Skip to main content

जैनेन्द्र के विचारों में वेश्या की समस्या

डॉ. रविन्द्र एस. बनसोडे



आज नेक, इमानदारी, सचरित्रता और नैतिकता का युग नहीं बल्कि बेईमान, गैरजिम्मेदार, ऐयाशी और कामचोर जैसे अव्यवस्था से भरा दूषित समाज है। एक ओर मिनिस्टर, कमिश्नर, कलेक्टर, सीनियर सुपरिटेंडडेण्ट आफ़ पुलिस, व्यवसायी, अध्यापक, प्राध्यापक, उप-कुलपति, बड़े-बड़े स्टॉकिस्टों ये सभी सुन्दरी के पिछे पड़े भ्रष्टाचार, डकैती, घूस, नग्न नृत्य आदि का पोषण करते जा रहे है। इसलिए नारी मन में खफगी छा गई है। वे कदम-कदम पर नारी तन के प्यासे हो जाने के कारण वह तलबगार की प्यास मिठाने के लिए मौजूद होती है तो वह उसे भोग की वस्तु समझ बैठा है। तो वह जो अर्थवश, बेसहारा अबला क्या करती? उसे अनायास ही अपने तन के वस्तु का व्यापार ही तो करना पड़ता है और दूसरी बात यह रही कि हम अकल के पीछे लट्ठ लेकर फिरते है। क्योंकि उसके साथ अमानवीय कुकृत्यों की स्थिति को ऊपर उठाकर उसे अनैतिक सम्बन्ध, असहाय, दुर्व्यवहार, व्याभिचारिणी, बेशर्मी, रण्डी, बेऔलाद, निर्लज्य, निकम्मा औरत जैसा किसी औरत पर यह हम समाज का पट्टा लगा देते है, तो वह सुन्दर औरत आखिर उसे जीना है तो क्या करती ? वह वेश्या नहीं बनती तो और क्या करती। इस प्रकार एक नव रमणी का आर्विभाव हो जाता है। हालात एवं आर्थिक समस्या के कारण इन्सान को इन्सान नहीं रहने देती। ÷व्यतीत' उपन्यास का पात्रा बुधिया को उसका पिता ताड़ी एवं आर्थिक समस्या के कारण उस जवान बेटी की शादी नहीं, बल्कि उसे जबरदस्ती वेश्या बनाता। आर्थिक कारणवश रंजना को वेश्यावृत्ति करना पड़ता है। हर वेश्या के जीवन में एक साध रहती है कि उसकी शादी हो, दुल्हन बने। कोई उसका अपना हो। उसके साथ फोटो निकलवायेगी। उससे छोड़ कहीं नहीं जायेगी और उसे भी कहीं नहीं जाने देगी प्रेम बन्धन में रहने का सोचेगी। मगर ऐसा कहा होता है। वेश्या का जीवन तो कुछ अलग-सा होता है। बस वह किशोरी संध्या से धंधे में दबती जाती है। मर्दों की उसके साथ हर हरकत, छोटी-बड़ी, मानी-बेमानी, होनी-अनहोनी सभी घटनाएँ होती जाती है। किन्तु इसमें प्यार होता है न मोहब्बत होती है, फिर भी सहना पड़ता है। हकीकत तो उसकी यह है कि जीवन भर उसे रोना पड़ता है और एक कोने में ही जि+न्दगी खोना पड़ता है। सेक्स का सवाल अलग है तो गृहस्थी बनाये रखने का सवाल कुछ अलग होता है। दूसरी बात यह है कि दोनों के दाम्पत्य के बीच का अलगाव कुछ और होता है। यहीं दाम्पत्य का अलगाव लेखक जैनेन्द्र कुमार ने अपने उपन्यास कथा में प्रस्तुत आवश्यकता पड़ने पर वेश्या बनने का चित्राण चित्रिात किया है। इनके उपन्यास के पात्रा रंजना दशार्क उपन्यास की नायिकाएँ जैसी ये निर्धारित समय एवं स्थान पर पहुँचने पर ही वेश्यावृत्ति करती है। पति समझाकर घर ले जाना चाहता है। किन्तु वह अपने पति से कहती है- कह रही थी मैं, हाँ, धर्म। आज वह धर्म रुपया-धर्म, वैश्य धर्म है। राजधर्म भी वही है। राष्ट्र विनियम पर चलते और फलते है। जो सौदे में बाजी ले गया उन्नत हो गया। अर्थात् आदर्श पुरुष गहरा व्यवसायी होगा। इसलिए आदर्श स्त्राी के लिए भी गहन व्यवसायिनी बनना है। सुनो वारांगना से यह आगे की चीज+ है। मज+ाक न समझ लेना। गहरे सोच-विचार से नतीजे पर पहुँची हूँ और यह सब आप से इसलिए कह रही हूँ कि विवाह अदालत से हमारे बीच से अभी टूटा नहीं है। यानी यह जो सात एक बरस बीते हैं, अनधिकृत बीते हैं। आप ताप-संताप उठाते रहे, फिर भी यह नहीं किया, इसके लिए मैं आपकी ऋणी हूँ। आशा करती हूँ कि आपकी सहानुभूति साथ है और मैं प्रयोग में आगे बढ़ सकती हूँ।'' रंजना पति की अनुमति से नहीं खुद-ब-खुद स्वेच्छा से कुछ हालात से रौंदी जाने से वेश्यावृत्ति करती है।

