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Showing posts from October, 2010

ईरान की खूनी क्रान्ति से सबक़

अमरीक सिंह दीप एक अच्छी किताब पाठकों की संवेदनाओं, भावनाओं और विचारों की ठहरी जल सतह में हलचल पैदा करती है, उनमें ज्वार जगाती है और उन्हें अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने के लिए उकसाती है। एक अच्छी किताब क्रान्ति का बिगुल नहीं फंूकती चुपचाप धीरे-धीरे क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करती है। ऐसी ही एक किताब इधर मुझे पढ़ने को मिली। वह है नासिरा शर्मा का ईरान की खूनी क्रान्ति पर लिखा गया बहुचर्चित उपन्यास ‘सात नदियां एक समुन्दर।’ अब नाम है-‘बेहिश्ते ज़हरा’। लेखिका ने चार बार ईरान आकर और चन्द माह ईरान में रहकर इस खूनी क्रान्ति को अपनी नंगी आंखों से देखा, महसूसा और जिया और खूनी संगीनों की परवाह न कर बड़ी दिलेरी और दुस्साहस के साथ इसे कागज़ पर उतारा। इस बात की परवाह किए बगै़र की उसकी भी दशा उपन्यास की पहाड़ी नदी सादृश्य माक्र्सवादी लेखिका तय्यबा जैसी हो सकती है। कोई भी युद्ध, कोई भी क्रान्ति हो उससे सबसे अधिक प्रभावित स्त्राी ही होती है, सबसे अधिक पीड़ा और यन्त्राणा स्त्राी को ही झेलनी पड़ती है। सबसे अधिक नुकसान स्त्राी को ही उठाना पड़ता है। इस उपन्यास के केन्द्र में एक नहीं सात स्त्रिायां हैं।

ज़िन्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया हैः ‘ज़िन्दा मुहावरे’

नगमा जावेद ‘ज़िन्दा मुहावरे’ ज़िन्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया है, यह अतीत हुए दर्द की भूली-बिसरी टीस नहीं.... दर्द का एक सिलसिला जो 1947 से शुरू हुआ और आज भी इस दर्द में कमी नहीं आयी है बल्कि दर्द की शिद्दत बढ़ गयी है। आज़ादी के 61 सालों बाद भी मुसलमाने को शक की निगाह से देखा जाता है - आख़िर क्यों? उनकी देशभक्ति को कटघरे में किसलिए खड़ा किया जाता है? आज भी उनसे कहा जाता है कि ये देश तुम्हारा नहीं है - पाकिस्तान जाओ! और पाकिस्तान में भी एक लंबा अर्सा गुज़ारने के बावजूद उनके माथे पर ‘मुहाजिर’ का लेबल किसी कलंक की तरह चिपका हुआ है। ये ही वह कड़वी, तल्ख हकीक़तें हैं जिन्हें नासिरा शर्मा ने अपने उपन्यास में बड़े विषाद के साथ मुखरित किया है। 1992 में लिखा उपन्यास ‘ज़िन्दा मुहावरे’ बँटवारे की कोख से जन्मी एक ‘चीख’ है,  ऐसी चीख जिसकी अनुगंूज आज भी सुनाई देती है। बँटवारे ने मुसलमानों को क्या दिया? एक ज़ख़्म, एक घाव जो आज भी खुला हुआ है। क्यों आज भी मुसलमान नकरदा गुनाहों की सज़ा भोग रहे हैं? लेखिका ने समय और समाज के अन्तर्सम्बन्धों की महीन पड़ताल करते हुए जिस निष्पक्षता और रवादारी का परिचय दिया है वह वाकई

नासिरा शर्मा के बहाने

शीबा असलम फ़हमी जिस तरह वक़्त कई बार शख़्सियतों को बनाता है उस ही तरह यह वक़्त कई बार उन्हें बनने भी नहीं देता। भारत जैसे सक्रिय लोकतंत्रा में जहां हर विद्या पर सामाजिक सरोकारों को सामने रखकर वरीयताक्रम तय हो रहा हो, वहां यह अपने-अपने में एक विडम्बना हो सकती है कि आप किसी ‘वाद’ या किसी वंचित वर्ग के सांचे में फिट न बैठें। साहित्यकार नासिरा शर्मा साहेबा को अभी पिछले 6-7 सालों से ही जानती हू। जब ‘हैडलाइन प्लस’ पत्रिका का सम्पादन शुरू किया तो कुछ ऐसे लेखकों की तलाश भी शुरू हुई जो साहित्य के साथ-साथ वृहत्तर विषयों पर भी टिप्पणी कर सकें। यह 2003-04 के दौर की बात है जब ‘गुजरात कांड’ पर कहानियाँ, लघु कथाओं, कथा संग्रहों का उत्पादन बहुत ज़ोर-शोर से चल रहा था। ज़्यादातर रचनाकारों के मुसलमान नाम थे और कम से कम हिन्दी साहित्य में यही लग रहा था कि इस जघन्य कांड पर लिखने की ज़िम्मेदारी शायद सिर्फ़ मुसलमानों पर आ पड़ी है। हिन्दी के इतने बड़े अन्तर्राष्ट्रीय फ़लक पर इस घटना पर संवेदना केवल ‘हिन्दी के मुसलमान लेखकों’ में ही जगी है और इस सच्चाई को महसूस करते हुए ही वह आवरण-कथा ‘हैडलाइन प्लस’ के अक्टूबर 2003

