Skip to main content

बँटवारा

- सुशान्त सुप्रिय
मेरा शरीर सड़क पर पड़ा था। माथे पर चोट का निशान था। कमीज पर खून के छींटे थे। मेरे चारों ओर भीड़ जमा थी। भीड़ उत्तेजित थी। देखते ही देखते भीड़ दो हिस्सों में बँट गई। एक हिस्सा मुझे हिन्दू बता रहा था। केसरिया झंडे लहरा रहा था। दूसरा हिस्सा मुझे मुसलमान बता रहा था। हरे झंडे लहरा रहा था। एक हिस्से ने कहा - इसे मुसलमानों ने मारा है। यह हिन्दू है। इसे जलाया जाएगा। इस पर हमारा हक है। दूसरा हिस्सा गरजा - इसे काफिरों ने मारा है। यह हमारा मुसलमान भाई है। इसे दफनाया जाएगा। इस पर हमारा हक है। फिर 'जय श्री राम' और'अल्लाहो अकबर' के नारे लगने लगे।
मैं पास ही खड़ा यह तमाशा देख रहा था। क्या मैं मर चुका था? भीड़ की प्रतिक्रिया से तो यही लगता था।
मैंने कहा - भाईयो, मैं मर गया हूँ तो भी पहले मुझे अस्पताल तो ले चलो। कम से कम मेरा'पोस्ट-मॉर्टम' ही हो जाए। पता तो चले कि मैं कैसे मरा।
भीड़ बोली - ना बाबा ना। हम तुम्हें अस्पताल नहीं ले जा सकते। यह 'पुलिस केस' है। बेकार में कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पडेंगे।
एक बार फिर 'जय श्री राम' और 'अल्लाहो अकबर' के नारे गूँजने लगे। भीड़ एक दूसरे के खून की प्यासी होती जा रही थी। डर के मारे मैं पास के एक पेड़ पर चढ़ गया। इन जुनूनियों का क्या भरोसा। मरे हुए को कहीं दोबारा ना मार दें।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ। सड़क पर जो पड़ा था वह मेरा ही शरीर था। फिर मेरे शरीर को जलाया जाए या दफ़नाया जाए, इस बारे में इन्हें मुझसे तो सलाह-मशविरा करना चाहिए था। पर भीड़ थी कि मुझे सुनने को तैयार नहीं थी।
मैंने अनुरोध के स्वर में फिर कहा-भाइयो, मुझ जैसे अदना इंसान के लिए आप लोग साम्प्रदायिक सद्भाव क्यों तोड़ रहे हो? कृपा करके भाईचारा बनाए रखो। मिल-बैठकर तय कर लो कि मुझे जालाया जाना चाहिए या दफ़नाया जाना चाहिए। अगर बातचीत से मामला नहीं सुलझे तो मामला अदालत में ले जाओ।
भीड़ बोली - अदालत न्याय देने में बहुत देर लगाती है। पचास-पचास साल तक मुकद्मा चलता रहता है। निचली अदालत का फैसला आने पर फिर हाई-कोर्ट, सुप्रीम-कोर्ट हो जाती है। तब तक तुम्हारे शरीर का क्या होगा? मैंने कहा - भाइयो, खून-खराबे से बचने के लिए मैं अदालत का फैसला आने तक 'ममी' बने रहने के लिए भी तैयार हूँ।
पर भीड़ के सिर पर तो खून सवार था। कोई इतना समय रुकने के लिये तैयार नहीं था।
इस पर मैंने कहा - भाइयो, तो फिर आप लोग सिक्का उछाल फैसला कर लो। टॉस में जो पक्ष जीत जाए वह अपने मुताबिक मेरे शरीर को जला या दफ़ना दे।
भीड़ ने कहा - हमने 'शोले' देखी है। हम इस चाल में नहीं आएँगे।
अजीब मुसीबत थी। नीचे सड़क पर मेरा शरीर पड़ा था। चारों ओर उन्मादियों की भीड़ जमा थी। पास ही एक पेड़ पर मैं चढ़ा हुआ था। अपने शरीर को इस तरह देखने का मेरा पहला अवसर था। मुझे अपने शरीर पर दया आई। उससे भी ज्यादा दया मुझे भीड़ पर आई। मेरी लाश पर कब्जे को लेकर ये लोग मरने-मारने पर उतारू थे।
तभी एक पढा-लिखा सा दंगाई मेरे पेड़ की ओर इशारा करता हुआ अंग्रेजी में चिल्लाया-गिटपिट- गिटपिट...ब्लडी-फूल...गिटपिट-गिटपिट...किल हिम...। बहुत से दंगाई लाश को छोड़कर उस पेड़ के नीचे जमा हो गए जिस पर मैं चढ़ा बैठा था। डर के मारे मैं एक डाल और ऊपर चढ़ गया।