स्त्राी हो या पुरुष काम हर स्वस्थ शरीर की भूख है। चाहे न चाहे वे दोनों एक दूसरे के पास काम पूर्ति हेतु आना ही पड़ता है। बट्रेन्ड रसेल ने तो भले ही कहा हो कि, ÷÷विवाह प्रधानतः यौन-सह चर्य नहीं है। बल्कि इसका सबसे बड़ा उद्देश्य है सन्तानोत्पत्ति'' परन्तु आज के प्रसंग में केवल मात्रा यौन-सहचर्य ही रहा है। इस में भी यदि कुछ गड़बड़ी हो जाती है तो पुरुष नारी तलाक लेना चाहते हैं और औरों से अपनी सेक्स पूर्ति करने का सोचते हैं। भले ही वे सन्तान के माता-पिता बने हुए क्यों न हो। वे अपनी-अपनी रुचि के अनुसार चलते हैं। विवाहित जीवन में सेक्स का बहुत बड़ा महत्त्व होता है कि इसी चट्टान के मारे कितने सारे घर बनते और बने हुए घर टूट-फूट भी जाते है। परन्तु जैनेन्द्र के उपन्यासों में इससे कुछ विपरीत ही दिख पड़ता है। इनके उपन्यासों की पात्रा ÷सुनीता' की सुनीता ÷कल्याणी' की कल्याणी ÷विवर्त' की भुवनमोहिनी, ÷व्यतीत' की अनिता, एवं ÷अनामस्वामी' की वसुंधरा जैसी नारी पात्रााएँ को दुश्चरित्राा बनाकर पति-पत्नी के मधुर सम्बन्धों के टूटने के दुर्भाग्य की चर्चा नहीं की गई बल्कि सम्पन्नयुक्त घराना एवं व्यक्तियों के साथ विवाह कर लेती हैं और पति प्रेमी इन दोनों के बीच अपना जीवनयापन करती जाती हैं। उनमें और एक बात यह है कि सुखी दाम्पत्य के लिए व्यवसाय, व्यापार, आमदनी, शिक्षा, नौकरी घरेलू उत्तरदायित्व एवं पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व प्राप्त करने का चित्राण भी इन नारी पात्राों में मिलता है। इनमें पति-पत्नी की पारस्पारिक एक निष्ठता एवं संरक्षा का स्थान विवाह पूर्व प्रेमी पर का ही दिख पड़ता है। वे पति-प्रेमी के बीच की कड़ी को सरता-परता बराबर करके अपने मानसिक कुण्ठा का बोझ हलका करती है।