स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप

वेद प्रकाश नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ दो दशक पहले प्रकाशित हुआ था। यह सुखद आश्चर्य है कि आज भी इस उपन्यास में स्त्री-विमर्श का एक विश्वसनीय एवं सार्थक रूप मिलता है। यह उपन्यास स्त्रीवाद के समक्ष कुछ चुनौतीपूर्ण सवाल भी व्यंजित करता है। इसीलिए बहुत से स्त्राीवादी इसके निंदक आलोचक हो सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि नासिरा शर्मा स्त्री की यातना, उसके जीवन की विसंगतियों-विडंबनाओं पर सशक्त ढंग से विचार करती है। वे सामान्य अर्थों में स्त्रीवादी लेखिका नहीं है। वे नारीवाद की एकांगिता, आवेगिता, आवेगात्मकता को पहचानती हैं। नारीवाद की पश्चिमी परंपरा का प्रभाव तथा उसकी सीमाएं नासिरा शर्मा की दृष्टि में हैं, इसलिए बहुत हद तक वे इन सीमाओं से मुक्त होकर लिखती हैं, उनकी स्त्राी संबंधी दृष्टि कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाओं की दृष्टि के अधिक निकट ठहरती है। ये लेखिकाएं मौलिक, यथार्थवादी ढंग से स्त्री समस्याओं पर विचार करती हैं। इस संदर्भ में इन लेखिकाओं की रचनाएं द्वंद्वात्मकता से युक्त हैं। जीवन की अंतःसंबद्धता की उपेक्षा किसी भी प्रकार के लेखन की बहुत बड़ी सीमा हो सकती है।

रास्ता इधर से भी जाता है

सुरेश पंडित स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध जितने सरल सहज स्वाभाविक दिखाई देते हैं उतने होते नहीं। उनकी जटिलता दुबोधिता व अपारदर्शिता को सुलझाने, समझने व सही तरीक़े से देख पाने के उद्यम प्राचीनकाल से दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों, विचारकों और लेखकों द्वारा किये जाते रहे हैं लेकिन आज तक कोई उन्हें सुनिश्चित तौर पर स्पष्ट शब्दों में व्याख्यायित नहीं कर पाया है। दोनों के बीच आकर्षण तो सामान्य रूप से स्वीकार कर लिया जाता है लेकिन उसकी परिणति घोर अरुचि में कैसे हो जाती है, कैसे एक दूसरे के लिये कुछ भी बलिदान करने को उद्यत ये दोनों इतने विकर्षण ग्रस्त हो जाते हैं कि एक दूसरे का मुँह तक देखना पसन्द नहीं करते इस रहस्य का पता लगाना आज भी पूरी तरह संभव नहीं दिखाई दे रहा है। मनुष्य ने प्रकृति के रहस्यों का पता लगाकर उनमें ही अनेक पर विजय पा ली है या पाने की ओर अग्रसर हैं पर मनुष्य की प्रकृति अभी तक उसके लिये अज्ञेय बनी हुई है। स्त्राी-पुरुष को परस्पर एक सूत्रा में बांधे रखने के लिये ही कद्चित विवाह नाम की संस्था बनी होगी। यह संस्था अनेक बुराइयों, दोषों, कमजोरियों के बावजूद आज तक इसलिये चली आ रही