नीचे से दंगाई चिल्लाए-जल्दी से तू खुद ही बता तू कौन है, वर्ना हम तुझे फिर से मार डालेंगे।
अजीब लोग थे। मरे हुए को फिर से मारना चाहते थे। मैंने दिमाग पर बहुत जोर डाला। पर मुझे कुछ भी याद नहीं आया कि मैं हिन्दू था या मुसलमान। भुलक्कड़ मैं शुरू से ही था। पर मुझे नहीं मालूम था कि मेरे भूलने की बीमारी का एक दिन इतना संगीन नतीजा निकलेगा।
भीड़ अब बेकाबू होती जा रही थी। दोनों ओर से त्रिशूल और तलवारें लहराई जा रही थीं। 'जय श्री राम' और 'अल्लाहो अकबर' के नारों से आकाश गूँज रहा था।
कहीं दंगा-फसाद न शुरू हो जाए यह सोच कर मैंने एक बार फिर कोशिश की - भाइयो, शांत रहो। अगर कोई हल नहीं निकलता तो मेरा आधा शरीर हिन्दू ले लो। तुम उसे जला दो। बाकी का आधा शरीर मुसलमान ले लो। तुम उसे दफना दो।
मुझे न्यायप्रिय सम्राट विक्रमादित्य का फैसला याद आया। मैंने सोचा, अब कोई एक पक्ष पीछे हट जाएगा ताकि मेरी लाश की दुर्गति न हो।
पर भीड़ गँड़ासे, तलवार और छुरे लेकर मेरे शरीर के दो टुकड़े करने के लिये वाकई आगे बढ़ी। मैं पेड़ की ऊँची डाल पर चढ़ा होते हुए भी थर-थर काँपने लगा। जो शरीर दो हिस्सों में काटा जाना था, वह आखिर था तो मेरा ही।
ये कैसे लोग थे जो लाश का भी बँटवारा करने पर तुले हुए थे? मैंने उन्हें ध्यान से देखा। भीड़ में दोनों ओर वही चेहरे थे। जो चेहरे केसरिया झंडा पकडे थे, वही चेहरे हरा झंडा पकड़े भी नजर आए। ठीक वही वहशी आँखें, ठीक वही विकृत मुस्कान भीड़ में दोनों ओर थी।गोधरा-कांड में ये ही लोग शामिल थे। बेस्ट बेकरी कांड में भी ये ही लोग लिप्त थे।
भीड़ गँड़ासों, तलवारों और छुरों की धार परख रही थी। काश, हमारे 'स्टैचू' कहने पर सभी हत्यारे, सभी दंगाई बुत बन जाते। और फिर हम उन्हें समुद्र में डुबा आते।
भीड़ ने हथियार उठाकर मेरी लाश पर चलाने की तैयारी कर ली थी। तभी उनमें से कोई समझदार चिल्लाया-अबे, इसकी पतलून उतार कर देख। अभी पता चल जाएगा कि स्साला हिन्दू है या मुसलमान।
अभी इस बेइज्जती भी बाकी थी। कई जोड़ी हाथ मेरी लाश पर से पतलून उतारने लगे। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैं पेड़ से कूदा और 'बचाओ, बचाओ' चिल्लाया।
पर मेरी वहाँ कौन सुनता। देखते-ही-देखते दंगाइयों ने मेरी लाश को नंगा कर डाला। शर्म से मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं।
लाहौलविलाकूलवत! छिः छिः! शिव-शिव!
एक मिला-जुला सा शोर उठा। आँखें खोलते ही मैं सारा माजरा समझ गया। और मुझे याद आ गया कि मैं कौन था। कुछ दंगाई अश्लील मजाक पर उतर आये थे। कुछ दोनों हाथों से ताली बजा-बजाकर 'हाय-हाय' करने लगे थे । और हँस रहे थे ।
माहौल में तनाव एकाएक कम हो गया। मैंने राहत की साँस ली।
धीरे-धीरे दंगाईयों की भीड़ छँटने लगे। हरे झंडे वाले एक ओर को चल दिए। केसरिया झंडे वाले दूसरी ओर को चल दिए। आज त्रिशूलों और तलवारों का दिन नहीं था। अब मैं अपनी नंगी लाश के पास अकेला रह गया था। अगर इस तरह के दंगे - फसाद रूक सकें तो काश ऊपर वाला सब को 'वो' बना दे - मैंने सोचा।


Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क