Skip to main content

पदचाप

एम. हनीफ मदार
हाथ मुंह धोकर लाखन चाचा, छप्पर के ऊपर से फिसलकर आंगन में फैली थके सूरज की अंतिम किरणों में ठंड से सिंकने के खयाल से आ बैठे .. और बैठे क्या लगभग पसर गए। थकान के बाद वैसे भी आदमी बैठ कहां पाता है। लाखन चाचा तब इतने नहीं थकते थे। अब लाखन चाचा दोनों बच्चों के छमाही इम्तिहान भी तो नहीं छुडाना चाहते जो आज से ही शुरू हुए हैं मगर आलू की बुवाई भी पिछाई न रह जाए इसी चिंता में आज अकेले ही लगे रहे।
गांव में लाखन चाचा को बुवाई के लिए टै्रक्टर भी कहां मिल पाता है, ट्रैक्टरों वाले बडे किसान अच्छी तरह जानते हैं कि लाखन चाचा पर ट्रैक्टर का भाडा भी फसल तक उधार करना पडेगा। आलू खुदाई के बाद भी लाखन चाचा जैसे छोटे किसान आलू को कोल्डस्टोर में रखकर अच्छी कीमत का इंतजार करें .. या उसे बेचकर खाद, बीज और पानी का पैसा चुकाएं ..? ट्रैक्टर का किराया चुकाने का लाखन चाचा पर इस समय पैसा आयेगा कहां से ..?
बीडी को अंगुलियों तक राख बना कर झाड देने के बाद लाखन चाचा ने वहीं लेटे-लेटे बडे लडके धीरज को आवाज दी। धीरज पुरानी पैन्ट कमीज पहने बाहर आया। लाखन चाचा ने धीरज के लिए ये कपडे सर्दी शुरू होते ही पैंठ से पुराने कपडों के ढेर से खरीदे थे। इन्हीं को पहनकर वह स्कूल भी चला जाता है। स्कूल में और बच्चे तो पूरी बांह की ऊनी जरसी पहन कर भी ठंड से सिरसिराते हैं लेकिन लाखन चाचा या उनके बच्चों की हड्डियां तो जैसे पत्थर की बनी हैं। लाखन चाचा भी तो खालिस अद्धी बांधे ऊपर से पुराना कुर्ता ही पहने जमीन पर टाट बिछा कर लेटे हैं।
लाखन चाचा के पांच में से बुढापे की संतान के रूप में सबसे पीछे के दो बच्चे ही बचे हैं। तीन बचे नहीं या कहें लाखन चाचा बचा नहीं पाए। उन्होंने तीनों को बीमारी से बचाने की कोशिश की तो खूब की मगर हर बार धनाभाव में बेबस हो गये। और तीनों बच्चे एक-एक कर चलते बने, अब बडा धीरज और छोटा दीपक ही बचा है। धीरज लाखन चाचा के पास आ बैठा, का ऐ चाचा? लाखन चाचा ने एक और बीडी जला ली जैसे उनकी बूढी हड्डियों को बीडी के धुएं से शाम की सर्दी में कुछ राहत मिल रही थी। तुम्हारे इंतियान कब खतम हुंगे?