आर्थिक दृष्टि से नारी की स्थिति अत्यन्त कारूणिक होती है। पति के अमानवीय व्यवहार, अर्थाभाव से पीड़ित एवं पारिवारिक उत्पीड़न के कारण उसकी स्थिति अत्यन्त भयंकर होती है। बे-सहारा नारी को समाज उसे स्वावलम्बी नहीं बनने देता और उसे अपने स्वतन्त्रा रूप से जीविकापार्जन करने में भी अनेक बाधाएं एवं निम्नकोटि का उपाय वेश्यावृत्ति ग्रहण कर बैठती है। जैनेन्द्र के उपन्यासों में वेश्या समस्या नहीं दिखाई पड़ती। किन्तु कुलशील पतिव्रत्या की समस्या के कारण उसका चित्राण मिलता है। ÷त्यागपत्रा' उपन्यास में नारी की कुलशील और पतिव्रत्य समस्या का उल्लेख किया गया है। ÷त्यागपत्रा' की मृणाल का प्रेम एक ओर शारीरिक सुख तक ही सीमित है तो दूसरी ओर वह समर्पण करने वाला भी है। वह स्वच्छंद प्रेम की पक्षपातिनी ही नहीं आदर्श प्रेम पर जीवन उत्सर्ग कर देने वाली सती है। वह कहती है- ÷÷दान स्त्राी का धर्म है। नहीं तो उसका और क्या धर्म है? उससे मन मांगा जायेगा, तन भी मांगा जायेगा। सती का आदर्श और क्या? तन उसकी बिक्री....न, न, यह न होगा।'' वह स्त्राीत्व दान करके उससे पैसा नहीं लेना चाहती। पैसों से तन की बिक्री करना उसे स्वीकार नहीं हैं। इसके अतिरिक्त वह स्त्राी-धर्म को ही पति-धर्म मानती हैं। क्योंकि स्त्राी धर्म के बिना पति धर्म कहा होता है। ÷÷मैं स्त्राी धर्म को ही पति धर्म ही मानती हूँ। उसको स्वतंत्रा धर्म मैं नहीं मानती। क्या पतिव्रता को यह चाहिए कि पति उसे नहीं चाहता तब भी अपना भार उस पर डाले रहे?'' जब पति उसे नहीं चाहता हो तो पतिव्रता उस पर अपना भार क्यों डाले यह सोचकर वह पति के तिरस्कार से वह कोयले वाले के साथ रहती है और वहाँ पर पुरुष मानने के लिए तैयार नहीं है वह प्रमोद उसका है। उसकी सेवा में मैं त्राुटि नहीं कर सकती। पतिव्रता-धर्म तो यह कहता है।'' यहाँ अन्य पुरुष के प्रति पतिव्रत धर्म की व्याख्या की गई है तो इसका अर्थ यह है कि मन से तन देना वेश्यापन है। यों ही मन से तन देना सतीत्व है। इसे वेश्यापन नहीं माना जा सकता। किन्तु उसके ऊपर अनैतिकता का आरोप लग जाता है कि वह परिस्थितियों की दासी हो जाती है, स्वयं नहीं होती। उसके साथ एक प्रकार दुःख का जीवन-दर्शन, उद्घाटित होते जाता है। उसकी परिस्थिति माँ-बाप का न होना, भाई-भाभी के बीच का कठोर अनुशासन, पति से ठोकर खाकर घर से बाहर निकल देना यह मृणाल की परिस्थिति का होना, यह अपने आप में एक पीड़ाग्रस्त जीवन जिसमें व्यक्ति अपने अचेतन में अकेलेपन से लड़ना है। सब खोकर लड़ना ऐसा क्या उसका जीवन कई बचा था? बचा भी हो तो अन्य पुरुष कोयले वाले के पास कम-ज्यादा वह भी पानी के बुलबुले जैसा पता नहीं वह भी कब रुक जाता है। तब वह अबला मृणाल जैसी नारी क्या कर सकती है? प्रमोद अपनी बुआ को घर ले जाने के लिए आता है। किन्तु वह अधमरी आत्मा को खोकर जीवन की गति को पाना चाहे तो भी वह गति तममय है। इस पर उसे मृणाल कहती है- ÷÷जरूर ले चलेगा, तो सुन, मैं नहीं जाऊँगी, मैं नहीं जा सकती। तुम मुझको नहीं जानते हो, मैं पति के घर को छोड़कर आ रही हूँ। तुम अपनी आँखें ढक लो, लेकिन मुझसे अपना यह पातक निगल जाने को नहीं कह सकते- फिर जिनको साथ लेकर पति को छोड़ आई हूँ। उनको मैं छोड़ दूँ। उन्होंने मेेरे लिए क्या नहीं त्यागा? उनकी करूणा पर मैं बची हूँ। मैं मर सकती थी, लेकिन मैं नहीं मरी। मरने को अधर्म जानकर ही मैं मरने से बच गई। जिसके सहारे मैं उस मृत्यु के अधर्म से बची उन्हीं को छोड़ देने को मुझसे कहते हो? मैं नहीं छोड़ सकती। पापिनी हो सकती हूँ, पर उसके ऊपर क्या बेहया भी बनूँ? क्यों मुझे तंग करते हो?'' वह कोयले वाले के एहसान में उसे धोखा देकर नहीं जाना चाहती। उसे अपना देह-दान देकर स्त्राी धर्म निभाती है। कोयले वाली छोड़ देने पर भी वह अन्यों को अपना देह दान करती है। मृणाल में यौन एवं दाम्पत्य जीवन में नैतिक मूल्य होते हुए भी पर्याप्त अन्तर परिलक्षित होता है।

