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Showing posts from March, 2008

विकास दर विकास

- डॉ० वी०के० अग्रवाल विकास दर विकास, मानव मूल्यों का हृास। गरीब और मेहनतकश की रोजी-रोटी और अमन चैन सभी का सभी, माफिया, भ्रष्टों और गुण्डों का ग्रास, विकास दर...। नाले में पड़ी चील-कउओं और कुत्तों की खायी नवजात शिशु की लाश... आप कहते हैं विकास, मैं कहता हूँ विनाश...। विनाश दर विनाश...। मानवता बदहवास...। विनाश दर विनाश...। ****************** अध्यक्ष-वाणिज्य विभाग पी०सी० बागला (पी०जी०) कालेज, हाथरस २०४१०१ (उ०प्र०) ********************

कविता

मूल चन्द सोनकर तुझे जाने की थी जल्दी ये था बरख़िलाफ़ मेरे कभी तो बताता क्यों था तू बर ख़िलाफ़ मेरे करूँ किससे मैं शिकायत है कौन सुनने वाला सारा जहाँ हुआ है जब बरख़िलाफ़ मेरे पुरख़ार रास्तों पर किसका करूँ भरोसा गिरे ही क़दम हुए हैं जब बरख़िलाफ़ मेरे दुनिया में आने की जब तू न दौड़ जीत पाया जाने में जीतने को हुआ बरख़िलाफ़ मेरे तुझे ऐसी क्या थी जल्दी मुँह मोड़ चल दिया जो अपनों को बख्श देता जो था बरख़िलाफ मेरे ऐ काश! जान पाता तू मेरी बेबसी को होता न तब तू शायद यूँ बरख़िलाफ़ मेरे अल्लाह तेरी रहमत की ये भी बानगी है मौत-ओ-नफ़स का शज्र : हुआ ख़िलाफ़ मेरे तेरा लिहाज शायद गिरी बेबसी से हारा तिरी सीरत-ए-तकल्लुफ किया बरख़िलाफ मेरे अगर आईना मैं देखूं नजर आये शक्ल-ए-वालिद बुना क्या कहूंगा क्यों था तू बरख़िलाफ़ मेरे हूँ गुनाहगार तेरा, पशेमां हूँ बेबसी पर मुझे तू मुआफ करना ऐ, बरखिलाफ़ मेरे आऊँगा तुझसे मिलने जब रोज-ए-हश्र को मैं मिन्नत है तब न होता तू बरखिलाफ़ मेरे ********************* ४८, राज राजेश्वरी, गिलट बाजार, वाराणसी *******************************

विरासत

विमलेश कुमार चतुर्वेदी जैसे ही चुनाव आया, मैंने - दौरे का प्लान बनाया। गाँव-गाँव, घर-घर जाकर हर गरीब को समझाया। भाया! जब जब मैं आया, तुमने.... हमारा मान बढ़ाया है; इलेक्शन जिताया है। हम...तुम्हें समझते हैं, तुम्हारी गरीबी के लिए लड़ते हैं। गरीब दास! गरीबी... तुम्हारी विरासत है तुम्हारी भाषा है, हम इसे बचाएंगे; तुम्हें याद दिलाएंगे। तुम्हारे पूर्वज जंगलों में रहते थे, आधे बदन कपड़ा पहनते थे, जानवरों सा रहते थे, उन्हीं की तरह खाते थे; और.... अपनी गरीबी संजोते मर जाते थे। पिछले चुनाव में मैंने एक सर्वेक्षण कराया था, ...गरीबी के स्तर को - एक मानक दिलाया था, योजनाएं बनवाईं थीं; आर्थिक सहायता दिलाई थी। ...खुशी हुई कि आप - गरीबी रेखा के ऊपर जा रहे हैं, धीरे-धीरे अपने को.... खुशहाल पा रहे हैं। मगर डरता हूँ कि लोग - कल जब तुम्हें गरीब दास... कहने से कतराएंगे, कोई और नया नाम लेकर बुलाएंगे, तो..... तुम्हारा अपनापन गरीब दास का गरीबपन कहीं खो न जाए। इसलिए मैंने - फिर से सर्वेक्षण कराया है, गरीबी के स्टेटस्‌ को और ऊपर बढ़वाया है, इससे तुम उसी.... गरीबी रेखा में आ जावोगे; फिर अपने आपको.. अपनी संस्कृति से

