Skip to main content

सबकी खुशी

- डॉ० प्रेम कुमार
जीवितों को दिवंगतों से महान सिद्ध करने के लिए तब शहरों, सड़कों, इमारतों, स्कूलों-अस्पतालों के नाम जिंदों के नाम पर रखे जाने लगे थे। जिंदों के बुत लगाने का चलन जोरों पर था। जीवित पशुओं, पक्षियों के मठ-मंदिर, मजार खूब लोकप्रिय और पूज्य हो रहे थे। आदमी तो आदमी, पशु-पक्षियों तक को मृत-पुरातन से चिढ़ हो चली थी। पशु-पक्षी मृतकों का माँस खाने से बचने लगे थे। हालात इतने बेकाबू हो गए कि बिजली-पानी, अन्याय-अपराध जैसी हर इल्लत-किल्लत पर हाथ धरे चुप बैठा रहने वाला आदमी भी बैचेन हो उठा। हर गली, गाँव, शहर चील-गिद्धों की कम होती संख्या पर लोग चीखने-चिल्लाने लगे। लोगों को हक, स्वतंत्रता और भविष्य की चिंता ने इतना झकझोरा कि वे अपने-अपने समूहों व जातियों की जोड़-बटोर में जुट गए। लाठियों को तेल पिलाया जाने लगा, त्रिशूल-तीर बँटने लगे, तलवारें माँजी-भाँजी जाने लगीं।
उसके पास इजिप्टियन गिद्ध जैसा दिमाग था। शुतुरमुर्गों के अण्डों को तोड़कर खाने का शौकीन वह, पंजों या चोंच से अंडे के कवच को न तोड़ पाने की स्थिति में पत्थरों से हथियार का काम लेने में माहिर था। अपनी बुद्धि, युक्ति और कौशल के बल पर ही वह बिरादरी का राजा बना था। अपनी अद्वितीयता का प्रदर्शन वह प्रायः करता रहता था। वह केवल अपनी स्पातभेदी चोंच, आकाशमापी उड़ान या ब्रह्माण्ड दृष्टि के कारण ही राजा नहीं बन गया था। न इसलिए कि उसके पास अन्न के कईं बड़े-बड़े भंडार थे। राजा होने का बड़ा कारण शायद यह भी था कि वह जब, जहाँ चाहे पूरी बिरादरी के भोज इंतजाम करा देता। अक्सर भंडारा शुरू करा देता था। हर भंडारे में ताजे से ताजा रक्त, मुलायम से मुलायम गोश्त और कोमलतम, सुंदरतम जिस्म! मुर्दा नहीं, हँसता-बोलता, खेलता जिंदा जिस्म!
उसके दिमाग की प्रयोगशाला में मारक-भयानक विष-निर्माण की प्रक्रिया बिना रुके सदैव चलती रहती। किस्म-किस्म के विषों के प्रचार-प्रसार की उसकी एक खास व्यवस्था थी और उनके उपयोग को प्रेरित-उत्साहित करने वाला एक विशेष तंत्र। दुनिया भर के श्रेष्ठ मस्तिष्क उसके संस्थानों में प्रबंधन की जिम्मेदारी निभा रहे थे। ये प्रबंधक यदा-कदा जब अपने गाँव-देहात जाते, तो उनके दोस्तों-रिश्तेदारों की आँखें फटी-सी, टकटकी लगाए देखती रह जातीं। प्रबंधकों से सुखों-सुविधाओं की बातें सुनते-सुनते वे अपने कुल, खानदान, घर-गाँव, देश, काम-धंधे और भाग्य को कोसने लगते। उस खाद्य सामग्री, जिसके सहारे वे अपने बाल-बच्चों को पाल रहे थे, की सड़न-गलन-दुर्गंध का ध्यान कर उनकी आँखें नम हो जातीं। आवाज+ दीन होकर काँपने लगती। सहमे-सकुचाए वे अपने नारकीय जीवन से मुक्ति दिलाने की याचना अंत में जरूर कर देते। अपने भाग्य पर इतराते-इठलाते प्रबंधक राजा के पास लौटने पर बिरादरों के दुर्भाग्य और अपने सौभाग्य की चर्चाएँ कई-कई दिन तक करते रहते।