तनी हुई मुट्ठी में बेहतर दुनिया के सपने

अशोक तिवारी ये उस दौर की बात है जब मैं बारहवीं पास कर अलीगढ़ की ऐतिहासिक ज़मीन पर आगे की पढ़ाई करने के लिए आ चुका था। कोर्स की किताबों के अलावा मेरे और जो शौक थे उनमें एक था पत्रिकाएं पढ़ना। इन पत्रिकाओं में साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका इत्यादि थे। सारिका पत्रिका के अंकों का मुझे इंतज़ार रहता था। मिलते ही चाट जाता। इन्हीं अंकों में उन दिनों ईरान पर कोई लेख छपा था। पढ़ा मगर बांध नहीं पाया। इसी संदर्भ में कुछ दिन बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान में भी एक लेख छपा। पढ़ा। लेख से ज़्यादा ये रिपोर्ताज था। मैंने दोनों को मिलाकर पढ़ा। कुछ-कुछ चीजे़ स्पष्ट हुईं किंतु महज़ इतनी ही कि ईरान में जो हो रहा है, अच्छा नहीं हो रहा है। दोनों ही लेख एक ही लेखक के थे - नासिरा शर्मा। नासिरा शर्मा के साथ ये मेरा पहला साक्षात्कार था। नासिरा भी और शर्मा भी। वाह! बिल्कुल नया नाम - एक ऐसा नाम जिसमें एक ओर जहां चार सौ साल पुरानी दीने-इलाही धर्म की महक आती थी वहीं दूसरी ओर प्रगतिशील सोच की एक जि़दा तस्वीर सामने कौंध जाती थी। क़रीब 27-28 साल बाद नासिरा शर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ गहनता से बावस्ता हुआ। नासिरा श

अद्भुत जीवट की महिला नासिरा शर्मा

ललित मंडोरा नासिरा जी के नाम से परिचित था। वह बड़ों के साथ छोटों पर यानी बच्चों के लिए भी लिखती हैं, इसका भी पता था क्योंकि मैं उन्हें चम्पक, नन्दन बाल पत्रिकाओं में पढ़ चुका था मगर नासिरा जी इंसान कैसी होंगी, इसका कोई अन्दाज़ा नहीं था जबकि उनका चित्रा उन रचनाओं के साथ छपे बारहा देख चुका था। याद करें कि कब नासिरा जी के रूबरू हुआ तो याद आता है कि वह मानव अधिकार पर आयोजित ट्रस्ट की कार्यशाला थी जो भोपाल में होना तय पाई थी। नासिरा जी और पंजाबी की लेखिका बंचित कौर को एक साथ भोपाल पहुँचना था। उस समय डा. वर्षादास (प्रख़्यात अभिनेत्री नदिता दास की माँ नेशनल बुक ट्रस्ट में मुख्य सम्पादक एवं संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत थीं।) वह हमारे साथ थीं। उस कार्यशाला में हिन्दी के वरिष्ठ कथाकारों को बुलाया गया था। मधुकर सिंह, रमेश थानवी, गिरीश पंकज। कार्यशाला में उठते-बैठते महसूस हुआ कि नासिरा जी स्वभाव में सहज हैं। एक बड़ी लेखिका का इतना सरल होना भी वाकई आचंभित करना खासकर तब और जब उस कार्यशाला की अन्य लेखिका की बिखरी कहानी को समेटते संवारते देखता। भोपाल शहर से दूर होटल में ठहरने का इंतज़ाम यह सोचकर किया ग

मेरे जीवन पर किसी का हस्ताक्षर नहीं

नासिरा शर्मा यदि कोई पूछे कि इलाहाबाद का सबसे खूबसूरत और जानदार इलाका कौन- सा है तो मैं कहूगी नखास कोना और उसके आसपास का वह सारा इलाक़ा जो मेरी कहानियों में धड़कता है। क़ायदे से मुझे अपने घर और मोहल्ले से प्यार होना चाहिए था मगर इश्क़ मुझे बहादुरगंज, कोतवाली, घंटाघर, ठठेरी बाज़ार, बर्फवाली गली, सब्ज़ी मंडी, पत्थरगली, चुड़ैलीवाली गली, स्टेशन रोड गढ़ी, सराय वगैरह से है जहाँ गलियों के डेल्टा और मधुमक्खियों के छतों की तरह मकानों की भरमार है। लाख चाहू कि कहानी किसी और मोहल्ले की लिखू मगर मेरा रचनाकार ज़िन्दगी से भरपूर इसी परिवेश में पहुंच जाता है। कोतवाली के अलावा कोई और थाना, थाना ही नहीं लगता है। मीर अम्मन देहलवी ने भी अपने समय के कुछ इसी तरह के इलाके का ज़िक्र अपनी प्रसिद्ध कृति ‘बाग व बहार’ में किया था जहाँ खोया से खोया छिलता है। बाज़ार, दुकान, खोंचे वाले, मकान, हवेली, मन्दिर- मस्जिद, ताड़ीखाना, हमामघर, पुराने पटे कुएँ, लकड़ी का टाल, बोसीदा इमारतें, रिक्शा, इक्का, साइकिल, मोटर, जीप, पैदल गर्जकि ऐसा कुछ नहीं है जो वहाँ आपको ज़िन्दगी से जूझता नहीं मिलेगा। यहाँ तक घूमती भटकती गायें और रास्ता रोके साँड़

