Skip to main content

Posts

Showing posts with the label कहानी

फेयरवेल

प्रताप दीक्षित अंततः रामसेवक अर्थात्‌ आर.एस. वर्मा, सहायक सुपरवाइजर की पोस्टिंग मुख्यालय में ही हो गई। ग्रामीण इलाकों से लेकर कस्बों और अनेक नगरों में फैली शाखाओं वाले इस अर्द्धसरकारी जनसेवी संस्था का मुख्यालय प्रदेश की राजधानी में स्थित था। नियुक्ति के पश्चात्‌ लगभग पन्द्रह-सोलह वर्षों के दौरान वह सदा ग्रामीण अथवा कस्बाई इलाकों में ही रहा था। नीति के अनुसार प्रत्येक तीन वर्ष बाद उसका स्थानान्तरण हो जाता। यद्यपि इसके कारण अभी तक उसे कुछ विशेष असुविधा तो नहीं हुई क्योंकि जिस छोटे-से नगर की गंदी-सी बस्ती में उसका बचपन बीता था, उसकी तुलना में इन जगहों में उसके रहन-सहन का स्तर पर्याप्त से अधिक ही था। परन्तु बढ़ती सुविधाएँ, जिनका वह आदी होता गया था, शीघ्र ही अपनी अर्थवत्ता खोने लगीं। मसलन रंगीन टी.वी. और फ्रिज खरीदा, तो बिजली न आती। पत्नी के लिए ब्यूटी सैलून न होता। कहीं-कहीं तो उसके नए विशाल सोफे और बोन-चाइना की क्रॉकरी के लिए उपयुक्त मेहमान तक उपलब्ध न होते। अतः क्षेत्राीय प्रबंधक से लेकर यूनियन के महासचिव तक दौड़ने और काफी जद्दोजहद के बाद उसके स्थानान्तरण के लिए आदेश हेड ऑफिस हेतु ...

बृहस्पतिवार का व्रत

अमृता प्रीतम आज बृहस्पतिवार था, इसलिए पूजा को आज काम पर नहीं जाना था...बच्चे के जागने की आवाज़ से पूजा जल्दी से चारपाई से उठी और उसने बच्चे को पालने में से उठाकर अपनी अलसाई-सी छाती से लगा लिया, ‘‘मन्नू देवता ! आज रोना नहीं, आज हम दोनों सारा दिन बहुत-सी बातें करेंगे...सारा दिन....’’यह सारा दिन पूजा को हफ्ते में एक बार नसीब होता था। इस दिन वह मन्नू को अपने हाथों से नहलाती थी, सजाती थी, खिलाती थी और उसे कन्धे पर बिठाकर आसपास के बगीचे में ले जाती थी। यह दिन आया का नहीं, माँ का दिन होता था...आज भी पूजा ने बच्चे को नहला-धुलाकर और दूध पिलाकर जब चाबी वाले खिलौने उसके सामने रख दिए, तो बच्चे की किलकारियों से उसका रोम-रोम पुलकित हो गया.....चैत्र मास के प्रारम्भिक दिन थे। हवा में एक स्वाभाविक खुशबू थी, और आज पूजा की आत्मा में भी एक स्वाभाविक ममता छलक रही थी। बच्चा खेलते-खेलते थककर उसकी टाँगों पर सिर रखकर ऊँघने लगा, तो उसे उठाकर गोदी में डालते हुए वह लोरियों जैसी बातें करने लगी—‘मेरे मन्नू देवता को फिर नींद आ गई...मेरा नन्हा-सा देवता...बस थोड़ा-सा भोग लगाया, और फिर सो गया...’’पूजा ने ममता से विभोर ...

निर्वासित

प्रताप दीक्षित वह पान की दुकान से सिगरेट लेते हुए या मेरे घर के सामने की गली में आते जाते अक्सर दिखाई दे जाते। मोहल्ले के पढ़े लिखे बेकार लड़के उनके आगे पीछे रहते। जिन्हें वह नौकरी के संबंध में सलाह देते। किसी से उसके इण्टरव्यू के संबंध में बात करते हुए, किसी को किसी कार्यालय में लीव-वेकैंसी के लिए प्रार्थना पत्रा देने को कहते। उनके बगल से निकलते हुए, जब कब, उनकी बातचीत के टुकड़े मेरे कानों में पड़ते। उनके आसपास युवाओं की अनुशासन बद्धता, शिष्टता और आज्ञाकारिता देखकर आश्चर्य होता। मेरे जैसे बेरोजगार युवक को स्वर्ग के देवदूत से कम नहीं प्रतीत होते। उनकी बातें गीता के वाक्य। परन्तु मैं अपने भीरू और दब्बू स्वभाव के कारण उनसे परिचय करने का साहस नहीं जुटा पाता। उनसे अपरिचित रह कर भी मैं उनके संबंध में बहुत कुछ सुन और जान चुका था, कि वे किसी बड़े कार्यालय में डायरेक्टर के स्टेनो हैं। बड़े-बड़े अधिकारियों से उनका परिचय है। किसी की नौकरी लगवाना, साक्षात्कार में सिफारिश करवाना उनके लिए बहुत सरल है। जाने कितने लोग उनकी सिफारिश से नौकरी पाकर मौज कर रहे हैं। इस पर भी वे बड़े ही सरल हृदय, दयालु और परोप...

