के साथ अंग्रेजी के उपन्यास भी उन्होंने पढ़े । इसे मानने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता कि १८५७ के बाद ब्रिटिश सत्ता की पुनर्स्थापना और महारानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र के बाद, उपन्यास पश्चिम से भारत में आया। यह अकारण नहीं है कि इसके अगले दो दशक भारतीय उपन्यास के विधिवत्‌ उद्भव और विकास के वर्ष हैं। अंग्रेजी भाषा और साहित्य से संपर्क के कारण बंगला में उपन्यास अपेक्षाकृत पहले आया और हिन्दी में उपन्यास के जन्म से पूर्व ही बंगला से अनुवादित उपन्यास हिन्दी में पाठकीय रूचि का नियमन और निर्माण कर चुके थे । पश्चिम में भी शुरू से उपन्यास के प्रति उपेक्षा का भाव था। भारत में शैली, शिल्प में पश्चिमी प्रभाव के बावजूद, भारतीय जीवन और दृष्टि अंकित करने वाले उपन्यास ही महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय हुए । जिस भारतीय आख्यान-परम्परा, 'कादम्बरी' और 'दशकुमार चरित' से कुछ भारत के व्याकुल उत्साही आलोचक उपन्यास से जोड़ने का उपक्रम करते हैं उसके बारे में बख्शी जी का कहना है कि गद्य में होने पर भी वे वस्तुतः कवित्व, कला के चमत्कार के ही उदाहरण हैं। इसी कारण संस्कृत में उन्हें काव्य के अंतर्गत रखा जाकर 'गद्य काव्य' के रूप में उनकी पहचान की गई।
उपन्यास जनता का साहित्य रूप है। जन-जीवन का अंकन ही उसका लक्ष्य है। यथार्थ के नाम पर जीवन की कुंठाओं और वासनाओं को ही उपन्यास की मुख्य कथावस्तु बताये जाने का बख्शी जी विरोध करते हैं। जनता और कला के संबंध पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं, जनता के जीवन से जिस साहित्य का कोई संपर्क नहीं, उसके द्वारा जनता में न सच्ची कर्तव्य शक्ति आ सकती है और न जीवन के प्रति गौरव की कोई कामना उत्पन्न हो सकती है। जो कला जनता के जीवन में नव-प्रेरणा नहीं दे सकती है, वह चिरंतन सौंन्दर्य की निष्प्राण प्रतिभा की तरह व्यर्थ रहती है....' (वही, पृ० ७७) लेकिन जनता के प्रति कला और साहित्य की स्पष्ट प्रतिश्रुति के बावजूद, वे इस पर दुख प्रकट करते हैं कि स्वाधीनता के बाद लोक कल्याण की भावना विभिन्न राजनीतिक वादों में फँसकर क्षतिग्रस्त हुई है। वे मानते हैं कि एक सीमित क्षेत्र में उनका प्रचार परिमित होने के कारण वे बाद में केवल समालोचना के विषय मात्र बनकर रह गये हैं। अपनी धारणा व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं 'अभी कला और साहित्य में उसी एक वाद की आवश्यकता है, जिसमें लोक कल्याण की सच्ची भावना निहित हो । यही कारण है कि हिन्दी के लेखक भी भिन्न-भिन्न वादों के समर्थन या विरोध में अपनी शक्ति का अपव्यय कर रहे हैं। स्वाधीनता के भैरववाद से उनमें जो अंतः प्रेरणा उदित हुई थी, वह अब भिन्न-भिन्न वादों के तर्कजाल में लुप्त हो गई है......' (वही, पृ० १५)