मुझे जीने दो

सीमा सचदेव मुझे जीना है मुझे जीने दो हे जननी तुम तो समझो मुझे दुनिया में आने तो दो तुम जननी हो माँ केवल एक बार तो मान लो मेरा भी कहना नहीं सह सकती मैं और बार-बार अब और नही मर सकती मैं कोई तो मुझे दे दो घर में शरण अपावन नही हैं मेरे चरण क्यों हर बार मुझे तिरस्कार ही मिलता है? मेरा आना सबको ही खलता है हे जनक मैं तुम्हारा ही तो बोया हुआ बीज हूँ नहीं कोई अनोखी चीज़ हूँ बोलो मेरी क्या ग़लती है? क्यों केवल मुझे ही तुम्हारी ग़लती की सज़ा मिलती है? कब तक आख़िर कब तक मैं यह सब सहूंगी? दुनिया में आने को तड़पती रहूंगी? क्या माँ का गर्भ ही है मेरा सदा का ठिकाना? बस वहीं तक होगा मेरा आना जाना? क्या नही खोलूँगी मैं आँख दुनिया में कभी? क्यों निर्दयी बन गये हैं माँ बाप भी? कहाँ तक चलेगी यह दुनिया बिना बेटी के आने से? बेटी बन कर मैने क्या पाया जमाने से? मैं दिखाऊंगी नई राह दूँगी नई सोच ज़माने को मुझे दुनिया में आने तो दो मैं जीना चाहती हूँ मुझे जीने तो दो ***********************

नारी शक्ति

सीमा सचदेव हे विश्व की सँचालिनी कोमल पर शक्तिशालिनी प्रणाम तुम्हें नारी शक्ति क्या अद्भुत है तेरी भक्ति तू सहनशील और सदविचार चुपचाप ही सह जाती प्रहार तुझसे ही तो जग है निर्मित परहित के लिए तुम हो अर्पित तुमने कितने ही किए त्याग दी अपने अरमानों को आग जिन्दा रही बस दूसरों के लिए नि:स्वार्थ ही उपकार किए खुशियाँ बाँटी बेटी बनकर माँ-बाप हुए धन्य जनकर अर्धांगिनी बनकर किए त्याग समझा उसको भी अच्छा भाग माँ बन काली रातें काटीं बच्चे को चिपका कर छाती जीवन भर करती रही संघर्ष चाहा बस इक प्यारा सा घर नहीं पता चला बीता जीवन हर बार ही मारा अपना मन .................... .................... ऐसी ही होती है नारी वही दे सकती जिन्दगी सारी उस नारी के नाम इक नारी दिवस खुश हो जाती है इसी में बस नहीं उसका दिया जाता कोई पल नारी तुम हो दुनिया का बल तुझमें ही है अद्भुत हिम्मत तेरी शक्ति के आगे झुका मस्तक। ********************************

मृग-तृष्णा

सीमा सचदेव एक दिन पड़ी थी माँ की कोख में अँधेरे में सिमटी सोई चाह कर भी कभी न रोई एक आशा थी मन में कि आगे उजाला है जीवन में एक दिन मिटेगा तम काला होगा जीवन में उजाला मिल गई एक दिन मंजिल धड़का उसका भी दुनिया में दिल फिर हुआ दुनिया से सामना पड़ा फिर से स्वयं को थामना तरसी स्वादिष्ट खाने को भी मर्जी से इधर-उधर जाने को भी मिला पीने को केवल दूध मिटाई उसी से अपनी भूख सोचा, एक दिन वो भी दाँत दिखाएगी और मर्जी से खाएगी जहाँ चाहेगी वहीं पर जाएगी दाँत भी आए और पैरों पर भी हुई खड़ी पर यह दुनिया चाबुक लेकर बढ़ी लड़की हो तो समझो अपनी सीमाएँ नहीं खुली हैं तुम्हारे लिए सब राहें फिर भी बढ़ती गई आगे यह सोचकर कि भविष्य में रहेगी स्वयं को खोजकर आगे भी बढ़ी सीढ़ी पे सीढी भी चढ़ी पर लड़की पे ही नहीं होता किसी को विश्वास पत्नी बनकर लेगी सुख की साँस एक दिन बन भी गई पत्नी किसी के हाथ सौप दी जिन्दगी अपनी पर पत्नी बनकर भी सुख तो नहीं पाया जिम्मेदारियो के बोझ ने पहरा लगाया फिर भी मन में यही आया माँ बनकर पायेगी सम्मान और पूरे होंगे उसके भी अरमान माँ बनी और खुद को भूली अपनी हर इच्छा की दे ही दी बलि पाली बस एक ही