नारी अपने को मुक्त करने के लिए अनेक दुखों से ही वह अपना धर्म नष्ट करने के लिए तैयार होती है। जैनेन्द्र के दृष्टि में उनके उपन्यास में नारी पात्रा के लिए पतिव्रत और सतीत्व दो भिन्न धर्म है। इन दोनों में वे सतीत्व पर ही ज्यादा जोर देते है। इस पर डॉ. नंददुलारे वाजपेयी जी ने लिखा है- ÷जैनेन्द्र ने एक बार कहा था कि उनके सभी उपन्यासों की नारियाँ प्रतिव्रत और सतीत्व के द्वन्द्व की प्रतीक है। भारतीय आदर्श का उल्लेख करते हुए वे यह भी कहते है कि सतीत्व का आदर्श पतिव्रत के आदर्श से श्रेष्ठ है। उनकी नारियाँ एक ओर पति के प्रति वफादार होना चाहती है तो दूसरी ओर उनका सती धर्म उन्हें उन प्रेमियांें की ओर खींचता है जो देश के लिए संघर्षशील हैं। जैनेन्द्र का कदचित यह भी कथन है कि उनके नारी-पात्रा सतीत्व की भूमिका पर गढे+ गए है, पतिव्रत की भूमिका पर नहीं। वे परिस्थिति और आदर्श के बीच खड़ी है, परिस्थिति उन्हें पति की ओर झुकाती है, आदर्श उन्हें प्रेमी की ओर ले चलता है।' कल्याणी में विवाह एवं पतिव्रत की समस्या को उठाया गया है। कल्याणी का पति धन-लोलुप व्यक्ति है। वह उसके शरीर का सौदा करता है तो पत्नी अपने आपको एक इन्वेस्टमेंट मानती है और वह अपने पति से यह चाहती है कि पतिव्रत या डॉक्टरी किन्तु वह दोनों भी चाहता है।