तमाचा

प्रताप दीक्षित शाम को दफ्तर से लौटने पर देखा तो घर में बिजली नहीं थी। अक्सर ऐसा होने लगा था। जैसे-जैसे मौसम के तेवर बदलते, बिजली की आँख-मिचौली बढ़ती जाती। बिजली विभाग का दफ्तर न हुआ देश की सरकार हो गई। वह पसीने में लथपथ प्रतीक्षा करने लगा। और कोई चारा भी तो नहीं था। जब शहर का यह हाल है तो गाँवों में क्या होगा। इन कष्ट के क्षणों में भी उसे देश-समाज की चिन्ता थी। उसे अपने आप पर गर्व हुआ। कुछ देर बाद अंधेरा घिर आया। आ गई। अचानक एक उल्लास मिश्रित शोर उभरा। लाइट आ गई थी, जैसा कि अन्य घरों से आते प्रकाश से लग रहा था। सिवाय उसके यहाँ। अब उसे चिन्ता हुई। सामूहिक रूप से तो किसी कष्ट को भोगा जा सकता है। एक दूसरे के प्रति एक अव्यक्त सहानुभूति की धारा सबको एक सूत्रा में बाँधे रहती है। परन्तु ऐसी स्थिति में तो दूसरे से ईर्ष्या ही पैदा होती है। लगता है कि उसके यहाँ ही कुछ फॉल्ट है। शायद फ्यूज उड़ा हो। उसने फ्यूज देखा, वह सही था। उसने स्विच, बोर्ड हिलाए-डुलाए परन्तु परिणाम ज्यों का त्यों। वह थककर बैठ गया। पत्नी ने कहा कुछ करो न, हाथ पर हाथ रखकर बैठने से क्या होगा? वह परेशान हो गया। ये छोटे-मोटे काम, जि...

अंतर्मन

SEEMA GUPTA अंतर्मन की , विवश व्यथित वेदनाएं धूमिल हुई तुम्हे भुलाने की सब चेष्टाएँ, मौन ने फिर खंगाला बीते लम्हों के अवशेषों को खोज लाया कुछ छलावे शब्दों के, अश्कों पे टिकी ख्वाबों की नींव, कुंठित हुए वादों का द्वंद , सुधबुध खोई अनुभूतियाँ , भ्रम के द्वार पर पहरा देती सिसकियाँ.. आश्वासन की छटपटाहट "और" सजा दिए मानसपट की सतह पर फ़िर विवश व्यथित वेदनाएं धूमिल हुई तुम्हे भुलाने की सब चेष्टाएँ,

गुमशुदा

प्रताप दीक्षित रघुवीर शरण के लिए ये अवकाश के क्षण थे। निश्चिंतता के भी। ऐसी स्थितियाँ कम ही होतीं। अधिकाँशतः खाली समय में, जिसकी इफ़रात होती, उनके हाथों में कागज और पेन रहता। चारों ओर छोटी-छोटी पर्चियों का ढेर लग जाता। वे एकाग्र मन से जाने क्या जोड़ा-घटाया करते। वर्तमान से कटे, आने वाले पलों से बेपरवाह। सामान्यतः बँधी-बँधायी आमदनी वालों का लेखा-जोखा मात्रा खर्चों की कतर-ब्योंत एक सीमित रहता है। उन्हें भी प्रतिमाह एक निर्धारित राशि प्राप्त होती। खर्र्चे भी लगभग निश्चित। परन्तु वे आय के हिसाब-किताब के अलावा, आकस्मिक स्रोतों से होनेवाली आमदनी की संभावना का ध्यान रखते। उन्हें लगता, जिन्दगी का क्या भरोसा? उन्हें कुछ हो गया तो! पक्षपात या हृदय का दौरा तो आज आम हो गया है। इसके अतिरिक्त नौकरी से निलम्बन की आशंका, बेटी के संभावित विवाह, पुत्रा के लिए एक अद्द नौकरी या रोजगार का जुगाड़। अनेकों समस्याएँ थीं, जहाँ एकमुश्त रकम की जरूरत पड़ सकती थी। वे अक्सर हिसाब फैलाते-प्राविडेण्ट फण्ड से अग्रिम पच्चीस हजार, बैंक की फिक्स्ड डिपॉजिट दस हजार, शेयर्स के...बचत खाते में शेष तीन सौ-कुल जोड़... जोड़ने ...

खुश्की का टुकड़ा

- राही मासूम रजा आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है। दस-ग्यारह बरस या दस-ग्यारह हजार वर्ष पहले उसने एक शेर लिखा थाःछूटकर तुझसे अपने पास रहे,कुछ दिनों हम बहुत उदास रहे।यह उदासी आधुनिक है हमारे पुरखों की उदासी से बिल्कुल अलग है इसने हमारे साथ जन्म लिया है और शायद यह हमारे ही साथ मर भी जायेगी। क्योंकि हर पीढ़ी के साथ उसकी अपनी उदासी जन्म लेती है।हमारे युग की उदासी को उदासी कहना, ठीक नहीं है, वास्तव में यह बोरियत है, यह बोर होने वालों की पीढ़ी है, किसी चीज...

