Skip to main content

Posts

Showing posts from December, 2010

राही मासूम रजा के सम्यक् मूल्यांकन का एक सार्थक प्रयास

डॉ. शिवचन्द प्रसाद डॉ. एम. फीरोज+ खान द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- ÷राही मासूमः कृतित्व एवं उपलब्धियाँ' प्राख्यात आँचलिक कथाकार, साझी संस्कृति प्रबल उद्गाता, राष्ट्रवाद और अपनी माँटी के सच्चे प्रेमी राही मासूम रज+ा को हर कोण से मूल्यांकित करने का एक सार्थक और यथोचित प्रयास है जिसमें, सम्पादक काफी हद तक सफल भी रहा हैं। जहाँ अब तक समीक्षाएँ आँचलिक, आँचलिकता के घिसे-पिटे सतही मुहावरे तक ही सीमित रही हैं या श्लीलता-अश्लीलता के विवाद को ही सुलझाने में अपनी इतिश्री समझती रही हैं, वहीं यह पुस्तक राही की विश्व दृष्टि और वैचारिकता का सामना करती हुई उनके विभिन्न अन्तरंग पहलूओं को भी प्रकाश में लाती है। इस कार्य में पुस्तक में सम्पादित साक्षात्कार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहायक की भूमिका निभाते हैं, जिन से यह सिद्ध होता है कि राही का जीवन दुःखों का महाकाव्य और संघर्षों की वीरगाथा है। इस संदर्भ में डॉ. प्रेमकुमार के द्वारा नैयर रज+ा राही, गोपालदास नीरज, शहरयार और क़ाज+ी अब्दुल सत्तार से लिए गये साक्षातकार विशेष उल्लेखनीय है। यद्यपि जिस प्रेमकुमार पर डॉ. नामवर सिंह मुहर लगा चुके हों, उन पर अब कुछ कहना

नैसर्गिक भाषा में नैसर्गिक चिंतन का उद्गार है-

समीक्षक- डॉ. आजम मेरा मानना है कि कविताओं की पुस्तकें तीन तरह के घर की तरह होती हैं, एक जिनमें प्रवेश द्वार होता है जो निष्कासन द्वार भी साबित हो जाता है, अर्थात् जाइए इधर-उधर देखिए वहीं खड़े -खड़े फिर निकल जाइए। दूसरी तरह की पुस्तक में प्रवेश द्वार से घुस जाइए कुछ आगे बढ़िए तो पता चलता है कि हर जगह बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ हैं और आप पछता कर लौटने के बजाए किस खिड़की से बाहर कूद आते हैं। मगर तीसरी पुस्तक ऐसी होती है जिसमें प्रवेश करने के बाद भले ही एक आध खिड़कियाँ भी दिखाई दें, मगर आगे बढ़ने का आकर्षण आप को आगे बढ़ाता रहता है, अन्ततः आप उस घर के अंत तक पहुँच कर बाहर निकलने के द्वार से ही अपने अंदर बहुत सी प्रशंसाएँ, अनुभूतियाँ लेकर निकलते हैं। ÷÷धूप से रूठी चाँदनी'' ऐसा ही घर है जो आप को प्रारंभ से अंत तक आकर्षण में बांधे रखने में सक्षम है। ÷÷धूप से रूठी चांँदनी'' वास्तव में नैसर्गिक भाषा में नैसर्गिक चिंतन का उद्गार है जो सच के अत्यंत समीप प्रतीत होता है। उन्होंने हर पंक्ति में भाव के पूरे के पूरे संसार को समेट दिया है। शाब्दिक चित्राण ऐसा कि हम स्वयं अपने सामने कविता को एक खाका,

तुम चाहो तो

सीमा गुप्ता एक अधूरे गीत का मुखड़ा मात्रा हूँ, तुम चाहो तो छेड़ दो कोई तार सुर का एक मधुर संगीत में मैं ढल जाऊंगा... खामोश लब पे खुश्क मरुस्थल-सा जमा हूँ तुम चाहो तो एक नाजुक स्पर्श का बस दान दे दो एक तरल धार बन मैं फिसल जाऊंगा... भटक रहा बेजान रुह की मनोकामना-सा तुम चाहो तो हर्फ बन जाओ दुआ का ईश्वर के आशीर्वाद-सा मैं फल जाऊंगा... राख बनके अस्थियों की तिल-तिल मिट रहा हँू तुम चाहो तो थाम ऊंगली बस एक दुलार दे दो बन के शिशु मातृत्व की ममता में मैं पल जाऊंगा... चाँद मुझे लौटा दो ना चंदा से झरती झिलमिल रश्मियों के बीच एक अधूरी मखमली सी ख्वाइश का सूनहरा बदन होने से सुलगा दो न इन पलकों में जो ठिठकी है उस सुबह को अपनी आहट से एक बार जरा अलसा दो ना बेचैन उमंगो का दरिया पल-पल अंगड़ाई लेता है आकर फिर सहला दो न छू करके अपनी सासो से मेरे हिस्से का चांद कभी मुझको भी लौटा दो ना मौन करवट बदलता नहीं शब्द कोई गीत बनकर अधरों पे मचलता नहीं सुर सरगम का साज कोई जाने क्यूँ बजता नहीं... बाँध विचलित सब्र के हिचकियो