झोंपड़ी में सूर्य-देवता

सीमा सचदेव पुल के नीचे सड़क के बाजु में तीलो की झोंपड़ी के अंदर खेलते.............. दो बूढ़े बच्चे एक नग्न और दूजा अर्ध -नग्न दीन-दुनिया से बेख़बर ललचाई नज़रों से देखते......... फल वाले को आने-जाने वाले को हाथ फैलाते..... कुछ भी पाने को फल, कपड़े, जूठन, खाना कुछ भी......... सरकारी नल उनका गुस्लखाना और रेलवे -लाइन.....पाखाना चेहरे पर उनके केवल अभाव सर्दी-गर्मी का उन पर नहीँ कोई प्रभाव अकेले हैं बिल्कुल कुछ भी तो नहीँ उनके अपने पास नहीँ करते वे किसी से हस्स कर बात और झोंपड़ी से झाँकता सूर्य देवता मानो दिला रहा हो अहसास........ कोई हो न हो लेकिन मैं तो हूँ और हमेशा रहूँगा तुम्हारे साथ तब तक............ जब तक है तुम्हारा जीवन यह झोंपड़ी और ग़रीबी का नंगा नाच *****************************

वह सुंदर नहीँ हो सकती

सीमा सचदेव अपनी ही सोचों में गुम एक मध्मय-वर्गीय परिवार की लड़की सुशील गुणवती पढ़ी-लिखी कमाऊ-घरेलू होशियार संस्कारी ईश्वर में आस्था तीखी नाक नुकीली आँखें चौड़ा माथा लंबा कद दुबली-पतली गोरा-रंग छोटा परिवार अच्छा खानदान शौहरत इज़्ज़त जवानी सब कुछ........... सब कुछ तो है उसके पास परंतु परंतु, वह सुंदर नहीँ हो सकती क्यों? क्योंकि.......................... वक्त और हालात के थपेड़ों के उसके चेहरे पर निशान हैं *******************************

एक सपना

सीमा सचदेव कल रात को मैने एक सपना देखा भीड़ भरे बाज़ार में नहीँ कोई अपना देखा मैने देखा एक घर की छत के नीचे कितनी आशांति कितना दुख और कितनी सोच मैने देखा चेहरे पे चेहरा लगाते हैं लोग ऊपर से हँसते पर अंदर से रोते हैं लोग भूख,लाचारी,बीमारी,बेकारी यही विषय है बात का आँख खुली तो देखा यह सत्य है सपना नहीँ रात का वास्तव में देखो तो यह कहानी घर-घर में दोहराई जाती है कोई बेटी जलती है तो कोई बहु जलाई जाती है कितनो के सुहाग उजड़ते रोज तो कई उजाड़े जाते है यह सब करके भी बतलाओ क्या लोग शांति पाते हैं ? कितनी सुहागिने हुई विधवा कितने बच्चे अनाथ हुए कितना दुख पाया जीवन में और ज़ुल्म सबके साथ हुए ********************************

समाज के पहरेदार

सीमा सचदेव समाज के पहरेदार ही, लूटते हैं समाज को करते हैं बदनाम फिर , रीति रिवाज को कूरीतिओं को यही लोग, देते हैं दस्तक हो जाते हैं जिसके आगे, सभी नत्मस्तक झूठी शानो शोकत का, करते हैं दिखावा पहना देते हैं फिर उसको, रंगदार पहनावा अधर्मी बना देते ये फिर, धरम के ठेकेदार को समाज के..................................................... लोगों के बींच करते हैं, बड़े बड़े भाषण दूसरों को बता देते हैं, सामाजिक अन्नुशासन अपनी बारी भूलते हैं, सब क़ायदे क़ानून इन्हीं में झूठी रस्मों का , होता है जुनून ताक पर रख देते हैं, ये शर्म औ लाज को समाज के.............................................. लालची हैं भेडियी हैं, भूखे हैं ताज के किस बात के पहरेदार हैं , ये किस समाज के अंदर कुछ और बाहर कुछ, क्या यही सामाजिक नीति है? लाहनत है कुछ और नहीं, क्या रिवाज क्या रीति है क्या है क़ानून ?जो दे सज़ा, एसे दगाबाज़ को समाज के................ *******************************

