Skip to main content

निर्वासित

प्रताप दीक्षित

वह पान की दुकान से सिगरेट लेते हुए या मेरे घर के सामने की गली में आते जाते अक्सर दिखाई दे जाते। मोहल्ले के पढ़े लिखे बेकार लड़के उनके आगे पीछे रहते। जिन्हें वह नौकरी के संबंध में सलाह देते। किसी से उसके इण्टरव्यू के संबंध में बात करते हुए, किसी को किसी कार्यालय में लीव-वेकैंसी के लिए प्रार्थना पत्रा देने को कहते। उनके बगल से निकलते हुए, जब कब, उनकी बातचीत के टुकड़े मेरे कानों में पड़ते। उनके आसपास युवाओं की अनुशासन बद्धता, शिष्टता और आज्ञाकारिता देखकर आश्चर्य होता। मेरे जैसे बेरोजगार युवक को स्वर्ग के देवदूत से कम नहीं प्रतीत होते। उनकी बातें गीता के वाक्य। परन्तु मैं अपने भीरू और दब्बू स्वभाव के कारण उनसे परिचय करने का साहस नहीं जुटा पाता। उनसे अपरिचित रह कर भी मैं उनके संबंध में बहुत कुछ सुन और जान चुका था, कि वे किसी बड़े कार्यालय में डायरेक्टर के स्टेनो हैं। बड़े-बड़े अधिकारियों से उनका परिचय है। किसी की नौकरी लगवाना, साक्षात्कार में सिफारिश करवाना उनके लिए बहुत सरल है। जाने कितने लोग उनकी सिफारिश से नौकरी पाकर मौज कर रहे हैं। इस पर भी वे बड़े ही सरल हृदय, दयालु और परोपकारी व्यक्ति हैं।
यह सब सुनकर मेरे मन में लालच पैदा होता है और मैं सोचता कि कैसा दुर्भाग्यशाली हूँ मैं, जो ऐसे व्यक्ति के होते हुए भी बी.ए. पास दो वर्षों से बेकार बैठा हूँ। मैं व्यग्र भाव से किसी भी प्रकार उनसे परिचय करने और बातचीत का अवसर ढूँढा करता। वे प्रतिदिन मेरे घर के सामने से गुजरते। दुबला-पतला लम्बा शरीर। सांवला-दो तीन दिन की दाढ़ी बढ़ा चेहरा। पैण्ट, कमीज व हवाई चप्पलों में दिखाई देते। अक्सर उनकी कमीज में बटनों के स्थान पर आलपिनें लगी दिखाई देतीं। पर यह सब कुछ, उनकी वेशभूषा, मुझ पर पड़े उनके प्रभाव को कम न करता बल्कि कुछ बढ़ा ही देता। एक दिन मुझे उनसे मुलाकात का अवसर मिल ही गया। अपने नगर के एक संस्थान के कार्यालय से मुझे साक्षात्कार हेतु बुलाया गया था। मैं घर के बाहर खड़ा एक मित्रा के साथ इस संबंध में बात कर रहा था। तभी भाई साहब आते दिखाई दिए। मेरा मित्रा उनसे पहले से परिचित था। उसने उन्हें नमस्ते किया। मैं भी सकुचते हुए नमस्ते करता हूँ। वे सिर जरा-सा हिलाते हैं। बृजेश ने उनसे मेरा परिचय कराया और वे मेरा इण्टरव्यू लेटर देखने लगे। मैं उत्सुकता से उनकी ओर निहारता हूँ।
÷÷ओह....यह तो जिला सहकारी समिति में है। कब इण्टरव्यू है तुम्हारा?'' फिर खुद ही पत्रा में साक्षात्कार की तिथि ढूँढते हैं। मेरी ओर देखकर, ÷÷क्या कुछ टाइप-वाइप का टेस्ट भी होगा?''
