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Showing posts from July, 2008

सूरदास का भ्रमरगीत

रजनी मेहता सूरदास ने किया कृष्ण के बाल्य रूप का वर्णन, भ्रमरगीत में किया उन्होनें निर्गुण ब्रह्रम का खण्ड़न! कृष्ण चले गये मथुरा गोपियों को छोड़, और अपनी यादों में किया गोपियों को भाव-विभोर! उद्धव को था अपने ज्ञान पर अभिमान, पर वे थे अभी प्रेम की शक्ति से अन्जान! कृष्ण ने उन्हे भेजा गोपियों के पास, करवाने इस बात का एहसास, कभी मत करो अभिमान, यही देना चाहते थे कृष्ण उद्धव को ज्ञान! उद्धव पर गोपियों ने किये वचनों के तीखे प्रहार, कृष्ण भी गोपियों के विरह में तड़पते नजर आते हैं कई बार! उद्धव हुए गोपियों के सामने पराजित, नहीं निकाल पाए क्रष्ण को जो गोपियों के हृदय में थे विराजित!? नहीं दिला पाए गोपियों को निर्गुण ब्रह्रम का ज्ञान, उद्धव को अन्त में करना पड़ा प्रेम का सम्मान! जब उद्धव चले ब्रज से मथुरा की और, उनके जीवन व विचारों में आ गया था परिवर्तन का दौर! कहलाते हैं सूर जन्म से जन्मांध, पर भ्रमरगीत ने ड़ाल दी हिन्दी साहित्य में नई जान!

रहोगी तुम वही

० सुधा अरोड़ा एक क्या यह जरुरी है कि तीन बार घण्टी बजने से पहले दरवाजा खोला ही न जाये ? ऐसा भी कौन-सा पहाड़ काट रही होती हो। आदमी थका-मांदा ऑफिस से आये और पांच मिनट दरवाजे पर ही खड़ा रहे......... ....................................................... इसे घर कहते हैं ? यहां कपड़ों का ढेर , वहां खिलौनों का ढेर। इस घर में कोई चीज सलीके से रखी नहीं जा सकती ? ....................................................... उफ्‌ ! इस बिस्तर पर तो बैठना मुश्किल है, चादर से पेशाब की गन्ध आ रही है । यहां-वहां पोतड़े सुखाती रहोगी तो गन्ध तो आएगी ही... कभी गद्दे को धूप ही लगवा लिया करो , पर तुम्हारा तो बारह महीने नाक ही बन्द रहता है, तुम्हे कोई गन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती । ....................................................... अच्छा, तुम सारा दिन यही करती रहती हो क्या ? जब देखो तो लिथड़ी बैठी हो बच्चों में। मेरी मां ने सात-सात बच्चे पाले थे, फिर भी घर साफ-सुथरा रहता था । तुमने तो दो बच्चों में ही घर की वह दुर्दशा कर रखी है, जैसे घर में क

गोस्वामी तुलसीदास और उनकी साहित्य साधना

डॉ० शुभिका सिंह गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी पावन गंगाजल के समान मोक्ष प्रदान करने वाली है। जिन्होने वैदिक व आध्यत्मिक धर्म दर्शन के गूढ विषय को ऐसे सहज लोकग्राह्य रूप मे प्रस्तुत किया कि आज सारा हिन्दू समाज उनके द्वारा स्थापित रामदर्शन को अपनी पहचान व आस्था का प्रतीक मानने लगा है। ‘सियाराम मय सब जग जानी' की अनुभूति करने वाले तुलसीदास ने जीवन और जगत की उपेक्षा न करके ‘भनिति' को ‘सुरसरि सम सब कर हित' करने वाला माना। भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले महाकवि तुलसी का आविर्भाव ऐसे विषम वातावरण में हुआ जब सारा समाज विच्छिन्न, विश्रृंखल, लक्ष्यहीन व आदर्श हीन हो रहा था। लोकदर्शी तुलसी ने तत्कालीन समाज की पीड़ा, प्रतारणा से तादात्म्य स्थापित कर उसका सच्चा प्रतिबिम्ब अपनी रचनाओं में उपस्थित किया। साधनहीन, अभावग्रस्त, दीन-हीन जाति का उद्धार असुर संहारक धर्मधुरिन कलि कलुष विभंजन राम का मर्यादित दिव्य लोकानुप्रेरक चरित्र ही कर सकता था इसीलिए उन्होंने तंद्राग्रस्त समाज के उद्बोधन के लिए लोकग्राह्य पद्धति को आधार बनाकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम के लोकोपकारी व कल्याणकारी चरित्