आदर्शवादी

सीमा सचदेव एक्सिक्यूटिव चेयर पर बैठे हुए जनाब हैं उनके आदर्शों का न कोई जवाब है एनक लगी आँखों पर,उँचे -उँचे ख्वाब हैं उपर से मीठे पर अंदर से तेज़ाब हैं बात उनको किसी की भी भाती नहीँ शर्म उनको ज़रा सी भी आती नहीँ दूसरों के लिए बनाते हैं अनुशासन स्वयं नहीँ करते हैं कभी भी पालन इच्छा से उनकी बदल जाते हैं नियम बनाए होते हैं उन्होंने जो स्वयं इच्छा के आगे न चलती किसी की भले ही चली जाए जिंदगी किसी की स्वार्थ के लोभी ये लालच के मारे करें क्या ये होते हैं बेबस बेचारे मार देते हैं ये अपनी आत्मा स्वयं ही यही बन जाते हैं उनके जीवन करम ही गिरते हैं ये रोज अपनी नज़र में हर रोज,हर पल,हर एक भवँर में आवाज़ मन की ये सुनते नहीँ परवाह ये रब्ब की भी करते नहीँ आदर्शवाद का ये ढोल पीटते हैं जीवन में आदर्शों को पीटते हैं जीवन के मूल्‍यों को करते हैं घायल जनाब इन घायलों के होते हैं कायल *******************************

आँसू

सीमा सचदेव आँसू इक धारा निर्मल, बह जाता जिसमें सारा मल धो देते हैं आँसू मन, कर देते हैं मन को पावन हो जाते हैं जब नेत्र सजल, भर जाती इनमें अजब चमक बह जाएँ तो भाव बहाते हैं, न बहें तो वाणी बन जाते हैं उस वाणी का नहीं कोई मोल, देती ह्रदय के भेद खोल उस भेद को जो न छिपाता है, वह कलाकार कहलाता है उस कला को देख जो रोते हैं , अरे,वही तो आँसू होते हैं ****************************

हुआ क्या जो रात हुई

सीमा सचदेव हुआ क्या जो रात हुई, नई कौन सी बात हुई दिन को ले गई सुख की आँधी, दुखों की बरसात हुई पर क्या दुख केवल दुख है? बरसात भी तो अनुपम सुख है बढ़ जाती है गरिमा दुख की, जब सुख की चलती है आँधी पर क्या बरसात के आने पर, कहीं टिक पाती है आँधी आँधी एक हवा का झोंका, वर्षा निर्मल जल देती आँधी करती मैला आँगन, तो वर्षा पावन कर देती आँधी करती सब उथल-पुथल, वर्षा देती हरियाला तल दिन है सुख तो दुख है रात, सुख आँधी तो दुख है बरसात दिन रात यूँ ही चलते रहते , थक गये हम तो कहते-कहते पर ख़त्म नहीं ये बात हुई, हुआ क्या जो रात हुई *******************************