कल्याणी में कुछ घुटन है जिसके कारण पति असरानी में सन्देह प्रवृत्ति को जन्म देकर जन-समाज में वह बार-बार प्रकट होती है और एक बात यह भी है कि डॉ. असरानी के मित्राों के साथ राय साहब और डॉक्टर भटनागर जैसों से कुछ आरोप काण्ड कल्याणी पर लग जाते है। खुलेआम कल्याणी का अपहरण का लाँछन लगाकर डॉक्टर भटनागर के घर जाकर कुछ तलाशी लेना, डॉक्टर भटनागर की पत्नी के सामने सड़क पर ही कल्याणी को जूतों से मारना और कल्याणी के पुराने मधुर सम्बन्धों को उठाकर प्रीमियर से कुछ आर्थिक उपलब्धियों का उत्साह योजन आदि ऐसे ही काण्ड सेक्स कामना की चीज+ बन सकती है। इस घटना से कल्याणी पर का विश्वास उड़ जाता है, कि उसे कामकाजी कहे, अन्य पुरुष मिथुन सम्बन्ध कहे, प्रेम सम्बन्ध कहे या उसे वेश्या कहे ऐसे अपवादों की बात पाठकों के सामने उभर आती है। किन्तु जैनेन्द्र जी कहते हैं- ÷÷स्त्राी अत्याचार अपने ऊपर मानकर अपने को जैसे पहले ही से अबला ठहरा लेती है। यह बात सही नहीं है। सृष्टि-बल में मनुष्य को प्रबल मान भी लो, लेकिन वाक्-बल में स्त्राी के आगे मनुष्य कोई भी चीज+ नहीं है। अर्थात् स्त्राी को यह भूल जाना चाहिए कि वह निर्बल है। निर्बल वह सचमुच नहीं है। मनुष्य रोना रोने सामने नहीं आता हैं, इतने ही से स्त्राी अपने बल को जानने में भूली रहे यह आवश्यक नहीं है।'' लेकिन ÷कल्याण' की कल्याणी सारे अपराध अपने पर ही बनने देने से पति का कुछ स्वार्थ होगा यह मतलब समझते हुए भी वह सारे दोष अपने पर ही लेती हैं। वह कहती है- ÷÷मैं ही तो दोष की जड़ हूँ। मेरे कारण डॉक्टर को धन की चाह है और मेरे ही कारण होंगे, तो प्रीमियर कर्तव्य-च्युत होंगे। ओ मुझे क्या प्रायश्चित काफी होगा?'' और वह यह भी कहती है कि मेरे कसूर सब माफ कीजिएगा। प्यार तन में जगता है, तन में से उपजता है और तन में ही रहता है। यह काम की प्रवृत्ति है किन्तु पति के साथ रहना चाहती है। परिस्थिति की सूक्ष्मता को समझकर पति पर छोड़ देती है। जैनेन्द्र की नायिकाओं पतिव्रत धर्म के परम्परागत संस्कार उनके अचेतन मन में इतने गहरे घसे है कि वे पति के प्रति उदासीन होने के विचार मात्रा से अपने को अपराधी पाती और अपने से पति को बिल्कुल अलग नहीं कर पाती है। ऐसे ही सुनीता, सुखदा, मृणाल, अनीता, वसुन्धरा, भुवनमोहिनी में यही प्रवृत्ति पायी जाती है। उनकी यौन प्रवृत्ति इस विवेक बुद्धि पर विजय पा जाती कि पति प्रति विश्वासघात करके उन्हें अपनी ही नज+रों में गिरने नहीं देती। पर वह प्रेमी को भी उतना समर्पित नहीं हो पाती कि वह मन से जितना चाहती। क्योंकि सुनीता का हरिप्रसन्न के प्रति, सुखदा का लाल के प्रति, भुवनमोहिनी का जितेन के प्रति तथा व्यतीत की अनीता का जयन्त के प्रति, वसुन्धरा का उपाध्याय के प्रति समर्पण है। ÷व्यतीत' में अनीता ब्याहता के एक दिन पहले कहती है- ÷क्रूर पापी खबरदार जो मुझे छुआ है और दूसरे दिन ही उच्श्रृंखल व्यवहार की क्षमा मांगते हुए कहती है- ÷÷जयन्त, रात की बात भूल जाना मैं सुध में न थी। अब सुध में हूँ मैं यह सामने हूँ। मुझ को तुम ले सकते हो।'' समूची को जिस विधि चाहों ले सकते हो तथा सुनीता के प्रति हरिप्रसन्न का प्रेम वेग दोनों हाथों से सुनीता को ....आलिंगन में बांँध लेना चाहता है तो तब वह कहती है- ÷÷मैं तो सदा तुम्हारी हूँ। फिर छिः छिः मेरे लिए प्रेम का यह आवेग कैसा? और ऐसा धीरज क्यों खोते हो? मुझे तनिक संभालने भी तो दो।''