साहित्य के प्रति अपनी इसी विवादयुक्त, आदर्शवादी दृष्टि के कारण पदुमलाल बख्शी समालोचना को सत्‌ साहित्य की समीक्षा के रूप में परिभाषित करते हैं। उसका काम पक्षधरता और मूल्यांकन से अधिक लोकरूचि का निर्माण और परिष्कार है। कृति के आनंदबोध या रसानुभूति पर ही वे कृति का उत्कर्ष निर्भर मानते हैं। आलोचना का काम वस्तुतः पाठक में इसी आनंद बोध का विकास है। वे इस पर क्षोभ व्यक्त करते हैं कि रसबोध की उपेक्षा करके आलोचक मूल्यांकन और निर्णय देने की उतावली से ग्रस्त है। वे लिखते हैं, 'समालोचकों का सबसे पहले कर्तव्य यह हो जाता है कि वे पाठकों के इस आनंद बोध या रसानुभूति को उत्पन्न करें। ऐसा जान पड़ता है कि हिन्दी के अधिकांश समालोचक, परीक्षक या निर्णायक का जितना काम करते हैं, उतना पाठकों की रसानुभूति की वृद्धि के लिये प्रयत्नशील नहीं है । आधुनिक ग्रन्थों का मूल्य निर्दिष्ट करने के प्रयास में वे साहित्य और कला के नये-नये मापदण्ड निर्मित करते हैं। उनमें कला की सूक्ष्म विवेचना रहती है अथवा दार्शनिक तत्त्वों की जटिल व्याख्या की जाती है। उनसे आलोच्य ग्रन्थ के प्रति पाठकों को अनुराग नहीं, विरक्ति हो जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश आलोचक पाठकों के लिये नहीं, समालोच्य ग्रन्थों के लेखकों के लिये ही आलोचनाएँ लिखते हैं ....' (वही, पद्य० ८२)
आलोचना के मानक बहुत सुनिश्चित न होने पर भी उसमें देश और अपने काल की सर्वथा उपेक्षा संभव नहीं है । विद्रोह और तारुण्य को बख्शी जी कला के मुख्य ऊर्जा स्रोत के रूप में रेखांकित करते हुये शरतचन्द्र के एक पत्र का हवाला देते हैं जिसमें वे बढ़ती उम्र के साथ, लेखक के अंदर आलोचक के विकास के कारण, रचनात्मकता में बाधा की आशंका व्यक्त करते है। वे इस ओर भी संकेत करते हैं कि कला और सच्चरित्रता में कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। प्रायः ही उदण्डता और साहस के बीच ही महत्त्वपूर्ण और सार्थक रचना जन्म लेती है। यदि आलोचक इस भ्रम में है कि वह लेखक का निर्माता है तो इससे अधिक हास्यास्पद और कुछ नहीं है। आलोचना किसी लेखक को न लाभ पहुँचाती है, न हानि। इसलिये वे उन लोगो से अपनी अहसमति व्यक्त करते हैं जो मानते रहे हैं कि कीट्स की असामयिक मृत्यु का कारण आलोचकों द्वारा की गयी उसकी भर्त्सना में ढूँढा जाना चाहिए।
पदुमलाल बख्शी पश्चिमी अथवा अपेक्षाकृत समःविकसित भारतीय उपन्यास, विशेषकर बंगला उपन्यास, के डंडे से हिन्दी उपन्यास को पीटने का काम नहीं लेते। वे स्वीकार करते हैं कि क्षेत्र और रचना वस्तु की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास संकुचित और अल्पविकसित है। इसे वे लेखकों के सीमित जीवनानुभव और कल्पना शक्ति का स्वाभाविक परिणाम कहते हैं। इस प्रसंग में टिप्पणी करते हुये वे लिखते हैं, 'ऐसा जान पड़ता है कि प्रेम की उलझन और वासना के स्फोट के अतिरिक्त और कहीं जीवन ही नहीं है...'(वही, पृ०६) वे इस पर खेद व्यक्त करते हैं कि मनुष्य की कल्पना का क्षेत्र अनंत होने पर भी हिन्दी उपन्यास बहुत सीमित क्षेत्र में ही बंद रहा है । इस संदर्भ में पाश्चात्य उपन्यास के वैविध्य और विस्तार का हवाला देते हुए वे हिन्दी लेखकों को अपनी सीमित दुनिया से बाहर निकलने को प्रेरित करते हैं।