अखिल भारतीय सर्वहारा कवि संगठन

- ईश्वर दयाल जायसवाल हमारे मुल्क महान्‌ में अदना चपरासी से लेकर नौकर शाह तक, मजदूर से लेकर उद्योगपति तक, छात्र से लेकर शिक्षाविद् तक, जाति-बिरादरी से लेकर राजनीतिक पार्टियों तक के अपने-अपने संगठन हैं। जरा-जरा-सी बात पर ''...यूनियन जिन्दाबाद!'' के नारे लगने लगते हैं, हड़तालें होने लगतीं हैं। लेकिन अफसोस! हमारे मुल्क महान्‌ में कवियों-लेखकों का कोई भी, किसी भी प्रकार का संगठन सदियों से आज तक नहीं बना है। इस निरीह विवेकशील प्राणी का कोई भी चाहे जितना शोषण करें, उफ्‌ तक करने वाले नहीं है। यहाँ तक कि इनके अपने ही बिरादरीगण इनका शोषण करते हैं। नगर के किसी भी मुहल्ले में यदि कोई टुट पुजिया राजनेता टपकता है तो नगर के मुहाने पर ही उसके समर्थक कार्यकर्ताओं का जमावड़ा हो जाता है, जिन्दाबाद के नारे लगने लगते हैं और उसको फूल-मालाओं से इतना लादनें लगते हैं कि सभा स्थल तक आते-आते फूल मालाओं का वजन उसके मूल वजन से दो गुना हो जाता है। उसके रूखसती पर एक मोटी रकम चन्दे के रूप में दे दी जाती है। लेकिन कवि सम्मेलनों के आयोजकों के बुलावे पर कोई कवि जब कवि-सम्मेलन स्थल पर थका-माँदा पह

सर्दी की एक रात

विकेश निझावन एकाएक सर्दी बढ़ आई थी।शायद कहीं आसपास बर्फ पड़ने लगी है।ईश्वर ने खिड़की के ऊपर पड़ी तिरपाल को खिड़की के आगे पलट दिया।इमली हंस पड़ी।बोली- तेरी इस तिरपाल से सर्दी कम हो जाएगी क्या? -कम क्यों न होगी! ईश्वर जरा गुस्से से बोला- सर्दी कम करने के लिए आदमी और क्या कर सकता है। ओढ़न ही तो ओढ़ सकता है। -वही तो मैं कह रही हूं।जल्दी से लिहाफ में आ जा।इस वक्त बाहर निकलने का मौसम नहीं है।ओढ़न ओढ़नी है तो अपने ऊपर ओढ़।जरा ठंड ने पकड़ लिया तो यों ही अकड़ जाएगा। –तुझे भी कुछ न कुछ बोलने की आदत हो गई है।बेमतलब बात करती हो। -मेरी बातों के मतलब बाद में निकालना।पहले रजाई ओढ़ ले। ईश्वर सच में कांप रहा था।झट से रजाई में घुस सिकुड़ सा गया।काफी देर तक इमली कुछ न बोली तो उसे ही बोलना पड़ा- अरी इस उम्र में आकर भी तू मेरी बातों पर गुस्सा होने लगती है। -कैसी बात करते हो! गुस्सा मैं करती हूं या तुम? मैं तो तुम्हारा गुस्सा देखती हुई चुप हो गई। -तू ठीक कहती है।मुझे सच में अब कभी-कभी बहुत गुस्सा आने लगता है।याद है पिछली बार जब डाक्टर को दिखाया था तो उसने

शहर को डर है

- डॉ० तारिक असलम सुबह हो गई है। सड़कों, गलियों और मुहल्लों में लोगों का आना-जाना शुरू हो गया है। लोग अपने आस-पड़ौस के लोगों से बोल-बतिया रहे हैं। अपनी दिनचर्या की चर्चाएँ कर रहे हैं। जिंदगी बिल्कुल सामान्य दिख रही है। अमर घर से निकलकर मुख्य सड़क मार्ग पर आकर खड़ा होता है, उसे माटाडोर की प्रतीक्षा है, यद्यपि उसके आसपास दो थ्री व्हीलर चक्कर काटते हुए बैठने का इशारा करते हैं और एक कहता है, ''बस। साहब जी। एक और पैसेंजर आ जाए तो चल दूंगा। आप जान ही रहे हैं पैट्रोल कितना महंगा हो गया है। एक सवारी लेकर चलने की हिम्मत नहीं होती, जाने आगे कोई पैसेंजर मिलेगा भी या नहीं? फिर माटाडोर वाले आगे आकर उठा लेते हैं सबको।'' उस थ्री व्हीलर चालक की बातों को अनसुना करते हुए, वह बराबर पश्चिम दिशा की ओर देखता रहा, जिधर से सवारी गाड़िया आती थीं। उसे कोई जल्दी नहीं थी, फिर वह भी अपने एक रुपये अधिक व्यय करने का इच्छुक नहीं था। माटाडोर वाले एक तो कम ही मोड़ों और चौराहों पर रुकते थे, दूसरे फुलवारी शरीफ इमली मोड़ से भाड़ा भी एक रुपये कम लेते थे। आखिरकार, एक गाड़ी आ ही गई। वह शट से अन्दर घुस गया। दिन