नासिरा शर्मा- जितना मैंने जाना

डा. सुदेश बत्रा वह दिसम्बर 1991 का कोई दिन था - शायद 18 दिसम्बर - जब मैंने पहली बार नासिरा शर्मा को देखा - गोरा, गुलाबी आभा लिए दमकता रंग, नीली भूरी चमकती आँखें, उभरे गाल, गुलाबी रंगत लिए अघरों पर हल्का स्मित, लम्बे सीधे खुले बाल, कानों में हरे रंग के कीमती नगों वाले खूबसूरत कर्णफूल, हरे रंग की प्रिन्टेड सिल्क की साड़ी में लिपटा मझोला कद- मैं जैसे उनके चेहरे में शाल्मली को ढूढ रही थी और शाल्मली के माध्यम से उस सुलझी दृष्टि और नायिका की स्वाभिमानी मगर अन्तर्मुखी गरिमा को। उस समय मुझे लगा था - जैसे मेरे मन में छिपे सारे अन्तद्र्वन्द्वों और हलचलों को इन्होंने कैसे पन्नों पर साकार कर दिया है - मेरी संवेदनशीलता को शाल्मली ने भीतर तक एकाकार कर लिया था। नासिरा शर्मा ने शाल्मली के माध्यम से पति-पत्नी के सम्बन्धों, समीकरणों और समझौतों को द्वन्द्वात्मक रूप में चित्रित किया है। वह पुरुष वर्चस्व एवं व्यवस्था के उपनिवेश के खिलाफ़ संघर्ष भी करती है और उसका हिस्सा भी बनती है। एक ओर वह मुक्तिकामना से छटपटा रही है, दूसरी ओर अपने मनोजगत् से व्यवहार जगत् तक निःसंग न रह पाने के कारण अपने संस्कारों से आक्र

नासिरा शर्मा विशेषांक

विशेषांक उपलब्ध (मूल्य-150/ रजि. डाक से) नासिरा शर्मा विशेषांक सम्पादकीय नासिरा शर्मा मेरे जीवन पर किसी का हस्ताक्षर नहीं सुदेश बत्रा नासिरा शर्मा - जितना मैंने जाना ललित मंडोरा अद्भुत जीवट की महिला नासिरा शर्मा अशोक तिवारी तनी हुई मुट्ठी में बेहतर दुनिया के सपने शीबा असलम फहमी नासिरा शर्मा के बहान अर्चना बंसल अतीत और भविष्य का दस्तावेज: कुंइयाँजान फज़ल इमाम मल्लिक ज़ीरो रोड में दुनिया की छवियां मरगूब अली ख़ाक के परदे अमरीक सिंह दीप ईरान की खूनी क्रान्ति से सबक़ सुरेश पंडित रास्ता इधर से भी जाता है वेद प्रकाश स्त्री-मुक्ति का समावेशी रूप नगमा जावेद ज़िन्दा, जीते-जागते दर्द का एक दरिया हैः ज़िन्दा मुहावरे आदित्य प्रचण्डिया भारतीय संस्कृति का कथानक जीवंत अभिलेखः अक्षयवट एम. हनीफ़ मदार जल की व्यथा-कथा कुइयांजान के सन्दर्भ में बन्धु कुशावर्ती ज़ीरो रोड का सिद्धार्थ अली अहमद फातमी एक नई कर्बला सगीर अशरफ नासिरा शर्मा का कहानी संसार - एक दृष्टिकोण प्रत्यक्षा सिंहा संवेदनायें मील का पत्थर हैं ज्योति सिंह इब्ने मरियम: इंसानी मोहब्बत का

वाङ्मय त्रैमासिक

शोध आलेख/आलेख डा. परमेश्वरी शर्मा/राजिन्दर कौर देह और देश के दोराहे पर अज़ीजु़न/10 डा. शान्ती नायर नगाड़े की तरह बजते शब्द/19 वंदना शर्मा रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस का स्वरूप/26 डा. मजीद शेख साहित्य सम्राट: मंुशी प्रेमचंद/31 अंबुजा एन. मलखेडकर मीराकान्त: एक सवेदनशील रचनाकार/36 मो. आसिफ खान/ भानू चैहान काला चांद: एक विवेचन/39 डा. रिपुदमन सिंह यादव समकालीन परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की दशा एवं दिशा/42 सलीम आय. मुजावर डा. राही मासूम रजा के कथा साहित्य में विवाह के प्रति बदलते दृष्टिकोण/45 डा.एन.टी. गामीत मन्नू भंडारी की कहानियों में आधुनिक मूल्यबोध/50 कविता/ग़ज़ल/आपबीती संजीव ठाकुर खूनी दरवाज़ा/53 अलकबीर भारतबासी- 1/30 भारतबासी- 2/59 भारतबासी- 3/54 डा. मधू अग्रवाल आज़ादी/44 विजय रंजन ज़िंदगी/35 मूलचन्द सोनकर लोग अम्बेडकर जयन्ती मनाते रहे और मैं अपने नवजात श्वान-शिशु का प्राण बचाने...../55 लुघकथा/कहानी अशफाक कादरी की लुघकथाएं/60 नदीम अहमद ‘नदीम’ की लुघकथाएं/61 जयश्री राय उसके हिस्से का सुख/62 पुस्तक समीक्षा चक्कर (कहानी-संग्रह) समीक्षक- शिवचंद प्रसाद/66 विरह