यदि परिस्थितिवश, संयोगवश एवं नियति से दोनों का सहज मिलन होता हो यह दो देहों का व्यापार पाप नहीं बन सकता। यह तो यौन-सम्बन्ध का ऊहापोहात्मक स्वीकृति है। ऐसा ही प्रसंग हरिप्रसन्न एवं सुनीता के व्यवहार में मिलता है। किन्तु उपन्यासकार सुनीता के निर्वसन होने में तात्कालिक हरिप्रसन्न आशंकित होकर चट से मुड़ जाने की लेखक की यह खूबी है। उनके उपन्यासों की पात्रााएँ यौन-तृप्ति की जुगाड़ करती है। सच बात तो यह है कि औरत के लिए एक यौन-तृप्ति के यत्न से अधिक कुछ नहीं, क्योंकि शरीर तृप्ति ही उसकी असली चीज है। वहीं उसकी कुंजी है। जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास की नायिका इसी को पाने के लिए तत्पर है। वह अपने को निष्फल बनाना नहीं चाहती। उनमें इसी बात का दर्द, कलह एवं तड़पन है। वह चलती-फिरती जि+न्दा लाश नहीं, बल्कि प्रकृति के मनमोहर दृश्य को तलाशना चाहती है। वह जानी-अनजानी पीड़ा एवं खुशी के द्वन्द्व के बीच अपना अस्तित्व ढूँढती है।

÷जो कामेच्छाओं को उत्तेजित या प्रोत्साहित करती हो', वह कानून की दृष्टि में अश्लील है। वस्तुतः कोई भी चीज+ स्वयं में अश्लील नहीं हुआ करती है। यों जैनेन्द्र का साहित्य (सुनीता या कोई और कृती) कामेच्छओं को प्रोत्साहित करने वाला नहीं है।' क्योंकि जैनेन्द्र ने स्त्राी-पुरुष के बीच बदलती हुई परिस्थितियों से मनुष्य में आत्म समर्पण की स्थिति पैदा करना चाहते हैं। समाज टूट रहा है, परिवार टूट जाता है और फिर जब व्यक्ति टूट जाता है तो तब क्या रहेगा, कौन बचेगा? चाहत के बिना विवाह अधिक काल तक नहीं टिक सकता। भावनाओं और वासनाओं का बाज+ार स्त्राी-पुरुष के मध्य स्थितियाँ और परिस्थितियाँ पैदा करना नहीं बल्कि उनके अपने एक-दूसरे के बीच के तत्त्व को प्राप्त करना पड़ता है। जो एक अस्तित्व को दूसरे अस्तित्व के बीच से वह तत्त्व अनिवार्य बनता हो तो उसे अपनाना चाहिए....

दक्षिण राज्यों में देवदासी प्रथा का प्रारम्भ दसवीं शताब्दी के आरम्भ में कर्नाटक से हुआ। जब हम विश्व के प्राचीन धार्मिक इतिहास को देखते है तो देवदासी प्रथा भारत में ही नहीं अपितु यूनान-मिस्र-बेबीलोन में भी दिखाई देती है। इसका कारण यह माना जाता है- देवदासी या वेश्या का अभ्युदय कहीं ग्रहविधानों, तो कहीं लौकिक या पारलौकिक ज्ञान और धर्म से जोड़कर कला के साथ इन दो धर्म के विकास के लिए हुआ था। ÷÷शताब्दियों तक देवदासियाँ पवित्राता की प्रतीक बनी रहीं, पर आते-आते प्राचीन काल में देवदासी प्रथा यहाँ के मन्दिरों में प्रारम्भ हुई, मन्दिरों में अभिलेखों में ÷÷पात्रााद्रवारू'' या ÷÷पावालकम'' शब्द मिलते है जो मन्दिरों को समर्पित युवतियों के लिए है।'' कर्नाटक के कुछ हिस्सों में ऐसी युवतियों के लिए ÷÷बासवी'' शब्द का प्रयोग किया जाता था। कालान्तर में ÷÷देवदासी'' शब्द का प्रयोग होने लगा। जो यल्लम्मा, दुर्गम्मा, महापूरताई, हुलगेम्मा, तायम्मा आदि जैसे मन्दिरों में देवी को समर्पित आज भी वह परम्परा नाचने गाने वाली, सेवा करने वाली, युवतियों के लिए किया जाने लगा है। ÷÷देवदासी'' शब्द से तात्पर्य उस कन्या से था जो देवदासी बनकर देवता को अर्पित होती और जीवन पर्यन्त मन्दिर के प्रांगण में देवता की सेवा में रहती थी। धार्मिक अन्धविश्वास और इसकी ओट में फायदा उठाते रहे पूजारी खुबसूरत कन्याओं को देवदासी बनाने के लिए बाध्य कर देते थे।

