Skip to main content

नशा

- डॉ. सूर्यदीन यादव
काफी वक्त बीत चुकने के बावजूद पहाड़-सी रात अब भी हावी थी। राजन की आँखों से नींद कोसों दूर भाग गई थी। मन में उठते तरह-तरह के विचार पल भँजते ही दब जाते। परदेश से घर आते समय उसने सोचा था, छुट्टियों में घर पहुँचकर गाँव-गलियों, खेत-सिवानों पर कुछ लिखेगा पर गाँव-घर में पहुँचकर जैसे एक बार फिर उन्हीं अभावों के बीच फंस गया हो। गाँव, घर, जमीन और प्यारे लोगों के बीच से वह मुक्त नहीं हो पा रहा था। लोग उसे छोड़ना नहीं चाहते थे ऐसी बात नहीं थी, बल्कि वह स्वयं उन सबमें घुल मिल जाना चाहता था। जहाँ,जिधर जाता, लोगों से घिरा पाता। उसे कुछ सूझाई नहीं पड़ रहा था कि ऐसे कैसे, क्या लिखे। बरसों हुए आजादी मिले। गाँवों में आज बिजली के खास आरीक ने एक बार बिजली गाँव में लगवाने के लिए आठ सौ रूपये भरे थे। गाँव के कुछ बेईमान और वायर मैन मिलकर रूपये चाऊ कर गए थे। उसने सोचा था कि हरिपुर गाँव बदल गया होगा। कुछ से काफी बन गया होगा। किन्तु वहाँ कोई खास बदलाव नहीं दिखाई पड़ा। पहले जमींदार अनपढ़ लोगों का शोषण करते थे। अब चन्ठ-चाइँए और बेईमान लालची कर्मचारी पढे+ लोगों की आँखों में धूल झौंककर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। पहले गाँव में कभी एक अधर्म या पापाचार कोई स्त्री या पुरुष करता तो पूरा गाँव-समाज पंचायत द्वारा दह-बह कर दिया करता था। अब घर-घर की अनीत और अधर्म पर पर्दा डाल देने के सिवा कोई चारा नहीं होता है। बड़ी मुश्किल से रात अपनी हो पाई। उसने बगल में सोती पत्नी को नजर भरके देखा। लगा जैसे वह आज ही गौने आई हो। तभी पत्नी निद्रावस्था में बुदबुदाई-
''ऊँ-ऊँ-हाइ...मोरी....माई....।''
''संगीता!'' उसने पत्नी को जगाया।
''हूँ....।''
''क्यों रोती हो...।''
''कुछ नहीं एक सपना देख रही थी।''
''कैसा सपना।''
''अब तक छिपाए थी, लेकिन....।''
''कहो, क्या है।''
''क्या कहूँ.....जेठ जी पागल हो गए थे।''
''क्यों? क्या हुआ था उन्हें?
''पता नहीं कौन-सा नशा उन पर सवार था उस रात कि छोटी भयहुन चीन्हें।''
''क्या बकती हो?''