'एक ख़ास तबक़ा डरता है...ये सोच आगे न जाए...' नासिरा

नासिरा शर्मा से अचला शर्मा की बातचीत (हिंदी की जानी-मानी लेखिका नासिरा शर्मा के उपन्यास 'कुइयाँजान' को लंदन में इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाज़ा गया है.) नासिरा जी सबसे पहले आपको इस सम्मान के लिए बहुत-बहुत बधाई. मैं आपसे बरसों से मिलना चाहती थी जबसे आपका पहला उपन्यास 'सात नदियाँ एक समंदर' पढ़ा था. बताइए कितने साल हो गए हैं इसे? 24 साल तो हो गए हैं. चौबीस साल की मेरी हसरत आज पूरी हो रही है, 2008 में. मुझे जहाँ तक याद पड़ता है 'सात नदियाँ एक समंदर' ईरानी क्रांति की पृष्ठभूमि में सात लड़कियों के संघर्ष की कहानी थी. तब से लेकर 'कुइयाँजान' तक आपने कई पुस्तकें लिखी हैं लेकिन मेरा पहला प्रश्न सात नदियाँ के विषय में है. आप इलाहाबाद की रहने वाली हैं दिल्ली में आपने काम किया है. अपने उपन्यास के लिए जो पात्र, जो पृष्ठभूमि आपने चुनी उसके लिए क्या आपको ख़ास मेहनत, रिसर्च करनी पड़ी? मैंने फ़ारसी में एमए किया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से. पृष्ठभूमि तो थी ही लेकिन 1976 में जब ईरान गई तो वहाँ अनजाने में कुछ इंक़लाबी लोगों से दोस्ती हो गई. वहाँ लोगों ने भी हमारी काफ़ी म

तारीख़ी सनद

नासिरा शर्मा उस दिन मैदाने ज़ाले ने ख़ून के छीटों से समय की सबसे सुंदर अल्पना अपने सीने पर सजाई थी. पौ फटते ही तारीख़ जैसे अपना कलम लेकर समय की सबसे लोमहर्षक कथा लिखने को बैठ गई थी और मैं अपने हाथ में पकड़ी मशीनगन से हमवतनों का सीना छलनी करने के लिए आमादा सिर्फ़ हुक्म का मुंतज़िर था. सरकार के साथ गद्दारी और बगावत करने की एक सज़ा थी, वह थी...मौत. नन्हे से शब्द ‘फायर’ की गूँज के साथ मशीनगनों के दहाने आग का दरिया उगलने लगे थे और तब काली चादरों में लिपटे औरतों के बदन से टपकते ख़ून से धरती पर उभरते बेल-बूटे, बच्चों की चीखों से ख़ून के आंसू रोता आस्माँ, मर्दों की आह व बुका से फ़रियाद करती चहार सू... हमने तुम्हें फूल दिए थे सिपाही तुमने हमें गोली के शूल दिए सिपाही. इनसानी आवाज़ें मशीनगन की आवाज़ों में डूबकर लाशों के अंबार में ढल गई थीं. चिनार के पेड़ों की शाखों ने अपनी गरदनें झुका ली थीं और उन पर बैठी चिड़ियां अपना घोंसला छोड़कर चीख़ती जाने किस वीराने की ओर उड़ गई थीं. ज़मीन पर पड़ी लाशों के ढेर में ‘महवश’ भी थी, जिसकी जवानी गुंचों की तरह उसके सीने फूटी थी मगर अब शकायक के सुर्ख फूलों में ढल च