लोकप्रियता बनाम कलात्मकता के मुद्दे पर बख्शी जी लोकप्रियता की उपेक्षा नहीं करते। यही कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से भिन्न वे देवकीनंदन खत्री के चमत्कारिक प्रभाव को रेखांकित करते हैं। खत्री जी का निधन सन्‌ १९१३ में हुआ जब वे सिर्फ बावन वर्ष के थे। अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास में शुक्ल जी ने उनकी रचनाओं को साहित्यिक गौरव का अधिकारी नहीं माना था जबकि किशोरी लाल गोस्वामी को थोड़ी किन्तु-परन्तु के बाद वे यह गौरव देने को तैयार थे। पदुमलाल बख्शी की यह पुस्तक देवकी नंदन खत्री के निधन के लगभग चालीस वर्ष बाद प्रकाशित हुई। वे कदाचित्‌ पहले आलोचक हैं जिन्होंने देवकी नंदन खत्री के जादुई और संक्रामक प्रभाव को इतने भारवर रूप में स्वीकार किया है, 'मैं कह नहीं सकता कि आजकल कितने छात्र 'चन्द्रकांता संतति' को अनुराग से पढ़ते हैं। परन्तु मैं तो उसे अपनी छात्रावस्था में पढ़ा करता था। मैं चन्द्रकांता के मायाजगत में खूब घूम चुका हूँ। उसके पहाड़ों और जंगलों में उसके पात्रों के साथ अच्छी तरह भ्रमण कर चुका हूँ। उसका चित्र अभी तक मेरे हृदय में अंकित है।...कभी-कभी स्वप्न में भी उसी जगत के दृश्य देखा करता था। चुनार कहाँ है, गया और रोहतासगढ़ किधर हैं, इनकी भौगोलिक स्थिति और ऐतिहासिक विवरण से मुझे कोई प्रयोजन नहीं था। मैं तो यह स्वीकार कर चुका था कि चुनार से थोड़ी ही दूर लम्बा चौथा घना जंगल है, वह सैकड़ों कोस चला गया है। उसमें बड़े- बड़े पहाड़, घाटियाँ, दर्रे और पहाड़ों पर टूटे-फूटे आलीशान किले हैं,....मैं ऐसे भवनों में रह चुका हू और 'चन्द्रकांता संतति' के पात्रों के साथ उन तरुणियों से भी परिचित हो चुका हूँ जिनकी सौन्दर्य छटा से वे भक्त सदैव प्रदीप्त होते थे। रात के समय में रोहतासगढ़ के जंगलों में घूम चुका हूँ...वे बडे घने थे। उनमें शीशम, साखू, साल आदि बड़े-बडे पेड़ों की घनी छाया से दिन में भी अंधकार रहता था, रात की तो बात ही दूसरी थी...मैं विचित्र सुरंगों के भीतर प्रविष्ट हो चुका हूँ और तिलिस्म के भीतर जा चुका हूँ और उसे तोड़ चुका हूँ।.....(वही, पृ० ३३/३४) थोड़ा लम्बा होने पर भी यह उदाहरण बख्शी जी उस आलोचना दृष्टि का प्रतिनिधित्व उदाहरण है जिसे वे रचना के आस्वाद और रस बोध के रूप में आलोचना का मुख्य प्रकार्य स्वीकार करते हैं। देवकी नंदन खत्री के प्रसंग में, इस आलोचना दृष्टि का महत्त्व इसलिये भी ऐतिहासिक है क्योंकि वह कदाचित्‌ पहली बार उनके महत्त्व को इतने निभ्रान्त और सटीक रूप से रेखांकित करती है। इसके सात वर्ष बाद, सन्‌ १९६१ में देवकी नंदन खत्री के शताब्दी वर्ष में, गिरीशचन्द्र त्रिपाठी के संपादन में जो 'देवकी नंदन खत्री स्मृति ग्रन्थ' प्रकाशित हुआ उस पर इस आलोचना दृष्टि का प्रभाव खूब स्पष्ट है।
