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चक्कर से टक्कर

डा. शिवचन्द प्रसाद

‘चक्कर’ दलित-चेतना पर केन्द्रित जवाहरलाल कौल ‘व्यग्र’ का तेरह कहानियों का प्रकाशित (सन् 2009) संग्रह है जिसमें ब्राह्मणवादी आभिजात्य के मिथ्याभिमान और उसके द्वारा चलाये जाते विभिन्न दुष्चक्रों का बड़ी शालीनता के साथ सामना किया गया है। कौल की कहानियाँ अपने समय का साक्षात्कार करती हुई युग-बोध से उद्भूत दलित-संवदेना की विभिन्न चुनौतियों-असमानता, त्रास, अस्पृश्यता, अपमान, शोषण-दलन-उत्पीड़न से निर्भय होकर जूझती हैं तो दूसरी तरफ दलित सौंदर्यशास्त्रा को एक नया आयाम भी देती हैं। यहाँ पुरानी कहानी ‘नया पाठ’ (नया कफन, सद्गति-गाथा और ठाकुर के कुएं का पानीहै तो जाति-देश से उभरा अम्बेडकरवादी समतामूलक बौद्ध-दर्शन भी है, स्वानुभूति है तो सहानुभूति भी है। जहाँ चक्कर से टक्कर के लिए कबीर और रैदास की परम्परा है तो अंधविश्वासों को मौन निरन्तर कर देने वाला दलित-चिंतन भी है। मुंशी किशनचन्द (चक्कर कहानी) को बड़े-छोटे, जाति, धर्म-संप्रदाय, अलगाव, आतंक, विध्वंश आदि जैसे प्रश्न-चक्कर में डाले हुए हैं। उनके सामने एक ओर तो प्रवाचक शुक्ला जी का वसुधैव कुटुम्बकम् वाला शाश्वत सूक्त वाक्य है तो दूसरी ओर विभिन्न पंथ और खेमों में बंटे रक्त-पिपासु लोग फिर, मुंशी जी सोचते हैं- ‘‘यह कैसे हो सकता है? संसार के सारे लोग एक कैसे हो सकते हैं? मानववाद की कल्पना कोरी बकवास है। संसार के विभिन्न देशों में तरह-तरह की जातियां है। उनका इतिहास उनकी संस्कृति एक दूसरे से भिन्न है। एक जाति दूसरी जाति से अपने धर्म, अपनी सभ्यता के उत्थान में होड़ लगाती है। आपस में कलह मचता है, युद्ध होता है। उस समय शुक्ल जी का वसुधैव कुटुम्बकम् वाला नारा फेल हो जाता है।’’ (पृ. 3) यही सब देखकर ज्ञानचन्द्र (नास्तिक) का भगवान पर से यकीन उठ जाता है। वह कहता है- ‘‘मंदिर में शंकर के रूप में भगवान नहीं है। अगर होता तो अपने मानने वालों में भेद कैसे करता? कुछ को अपने पास बुलाकर पूजा स्वीकार करता और कुछ दूर से ही पूजा करने के लिए बाध्य होते? यह पूजा पाठ आस्था सब दिखावा है, झूठ है।’’ (पृ. 74) भला ऐसे दृश्य को देखकर तुलसी बाबा कैसे गा सकते हैं- सियाराम-मय सब जग जाती?

जाति-पाति के वैषम्य की यह खाई यदि कभी पटती हुई नज़र आती है तो यथास्थितिवादी जड़ ब्राह्मणवाद को लगता है कि उसकी अर्थी उठने वाली है, उसका बड़प्पन, कुलीनता और उच्चभिमान आदि धूं-धूंकर जलने लगते हैं। यही कारण है कि दंगल कहानी के पहलवान इन्द्रजीत पाण्डे को दलित सहानुभूति वाले पहलवान इन्द्रजीत पाण्डे को दलित सहानुभूति वाले पहलवान श्यामसुंदर तिवारी की हरकते रास नहीं आती है और एक दिन अपनी भड़ास तिवारी पर उतार ही देते हैं- अरे तिवारी जी। यह सब क्या कर रहे हो? अंखाड़े में जाति-पाति की लाश गाड़कर बिना भेद-भाव के सब को कुश्ती लड़ा रहे हो, छोटाई-बड़ाई खत्म हो नयी क्या? नीच जाति वाले देह रगड़कर जब ऊँची जाति वालों से लड़ेंगे तो कहां रह जायेगी

शेष भाग पत्रिका में..............



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