अबई तौ आठ दिन लगिंगे चाचा। धीरज लाखन चाचा के शरीर से चिपककर गर्माहट महसूस करने लगा।
लाला तीन-चार दिना कौ काम रह गयौ ऐ, खेत में.. सब डौर बन जाते तौ पहलौ पानी लगि जातौ। चाचा ने कश खींच कर नाक से धुआं बाहर उडेला।
चाचा तुम ऊं टै्रक्टर ते चौं नांय करवाय लेत, सब ट्रैक्टर ते करवाय रऐं।
बेटा हम छोटे किसानन कूं ट्रैक्टर बारे कहां मिल्त ऐं! चाचा भूदेव शास्त्री पै तौ हमतेऊ कम खेत ऐ फिर उनै तौ ट्रैक्टर मिल गयौ। धीरज के उत्सुकता भरे मासूम सवाल से लाखन चाचा तनिक भी विचलित नहीं हुए। फीकी हंसी हंसते हुए लाखन चाचा ने धीरज के छोटे दिमाग को तो परेशान होने से रोक लिया। किंतु खुद खेत में डौर बनाने के काम को तीन-चार दिन में ही पूरा करने की जुगत लडाते हुए सूरज के छिपते ही छप्पर के पीछे बने कमरे में आ गए। बाहर आंगन में रात उतर आई।
दिन के ग्यारह बजे तक लाखन चाचा तीन-चार डौर ही बना पाए थे कि धीरज की अम्मा बदहवास सी दौडती खेत पर आई। वह अपनी सांसों पर काबू पाते हुए अटकती सी बोलीं घर पै दौ पुलिस बारे आए ऐं, और तुमें बुलाय रऐं। पुलिस का नाम सुनते ही लाखन चाचा को धूप में भी कंपकंपी आ गयी। वे फावडा वहीं छोड शंका-आशंकाओं से घिरे घबराते से घर पहुंचे। आंगन में बिछी चारपाई पर दो खाकी वर्दीधारी भूखे भेडिये की तरह लाखन चाचा को ही ताक रहे थे। लाखन चाचा लगभग हाथ जोडे सामने जा खडे हुए। एक सिपाही गरजा, तेरा ही नाम है लाखन?
हां साब। शब्द ही मुश्किल से फूट पाया लाखन चाचा के हलक से
बाबूजी का बात है?
अभी पता लग जाएगा। दूसरे सिपाही ने एक डायरी में लाखन चाचा का नाम लिखते हुए कहा। दूसरे सिपाही के शांत होते ही पहला सिपाही बोल पडा तू खेत में बच्चों से काम करवाता है, तुझे पता नहीं सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में भी बाल श्रम पर प्रतिबंध लगा दिया है।
वे इस पचडे से बचने के लिए हकलाते से बोले नांय साब मैं तो अकेलौई काम करूं, बालक तौ पढवै जामें।
दूसरा सिपाही सुनते ही भडका, झूठ बोलता है! और उसने एक अखबार का पेज फैला दिया, देख ये तेरा और तेरे बच्चों का ही फोटो है न जो खेत में काम कर रहे हैं, चल अब ज्यादा होशियारी मत दिखा, जल्दी से बच्चों के नाम बता। लाखन चाचा को अखबार का पेज देखते ही याद आ गया। ये तो वही फोटो है जिसे तीन-चार दिन पहले मोटर साइकिल पर आए दो आदमी खेत पर से ही खींच कर ले गए थे। वे खुद को पत्रकार बता रहे थे। लाखन चाचा के भीतर की उथल-पुथल में वे सब बातें उभर कर ऊपर आ गई जो उन पत्रकारों से हुई थीं। उनका दिमाग भी तेज दौडने लगा।- बालक तब काम कां कर रऐ। वु तो मेरी रोटी लै कें खेत में गए और बैठे। उन आदमीन नेई बच्चनकूं काम में लगाया के फोटू खैंचौओ और जि कई के जातें तुमारो फायदा होगो। मैंनेऊ जेई सोची के चलौ सरकार ते कछू बीज-फीजुई मिल जाइगौ। बस यही सोचकर लाखन चाचा उनको वे सब बातें बताते रहे थे, फसल के बखत पै हम इनकौ स्कूल छुडवाय कें खेत में लगाय लैमे। एकाध महीना में काम खतम है जाय तौ फिर स्कूल भेजवे लगें। इन बालकन के स्कूल के मास्साबऊ तौ अपने खेत के काम कूं पंद्रह-पंद्रह दिन की छुट्टी कर लेत ऐ। किंतु अब लाखन चाचा को अपने इस लालच पर बहुत गुस्सा आने लगा वे सिपाहियों के सामने गिडगिडाने लगे साब ऐसी भूल नांय होगी, अबके माफ कर देउ।
-अब कुछ नहीं होगा जुर्माना तो भरना पडेगा।
-पांच सौ रुपये। एक सिपाही ने फैसला सुना दिया। पांच सौ रुपये का नाम सुनकर लाखन चाचा के चेहरे पर सर्दी में भी पसीना चमकने लगा। पांचसौ रुपया कांते लांगौ साब?