चक्कर से टक्कर

डा. शिवचन्द प्रसाद ‘चक्कर’ दलित-चेतना पर केन्द्रित जवाहरलाल कौल ‘व्यग्र’ का तेरह कहानियों का प्रकाशित (सन् 2009) संग्रह है जिसमें ब्राह्मणवादी आभिजात्य के मिथ्याभिमान और उसके द्वारा चलाये जाते विभिन्न दुष्चक्रों का बड़ी शालीनता के साथ सामना किया गया है। कौल की कहानियाँ अपने समय का साक्षात्कार करती हुई युग-बोध से उद्भूत दलित-संवदेना की विभिन्न चुनौतियों-असमानता, त्रास, अस्पृश्यता, अपमान, शोषण-दलन-उत्पीड़न से निर्भय होकर जूझती हैं तो दूसरी तरफ दलित सौंदर्यशास्त्रा को एक नया आयाम भी देती हैं। यहाँ पुरानी कहानी ‘नया पाठ’ (नया कफन, सद्गति-गाथा और ठाकुर के कुएं का पानीहै तो जाति-देश से उभरा अम्बेडकरवादी समतामूलक बौद्ध-दर्शन भी है, स्वानुभूति है तो सहानुभूति भी है। जहाँ चक्कर से टक्कर के लिए कबीर और रैदास की परम्परा है तो अंधविश्वासों को मौन निरन्तर कर देने वाला दलित-चिंतन भी है। मुंशी किशनचन्द (चक्कर कहानी) को बड़े-छोटे, जाति, धर्म-संप्रदाय, अलगाव, आतंक, विध्वंश आदि जैसे प्रश्न-चक्कर में डाले हुए हैं। उनके सामने एक ओर तो प्रवाचक शुक्ला जी का वसुधैव कुटुम्बकम् वाला शाश्वत सूक्त वाक्य है तो दूसर

उसके हिस्से का सुख

जयश्री राय रतनी बाल विधवा थी। चार-पांच घरों में काम करके अपना पेट पालती थी। जोशी जी के गोदाम घर के एक कोने में उसे रहने दिया गया था। बदले में वह उनके मंूगफली के खेत पटाया करती थी। खलिहान की साफ़-सफाई की जिम्मेदारी भी उसी पर थी। उस जले तवे-सी काली-कलूटी औरत के चेहरे में ऐसा ज़रूर कुछ था जो बरबस अपनी ओर खींचता था। वह अपने झकमकाते दाँतों को निकालकर ऐसे उजली हंसी हंसती थी कि एक पल को उसका बसंत के दागों से भरा चेहरा भी जैसे सुंदर बन पड़ता था। अपनी अनगिन हड्डियाँ बजाती हुई वह दस भुजा की तरह रात-दिन काम में लगी रहती थी। लगता था, वह हाथों से नहीं, अपनी जीभ से चाटकर घर-आंगन साफ करती है। उसे काम करते हुए देखकर प्रतीत होता था, एक साड़ी ही हवा में बिजली की तरह लहराती, कौंधती फिर रहीं हैं। उसका अमावश्या-सा गहरा काला रंग उसे अंधेेरे में प्रायः अदृश्य ही कर देता था। पुकारो रतनी और तत्क्षणात सामने बत्तीस दाँत झमझमा उठे तो समझो वही मटमैली रोशनी में चुड़ैल की तरह नाचती फिर रही है। वह जितना काम करती थी, खाती उससे दो गुना थी। उसे खाना खाते हुए देखना भी अपने आप में एक अनुभव होता था। स्तूपाकार भात को गोग्रा

