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देह और देश के दोराहे पर अज़ीजु़न

डा. परमेश्वरी शर्मा

राजिन्दर कौर



वर्तमान दौर में स्त्री सशक्तिकरण की मांग राजनीतिक स्तर पर उठाई जा रही है किन्तु यदि इसे प्रथम स्वतंत्राता संग्राम के परिप्रेक्ष्य में देखे तो स्त्री का इतिहास क्रान्तिकारी रहा है। आज यह मांग पुरुष सत्तात्मक समाज के अत्याचारों का प्रतिरोध मात्रा है जबकि हिन्दुस्तान के मुक्ति संघर्ष में बहुत सी ऐसी महिलाएँ सक्रिय रही हैं जिन्होंने देश को आज़ाद करवाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हज़रत महल, रानी ईश्वर कुमारी, चैहान रानी, अज़ीजु़न आदि स्त्रिायों ने देश को गुलामी की ज़जीरों से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज़ों से टक्कर लेते हुए हंसते-हंसते आत्मत्याग किया तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए देश-प्रेम, त्याग तथा बलिदान की मिसाल कायम की।

नाटककार त्रिपुरारी शर्मा ने 1857 के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को बहुत ही बारीकी से टटोलकर कानपुर की तत्कालीन परिस्थितियों को आधार बनाकर ‘सन् सत्तावन का किस्सा: अज़ीज़ुन निसा’ नाटक की रचना की। ”1857 का विद्रोह केवल सिपाहियों द्वारा किया गया विद्रोह नहीं था अपितु जन विद्रोह था। इस जन क्रान्ति में सभी धर्मों-वर्गों के लोग, स्त्रिायाँ और बच्चे तक शामिल थे। इस विद्रोह के सभी प्रमुख कारणों का ज़िक्र नाटक में बेहद खूबसूरती से किया गया है। सबसे बड़ी बात कि तवायफ़, जिसे आज तक समाज में उचित स्थान नहीं मिल पाया है, उसने किस प्रकार अंग्रेज़ों के साथ मुकाबला करते हुए कुर्बानी दी, नाटक उसकी जंग को बड़ी शिद्दत से सामने लाता है। नाटक की नायिका अज़ीजु़न प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्राता संग्राम की वो वीरांगना है जिसने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। वह कानपुर की एक प्रसिद्ध तवायफ थी परन्तु अपनी सोच और समझ के कारण वह देश की खातिर खुद को एक वीर सैनिक साबित करती है। नाटक उसकी बहादुरी के साथ-साथ हाशिये पर खड़े इस वर्ग के अस्तित्व पर प्रश्न-चिद्द लगाता है। आज भी समाज में तवायफ़ को हीन दृष्टि से देखा जाता है, मात्रा देह-व्यापारी के रूप में देखा जाता है, परन्तु इस पेशे से सम्बन्धित होते हुए भी अज़ीजु़न ने अपने कर्तव्य, साहस और आत्मविश्वास के बल पर इस संग्राम की वीरांगनाओं में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया है । नाटक अज़ीजु़न के कोठे से आरम्भ होता है जहाँ अज़ीजु़न अपनी सहेली आदिला के साथ चैपड़ खेलते हुए उसे कहती है ”देखो न अदला मैं हार नहीं सकती । तुम हो या हालात-फतह यूँ पीछा करती है, गोया कोई बागरज़ दीदार की दरखास्त लिये हो।“1

वह बेहद खूबसूरत, हालात से कभी हार न मानने वाली एक साहसी औरत थी। अज़ीजु़न तवायफ़ का पेशा सिर्फ पेट पालने के लिए कर रही थी। उसे धन-दौलत का लालच नहीं था। कम्पनी राज्य के चलते देश की आर्थिक स्थिति कमज़ोर हो चुकी थी। दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में गरीब औरतें देह-व्यापार करते हुए पेट पाल रही थीं।

अंग्रेज़ अफ़सरों का यह मानना था कि कोठों पर बैठी तवायफें अंग्रेज़ सिपाहियों को अपने सौन्दर्य के बल पर गुमराह कर रही हैं। वे इनके कोठों को हवस और गुनाह का अड्डा समझते थे। अज़ीजु़न बाकी तवायफ़ों से भिन्न थी। वह अपने-आपको सिर्फ एक कलाकार मानती थी। जब अंग्रेज़ अफ़सर उसके घर पर आकर उस पर यह इल्ज़ाम लगाता है कि वह सिपाहियों को गुमराह कर रही है तो वह झुंझला उठती है ”नहीं...कैसे? मैं रक्काशा हूँ। फनकारा हूँ। बेनकाब ज़रूर हूँ, पर फाहिशा नहीं। शहर के लोग मुझे...नगमानिगार भी मानते हैं। गोश्त-फोश्त की सौदागर नहीं हूँ। खुदा का शुक्र है कि...“2 नाटककार यहाँ उसके विषय में यह स्पष्ट करती है कि अज़ीजु़न संगीत प्रेमी थी क्योंकि उसके पिता एक संगीतकार थे यह कला उसने विरासत में पाई थी और अब उसकी विवश्ता बन चुकी थी तथा वह केवल संगीत के द्वारा ही अपने कोठे पर

शेष भाग पत्रिका में..............



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