अपने प्रबंधकों के अनुभव और चर्चाएँ सुनते-सुनते राजा को एक दिन अचानक जैसे इल्हाम हुआ। अगले दिन सबने जाना कि राजा के द्वारा भविष्य में हर महीने कराए जाने वाले भंडारों का एक कार्यक्रम घोषित हुआ है। दुनिया भर में फैले अपने बिरादरों को निमंत्रित किया गया। पहले भंडारे में जुटी वह अभूतपूर्व भीड़ भोजन के स्वाद, आवास की व्यवस्था और खातिरदारी पर मर-मिटी। नई जगहों की सैर, नये अनुभवों के सुखों में डूबे बहुत से बिरादरों ने वहाँ से जाने का कई दिन नाम ही नहीं लिया। बहुतों ने अगले भंडारे और आने-जाने की थकान और परेशानी के बारे में सोचकर लौटना स्थगित कर दिया। बाल-बच्चे साथ हैं, कोई तकलीफ यहाँ है नहीं, तो क्यों दौडें-भागें?
आधा महीना भी नहीं बीता था कि जगह-जगह से लाशों के ढेर लगने के समाचार आने लगे। सड़न, दुर्गंध और बीमारी फैलने की चिन्ता से परेशान लोग हाय-तौबा मचाने लगे। गिद्धराज के प्रचार तंत्र ने अपना काम शुरू किया। रात-दिन, बार-बार एक ही समाचार -' गिद्धों के विश्व संगठन ने तय किया है कि अब उनके बिरादर सड़ा-गला, दुर्गंधयुक्त, प्रदूषित मांस नहीं खाएंगे।' समाचार ने सारे विश्व में तहलका मचा दिया। महामारी फैलने लगी। लोग त्राहि-त्राहि कर उठे। दूसरे भंडारे के बाद दुनिया को यह जानकर राहत मिली कि गिद्धराज ने विश्व को प्रदूषण और बीमारियों से बचाने तथा अपनी बिरादरी के उत्थान-कल्याण के उद्देश्य से एक व्यापक कार्य-योजना तैयार की है। कुछ दिन बाद घोषित हुआ कि विश्व कल्याण कम्पनी के नाम से एक संस्था का गठन हुआ है जिसके प्रमुख गिद्धराज होंगे। कम्पनी निर्धारित शुल्क अदा करने पर मांग के अनुसार गिद्ध उपलब्ध कराने की व्यवस्था करेगी। आगे से मृतकों को खुले में फेंकना वर्जित होगा। हर क्षेत्र के प्रमुख का यह दायित्व होगा कि वह गिद्धों को अस्वास्थ्य के खतरे से बचाने के लिए जनसहयोग से शीतगृहों का निर्माण कराए और मृतकों को केवल शीतगृहों में ही रखने की व्यवस्था करे। शीतगृहों के निर्माण और देखरेख की व्यवस्था कम्पनी द्वारा निर्देशित स्वीकृत व्यक्तियों द्वारा ही कराई जाएगी। यह भी सूचना थी कि गिद्ध बिरादरी ने यह गिद्धराज के विवेक पर छोड़ दिया है कि वह गिद्धों की सेवा कब, कहाँ और कैसे लें। बिरादरी में से मांग के अनुसार चयन कर भेजने के सम्बन्ध में सारे अधिकार गिद्धराज को होंगे।
व्यवस्था लागू होने में किसी ओर से कोई बाधा खड़ी नहीं की गई। कम्पनी की आय लगातार बढ़ रही थी। लोगों को गंदगी से मुक्ति दिलाने का टैक्स वसूल किया जा रहा था। अधिकारी, प्रशासन और सरकारें, कम्पनी द्वारा गिद्ध बिरादरी को ताजा रक्त-माँस उपलब्ध कराने के लिए समय, श्रम और सेना की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च की भरपाई टैक्स देकर कर रही थीं। जो भी हो गिद्ध खुश थे कि उनके लिए नगर बसें, तीर्थ बनें, भोजन चिकित्सा की व्यवस्था हुई और ताजे से ताजा रक्त पीने और मुलायम से मुलायम मांस खाने को मिलने लगा। दुनियां इस बात से खुश थी कि उनकी सड़न और गंदगी हटाने की जिम्मेदारी, भले ही कुछ धन लेकर, किसी कम्पनी ने ले ली। सबसे ज्यादा खुश गिद्धराज था क्योंकि एक नई कम्पनी खूब कमा रही थी और उसका साम्राज्य बढ़ रहा था। अब उसकी बिरादरी, जीवित, मृत - सब उस पर निर्भर थे, उस पर आश्रित थे। यह भी कि फिलहाल सब उसे पहले से ज्यादा और अच्छी तरह राजा मान रहे थे।

Comments

Popular posts from this blog

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...