नदीम अहमद ‘नदीम’ की लुघकथाएं

एक ही सफ में सरफराज साहब शहर में आला सरकारी अफसर है। जुमे की नमाज़ ज़रूर पढ़ते है। सोचते हैं सप्ताह में एक बार तो कम से कम मालिक की इबादत मस्जिद में सामूहिक रूप से कर सके। सरफराज साहब अत्यन्त विनम्र एवं सुलझे विचारों के इन्सान है। दिनभर घर कार्यालय में लोगों की जी हुजूरी से परेशान हो जाते हैं। सोचते थे मस्जिद में एक सामान्य आदमी की तरह दो घण्टे सुकून से गुज़ारेंगे। एक दिन तो हद हो गई। सरफराज साहब किसी कारणवश मस्जिद देर से पहुंचे पीछे की पंक्ति में जगह मिली बैठने ही वाले थे कि आगे की सफ (पंक्ति) में बैठे अली ने उन्हें आगे की सफ में आने की दावत दी। लेकिन सरफराज आगे की सफ में नहीं गए जहां मिली वहीं बैठ गए। नमाज़ के बाद सरफराज साहब मस्जिद के मुख्य द्वार के पास अली की प्रतीक्षा करने लगे। अली बाहर आया। साहब उसके कंधे पर हाथ रखकर दूसरी तरफ ले गए। बोले ‘अली साहब कभी भी आदमी को उसके रूतबे नहीं आंकना चाहिए।’ खासतौर पर मस्जिद में क्या आपने यह शेर नहीं सुना ‘‘एक ही सफ में खड़े हो गए महमूदों अयाज, न कोई बन्दा रहा न बन्दा नवाज़’’ अली शर्मिन्दा था। उनके मँुह से शब्द नहीं निकल रहे थे। आॅब्लाईज बैंक मंैने

अशफाक कादरी की लुघकथाएं

राजनीति समाज के स्नेह मिलन कार्यक्रम में नगर विधायक एवं मंत्राी जी मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे। मंत्राी जी के विरोधी दीवान साहब भी कार्यक्रम में उपस्थित थे। राजनीति के हर मोर्चे पर मंत्राी जी के हाथों शिकस्त खाए दीवान साहब की मौजूदगी सभी के लिए आश्चर्य की बात थी। कार्यक्रम समापन से पूर्व ही मंत्राी जी अपना भाषण समाप्त कर अगले कार्यक्रम के लिए जब मंच से उतरने लगे तभी दीवान साहब ने आगे बढ़कर उन्हें एक काग़ज़ पेश किया जो दीवान साहब की पुत्रावधू के शहर में स्थानान्तरण बाबत प्रार्थना पत्रा था, सभी कौतूहल से दीवान साहब को देख रहे थे। मंत्राी जी ने अनमने ढंग से वह काग़ज़ लेकर अपने पीए को दे दिया और कार्यक्रम से बाहर निकल गए। अचानक दीवान साहब माईक पर आ गये और बोलने लगे ‘‘भाइयों आप जानते हैं कि मैं समाज की उपेक्षा कभी बरदाश्त नहीं कर सकता, मंैने अभी-अभी आपके सामने मंत्राी जी को एक काग़ज़ पेश किया हैं जिसमें समाज के लिए सामुदायिक भवन निर्माण, लड़कियों के लिए स्कूल और आम-अवाम के लिए चिकित्सालय खोलने की मांग रखी हैं, आपका सहयोग मिला तो हम यह मांगे मनवाने में सफल रहेेगे। ‘‘सारा कार्यक्रम तालियों

लोग अम्बेडकर जयन्ती मनाते रहे और मैं अपने नवजात

मूलचन्द सोनकर मेरे मन के किसी कोने में यह इच्छा दबी हुई है कि मैं इस वृतांत्त का, जो वास्तव में मेरा स्ंात्रास भरा अनुभव है, का शीर्षक ‘‘मैंने ईश्वर को देख लिया’’ रखता, क्योंकि मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ वह लगभग चमत्कार की तरह लग रहा है और संयोग कहकर मैं इसके औचित्य को सिद्ध करने की स्थिति में स्वयं को नहीं पाता। वैसे भी हर एक घटना के परिणाम को संयोग की कसौटी पर कसा भी नहीं जा सकता। हुआ यह कि मेरी पालतू कुतिया ‘चेरी’ ने दिनांक 13.04.2010 को सायंकाल सात-साढ़े सात बजे के दौरान चार बच्चे दिये। इसको लेकर मेरे घर में बहुत उत्कंठा रहती थी कि चेरी कब बच्चे देगी। लगभग डेढ़ वर्ष पहले जाड़े में बरती जा रही थी। अन्ततोगत्वा वह घड़ी आयी। एक-एक करके चार बच्चे पैदा हुए। चारों पूरी तरह स्वस्थ और अत्यन्त सुन्दर। सोचता हूँ कि कितना अन्तर होता है आदमी और पशुओं की संतानांेत्पत्ति की प्रक्रिया में। औरत जहाँ प्रसव की वेदना से छटपटाती हुई तमाम सावधानियों के बीच नर्स, दाई, डाॅक्टर की मदद से बच्चे पैदा करती है वहीं पशु बिना किसी शोर-शराबे के बच्चे पैदा करते हैं और स्वयं ही साफ-सुथरा करके दुनिया के वि