''बकती नहीं सच कहती हूँ।'' पत्नी उठकर बैठ गई। बात पाते-पाते बताने लगी-उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि छोटा भाई कहीं का नहीं रह जायेगा। जिसकी परछाई और कपड़े से जेठऊत दूर रहता हो, उसी भयहु के तन के साथ....।'
''आखिर हुआ क्या।''
''समझो तो बहुत, नहीं तो.....परदा डाल दो तो कुछ नहीं हुआ।''
''पागल हो गई हो क्या।''
''हाँ, उन्हीं की तरह मैं भी पागल हो गई होती और नशे में बुत हुई होती तो आज जरूर पागल कही जाती। हाय रे वह रात! कैसे कहूँ, वह नशीला सलूकात।''
''वे शराब के नशे में थे।''
''शराब.....और मुझे भी पिलाना चाहते थे। प्याला मेरे मुँह में लगा दिये थे। मन घृणा से तिक्त हो उठा था। मैं क्रोध में पागल हो उठी थी। ऐसा धक्का मारी कि प्याला गिरकर टूट कर चकनाचूर हो गया। वे नशे में डाउन थे। मैं नहीं जानती थी कि वे यहाँ तक पहुँच जायेंगे। मैं बेखबर सोती थी। कपड़े अस्त-व्यस्त थे। पर पुरुष का स्पर्श हुआ तो आँखें चट खुल गई। उन्हें देख अहदंक उठी। कपड़े ठीक करती हुई पलंग से उतरकर नीचे बैठ गई। लिहाजवश बुलुल-बुलुल रोने लगी। सिसकने का साहस न कर सकी। डरी कहीं सिसकी सुन कोई आ धमके तो मेरे पास उन्हें देखकर क्या से क्या समझ बैठे। वे बोले-''क्यों रोती हो? कहीं दर्द हो रहा हो तो लाओ दबा दूँ।'' मेरी तरफ बढ़ते हाथों को मैंने झटक दिया। वे हाथ मलकर रह गये। मैं लाजन मारी जा रही थी। शर्म-संकोच में धसी जा रही थी। बोल न फूट रहे थे। दो बार मेरी ओर बढ़ते उनके हाथों को मरोड़ दिया। क्रोध में आग बबूला हो उठी। बोली-''उनके बाबू, भाग जाओ यहाँ से। इतनी रात यहाँ को आये? तुम्हें जरा सी लाज-शरम नहीं क्या? कोई देखे तो क्या कहेगा? छोटे भाई का तो लिहाज रखो। मैं गुस्से में पागल हुई जा रही थी। मन हुआ कि लात से मारकर भगा दूँ। शोर करके लोगों को बटोर लूँ पर्दाफाश कर दूँ। तब घर की सब इज्जत उनकी उसमें घुस जाती। पर आगे पीछे सोची सारा गुस्सा पी गई। बोले भईया को खबर न होने दूँगा। उनके आने पर बोलना बंद कर दूँगा। जिससे भईया को पता न चलेगा कि हम क्या गुल खेलते हैं। एक बार फिर मुझे पकड़ना चाहे। मैं संभल चुकी थी। वे जबरदस्ती मुझे पलंग पर गिराना चाहते थे। मैं बचकर भागने की तरकीब सोच रही थी। पिशाच की जम्मूरी भुजाओं ने मुझे फिर धर-दबोचा। जम्मूरी पकड़ का मुकाबला न कर पार्ई। जम्मूरी बाँह में दाँत काट खाई। वे चीेखे। पकड़ ढीली होते ही मैं भईया-बाबा के पास भाग आई। मैंने सब कुछ भईया से बता दिया। वे कुछ नहीं बोले। वह वाकिया और किसी से नहीं बताई। चिट्ठी लिखवाकर तुम्हारे पास भिजवाई थी, मिली थी न। सुनो, मैं यहाँ नहीं रह सकती। मुझे अपने साथ लेते चलना। नहीं तो वे