मुझे जन्म लेने दो

नग़मा जावेद माँ! पिताजी कहते हैं। उन्हें लड़की नहीं चाहिए। तुम डरी-डरी सी जी रही हो.... अगर पैदा हुई लड़की तो क्या होंगा? माँ! मत डरो- मुझे जन्म लेने दो मैं- अपनी लड़ाई खुद लडूँगी।

जैनेन्द्र के विचारों में वेश्या की समस्या

डॉ. रविन्द्र एस. बनसोडे आज नेक, इमानदारी, सचरित्रता और नैतिकता का युग नहीं बल्कि बेईमान, गैरजिम्मेदार, ऐयाशी और कामचोर जैसे अव्यवस्था से भरा दूषित समाज है। एक ओर मिनिस्टर, कमिश्नर, कलेक्टर, सीनियर सुपरिटेंडडेण्ट आफ़ पुलिस, व्यवसायी, अध्यापक, प्राध्यापक, उप-कुलपति, बड़े-बड़े स्टॉकिस्टों ये सभी सुन्दरी के पिछे पड़े भ्रष्टाचार, डकैती, घूस, नग्न नृत्य आदि का पोषण करते जा रहे है। इसलिए नारी मन में खफगी छा गई है। वे कदम-कदम पर नारी तन के प्यासे हो जाने के कारण वह तलबगार की प्यास मिठाने के लिए मौजूद होती है तो वह उसे भोग की वस्तु समझ बैठा है। तो वह जो अर्थवश, बेसहारा अबला क्या करती? उसे अनायास ही अपने तन के वस्तु का व्यापार ही तो करना पड़ता है और दूसरी बात यह रही कि हम अकल के पीछे लट्ठ लेकर फिरते है। क्योंकि उसके साथ अमानवीय कुकृत्यों की स्थिति को ऊपर उठाकर उसे अनैतिक सम्बन्ध, असहाय, दुर्व्यवहार, व्याभिचारिणी, बेशर्मी, रण्डी, बेऔलाद, निर्लज्य, निकम्मा औरत जैसा किसी औरत पर यह हम समाज का पट्टा लगा देते है, तो वह सुन्दर औरत आखिर उसे जीना है तो क्या करती ? वह वेश्या नहीं बनती तो और क्या करती। इस प्

हिन्दी रंगमंच के अग्रदूत मोहन राकेश

डॉ. गिरीश सोलंकी हिन्दी रंगमंच विविध राजनीतिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कारणों से अभी तक अपनी परिपक्वावस्था तक नहीं पहुँच सका है। हिन्दी रंगमंच में हमें दो रूप मिलते है- १. लोक नाट्य साहित्य को प्रस्तुत करने वाले रंगमंच २. साहित्यिक नाटकों को प्रस्तुत करने वाले रंगमंच यहांँ हमारा ताल्लुक साहित्यिक हिन्दी में लिखे गए नाटकों के रंगमंच से हैं। हिन्दी में लिखे गए नाटकों के आधार पर निम्नलिखित कालों में विभाजित किया जा सकता है- १. भारतेन्दु पूर्व का हिन्दी रंगमंच २. भारतेन्दु युगीन हिन्दी रंगमंच ३. द्विवेदी युगीन हिन्दी रंगमंच ४. प्रसाद युगीन हिन्दी रंगमंच ५. स्वातंत्रयपूर्व हिन्दी रंगमंच ६. स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी रंगमंच भारतेन्दुपूर्व हिन्दी रंगमंच को इन दो भागों में विभाजित करते हैं- अ. साहित्यिक नाटकों के रंगमंच ब. पारसी रंगमंच साहित्यिक नाटकों के रंगमंच में आगा हसन लिखित ÷इन्दरसभा' और पंडित शीतलप्रसाद लिखित ÷जानकी मंगल' उल्लेखनीय रचना है। इनमें ÷इन्दर सभा' रंगमंचीय नाटक था। इनकी रचना १८५३ ई. में हुई थी यह एक भिन्न नाटक के रूप में प्रसिद्ध है। इसका रंगमंच बहुत