खूनी दरवाज़ा

संजीव ठाकुर याद आ जाते हैं दफ़्न कर दिए गए बहादुर शाह के पूत मुझे जब भी गुज़रता हूँ खूनी दरवाजे से। दहशत भरी निगाह से उसे देखता सड़क पार कर अब देखता हूँ। नाले के किनारे बैठी रहती है एक बुढ़िया कुछ फदफदाती, मिट्टी की हाड़ी को पत्तों से झरकाती। कुछेक दाने हड़िया में खदकते रहते हैं मेरी समझ में नहीं आता वह वहीं बैठी रहती है हरवक्त कहाँ से आता है अन्न फिर उसकी हांड़ी मैं खदकने को? क्या ‘ऊपर वाला’....? कल रात जब मैं ठंड के कारण नींद से जागा, याद आ गई वह बुढ़िया! खोल लगे कंबल से मेरा जाड़ा भागता नहीं शेष भाग पत्रिका में..............

मन्नू भंडारी की कहानियों में आधुनिक मूल्यबोध

डा.एन. टी. गामीत राष्ट्र जीवन मूल्यों पर आधारित होता है। जब-जब जीवनमूल्य उत्कर्ष की ओर बढ़ते है, तब तब राष्ट्र, समाज और व्यक्ति का उत्थान होता है और जब जीवन मूल्यों में हा्रस होने लगता है तो राष्ट्र अवनति की ओर जाने लगता है। किसी देश की प्रगति उसके जीवन-मूल्यों पर आधारित होती है। व्यक्ति, समाज और साहित्य की प्रक्रिया एक दूसरे पर निर्भर होते हुए भी उसका स्वाभाविक विकास प्रत्येक देश की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप होता है वैश्विक औद्योगिकरण बौद्धिकता के अतिरेक यंत्राीकरण और अस्तित्ववादी पाश्चात्य विचारधाराओं के फलस्वरूप आधुनिकता की जो स्थिति उत्पन्न हुई उसका परिणाम मूल्यों के हा्रस के रूप में समाज में दृष्टिगत होने लगी। इन सभी सामाजिक परिवर्तनों का यथार्थ चित्राण समकालीन साहित्य में विशेष रूप से मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में भी देखने को मिलता है। नैतिक मूल्यों का हा्रस आज समाज में मूल्यों के साथ-साथ परंपरागत नैतिकता का अर्थ नष्ट हो गया है। आज नैतिकता पिछले युग की नैतिकता से पूर्ण रूप से भिन्न है। नैतिकता के संदर्भ में जैनेन्द्र कुमार का मत दृष्टव्य है- ‘‘नैतिकता कोई बनी बनाई चीज़ नहीं

डा. राही मासूम रजा के कथा साहित्य में विवाह के प्रति बदलते दृष्टिकोण

सलीम आय. मुजावर नारी ब्रह्म विद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्राता है, वह सब कुछ है, जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होती है, नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धी है, रिद्धि है और वह सब कुछ है, जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, संकटों का निवारण करती है, यदि नारी को श्रद्धा की भावना अर्पित कि जाए तो वह विश्व के कण-कण को स्वर्गीय भावनाओं से ओत-प्रोत कर सकती है। नारी एक संतान शक्ति वह आदिकाल से सामाजिक दायित्व को अपने कंदे पर उठाये आ रही है। जिन्हें केवल पुरुषों के कंधे पर डाल दिया जाता, तो वह कब का लड़खड़ा गया होता, भौतिक जीवन की लालसाओं को उसकी पवित्राता ने रोका और सीमाबद्ध करके उसे प्यार की दिशा दी। नारी के विषय में पुराणों में यह श्लोक अंकित है- विद्या समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रिायां समस्ता सकला जगत्सु। त्वथैकया पूरितामन्वयेतत का तैं स्तुति स्तव्यपरा परोकिता।। अर्थात्- हे देवी! संसार की समस्त विधाएं तुमसे निकली है और सब स्पृहाएं ही स्वरूप है, समस्त विश्व एक तुम्हीं से पूरित है। अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए? जहां तक नारी शब्द का प्रश्न है वह नर की ही

समकालीन परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की दशा एवं दिशा

डा. रिपुदमन सिंह यादव वर्तमान समय में हिन्दी भाषा एक संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। यह संक्रमण भाषाई तो है ही, साथ ही सांस्कृतिक भी है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि किसी भी राष्ट्र की भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा उस राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक राष्ट्रीय रूप में संगठित रहता है। भाषा के द्वारा ही वह अपने विचारों को अभिव्यक्त करता है। जब हम सन् 1947 में अंगे्रजी राज्य से स्वतंत्रा हुये, हमें एक ऐसी राष्ट्र भाषा या राजभाषा की आवश्यकता महसूस हुई, जिसके द्वारा हम पूरे राष्ट्र को जोड़ सके, यह तात्कालीन ऐसी आवश्यकता थी कि जिसने संविधान निर्माताओं को गंभीर चिंतन-मनन के लिए बाध्य किया। स्वतंत्राता प्राप्ति के पूर्व भी ‘‘भातेन्दु हरिश्चन्द्र, महर्षि दयानन्द सरस्वती, केशवचन्द्र सेन, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और बहुत से अन्य नेताओं और जनसाधारण ने भी अनुभव किया कि हमारे देश का राजकाज हमारी ही भाषा में होना चाहिए और वह भाषा हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी सभी आर्य भाषाओं की सहोदरी है; यह सबसे बड़े क्षेत्रा के लोगों की (42ः से ऊपर ज