प्रेमचन्द का महत्त्व यह है कि उन्होंने कल्पना के तिलस्म को ग्राम-ग्राम, घर-घर में प्रेम, स्नेह और व्यंग के वास्तविक तिलस्म में बदल दिया। उनका रचना पटल बहुत विस्तृत है जिसमें भारतीय जीवन का कोई भी अंश छूटा नहीं है। बख्शी प्रेमचन्द के ÷कथारस' की प्रशंसा करते हैं जिसके कारण उनके उपन्यासों में गजब की पठनीयता थी जो पाठक को रसविभोर और तन्मय कर देती है। वे लिखते है, 'उन्होंने चरित्रगत विशेषता को परिस्फुट करने के लिये विभिन्न भावों के घात-प्रतिघात के साथ जीवन की घटनाओं का ऐसा अच्छा मेल कराया है कि यह नहीं जान पड़ता कि उनके उपन्यासों में घटना प्रधान है या चरित्र (वही, पृ० ७४) प्रेमचन्द की चमत्कारिक सफलता का रहस्य यह है कि उनके पात्र हमारे समाज के ही व्यक्ति हैं, उनकी कथाओं में हमारे ही घरों के चित्र अंकित हुए हैं और उनकी समस्यायें हमारी ही अपनी हैं। लेकिन प्रेमचन्द के उपन्यासों में पात्रों द्वारा आत्महत्या की बढ़ी हुई प्रवृत्ति की वे तीखी आलोचना करते हैं और 'प्रेमाश्रम' में अंकित तांत्रिक क्रिया-कलापों के विरूद्व अपनी विरक्ति का उल्लेख करते हुए उसकी भर्त्सना करते हैं।
व्यक्ति को समाज की एक इकाई मानकर पदुमलाल बख्शी व्यक्ति के माध्यम से समाज के प्रतिनिधित्व पर बल देते हैं। प्रसाद के उपन्यासों की नन्द दुलारे वाजपेयी की तत्संबंधी स्थापनाओं के विरोध में जाकर, वे इसीलिये आलोचना करते हैं कि उनके पात्र व्यक्ति ही रह जाते हैं, किसी स्तर पर वे समाज के प्रतिनिधि चरित्र नहीं बन पाते। इसी कारण जयशंकर प्रसाद के उपन्यास उन्हें किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यासों के आधुनिक संस्करण लगते हैं। बख्शी जी उग्र और जैनेन्द्र को आमने-सामने रखकर देखते हैं। उग्र बल यथार्थ को बहुत बेधक और भंडाफोड़ शैली में उद्घाटित करते हैं लेकिन उनके उपन्यासों में 'रिसरेक्शन', 'क्राइम एण्ड पनिशमेंट' और 'लेमिजरेबिल' की तरह परिस्थितियों के भीतर मनुष्य के आंतरिक गौरव का परिस्फुटन नहीं होता। इसके विपरीत जैनेन्द्र केवल अंतर्जगत के लेखक हैं। उनके पात्रों की असाधारणता उनके भाव जगत में लक्षित होती है। उनके पात्र सोचने को विवश करते हैं। वे जैनेन्द्र के उपन्यासों के दोहरे पाठक की सिफारिश करते हैं - उनमें हम पहली बार कथा पढ़ते हैं और दूसरी बार चरित्र।
आधुनिक कथा साहित्य में नारी की मूल समस्या तब तक विवाह और प्रेम से संबंधित थी। तब से अब तक इस दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन किया है। बख्शी जी मानते हैं कि स्त्री के प्रेम त्रिकोण की समस्या प्रधानतः पुरूषों की अपनी भावनाओं का ही आरोपण है। इससे विवाह परिवार और दाम्पत्य जैसी संस्थाएँ बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। इस संदर्भ में वे कला और नीति का सवाल भी उठाते हैं। आज बहुतों को उनके विचार प्रतिगामी लग सकते हैं लेकिन इसे भूलना गलत निष्कर्मों की ओर ले जा सकता है कि वे उपन्यास को लोक शिक्षा के प्रसार का एक प्रभावी कारक माने जाने पर बल देते हैं । अज्ञेय के शेखर में विद्रोह की भावना और महत्त्व की आकांक्षा पर वे संतोष व्यक्त करते हैं। उसमें कामुकता की हीनता को वे अस्वीकार करते हैं। लेकिन उसी के अनुकरण पर भगवती प्रसाद वाजपेयी के 'चलते-चलते' के नामक राजेन्द्र मा. सेठ गोविन्द दास के 'इन्दुमती' की नायिका के संदर्भ में वे व्यक्ति