÷÷जी....शायद हो!'' मुझे अपने अज्ञान पर मन ही मन गुस्सा आता है।
पर वे ध्यान नहीं देते। वे टाइप सीखने के फायदों को बताने लगे।
मैंने दबे स्वरों में प्रार्थना की कि इस कार्यालय में एक व्यक्ति के अवकाश में जाने के कारण दो माह के लिए स्थान रिक्त है। यदि मेरा कार्य करा दें तो उनकी मेरे ऊपर बड़ी कृपा होगी। मुझे फिर अपने पर गुस्सा आता है कि मुझे ठीक से प्रार्थना करना भी नहीं आता।
÷÷बिल्कुल-बिल्कुल' मोहल्ले के लड़कों का भला नहीं होगा तो किसका होगा!'' वे मेरा नाम पूछते हैं। मेरे बताने पर, ÷÷तुम तो किशन लाल जी के लड़के हो ना?'' मैं सिर हिलाता हूँ।
हो-हो कर हंसते हुए वह बड़े ही विश्वास से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं, ÷÷तुम तो अपनी ही बिरादरी के हो भाई। तुम्हारा तो काम टाप प्रायर्टी पर। यहाँ का क्षेत्राीय प्रशासक तो अपना यार लगा है। मैं तो बिना गाली के साले से बात ही नहीं करता। कई बार खाने पर बुला चुका है।''
मित्रा उन्हें नमस्ते कर चला जाता है वे मुझे साथ लेकर सड़क तक चले आए हैं। अचानक वे मुझसे खुले हुए ५० पैसे सिगरेट लेने के लिए माँगते हैं। मैं उन्हें पैसे देकर स्वयं को उपकृत अनुभव करता हूँ। मैं उनसे दबे स्वर में पुनः प्रार्थना करता हूँ। वे मुझसे दो-तीन दिन बाद मिलने को कहते हैं।
दूसरे दिन उनको देखते ही मैं नमस्ते करता हूँ। साथ आने का इशारा करके वे चलने लगते हैं। अपने मित्रा के संबंध में बता रहे हैं कि वे दोनों साथ पढ़े हुए हैं। उनका कहा कभी टालता नहीं। सड़क पर आकर हम सीधे चलते रहते हैं। सामने शर्मा रेस्टोरेण्ट है। उन्हें अन्दर जाते देख मैं झिझकता हूँ परन्तु वह आग्रह करके मुझे अन्दर ले जाते हैं।
बैरा उनका आर्डर पाकर चाय, समोसे व गुलाबजामुन रख जाता है। चाय-नास्ते के बीच वह बताते रहते हैं, उन लड़कों के विषय में जिनको उन्होंने नौकरी पर लगवा दिया, पर वे लोग कुछ दिन बाद छोड़ गए।
÷÷भाई। खर्च भर का तो इस मँहगाई के समय मिल ही रहा था कपड़ा बाजार में। पर वे तो शुरू से ही फन्ने खाँ नौकरी चाहते हैं।'' मैं उनकी बात पर सहमति प्रकट करता हूँ। नाश्ते के बाद हम काउण्टर पर आते हैं। ÷छै पचास' बैरा चिल्लाता है। मैं उनकी ओर देखता हूँ। वे दूसरी ओर देखकर सिगरेट सुलगा रहे हैं। कुछ क्षण रुककर मैं जेब से दस रुपए का मुड़ा-तुड़ा नोट निकालकर काउण्टर पर रख देता हूँ। बचे हुए पैसे लेकर उसके पीछे आता हूँ। वे दरवाजे पर आ चुके हैं।
÷÷अच्छा मैं चल रहा हूँ। आज तुम्हारा काम भी करवाना है। तुम ऐसा करो कि अपना नाम पता लिखकर दे दो मुझे।''
फिर स्वयं जेब से सिगरेट का खाली पैकेट निकालकर उस पर मेरा नाम पूछकर लिख लेते हैं।
दूसरे दिन सुबह जल्दी बुलाते हैं। ÷÷हाँ, घर पर ही आ जाना।'' कहकर चले जाते हैं।
उस दिन व्यस्त रहा। शाम देर से आया। घर पर मालूम हुआ कि भाई साहब कुछ देर पूर्व तक प्रतीक्षा करते रहे थे। मुझे ग्लानि होती है। इतना बड़ा आदमी मेरे मामले में इतनी रुचि दिखा रहा है और मैं बेपरवाह घूम रहा हूँ। उनके प्रति श्रद्धा से भर जाता हूँ।