पदचाप

एम. हनीफ मदार हाथ मुंह धोकर लाखन चाचा, छप्पर के ऊपर से फिसलकर आंगन में फैली थके सूरज की अंतिम किरणों में ठंड से सिंकने के खयाल से आ बैठे .. और बैठे क्या लगभग पसर गए। थकान के बाद वैसे भी आदमी बैठ कहां पाता है। लाखन चाचा तब इतने नहीं थकते थे। अब लाखन चाचा दोनों बच्चों के छमाही इम्तिहान भी तो नहीं छुडाना चाहते जो आज से ही शुरू हुए हैं मगर आलू की बुवाई भी पिछाई न रह जाए इसी चिंता में आज अकेले ही लगे रहे। गांव में लाखन चाचा को बुवाई के लिए टै्रक्टर भी कहां मिल पाता है, ट्रैक्टरों वाले बडे किसान अच्छी तरह जानते हैं कि लाखन चाचा पर ट्रैक्टर का भाडा भी फसल तक उधार करना पडेगा। आलू खुदाई के बाद भी लाखन चाचा जैसे छोटे किसान आलू को कोल्डस्टोर में रखकर अच्छी कीमत का इंतजार करें .. या उसे बेचकर खाद, बीज और पानी का पैसा चुकाएं ..? ट्रैक्टर का किराया चुकाने का लाखन चाचा पर इस समय पैसा आयेगा कहां से ..? बीडी को अंगुलियों तक राख बना कर झाड देने के बाद लाखन चाचा ने वहीं लेटे-लेटे बडे लडके धीरज को आवाज दी। धीरज पुरानी पैन्ट कमीज पहने बाहर आया। लाखन चाचा ने धीरज के लिए ये कपडे सर्दी शुरू होते ही पैंठ से पु

गज़ल

देवमणि पांडेय नही और कोई कमी ज़िन्दगी में चलो मिल के ढ़ूंढ़ें ख़ुशी ज़िन्दगी में हज़ारों नहीं एक ख़्वाहिश है दिल में मिले काश कोई कभी ज़िन्दगी में अगर दिल किसी को बहुत चाहता है उसे कर लो शामिल अभी ज़िन्दगी में मोहब्बत की शाख़ों पे गुल तो खिलेंगे अगर होगी थोड़ी नमी ज़िन्दगी में निगाहों में ख़ुशबू क़दम बहके बहके ये दिन भी हैं आते सभी ज़िन्दगी में मिलेंगे बहुत चाहने वाले तुमको मिलेगा न हमसा कभी ज़िन्दगी में बिछड़कर किसी से न मर जाए कोई वो मौसम न आए किसी ज़िन्दगी में

गज़ल

देवमणि पांडेय दिल ने चाहा बहुत पर मिला कुछ नहीं ज़िन्दगी हसरतों के सिवा कुछ नहीं उसने रुसवा सरेआम मुझको किया उसके बारे में मैंने कहा कुछ नहीं इश्क़ ने हमको सौग़ात में क्या दिया ज़ख़्म ऐसे कि जिनकी दवा कुछ नहीं पढ़के देखीं किताबें मोहब्बत की सब आँसुओं के अलावा लिखा कुछ नहीं हर ख़ुशी मिल भी जाए तो क्या फ़ायदा ग़म अगर न मिले तो मज़ा कुछ नहीं ज़िन्दगी ये बता तुझसे कैसे मिलें जीने वालों को तेरा पता कुछ नहीं

एक थी आरूषि

रजनी मॉं-बाबुल के प्यार में पली एक नन्ही सी कली, पर बड़ी होने से पहले गयी कुचली! माता-पिता की रंजिश बेटी से निकाली, खेलने की उम्र में उसकी हत्या कर ड़ाली! फिर लगाया बेटी के कत्ल का इल्जाम पिता पर, क्या गुजरी होगी जिसने खुद लिटाया बेटी को चिता की सेज पर! आंसुओं की धारा बह निकली आंखों से मगर, पर बेटी को न बचा पाने का अफसोस रहेगा जिन्दगी भर!

गांधी जी के तीन बन्दर

रजनी अभी तक हमने केवल गांधी जी के तीन बन्दरों के बारे में सुना था जो दर्शाते थे बुरा मत कहो,बुरा मत सुनो,बुरा मत बोलो! परन्तु गांधी जी के तीन बन्दरों से अब काम नहीं चलेगा,आज के वर्तमान युग को गांधी जी के चौथे बन्दर की भी आवश्यकता है क्योंकि जब तक इन्सान बुरा सोचना नहीं छोड़ेगा तब तक इन्सान बुरा कहना,बुरा सुनना और बुरा बोलना नहीं छोड़ेगा! इन्सान की सोच पर ही उसका बोलना,कहना और सुनना निर्भर करता है!