चल तेरे लिए सौ कम करे देते हैं। पहले सिपाही ने हमदर्दी दिखाई, मगर आगे से ध्यान रहे ऐसी भूल ना हो। इससे लाखन चाचा की गिडगिडहाट कम नहीं हुई, बाबूजी मौपै तौ चारसौऊ नांय!
- तो जेल जाने को तैयार होगा। दूसरे सिपाही ने कडककर कहा। धीरज की अम्मा ने उन्हें इशारे से अंदर बुलाना चाहा जो छप्पर में घूंघट किए खडी थी। मगर लाखन चाचा को तो जैसे कुछ दिख ही नहीं रहा था। वे पूरे शरीर का साहस बटोरकर बोले, साब एकाध दिन में दे दूं तौ? पहला सिपाही उठ खडा हुआ, एकाध नहीं, हम कल आऐंगे, मगर कल या तो चार सौ ..नहीं तो जेल, समझे।
लाखन चाचा को काटो तो खून नहीं, उनका माथा यह सोच-सोच फटने लगा कि सबेरे तक चार सौ आंगे कांते..? नांय तो अब जा उमर में जेल जानौ पडेगौ, लोग न जाने कहां-कहां बातें करिंगे के लाखन ने न जाने का जुरम करौ ऐ। ऐसी बातें उन्हें भीतर तक परेशान तो करने ही लगीं मगर इससे भी ज्यादा वे इस बात से बेचैन होने लगे कि सरकार कहती है कि बच्चों से काम मत करवाओ उन्हें पढाओ, मगर गांव के शास्त्री जी कहते हैं, लाखन इन्हें क्यूं पढा रहा है, नौकरी तौ कहीं है नहीं, इससे तो इन्हें मजदूरी करना सिखा.. आखिर हमारे खेतों में काम कौन करेगा..? पढ-लिखकर इनकी कमर नहीं लचेगी। लाखन चाचा को तो समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर वे किसकी मानें। उन्होंने अपने दिमाग पर फिर से जोर डाला, अगर शास्त्री जी की नांय मानी तौ बीज बुआई कूं पैसा नांय मिलनौ.. और अगर सरकार की नांय मानी तौ जुरमानौ भुगतनौ पडैगौ। दोनों ही तरफ से जान आफत में है। वे लगातार बीडी पर बीडी फूंकने लगे जैसे इसी से कोई समाधान निकलेगा।
सिपाही तो कब के चले गए मगर लाखन चाचा अपनी धुनामुनी में वहीं बैठे रह गए।
- अब मई बैठे रहोगे या जा लंगकूं आओगे? लाखन की पत्नी ने आवाज दी जो पुलिस के जाते ही छप्पर में चूल्हे पर रोटियां पकाने में लगी थी।
चौं तोय मां को खाए जाय रौऐ? लाखन चाचा ने वहीं बैठे-बैठे सारा गुस्सा पत्नी पर उडेल दिया।
-ठीक है मई गढे रहौ। पत्नी भी खीझ पडी।
अचानक लाखन चाचा उठे और सीधे शास्त्री जी के घर जा पहुंचे। शास्त्री जी भकाभक धोती-कुर्ता पहने हाथ में छडी लिए कहीं जाने को निकल ही रहे थे कि, शास्त्री जी राधे-राधे। सामने लाखन चाचा को देखकर एकदम ठिठक गये। उनकी दोनों भौंहे सिकुडकर आपस में जुड गयीं। अगले ही पल लाखन चाचा ने हिम्मत जुटाकर अपनी समस्या सुनाने को मुंह खोल ही दिया शास्त्री जी के सामने।
शास्त्री जी ने लाखन चाचा की परेशानी पूरे ध्यान से सुनी और गंभीर हो कुर्सी पर बैठ गए हो तो सब जाएगा लाखन, तेरे घर पुलिस आऐगी भी नहीं.. मगर तू हमारी माने तब ना। उन्होंने लाखन चाचा को गौर से देखा और घूरते हुए बोले, तुझसे कितनी बार कहा कि इस जमीन को हमें बेच दे और बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय मजदूरी में डाल। शास्त्री जी शांत हो गये फिर अपनी बडी और गोल-गोल अठन्नी सी आंखें फैलाकर बोले मैं तो कह रहा हूं खेत बेचकर भी तीनों बाप-बेटे उसी में काम करते रहो अपना समझकर और मजदूरी भी मिलती रहेगी।
लाखन चाचा फिर चकरा गये। - शास्त्री जी पुलिस बारे तौ कै रऐं कै बच्चन ते काम करायौ तौ जेल जाऔगे, और जुरमानौ अलग ते। उन्होंने हैरत से कहा-वो सब तू हम पर छोड दे और हमारी बात मान ले। शास्त्री जी लाखन की पीठ थपथपाते हुए बाहर ले आए तू सोच ले और शाम को बता देना, मैं लौटते में तुझसे पूछता आऊंगा।
लाखन चाचा छप्पर में पत्नी के पास सिर पकड कर जा बैठे। दोनों बच्चे आंगन के टाट पर बैठकर किताब पढने में मस्त थे।
कां चले गये? पत्नी के सवाल ने जैसे उन्हें नींद से जगा दिया हो।
शास्त्री के जौरे गयौओ।
का कई उन्नै?