खूबसूरत शहर

- मो. इकबाल स्वराज नाइट शिफ्ट कर के जब काम लौटा तो सुबह के सात बज रहे थे। घर से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर उसने एक बहुत बड़ी बेचैन भीड़ को देखा, जो पुलिस वालों से बहस कर रही थी। और उन झुग्गियों की तरफ़ इशारे कर रही थी, जिनमें उसका भी घर था, क़रीब आया तो देखा कि जहां कल तक जिन्दगी से भरपूर एक बस्ती थी, वहां से ऊँचे धूल के बादल उठ रहे थे। बुल्डोजर चलने की गड़गड़ाहट और गिरती-चरमराती हुई झुग्गियों का शोर उभर रहा था। सारी बस्ती एक मल्बे के चटियल मैदान में बदलती जा रही थी। जैसे उसमें जिन्दगी का कोई अंश भी बाक़ी न हो। हर तरफ तबाही ही तबाही थी। भीड़ में अनगिनत चेहरे उसके जानने वालों और पड़ोसियों के थे। उन्हें देखकर वह भी बेचैन हो उठा और इस तोड़-फोड़ का कारण जानने की कोशिश करने लगा। कुछ ही क्षणों में उसे पता चला कि झुग्गी कॉलोनी जिसमें वो रहता है कोर्ट के आर्डर के कारण तोड़ी जा रही है। ये सुनकर उसका दिमाग़ चकराने लगा और उसको अपनी जवान बेटी और नन्ही-सी नतनीं की फिक्र सताने लगी। स्वराज की समझ में ये नहीं आ रहा था कि पिछली रात नौ बजे जब वह ड्यूटी करने के लिए झुग्गी से निकला था तो सब कुछ नॉर्मल था। उसकी

अंतस की आवाज

- सुदर्शन पानीपती आखिर रेणुका चली गई। उसे विदा देकर मैं लौटा तो मेरी मनःस्थिति उस मुसाफिर की-सी थी जो थक जाये, हार जाए, मंजिल के पास जाकर भी उसे छू न सके, असफलता जिसकी नियति बन जाए। मैं चल तो रहा था किन्तु मेरी चाल में असमरसता नहीं थी। मेरे पांव लड़खड़ा रहे थे। मैं कुछ कदम चल कर रुक जाता। मुझे एहसास होता कि मेरी टांग मेरे जिस्म को खींच नहीं पाएगी। टांगें बहुत कमजोर हैं और जिस्म बहुत बोझल। बदहवासी में मैं अपनी गरदन पीछे घुमाता, मुड़कर देखता। मुझे भ्रम होता है कि रेणुका मेरा पीछा कर रही है, भागी आ रही है। रुक जाओ, रुक जाओ पुकार रही है। ग़ौर से देखने पर ही मुझे विश्वास होता कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैं जिन चेहरों में रेणुका का चेहरा खोज रहा हूँ, कौतूहलवश वे मुझे घूर रहे हैं, मानो जानना चाहते हैं कि मैं परेशान क्यों हूँ? रह रहकर पीछे मुड़कर क्यों देखता हूँ? रुक ही क्यों नहीं जाता? आने वाले की प्रतीक्षा ही क्यों नहीं कर लेता? जैसे-तैसे मैं घर के मुख द्वार पहुँचा। चाहता था कि हाथ बढ़ाऊं, दरवाजे पर दस्तक दूँ, किवाड़ खुलवाऊं मगर मुझसे यह नहीं हो पा रहा था। ऐसा करना मुझे असंभव प्रतीत हो रहा था।