की आंतरिक गरिमा का सवाल फिर उठाते हैं। मध्यकालीन रोमांसों में प्रायः ही एक दैत्य की कल्पना मिलती है जिससे नायिका को मुक्त कराकर नायक, अपने साहस और धैर्य को प्रमाणित करते हुए, नायिका का वरण करता था। बख्शी जी इस पर शोक प्रकट करते हैं कि आज के अनेक त्रिकोणात्मक उपन्यासों के पति को इसी 'दैत्य' के रूप में देखा जाता है। प्रेमी नामक अपनी नायिका को उससे मुक्त कराकर स्वच्छंदता और दायित्व हीनता के लिये रास्ता साफ करता है। इससे दाम्पत्य और वैवाहिक जीवन अप्रभावित नहीं रहता। प्रेम की समस्या को वे पितृ सत्ता की वर्जना और निषेधवादी सामाजिक व्यवस्था से जोड़कर देखने की कोई कोशिश नहीं करते।
कवि रघुवीर सहाय की इस बात से बख्शी जी सहमत दिखाई देते हैं कि जहाँ ज्यादा कला होती है वहाँ सच नहीं होता। उपन्यास को वे जीवन के सम्पूर्ण साक्षात्कार के ही रूप में देखते हैं जिसमें एक ओर यदि व्यक्ति और समाज के बीच संतुलन अपेक्षित है वहीं कला और जीवन के बीच भी। इस संदर्भ में वे स्वयं बहुत स्पष्ट है, 'सच्चे भाव की सच्ची अभिव्यक्ति ही साहित्य में सच्ची कला का निर्माण करती है। जीवन में जो सत्य है, वही कला में सौन्दर्य की प्रतिष्ठा करता है। जीवन में बिल्कुल पृथक कर देने से कला में जो सौन्दर्य निर्मित किया जाता है, वह निष्प्राण हो जाता है। तभी कला में कृत्रिमता का विशेष समावेश होता है। जीवन से संबंध होने पर कला की सदैव उपयोगिता बनी रहती है....' (वही, पृ० १२९) उपन्यास में यथार्थ का निषेध करके जो कालातीत कला दृष्टि की बात करते हैं उनकी अपेक्षा बख्शी जी का कला चिन्तन आज भी प्रासंगिक है।
पदुमलाल बख्शी ऐतिहासिक उपन्यास की महत्ता नव जागरण के संदर्भ में देखते हैं क्योंकि उसमें अतीत गौरव की प्रत्यक्षता सुकर और सुलभ होती है। वहाँ व्यक्ति की अपेक्षा राष्ट्र महत्त्वपूर्ण होता है। ऐतिहासिक उपन्यास में वे काल चित्रण को विशेष महत्त्व देते हैं। वहाँ युगीन परिस्थितियों के संघात से ही चरित्र विकसित होते हैं। स्कॉट, ड्यूमा, ह्यूगो और डिकैंस सभी के उपन्यासों की यही विशेषता है। बंकिमचन्द्र के संदर्भ में उनकी टिप्पणी है, ÷बंकिम बाबू के ऐतिहासिक उपन्यासों के सभी कल्पित पात्रों के व्यक्तित्व में इतना अधिक आकर्षण है, मानो उन्हीं में उनके युग की सच्ची आत्मा विद्यमान है....' (वही, पृ० २२८) लेखक केवल अतीत को प्रत्यक्ष ही नहीं करता, वह समकालीन अनुभूति की व्याख्या भी करता है। ऐतिहासिक उपन्यास की यात्रा वर्तमान से अतीत की ओर होती है। लेकिन उससे लेखक को यह छूट नहीं होती कि वह अपने वर्तमान को अतीत पर साँट दे। वृन्दावन लाल वर्मा के 'गढ़ कुण्डार' और 'मृगनयनी' जैसे व्यापक रूप से स्वीकृत और प्रतिष्ठित उपन्यासों की वे इसलिये आलोचना करते हैं कि उनमें अंतर्जातीय प्रेम प्रसंगों और प्रायः ही विवाह में उनकी परिणति अपने युग के आरोपण के उदाहरण ही अधिक हैं। आधुनिक समस्याओं के प्रति सुधारवादी दृष्टि के उत्साह में जैसे अंतर्जातीय विवाह और पर्दा-प्रथा, वे मध्ययुगीन यथार्थ की अनदेखी करते हैं लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस संदर्भ में वे कुछ गिने चुने उपन्यासों की ही चर्चा करते हैं । हजारी प्रसाद द्विवेदी का 'बाण भट्ट की आत्मकथा' सन्‌ १९४६ में ही हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से छपा था जिसका कोई उल्लेख तक नहीं है। इसके अतिरिक्त राहुल सांकृत्यान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रचनाओं के अतिरिक्त रांगेय राघव का 'मुर्दों का टीला' सन्‌ ४८ में अपने प्रकाशन के बाद से ही एक उल्लेखनीय उपन्यास माना जाता रहा है। लेकिन बख्शी जी इनकी कोई चर्चा नहीं करते।
पश्चिम में काफी समय से जब-तब उपन्यास की मृत्यु की घोषणा की जाती रही है। उसी तर्ज पर अब हिन्दी में भी कुछ आलोचक उपन्यास के पुनर्जन्म की बात करने लगे है क्योंकि पुनर्जन्म का सिद्धान्त है तो आखिर भारत की ही देन! पदुमलाल बख्शी उपन्यास की मृत्यु की की नहीं, भविष्य की बात करते हैं । कविता के हृास को वे जीवन में उदान्त के क्षरण से जोड़कर देखते हैं। राल्फ फॉक्स ने कभी उपन्यास को 'मध्यवर्ग का गद्य में लिखा गया महाकाव्य' कहकर परिभाषित किया था। उस मध्य वर्ग का निरन्तर बढ़ता हुआ दायरा ही वस्तुतः उपन्यास के भविष्य का संकेत है । युग के साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं लेकिन कथा साहित्य किसी न किसी रूप में सभी युगों में और सब कहीं लोकप्रिय और लोक शिक्षा का माध्यम रहा है। बख्शी जी मानते हैं कि 'अंकिल टाम्स केबिन', 'वाटर बेबी' और 'ब्लैक ब्यूटी' जैसे उपन्यास अपने युग की समस्याओं, दास-प्रथा, बालश्रम और पशुओं के प्रति घोर संवेदनहीनता के कारण तो तीव्र प्रतिरोध की भूमिका निभाते ही हैं, उन्होंने अपने देश की सरकार को इन सम्बद्ध क्षेत्रों में सुधार के लिये प्रेरित किया लेकिन ये उपन्यास आज भी पढ़े जाते हैं । कथा रस और यात्रों की सजीव उपस्थिति ये दो ऐसे तत्त्व हैं जो उपन्यास के भविष्य सुरक्षित करते हैं। उपन्यासकार अपनी रचना में कल्पना का मायालोक खड़ा करता है, लेकिन वह 'मायालोक' ऊल-जुलूल, निरर्थक और मानवीय संवेदना से शून्य नहीं होता। उस मायालोक में लेखक के अपने जीवनानुभव का आत्मीय और संवेदनशील संस्पर्श एक ऐसे रसायन का काम करता है जो जीवन के प्रति पाठक की समझ भी बढ़ाता है और प्यार भी। जब तक उपन्यास पात्रों के एक जीवित संसार की सृष्टि करने में सफल होता है उसका भविष्य सुरक्षित है। उपन्यास का पाठक उपन्यास में अपने मत के सच्चे मनुष्य की खोज करता है। उसकी रुचि जीवन की वास्तविकता और उसकी समस्याओं में उतनी नहीं होती। इसलिये उपन्यास में कल्पना की एक विशिष्ट भूमि होती है। लेकिन वह कल्पना पाठक के अपने परिवेश, भावलोक और सपनों के संदर्भ में ही सार्थक होती है। विभिन्न वादों और राजनैतिक सामाजिक आंदोलनों के प्रभाव में उपन्यास के प्रचार की बढ़ी हुई भूमिका को बख्शी जी किंचित असंतोष और चिन्ता की दृष्टि देखते हैं। आनंद और उल्लास को वे जीवन का अनिवार्य घटक मानते हैं और चूंकि उपन्यास जीवन से सीधे जुडा साहित्य रूप है उसमें भी इन विधायक तत्त्वों की नियामक भूमिका होती