रहोगी तुम वही

० सुधा अरोड़ा एक क्या यह जरुरी है कि तीन बार घण्टी बजने से पहले दरवाजा खोला ही न जाये ? ऐसा भी कौन-सा पहाड़ काट रही होती हो। आदमी थका-मांदा ऑफिस से आये और पांच मिनट दरवाजे पर ही खड़ा रहे......... ....................................................... इसे घर कहते हैं ? यहां कपड़ों का ढेर , वहां खिलौनों का ढेर। इस घर में कोई चीज सलीके से रखी नहीं जा सकती ? ....................................................... उफ्‌ ! इस बिस्तर पर तो बैठना मुश्किल है, चादर से पेशाब की गन्ध आ रही है । यहां-वहां पोतड़े सुखाती रहोगी तो गन्ध तो आएगी ही... कभी गद्दे को धूप ही लगवा लिया करो , पर तुम्हारा तो बारह महीने नाक ही बन्द रहता है, तुम्हे कोई गन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती । ....................................................... अच्छा, तुम सारा दिन यही करती रहती हो क्या ? जब देखो तो लिथड़ी बैठी हो बच्चों में। मेरी मां ने सात-सात बच्चे पाले थे, फिर भी घर साफ-सुथरा रहता था । तुमने तो दो बच्चों में ही घर की वह दुर्दशा कर रखी है, जैसे घर में क...

तारीख़ी सनद

नासिरा शर्मा उस दिन मैदाने ज़ाले ने ख़ून के छीटों से समय की सबसे सुंदर अल्पना अपने सीने पर सजाई थी. पौ फटते ही तारीख़ जैसे अपना कलम लेकर समय की सबसे लोमहर्षक कथा लिखने को बैठ गई थी और मैं अपने हाथ में पकड़ी मशीनगन से हमवतनों का सीना छलनी करने के लिए आमादा सिर्फ़ हुक्म का मुंतज़िर था. सरकार के साथ गद्दारी और बगावत करने की एक सज़ा थी, वह थी...मौत. नन्हे से शब्द ‘फायर’ की गूँज के साथ मशीनगनों के दहाने आग का दरिया उगलने लगे थे और तब काली चादरों में लिपटे औरतों के बदन से टपकते ख़ून से धरती पर उभरते बेल-बूटे, बच्चों की चीखों से ख़ून के आंसू रोता आस्माँ, मर्दों की आह व बुका से फ़रियाद करती चहार सू... हमने तुम्हें फूल दिए थे सिपाही तुमने हमें गोली के शूल दिए सिपाही. इनसानी आवाज़ें मशीनगन की आवाज़ों में डूबकर लाशों के अंबार में ढल गई थीं. चिनार के पेड़ों की शाखों ने अपनी गरदनें झुका ली थीं और उन पर बैठी चिड़ियां अपना घोंसला छोड़कर चीख़ती जाने किस वीराने की ओर उड़ गई थीं. ज़मीन पर पड़ी लाशों के ढेर में ‘महवश’ भी थी, जिसकी जवानी गुंचों की तरह उसके सीने फूटी थी मगर अब शकायक के सुर्ख फूलों में ढल च...

पदचाप

एम. हनीफ मदार हाथ मुंह धोकर लाखन चाचा, छप्पर के ऊपर से फिसलकर आंगन में फैली थके सूरज की अंतिम किरणों में ठंड से सिंकने के खयाल से आ बैठे .. और बैठे क्या लगभग पसर गए। थकान के बाद वैसे भी आदमी बैठ कहां पाता है। लाखन चाचा तब इतने नहीं थकते थे। अब लाखन चाचा दोनों बच्चों के छमाही इम्तिहान भी तो नहीं छुडाना चाहते जो आज से ही शुरू हुए हैं मगर आलू की बुवाई भी पिछाई न रह जाए इसी चिंता में आज अकेले ही लगे रहे। गांव में लाखन चाचा को बुवाई के लिए टै्रक्टर भी कहां मिल पाता है, ट्रैक्टरों वाले बडे किसान अच्छी तरह जानते हैं कि लाखन चाचा पर ट्रैक्टर का भाडा भी फसल तक उधार करना पडेगा। आलू खुदाई के बाद भी लाखन चाचा जैसे छोटे किसान आलू को कोल्डस्टोर में रखकर अच्छी कीमत का इंतजार करें .. या उसे बेचकर खाद, बीज और पानी का पैसा चुकाएं ..? ट्रैक्टर का किराया चुकाने का लाखन चाचा पर इस समय पैसा आयेगा कहां से ..? बीडी को अंगुलियों तक राख बना कर झाड देने के बाद लाखन चाचा ने वहीं लेटे-लेटे बडे लडके धीरज को आवाज दी। धीरज पुरानी पैन्ट कमीज पहने बाहर आया। लाखन चाचा ने धीरज के लिए ये कपडे सर्दी शुरू होते ही पैंठ से पु...