भ्रष्ट करके ही छोड़ेंगे। मनई नशे में पागल हो जाता है, वह अदनामी-बदनामी से नहीं डरता। अहमक से नहीं रहा जाता तो दूसरी औरत क्यों नहीं लाता। नशूढ़िए ने अपने बेटे का ख्+याल नहीं किया। जवान जगत बाप की सारी कारस्तानी जानता है। भईया से बताई तो वह शायद सुन रहा था। सुबह रोकर कहने लगा-चाची, इस घर में रहने लायक नहीं है। जबसे माँ मरी बाबू का दिमाग फिर-फिरा लगता है।' सुनते हो न, मैं क्या-क्या बर्दास्त करूँ? जहाँ रहो, मुझे साथ रखो। साथ न रख सको तो नौकरी छोड़कर घर चले आओ। अपने खेत-बैल संभालो। खेत परती पडे रहते हैं। भूखे बैल पगहा तुड़ाकर दूसरे की खेती चरते हैं। यहाँ रहोगे तो बैलों की देखभाल तो कर सकोगे।
संगीता! धीरज रखो। मैं कुछ कहूँगा तो बिना मारे मर जायेंगे। उनकी कम तुम्हारी अधिक बदनामी होगी। सच कोई नहीं सुनेगा। ऊपर से लोग तुम्हें ही बदचलन कहेंगे। जो हुआ, लौट तो आयेगा नहीं। लेकिन अब तुम्हें अकेली नहीं छोडूँगा। सो जाओ। रात काफी बीत चुकी है। सियार बोल रहे हैं। उल्लू चिंचिया रहे हैं और कई जानवरों की आवाजें रात के सन्नाटे को चीर रही हैं ।
''हुआँ...। हुक्का...हुआँ..हुआँ...।''
''चिक्‌....चिक्‌....चिक्‌....चिक्‌....।''
''पूऊँ.....।''
''ओ...खों...खों...खों...खों....।''
''टूटू...टूटू...खना...खोद...टूटू...।''
''मुँआ चिरई का बोलना मकारन नहीं जाता।'' संगीता डरती हुई बोली।
''गाँव में कुछ गड़बड़ तो नहीं है।'' राजन ने आश्चर्य से पूछा।
''सात-आठ महीने पहले इसी तरह सियार फेंकरते थे। कूकुर रोते थे। लोमड़ी खुखुआती थी। मुँआ चिरई करर-करर रटती थी। तब समझावन का जवान बैल मर गया था। तुम्हें एक चिट्टी लिख भेजी थी। समझावन लड़ते थे, तुम्हारे पिता से तुम्हारा भूत उनके बैल को मार डाला। बाबा उनके साथ कई जगह ओझाई सोखाई कराने गये थे। भूत अपना खुला था। भूत लेने-देने के लिये पंचायत बटोरे थे। समझावन के पूत लाठी-लोबन्धा लिये आये थे तुम्हारे भैया को मारने। उनके पूत कुचकुचाहू बल्लम लिए तमतियाय रहे थे। अपने भगवारे पिछवारे के बसिन्दे समझावन की ओर थे। फिर दह-बह हो गया था। नहीं तो उस दिन उनकी खोपडी रंग दी जाती उनके पूत की। मैं भी लाठी लिये खड़ी थी। दुबारा अपने सब पंचायत बटोरे थे भूत लेने को तो उनके घर से डर के मारे कोई बाहर नहीं निकला था। तब से भूत पता नहीं कहाँ चला गया। सच कहा गया है मार के आगे भूत भागे। तब से बोल-चाल बंद है। शांति है।
''जानवर जीव छोड़कर फैंका रहे हैं'' कुछ खराब घटने वाला है।''
''हाँ झगरू की माई बनाय लट गई है। लगता है चल बसेंगी। बस आज कल भई है।''
''संगीता, भैया शराब तो पीते नहीं थे। कहीं तुम मेरे साथ चलने के लिये उन पर कलंक तो नहीं लगा रही हो?''