वोई जो हमेशा कैत रऐं। लाखन चाचा के शब्द निराशा में डूबे थे।
तुमने का सोची ऐ?
मैरो तौ दिमाकुई काम नांय कर रौ। लाखन चाचा हथियार डालने की मुद्रा में आ गए।
तूई बता का करैं?
पत्नी जो तब से लगातार सोच रही थी अब उसे कहने का मौका मिला था-मैं तो जे कहूं कै कल जब पुलिस बारे आमें तो उन्ते जि पूछौ कै चौं साब हम किसानन कूं सरकारी नौकरी या काऊ कंपिनी बारेन की तरै बुढापे में कोई पैन्सिल (पैन्शन) या हारी-बीमारी कूं सरकार ते पइसा टका की कोई मदद तौ मिलै नांय। हमारौ सहारौ तौ जि बालकई ऐं, अब खेत में काम जे नांय करिंगे तौ कौ करैगौ। अब वु अपने खेत में काम कर रऐं तौ जुरमानौ कायेकौ?
बा.. री.. बा, मैं उन्ते जबान और चलाऊं सो वे मोय पीटैं। लाखन चाचा ने खीझकर खींसे निंपोरी।
चौं पीटिंगे, का अपनी बात कैबोऊ कोई जुरमें..? पत्नी तिलमिला उठी हमारी बात तौ उन्नै सुन्नी ई पडैगी।
तू जादा वकील भई ऐ, तौ तूई करि लियो बात।
हां-हां मैं करि लूंगी, तुम चूडी पैरि कैं भीतर बैठ जाऔ।
लाखन की पत्नी लाखन चाचा के भीतर कुछ जगाना चाह रही थी, शाम भी हो चली थी, सूरज लाखन की पत्नी के चेहरे की तरह तमतमा कर लाल हो गया था फिर धीरे से सरककर गांव के उस पार कहीं छिप गया।
लाखन..! आंगन में खडे शास्त्री ने आवाज लगाई। लाखन चाचा हडबडा गये। वे अब शास्त्री से क्या कहें। उनकी जुबान तो जैसे तालू में ही चिपक गई। पत्नी लाखन चाचा की स्थिति को भांप गई और घूंघट निकाले छप्पर से बाहर निकली, सिर झुकाए बोली, शास्त्री काका, हम अपनौं खेत नांय बेच रऐ.. और बालकऊ पढिंगें.. जितनैऊ पढि जांय, कम ते कम अपनी बात कैवो तौ सीखिई जांगे। इतना कहकर लाखन की पत्नी ने शास्त्री के सामने हाथ जोड दिये। लाखन चाचा को लगा शास्त्री भडक जाऐंगे मगर शास्त्री जी तो भौंचक थे।
ठीक है भाई। जाते हुए बस इतना ही कह पाए वे। आंगन में दोनों बच्चे कूदने लगे। लाखन चाचा रात भर अपनी निरीह कायरता पर खीझते रहे। सुबह पुलिस वालों के सामने लाखन चाचा झुककर हाथ जोडे नहीं, हाथ में फावडा लिए तन कर खडे थे।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...