है। इस संदर्भ में उनकी निष्कर्षात्मक टिप्पणी है, यथार्थवाद के आधार पर यदि जीवन की सच्ची समीक्षा होगी तो उससे जीवन का सच्चा गौरव प्रकट होगा और तब नव आदर्श की भी प्रतिष्ठा होगी । उपन्यासकारों के लिये जो काम सबसे अधिक स्पृहणीय हो सकता है, यह प्रचार का नहीं, निर्माण का ही हो सकता है। वे ऐसे चरित्रों का निर्माण करें जिनमें पाठकों को चिरंतन स्फूर्ति, आनंद, उत्साह और दीप्ति की प्रेरणा हो....(वही, पृ० २५०) उपन्यास के भविष्य की यह प्रकृति और उससे जुड़ी बख्शी जी की चिंताएँ सद्यः स्वाधीन राष्ट्र के सपनों और विकास के संदर्भ में विशेष महत्त्व रखती है। सन्‌ ५४ में ही धर्मवीर भारती और उनके सहयोगियों के सम्पादन में आलोचना का उपन्यास विशेषांक प्रकाशित किया था। उसमें प्रो. ज्योति स्वरूप सक्सेना का भी एक निबंध 'उपन्यास का भविष्य' शीर्षक से छपा था। वह शीतयुद्ध का दौर था और विश्व राजनीति दो स्पष्ट और सुपरिभाषित विचार सारणियों में बंटी थी। वे उपन्यास के लिये सबसे बड़ा खतरा सांस्कृतिक और व्यावसायिक तानाशाही के रूप में देखते हैं, 'सांस्कृतिक तानाशाही सुसंगठित अथवा व्यावसायिक संस्कृतियों में उभरकर आने वाली प्रकृति है। अतः तानाशाही प्रवृत्ति का खतरा संसार व्यापी खतरा है और उपन्यास के लिये यह खतरा अतिविकसित व्यावसायिक संस्कृति में भी है और अति संगठित सामूहिक संस्कृति में भी ...' (आलोचना, अक्टूबर ५४, पृ. २३६) तब के मुकाबले आज यह संकट भी अधिक गंभीर और सघन रूप से उपस्थित है।
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की हिन्दी कथा साहित्य अलग-अलग उपन्यासों की पाठ केन्द्रित आलोचना का उदाहरण नही है जैसी इसका प्रायः एक दशक बाद नेमिचन्द्र जैन, के 'अधूरे साक्षात्कार' में मिलती है। लेकिन जीवन से साक्षात्कार का उसका निष्कर्ष और मुहावरा लगभग वे ही हैं । चर्चित उपन्यासों के प्रति व्यक्त किये गये असंतोष के कारण भी बहुत भिन्न नहीं हैं । सातवें दशक में हिन्दी उपन्यास पर दो महत्त्वपूर्ण कार्य हुए जिनका उल्लेख भी किया जाता रहा है। स्वतंत्र आलोचना के रूप में यह काम अधूरे साक्षात्कार में नेमिचन्द्र जैन ने किया और शोध के ढांचे में हिन्दी उपन्यास पर पाश्चात प्रभाव में भारत भूषण अग्रवाल ने किया। यह मानने को मन नहीं होता कि इन दोनों ने ही पदुमलाल बख्शी की इस पुस्तक से कहीं कोई लाभ नहीं उठाया। लेकिन वे दोनो ही ने दुर्भाग्य से कहीं उसका कोई उल्लेख नहीं किया। लेखकों के जीवन प्रसंगों से जुडी आलोचना की जीवंत शैली और पठनीयता, एवं संप्रेषणीयता की दृष्टि से पारदर्शी आलोचना, भाषा बख्शी जी की कथालोचना की ऐसी विशेषताऐं हैं जो लगभग पचास वर्ष बाद भी उन्हें इतिहास के खाते में डालने से बचाती हैं। आलोचना की व्यस्कता का यदि एक प्रमाण यह भी है कि अपने अंग्रेजों के हाय को उदार भाव से स्वीकारते हुए हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें तो हिन्दी कथालोचना को अपनी वयस्कता के लिये अभी कुछ और प्रतीक्षा करनी है।


Comments

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