राष्ट्रीय एकता और आधुनिक हिन्दी ग़जल

डॉ. सादिक़ा नवाब सहर ग़जल हमेशा से ही विचारों के आदान-प्रदान का लोकप्रिय माध्यम रही है, बड़ी बात को कम शब्दों में गहराई तक पहुँचाने वाली और अब तो ग़जल केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व की अनेक भाषाओं में अपनी पहचान रखती है। आज का युग उन सपनों के साकार होने का युग है जिसे हमारे पूर्वज एक लम्बे समय के संघर्ष के समय से देखते आ रहे थे। हजारों साल की संयुक्त संस्कृति और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक भारत, अंग्रेजों के नफ़रत के शासन काल से लहू में तरबतर बाहर निकल आया। ग़जल के शायर ने दुआ की-ख्ुदा करे कि ये दस्तूर साज-गार आए/जो बेक़रार हैं अब तक उन्हें क़रार आए।/नुमायशी ही न हो ये निजामे-जम्हूरी/हक़ीक़तन भी ज+माने को साज+-गार आए।'' भारत के इतिहास से लक्ष्मण, भरत, रजिया सुलताना, भगत सिंह, गुरुनानक, वाजिद अली शाह अख्तर आदि जैसे व्यक्ति हमारी साझा संस्कृति और परम्पराओं के प्रतीक के रूप में हमारी ग़ज+ल की विरासत बने। स्वतंत्राता के बाद भी गाँधीजी, सरोजिनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद हीरो के रूप में हमारी कविता तथा ग़जल को आकर्षित करते रहे। हमारे ग़जलकारों ने अपने युग की अपने देश की जनता की इच्छ

हिन्दी साहित्य में उच्च षिक्षा के क्षेत्र में बढ़ते तकनीकी प्रयोग

जया सिंह उच्चा षिक्षा तकनीक के द्वारा आज का व्यक्ति जागरूक हो चुका है। दुसरी बात यह कि बी०ए० और एम०ए० के छात्रों को ÷प्रयोजनमूलक हिन्दी' जो पूरा पेपर ही तकनीक का है, का षिक्षण दिया जा रहा है। ऐसी उच्च षिक्षा प्रहण करने के बाद व्यक्ति हिन्दी को कम्प्यूटर से दूर नहीं रख सकता है। कम्प्यूटर, इन्टरनेट, ई-मेल के द्वारा सूचना तुरन्त पहुँचती है जिससे हमें पुस्तकें मंगवाने, जानकारी लेने में सुविधा होती है। इस तकनीक के माध्यम से पठन-पाठन का कार्य सरल और जल्दी हो गया है। अब हम घर बैठे-बैठे ही पुस्तकों, पत्रिकाओं का आर्डर कर सकते हैं, पत्र-व्यवहार कर सकते हैं, पुस्तकें और पत्रिकायें पढ़ सकते हैं, नयी पुस्तकों के विशय में जानकारी ले सकते हैं। इन्टरनेट की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इन्टरनेट कनेक्षन धारक व्यक्ति किसी भी समय, किसी भी विशय पर तत्काल इच्छित जानकारी प्राप्त कर सकता है। छात्र, षिक्षक, वैज्ञानिक, व्यापारी, खिलाड़ी मनोरंजन इच्छुक तथा सरकारी विभाग इन्टरनेट से अपनी आवष्यकता और रूचि के अनुसार सूचनाएँ पा रहे हैं। साथ ही हिन्दी के क्षेत्र में नए सॉटवेयर बन रहे हैं तथा इन्टरनेट पर भी

समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श

जया सिंह औरतों की चुप्पी सदियों और युगों से चली आ रही है। इसलिए जब भी औरत बोलती है तो शास्त्र, अनुशासन व समाज उस पर आक्रमण करके उसे खामोश कर देते है। अगर हम स्त्री-पुरुष की तुलना करें तो बचपन से ही समाज में पुरुष का महत्त्व स्त्री से ज्यादा होता है। हमारा समाज स्त्री-पुरुष में भेद करता है। स्त्री विमर्श जिसे आज देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है। ऐसा लगता है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति के केन्द्र में उसकी दैहिक संरचना ही है। उसकी दैहिकता को शील, चरित्रा और नैतिकता के साथ जोड़ा गया किन्तु यह नैतिकता एक पक्षीय है। नैतिकता की यह परिभाषा स्त्रिायों के लिए है पुरुषों के लिए नहीं। एंगिल्स की पुस्तक ÷÷द ओरिजन ऑव फेमिली प्राइवेट प्रापर्टी' के अनुसार दृष्टि के प्रारम्भ से ही पुरुष सत्ता स्त्राी की चेतना और उसकी गति को बाधित करती रही है। दरअसल सारा विधान ही इसी से निमित्त बनाया गया है, इतिहास गवाह है सारे विश्व में पुरुषतंत्रा, स्त्राी अस्मिता और उसकी स्वायत्तता को नृशंसता पूर्वक कुचलता आया है। उसकी शारीरिक सबलता के साथ-साथ न्याय, धर्म, समाज जैसी संस्थायें पुरुष के निजी हितों की रक्षा क