मैंने कहा ना मैं तुलाराम नहीं हूँ

जाबिर हुसेन तुलाराम अपने घर की तंग सीढ़ियों की आख़िरी टेक पर था कि उसके दिमाग़ में बाप की कही बात दोबारा कौंधी- 'कल से, उन्हीं में से किसी एक गोदाम में जाकर बैठा कर, घर आने की जरूरत नहीं। वहीं बीड़ियां बना कर अपना पेट पालने की सोच। आज से तेरे लिए इस घर के दरवाजे बंद।' तुलाराम को बाप की कहीं बात और उसके धक्के याद आते ही यह ख्याल भी आया कि उसने सीढ़ियां उतरने से पहले अपनी मां से भेंट नहीं की। बल्कि उस दालान की तरफ़ देखा तक नहीं, जहां उसकी मां हर वक्त किसी काम में उलझी रहती है। एक लम्हे के लिए तुलाराम ने सोचा, उसे सीढ़ियां दोबारा चढ़कर मां से आख़िरी बार जरूर मिल लेना चाहिए। आख़िर इसमें उसकी मां का क्या क़सूर ? क़सूर तो सारा तुलाराम का ही है। वही तो अपनी मर्जी से स्कूल का बस्ता पटक कर हर रोज कोई किताब या मैगजीन लिए गोदाम पहुंच जाता है। घर के लोग समझते हैं कि वो खेलने-कूदने निकला है, और घंटे-भर बाद लौट आएगा। एक दिन, देर शाम, घर लौटने पर, रोटियां परोसते वक्त मां को तुलाराम के कपड़ों से तंबाकू की बू आती महसूस हुई तो उसने तुलाराम को टोका - 'तंबाकू की बू आ रही है, तेरे कपड़ों से।

गज़ल

शहरयार सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है *************************************

गज़ल

शहरयार दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये इस अंजुमन में आपको आना है बार बार दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये माना के दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास लेकिन ये क्या के ग़ैर का एहसान लीजिये कहिये तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये ****************************** Safeena App. Room no. L 109 Aligarh INDIA ***********************

गज़ल

शहरयार इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

इश्क का चक्कर

- डॉ० सन्त कुमार टण्डन मैंने लम्बे समय तक चप्पल ही पहनी, जूते नहीं। बचपन से विद्यार्थी जीवन, यूनिवर्सिटी लेविल तक। चप्पल कम्फर्टेबिल रहती हैं। पैंट-शर्ट, सूट के साथ भी पैरों को कसे जूतों में डालना मुझे बुरा लगता था। जब सर्विस में आया, आफिस जाने लगा, तो भी चप्पल-प्रेमी बना रहा। लेकिन जब अधिकारी के पद पर पहुँचा, तो मेरे पदों पर चोट लगी। चप्पल छोड़ जूते पहिनना पड़ा। एक विवशता और रोज शेव करना। दोनों मुझे कष्टकर था, पर करना पड़ा। मुझे पच्चीस साल बाद राहत मिली, जबरदस्त राहत, जब मैं ऑफिसर की पोस्ट से रिटायर हुआ। दाढ़ी सप्ताह में दो बार बनने लगी और मैं रिटायर होते ही चटपट चप्पल खरीद लाया। बड़ा सुख, बड़ी चैन। लगा मुक्ति मिली। ये दोनों मुक्तियाँ सर्विस भी मुक्ति से कम सुख-चैन-दायिनी न थीं। अमूमन मैं अपने पदत्राण बंद रहने वाली (विदाउट लॉक) आलमारी में रखता हूँ। आज भी रखता हूँ, बजाय किसी खुले स्थान के। सो जूते मैं अपनी एक्सट्रा अलमारी में रख दिए-सदा-सर्वदा के लिए। चप्पल भी वहीं, उसी आलमारी में, उसी खाने में रखने लगा। जहाँ जूता-देव विराजमान थे। जूते और उनके ठीक बगल में चप्पलें। मैंने सुना ह