अगली सुबह मैं तैयार होकर उनके घर चल देता हूँ। मेरे घर से कुछ ही दूर पर उनका घर है। मैं उनके घर पहली बार आया हूँ। घर के बाहर दो तीन बार आवाज देने पर वे बाहर आते हैं, ÷÷आओ भाई तुमसे क्या पर्दा है।''
मैं अन्दर जाता हूँ।
कमरे में मुझे एक कुर्सी पर बैठाकर बीच के पर्दे के पास जाकर चाय बनाने लिए कहते हैं। अन्दर से कुछ भुनभुनाहट की आवाज आती है। पर वे ध्यान न देकर मुझसे बातें किए जा रहे हैं, राजनीति, बेकारी, खेल, आज का मौसम आदि-आदि पर।
मैं चुपचाप ÷हूँ-हाँ' किए जा रहा हूँ। थोड़ी देर बाद वे पर्दें के दूसरी ओर जाते हैं। लौटकर उनके हाथ में एक चाय का प्याला है। वे मुझसे चाय के लिए पूछते हैं। मैं औपचारिकता वश मना कर देता हूँ। वे दुबारा नहीं कहते। चाय पीकर मेरे साथ चलने को तैयार होते हैं। पर्दें के पीछे से फिर कुछ भुनभुनाहट होती है, वे अन्दर जाते हैं। मैं भी खड़ा हो गया हूँ।
वह बाहर आते हैं, ÷÷सुनो जरा बीस रुपए देना यार.....वो कुछ।''
मेरे चेहरे पर निरीहता का भाव आ जाता है। जेब से, छोटी बहन से माँग कर लाए दस-दस के तीन नोटों में दो उन्हें देता हूँ। वह उन्हें लेकर अन्दर दे देते हैं।
मैं उनके साथ बाहर आता हूँ। वे बडे+ उत्साह से मुझसे बातें कर रहे हैं। सड़क पर आकर वे रेस्तराँ के आगे रुकते हैं।
÷÷भाई कुछ ले लिया जाए। न जाने कितनी देर लगे'' कहते हुए वह अन्दर घुसते हैं। मैं चुपचाप बैठ जाता हूँ। मैं इशारे से उन्हें बताना चाहता हूँ कि मेरे पास अन्तिम दस का नोट बचा है।
वे सिर हिलाते हुए हंसते हैं, ÷÷अरे भाई अब तो हजार-बारह सौ के आदमी बनने जा रहे हो नोटों से जेबें भरी रहेंगी'' फिर वे मेरी ओर झुककर धीमी रहस्यमय आवाज में कहते हैं, ÷÷इस नौकरी में ऊपरी आमदनी भी काफी है।''
मैं कल्पना में अपनी जेबों को नोटों से भरा देखता हूँ। वे बैरा को आर्डर दे रहे हैं। मैं दस्त आने का बहाना करके कुछ भी खाने से मना कर देता हूँ।
÷÷अरे भई, जवानी में ये हाल....।''
बैरा सामान ले आता है। मैं उन्हें खाता देखता रहता हूँ। उनके खाने के बाद हम दोनों काउण्टर तक आते हैं। मुझे मालूम है कि पेमेन्ट मुझे ही करना है। मैं पेमेन्ट करता हूँ। काउण्टर मैन दो रुपया पचास पैसे मुझे वापस कर देता है।
बाहर आकर वे रिक्शा बुलाते हैं। दूधवाला-बंगला चलने के लिए वे रिक्शे वाले से पैसे पूछते हैं।
÷÷पाँच रुपये, साब।''
मैं झुंझला पड़ता हूँ, ÷÷वहाँ के दो रुपये पड़ते हैं। हमें नहीं जाना।''
वह हंसते हैं और रिक्शे में बैठ जाते हैं न चाहते हुए भी मुझे भी उनकी बगल में बैठना पड़ता है।
वे मेरी खीज व विवशता को कम करने का प्रयास करते हैं, ÷÷पैसे की परवाह न करो, वहाँ जाना जरूरी है।''
रिक्शा रोकते हैं, वहाँ हम दोनों उतर पड़ते हैं। सामने बंगला खड़ा है। वे ठिठके-से उधर जाते हैं। इधर-उधर अपरिचित से देखते हैं। मैं ठीक उनके पीछे आ जाता हूँ। बरामदे में साहब से मिलने के लिए कुछेक लोग बैठे हैं। कमरे के दरवाजे पर पर्दा पड़ा है। कुछ दूर पर एक चपरासी-सा व्यक्ति स्टूल पर ऊँघ रहा है। भाई साहब दरवाजे के पास जाते हैं और जरा-सा पर्दा हटाकर कुछ अन्दर झाँकने का प्रयास करते हैं।
तभी चपरासी सावधान की मुद्रा में खड़ा हो जाता है, ÷÷ऐ! कहाँ? इधर चलो, उधर!''