''सुनी हूँ, पुरुष शंका-कुशंका करते हैं। तुम वैसे नहीं हो। मैं सच कहती हूँ। अरे मामा के पुत्तर घुरहू और एक नया नाता जोडे हैं तुम्हारे भैया रूईया काटे परपंची से। वही दोनों सार बहनोई मिलकर तुम्हारे भैया को सब कुछ सिखा दिये, मुझसे तो मौसी का लड़का धीरज बता रहा था, जो उन्हीं के साथ सुल्तानपुर में नौकरी करता है। कहता था कि उन दोनों ने जेठ जी को शराब पीना सिखाया था और भर्रा पढ़ाया था कि संगीता जब सीधे राजी न हो तो उसे शराब पिला देना। शराब का नशा चढ़ते ही वह राजी हो जायेगी।'' इसीलिए कहती हूँ कि पता नहीं कब उनका दिमाग फिरन्ट जाये। मेरी बात पर जी नहीं पतियाता हो तो मौसी के लड़के धीरज से पूछ लेना।''
''नहीं, अब वैसा नहीं होने दूगा। तुम्हे अपने साथ रखूँगा। जवानी का नशा बड़ा खराब होता है। स्त्री क्या पुरुष नशा सबको पागल बना देता है। नशे में हम होश खो बैठते हैं। यह आदिमता मानव में और प्राणी में होती है। लेकिन उसके साथ प्यार का नशा अग्रिम होता है। वह शराब के नशे से भी ज्यादा आक्रामक होता है।'' राजन ने पत्नी को बाँहों में भर लिया।
''हाँ, लगता है काफी दिन बाद दो साँसे एक हो गई हैं।'' संगीता फुस्फुसाई। दोनों एक दूसरे में समाये जा रहे थे। रात गहराती जा रही थी। जानवर रह-रहकर फैंकरते जा रहे थे। तभी पुकारने की आवाज आई।
''भैया....। ए भैया....।''
आवाज सुनते ही दोनों हड़बड़ा उठे।
''यह तो माई की आवाज....इतनी रात गये....।''
''हाँ, छोड़ो, हटो! बरसो बाद मिले भी तो दाल-भात में मूसर चंद! यहाँ रात भी अपनी नहीं हो पाती। पता नहीं कौन सी आफत फाट पड़ी है।
संगीता ने फाटक खोल दिया।
''अरे दुलाहिन, झुरहू की माई मर गई।''
''आयँ....।''
''हाँ, घर देखना। हम जाती है वहीं।'' कहकर वे चली गई।''
''सुनते हो! उसकी बूढ़ी माई बेचारी मर गई। रोने की आवाज आ रही है।''
''अरे मोरी माई....।''
''हरे माई रे....''
हमको अकेले छोड़ गई रे......,
''सब रो-चिल्ला रहे हैं, जाओगे। संगीता बोली।''
''कैसे जाऊँ घर छोड़के! माई सहेजकर गई हैं, पिताजी भी गये होंगे।''
''हाँ, पिछले साल भगलू का घर लूट लिये थे। गाँव में कोई मर गया था। उसी को सब देखने गये थे। चोर चाइएँ समय का फायदा उठाते है।''
''यह नशा भी खराब होता है। जिसे लगा जान लेकर ही छोड़ता है।''
''कौन? जवान का? उत्तर नहीं क्या?''
''संगीता, जवानी और शराब का नशा तो उतर जाता है। पर मौत का नशा लोगों को किसी और लोक में पहुँचा देता है। दादी माँ की मृत्यु ऐसे ही हुई थी। कल झुरहू की माँई को भाई को देखा तो दादी माँ याद आ गई थीं। लगा वही मेरी दादी माँ थी। आज चल बसीं। ऐसे अनेक माताएँ हर साल ऊपर चली जाती है। कहाँ जाते होंगे लोग मरने के बाद? अवश्य उनका पुनर्जन्म होता होगा।
राजन भावावेश में उठा। लालटेन जलाने लगा। रात को डेढ़ बजे थे।
''सो जाओ न। उसे क्यों जलाते हो?'' संगीता बोली।
''एक और नशा सवार हो रहा है।''
''ऊँ..हुँ..हुँ..हुँ..हुँ......। बेसबरे कहीं के। परदेश में बत्ती के उजाले में नशा उतारते थे क्या?''
''हाँ, अँधेरा जैसे काट खाता है। नींद नहीं आती तो क्या करूँ। तुम सो जाओ। मैं दूसरे कमरे में जाता हूँ।''
''बडे अजीब हो। यह दूसरे कमरे में जाने का नशा कब से चढ़ने लगा? यह भी कोई नशा है?''
''नशे कई तरह के हो सकते है। जहाँ जाने से जो नशा उतर जाये, शांति मिले, वहाँ जाना पड़ता है।''
''क्या मेरे पास रहने पर वह नशा नहीं उतर सकता?''