कालू

- सुशान्त सुप्रिय कुत्तों से दत्ता साहब को सख्त चिढ़ थी। नफ़रत थी। एलर्जी थी। पर गली का कुत्ता कालू था कि दत्ता साहब की इस चिढ़ की परवाह ही नहीं करता था। जैसे ही दत्ता साहब बाहर जाने के लिए दरवाजा खोलते, कालू को सामने पाते। कालू को देखते ही दत्ता साहब का गुस्सा आसमान छूने लगता। उन्होंने कालू को डराने-धमकाने, गली से बाहर खदेड़ने की बहुत कोशिश की। पर कालू था कि पिछली घटना भूल कर दत्ता साहब के मकान के दरवाजे पर फिर मौजूद हो जाता। दत्ता साहब उसे छड़ी दिखाते। वह छड़ी की मार के दायरे से बाहर रहते हुए पूँछ हिलाता। कालू के पूँछ हिलाते रहने से दत्ता साहब और चिढ़ जाते। दो-एक बार उन्होंने पास पड़े पत्थर और पैरों में पहनी चप्पलें उतार कर कालू को दे मारीं। पर दत्ता साहब का निशाना हर बार चूक जाता। उधर कालू चप्पलों और पत्थरों को छकाने की कला में और पारंगत होता जाता। जब तक दत्ता साहब गली से बाहर नहीं चले जाते, कालू उनसे एक मर्यादित दूरी बनाएं रखते हुए सतर्कतापूर्वक उन्हें गॉर्ड ऑफ़ ऑनर देता चलता। दत्ता साहब का मन करता कि वे अपने सिर के बाल नोच लें। कुछ महीने पहले तक दत्ता साहब के सामने यह समस्या नहीं थी।

प्याऊ

डॉ० पूरन सिंह मैं अभी घर में घुसा ही था कि बाबूजी ने आवाज लगाई ''बेटा तुम्हारी कोई किताब आई है डाकिया दे गया है तुम्हारी मेज पर रखी है।'' ''जी'' बाऊजी कहकर सीधा मैं कमरे से चला गाय था। कमरे में जाकर देखा तो वहाँ टेबल पर एक साहित्यिक पत्रिाका रखी थी। पत्रिाका को उलट-पुलटकर देखा तो उसमें मेरी रचना छपी थी। मैं तो बेहद खुश हो गया था। भागता-भागता आया और अपने बाऊजी को बताने लगा था। ''बाऊजी इस पत्रिका में मेरी रचना छपी है। देखो न कितनी अच्छी रचना है। यह रचना मैंने दलित वर्ग के लिए ही विशेष रूप से लिखी है। आप सुनोगे तो मैं आपको सुनाऊँ। और हाँ बाऊजी सबसे अच्छी बात तो यह है कि यह रचना ब्राह्मणों की पत्रिाका में छपी है। यह वही, ब्राह्मण है जिनके ग्रन्थों में लिखा है कि शूद्र यदि वेद पुराण सुन ले तो उसके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाए। बाऊजी आज समय कितना बदल गया है। वैसा कुछ भी कहो बाऊजी जाति-पांति और भेदभाव में फर्क तो आया है। आज चाहे ब्राह्मण, बनिया पीछे कुछ भी करे लेकिन मुँह पर कुछ नहीं बोलता है।'' मैं एक ही सांस में सारी बातें बोलता चला

जमूरा

प्रेम कुमार घर भर में कोई सहज नहीं था। न माँ, न पिताजी, न पत्नी, न बहनें! मेरे गाँव आने पर लोगों का मुझसे मिलने आना सबको अच्छा लगता रहा है। पर आज वैसा नहीं था। सबकी कोशिश थी कि उनके आने पर मैं उनसे न मिलू। मिलू भी तो उन्हें या उनके काम को कोई तवज्जो न दूं। पिताजी उन्हें लपाड़िया बताकर अपनी खीझ निकाल रहे थे। माँ उनके बहरूपिएपन की बातें बता-बताकर अपनी झुझलाहट कम कर रही थीं। पत्नी और बहनों ने मिलकर कई बार उन्हें जनानिया, लुच्चा, लफंगा सिद्ध कर दिया था। और मैं था कि किसी अमंगल के घटने की आशंका से त्रस्त, कुंदमन सुबह से ही दरवाजे के पास चारपाई पर पड़ा उनके आने का इंतजार कर रहा था। पिताजी इस बात पर चिढ़े थे कि तीन दिन से उन्होंने देहरी की धूल ले डाली है। काम पूछा तो बताया नहीं। ऊपर से आग में यह घी और - 'पढ़ाई-लिखाई का मामला है उन्हीं को बताना है।' पिताजी इस बात पर भी आग बबूला थे कि उन्होंने मेरा आधा नाम लेकर ही आने के बारे में पूछा था। इसीलिए उनके आने की सूचना देते समय पिताजी खूब गुस्से में थे - 'तुम दोनों में बड़ा कौन है? तू कि वो? नाम तो ऐसे ले रहा था जैसे गोद में खिलाया हो उसने