मुझे चपरासी की हेकड़ी पर गुस्सा आ जाता है, ÷÷जरा तमीज से, समझे! अभी तुम्हें मालूम हो जाएगा कि तुम्हारे साहब इनके क्या हैं! तब तुम्हें....!''
लेकिन भाई साहब रुके नहीं। भीगे मूस की तरह कांप गए और फिर चपरासी से प्रार्थना की, ÷÷भाई, जरा साहब से मिलना है।''
चपरासी शिष्ट हो आया, ÷÷बेंच पे बैठो। अपने नम्बर से जाना।''
भाई साहब बेंच के पास आकर खड़े हो जाते हैं, एक हाथ को दूसरे हाथ से मलते हुए। कुछ देर यूं ही खड़े होने के बाद मुझसे कहते हैं, ÷÷सुनो, इनसे बाद में आकर मिल लेंगे, ये भी फुर्सत में होंगे। तब तक चीफ एकाउन्टेंट के पास हो आया जाये। यहीं पास में रहते हैं।
मैं चुपचाप उनके पीछे चल देता हूँ। एक कच्ची गली में रुककर ठीक सामने वाले क्वार्टर के आगे आवाज देते हैं।
एक तहमद पहने व्यक्ति जिसके अभावग्रस्त चेहरे से लगता है कि वह मात्रा क्लर्क ही हो सकता है-फट्ट से दरवाजा खोलता है। भाई साहब मुस्कराने की कोशिश करते हैं, ÷÷बहुत दिनों बाद मिले, भाई।''
कुछ देर की औपचारिक बातचीत के बाद भाई साहब ऐसा प्रश्न पूछते हैं जिसका उत्तर वह वर्षों से जानते होंगे, ÷÷अब तो सुपरिन्टेंडेंट होंगे या यू.डी.सी.?''
÷÷ससुर कहाँ अपने भाग्य। अपने तो एल.डी.सी. पैदा हुए हैं और एल.डी.सी. ही मरेंगे।''
÷÷खैर, मेरे लिए तो तुम एकाउन्टेंट ही हो।'' हाँ, फिर वह मेरी ओर संकेत करते हैं, ÷÷इनका एक काम है।''
मैं याचना की मुद्रा में हाथ जोड़ देता हूँ।
÷÷आजकल बड़ी मारा-मारी है। सर्विस के लिए तो अब ऊँची पहुँच चाहिए।''
मैं निराश-हताश हो जाता हूँ।
भाई साहब मेरी ओर देखते हैं, ÷÷भई, डोंट वरी कोई बात नहीं। कुछ न कुछ जरूर हो जाएगा।''
हम उन एकाउन्टेंट साहब से विदा लेकर बाहर आते हैं।
गली से बाहर निकलकर एक निस्संग स्वर उभारते हैं, ÷÷तुम्हारे पास दो-तीन रुपये होंगे न? दो मुझे दे दो। तुम बस से चले जाना।''
मैं उनकी ओर देखकर जेब से दो रुपये उन्हें दे देता हूँ। जेब में हाथ डालकर एक के सिक्के को कसकर पकड़ लेता हूँ। कहीं भाई साहब ये सिक्का भी न माँग लें।
थोड़ी दूर तक मेरे साथ चलते हैं, ÷÷अभी जरा देर में बस मिल जाएगी। मुझे एक काम से जाना है।''
वह तेजी से एक ओर बढ़ जाते हैं। मैं कुछ देर तक यथास्थिति खड़ा रहा। सोचता रहा, न जाने क्या-क्या? फिर अनजाने ही धीरे-धीरे चलता हुआ मैं बड़े साहब के बंगले के गेट के आगे से निकलता हूँ।
गेट के सामने खड़ी कार में शायद बड़े साहब बैठने जा रहे हैं।
तभी कहीं से भाई साहब जल्दी से आते हैं। वे मुझे नहीं देख पाए। वे बड़े साहब के पैर छूने का उपक्रम कर रहे हैं। मुझे अस्पष्ट सुनाई देता है। वे कह रहे हैं - ÷÷सर मैं दो साल से बेकार हूँ। बड़ी दया होगी। मैंने लीव वैकेंसी के लिए एप्लाई किया है। मेरा इस पद के लिए अनुभव भी है। मैं स्टेनों भी हूँ...।''
बड़े साहब का उत्तर मैं नहीं सुन पाता। परन्तु वे कार में बैठ जाते हैं। कार धूल उड़ाती हुई चली जाती है।
धूल के गुबार में भाई साहब का चेहरा छिप-सा गया है।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...