कॉंलेज - मस्ती की पाठशाला

रजनी मैहता कॉंलेज के बीते दिनों की याद आती है, कैसे शाम दोस्तों के साथ घूमने में बीत जाती थी! फोन पर देर रात तक लम्बी बात होती थी, जीवन में खुशी की बरसात होती थी! एस.एम.एस फ्रैन्ड़स को भेजते रहते थे, अपनी हर बात अपने दोस्तों से कहते थे! वैलेंटाईन ड़े पर कॉंलेज में होता बहुत हंगामा था, लाल गुलाब कॉंलेज की हर लड़की के हाथ में नजर आना था! जीवन को खुशियों से भरने का अच्छा बहाना था जिसने बाद में हर किसी को रूलाना था! फ्राइड़े को फिल्म देखने का बनता प्रोग्राम था फैशन भी कॉंलेज में बदल जाता हर शाम था! कॉंलेज मस्ती की पाठशाला है कहलाता, जीवन का हर रंग कॉंलेज में देखने को मिल जाता! पढ़ाई कम और मस्ती होती कॉंलेज में ज्यादा है, मोबाईल का भी कॉंलेज में होने का एक फायदा है! कॉंलेज में जाने का अपना ही मजा है, अगर मस्ती के साथ पढ़ाई न हो तो जीवन बन जाता एक सजा है! पढ़ाई के साथ-साथ पूरा लो कॉंलेज लाइफ का आनन्द, जीवन में कभी न बनाओ बुरे दोस्तों का संग!

हमारे समय में ‘नचिकेता का साहस'

दिनेश श्रीनेत साहित्य में साक्षात्कार की परंपरा को अगर हम तलाशना शुरू करें तो इसका आरंभ प्राचीनकाल से ही दिखाई देने लगता है। साक्षात्कार अपने प्राचीनतम रूप में दो लोगों के बीच संवाद के रूप में देखा जा सकता है। आमतौर पर इस संवाद का इस्तेमाल ज्ञान मीमांसा के लिए होता था। प्राचीन ग्रीक दर्शन से लेकर भारतीय पौराणिक साहित्य तक में इसे देखा जा सकता है। प्राचीनकाल में इस तरह के संवाद के कई रूप आज भी मौजूद हैं। प्लेटो की एक पूरी किताब ही सुकरात से किए गए सवालों पर आधारित है। इसी तरह से ‘कठोपनिषद्' में यम-नचिकेता के संवाद में जीवन-मृत्यु से संबंधित कई प्रश्नों को टटोला गया है, जहां नचिकेता पूछता है, ‘हे यमराज! एक सीमा दो, एक नियम दो - इस अराजक अंधकार को। अवसर दो कि पूछ सकूं साक्षातकाल से, क्या है जीवन? क्या है मृत्यु? क्या है अमरत्व?' भारत में पंचतंत्र भी प्रश्नोत्तर शैली का इस्तेमाल करते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। यहां हर कहानी एक प्रश्न को जन्म देती है और हर प्रश्न के जवाब में ही एक दूसरी कहानी की शुरुआत होती है। यहां तक कि बाद की ‘बेताल पच्चीसी', ‘सिंहासन बत्तीसी' और ‘कथा सरित

विजय लक्ष्मी से एम. हनीफ मदार की बातचीत

विजय लक्ष्मी से एम. हनीफ मदार की बातचीत पिछले एक दशक में आमतौर पर महिलाओं की स्थिति और खासतौर पर आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं की स्थिति में तेजी से गिरावट आई है। क्या कारण मानती हैं आप? मैं समझती हूँ कि जो जातिवादी संगठन बन रहे हैं और जातिवादी राजनीति बड़ी तेजी से उभरी है इसका बहुत बड़ा प्रभाव इन महिलाओं की स्थिति में पड़ा है। इसकी वजह है कि यदि एक समुदाय अपनी जाति विशेष को लेकर चलता है तो दूसरे समुदाय में खुद ही उसके प्रति एक प्रतिस्पर्धा-सी होनी शुरू हो जाती है। जबकि जैसा हम लोग चाहते हैं कि आमतौर पर राजनीति में या अन्य क्षेत्रों में महिलाऐं पूरे सामाजिक और खुद के विकास के लिए बिना किसी जातिवाद के काम करें मगर उसको ये जातीय राजनीति खत्म कर देती है और इधर महिलाओं का जो आन्दोलन उनकी प्रगति के लिए बढ़ा है उस पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए महिलाओं की स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं हो पा रही है। वैश्वीकरण व नव उदारवादी नीतियों के बाद महिला कामगारों के लिए रोजगार की क्या संभावनाऐं दिखती हैं? हाँ, महिला कामगारों के लिए प्रत्यक्ष रूप से रोजगार की संभावनाऐं बढ़ी हैं। जैसे म