काला चांद: एक विवेचन

मो. आसिफ खान भानू चैहान भारतीय समाज तीन वर्गाें- उच्च वर्ग, मध्यवर्ग और निम्नवर्ग में बंटा हुआ है। निम्न वर्ग को अपनी बुनियादी आवश्यकताओं (रोटी, कपड़ा और मकान) को जुटाने और उसके लिए हर उचित-अनुचित तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। उच्च वर्ग पाश्चात्य सभ्यता की अंधी होड़ में व पैसे की चकाचैंध में अपनी संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों को पैसे की चकाचैंध में अपनी, संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों को पीछे भूल चुका है। मध्यवर्ग ही एक ऐसा वर्ग है, जो उच्चवर्ग की बराबरी तो करना चाहता है किंतु अपने मूल्यों, संस्कारों को भूला नहीं है। आज उसके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि वह इन दोनों के बीच किस प्रकार सामंजस्य स्थापित करे। इसी के परिणामस्वरूप व दिग्भ्रमित, दिशाहीन हो रहा है। विशेषकर मध्यवर्गीय कामकाजी युवा पीढ़ी। माता-पिता व संतान के भिन्न विचारों ने जिस ‘जनरेशन गैप’ को जन्म दिया है उसने भी इस वर्ग की समस्या को और भी बढ़ा दिया है। ‘भारतीय समाज में विवाह एक पवित्रा संस्था है। विवाह मात्रा नारी-पुरुष का संसर्ग नहीं, अपितु परिवार के परस्पर आत्मीय स्नेहिल संबंधों का सूत्राधार भी है’1 किंतु आज उच्च तकनीकी युग में जब व

मीराकान्त: एक सवेदनशील रचनाकार

अंबुजा एन. मलखेडकर आठवें दशक के महिला नाटककारों में मीराकांत का नाम बहुचर्चित है। उन्होंने अपने नाटकों द्वारा संघर्षशील स्त्री और उसपर होने वाले शोषण को केन्द्र में रखकर कृतियों की रचना की है। इनके नाटकों में इतिहास के पन्नों की घटनाओं को नये तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयत्न है। वे लगभग दो दशकों से निरंतर कलम हाथ में पकड़े हिन्दी साहित्य के लिए लिख रही है। उनकी अनेक कृतियां रंगमंच से संबंधित है। मीराकांत जी का जन्म 22 जुलाई 1958 मंे श्रीनगर में हुआ। उनके पिता का नाम स्वर्गीय दुर्गाप्रसाद और माता का नाम दुर्गेश्वरी भान है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक उनकी पढ़ाई दिल्ली में हुई। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. तथा जामिया-मिल्लिया इस्लामियां विश्वविद्यालय से पीएच.डी. किया। उनके शोध का विषय था-अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक में हिन्दी पत्राकारिता की भूमिका। अब वे नई दिल्ली के राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी) में संपादक के रूप में कार्यरत हैं। मीराकांत बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार हैं। वे नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, कवयित्राी एवं अनुवादक

.ज़िन्दगी

विजय रंजन हमसे रहती है तू क्यों ख़फा ज़िन्दगी?? पहले हमको तू इतना, बता ज़िन्दगी!! कितनी दिलकश है बन्दिश, तेरे सामने, कैसे तुझको कहूँ, बेवफा, ज़िन्दगी?? स्वप्न के गाँव में हम हुए दर-ब-दर, कौन बतलाएगा--अब पता ज़िन्दगी?? हम चले थे जहाँ से वहीं हैं अभी, अपना हासिल है बस, रास्ता ज़िन्दगी!! रिश्ता काजर का सुन्दर करे आँख को, हमको ऐसा दिखा, आईना ज़िन्दगी!! एक शायर को दे न सफे-दर-सफे, दे दे उसको मगर, हाशिया ज़िन्दगी!! उसको तारीफ़ की है जरूरत भी क्या, जिसको कहना है बस-मर्सिया ज़िन्दगी!! आज ‘रंजन’ कहे एक अच्छी ग़ज़ल, दे सके गर तो दे-क़ाफ़िया ज़िन्दगी!! शेष भाग पत्रिका में..............