''नहीं! लिखने का नशा लिखने से उतरता है, किसी के पास रहने से नहीं, संगीता, मैं जीवनानुभूतियों को लिखकर संतुष्ट होता हूँ। आत्मभिव्यक्ति के लिये लेखन आवश्यक होता है।
''यानी आप लेखक बनने लगे हो। सुनी थी कवि-लेखक पागल होते हैं।''
पागलपन को नशा नहीं कहते। उसे लिखने का भूत सवार होना कहते हैं।
''जैसे तुम पर कोई भूत सवार हो रहा है, वैसे ही मुझ पर लिखने का पागलपन लग सकता है ।''
''मुझ पर कोई भूत सवार नहीं हो रहा है और न ही मैं नशे में पागल होती हूँ।''
''अच्छा मैं ही.......जो भी सही.....! अब सो जाओ।''
राजन दूसरे कमरे में गया। लालटेन के मंदिम प्रकाश में लिखने लगा-नशा...। मृत्यु का....? शराब का.....। जवानी, सुख-दुःख, लिखने-पढ़ने, सोने-जागने, काम करने, पैसे कमाने, पीने-खाने, खेलने-कूदने ! यह नशा भी क्या बला है। नशे में हम सब कुछ भुला बैठते हैं। बहुत पहले दो नशीले नाम पढ़े थे-
कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय॥
नशे की धनु में मग्न लोक रातभर भजन-कीर्तन गाते रहते हैं। नशों से बचा नहीं जा सकता। संगीता को तमाकू (खैनी) खाने का नशा चर्राता है तो कहीं से मांगकर खा लेती है। नशा एक व्यसन है। हानिकारक भी हो सकता है। कोई कहता था बीड़ी पीने का नशा छूटता ही नहीं। किसी को जुए खेलने का नशा चढ़ता है तो सारी रात दाँव या दाँव लगाते रहते हैं। सिनेमा देखने का नशा लोगों को दीवाना बना देता है। कुछ लोग एक नशे से बचने के लिये दूसरे नशे का सहारा लेते हैं । काम-व्यसन के नशे से बचने के लिये लेखन आवश्यक होता है। बुरी आदत से बचने के लिये कोई अच्छी आदत डालना पड़ता है। आदत और नशे में कुछ साम्य हो सकता है। किन्तु जब किसी नशे को उत्तेजित करने के लिये किसी दूसरे नशे का सहारा लिया जाता है, तब नशा दुगुना बढ़ सकता है। यदि सावधानी न बर्ती गई तो दुहरे नशे का प्रभाव हमें अंधा बना देता है। नशे में हम अपने होश खो बैठते हैं। पागल या जंगलीवाला व्यवहार करने लगते हैं । दोहरा नशा हमें बर्बाद कर देता है। जवानी के नशे को उत्तेजित करने के लिये शराब के नशे में बुत होना प्राणघातक हो सकता है। मदिरा जवानी के नशे को उत्तेजित करने के बदले युवावस्था के तंतुओं को इतना वेगवान बना देती है वे नाजुक तंतु बिजली के तार के फ्यूज की तरह उड़ जाते हैं। शराब पीने से जवानी ढीली पड़ जाती है। शक्ति घट जाती है। नशे में मनुष्य नरबस, निःस्काम बों-बों करता अफनाता अवश्य है, पर कामयाब नहीं होता है। शराब का नशा हर नशे को मात कर देता है। लेकिन कुछ अज्ञानी लोग उसे उत्तेजित करने वाला पदार्थ समझते हैं। यह भ्रमात्मक मान्यता है। शराब के नशे में मर्द अपनी मर्दानगी, होश-हवास, गँवा बैठता है। दो साल पहले सुग्गन पहलवान को मारने के लिये शत्रुओं ने उन्हें शराब पिला दिया था। नहीं तो सुग्गन के सामने कोई टिक नहीं पाता था। सुग्गन शराब के नशे में मारा गया था। अच्छा बनने या सत्कर्म करने में शराब का नशा बाधक बन जाता है।
''अरे अब नशा उतर गया हो तो उठिए। देखो दिन चढ़ आया है।''
संगीता की आवाज सुन उसकी लेखनी थम गई। उसने लालटेन बुझा दिया। कमरे से बाहर निकलकर दातून कूचने लगा।

Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क