महाराष्ट्र में खण्डोबा को समर्पित की जाने वाली कन्या ÷मुरली' कहलाती है। यह भी देवदासियों की भाँति होती है एवं बेलगाँव की देवदासियाँ ÷जोगनी' कहलाती है। किन्तु जैनेन्द्र की नारी पात्रा आर्थिक लोभ के कारण पैसों की अधिक चाह होने के कारण वेश्या बनती है। रंजना के शब्दों में ÷÷माफ करना, रुपयों में यही बुराई है। वह सुधार का जिम्मा लेता और अपनी शर्त रखता है... क्या कह रही थी मैं, हाँ, धर्म। आज वह धर्म रुपया-धर्म, वैश्य धर्म है। राजधर्म भी वही है। राष्ट्र विनिमय पर चलते और फलते हैं। जो सौदें में बाजी ले गया। अर्थात् पुरुष गहरा व्यवसायी होगा। इसलिए आदर्श स्त्राी को भी गहन व्यवसायिनी बनना है। सुना वारांगना से यह आगे की चीज+ है। मज+ाक न समझ लेना। गहरे सोच-विचार से नतीजे पर पहुंँची हूँ और यह सब आप से इसलिए कह रही हूँ कि विवाह किसी अदालत से हमारे बीच से अभी टूटा नहीं है। यानी यह जो सात एक बरस बीते है, अनधिकृत बीते हैं। आप ताप-संताप उठाते रहे, फिर भी यह नहीं किया, इसके लिए मैं आपकी ऋणी हूँ। आशा करती हूँ कि आपकी सहानुभूति साथ है और मैं प्रयोग में आगे बढ़ सकती हूँ।'' अतः रंजना रुपयों की शर्त पर अपने पति से अलग रहकर वेश्यावृत्ति करती रही सात साल बीते हुए हैं। यह आर्थिक समस्या के कारण गहरे सोच-विचार से नतीजे पर पहूँची और वेश्या का पेशा करने लगी है। जैनेन्द्र कुमार वेश्यावृत्ति के मूल में स्त्राी को दोषी न मानकर पुरुष को ही दोषी ठहराते है। वे कहते है कि ÷समाज' में वेश्या को स्थान तो अर्थवृद्धि होने पर ही आरम्भ हुआ था।....उजरत और कीमत देकर जब भोग के लिए नारी को प्राप्त करते हैं, तभी तो उसे वेश्या कहते है। कीमत पैसे के रूप में चुकाने की विधि ही न हो तो वेश्या की स्थिति नहीं बन सकती।' वेश्यावृत्ति के संदर्भ में यह ज्ञात होता है कि पुरुष की कामुकता ही नारी को विवश करता है।

जैनेन्द्र वेश्या उसे मानते है- ÷÷वेश्या वह नहीं है जो अनेक को प्रेम करती है। वेश्या वह है, पैसे के एवज में अपने को देती है।'' जो पैसे के लिए पेशा करती है उसे जैनेन्द्र वेश्या सम्बन्धी गम्भीर उस सत्य को स्वीकार करते हैं। क्योंकि वह अर्थ के लिए अपने को देती है। उसका कारण समाज में व्याप्त गरीबी और निर्धनता से विवश होकर अनेक वेश्याओं का अर्विभाव होता है। जब मनुष्य नारी की मनोवैज्ञानिकता को समझने का प्रयास करेगा, तब अवश्य ही नारी पर का शोषण एवं अत्याचार कम होते जायेगा। उसकी मजबूरी क्या है? वह लाचार एवं विवश है तो उसे मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सोचे समझे चाहे उचित हो तो उसे अपना ले या मदद करें। अबला नारी की मजबूरी होने के कारण हर पल उसके बारे में उचित ही सोचना ठीक होगा। क्योंकि स्त्राी एक जीवन है। वह आनन्द, जोश एवं एक सुन्दर सपना भी है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-



१. जैनेन्द्र कुमार, दशार्क, पृ. ५१

२. बट्रेण्ड रसेल, विवाह और नैतिकता, पृ. १५०

३. जैनेन्द्र कुमार, त्यागपत्रा, पृ. ५१

४. वही, पृ. ५१

५. वही, पृ. ५७

६. वही, पृ. ४२

७. डॉ. नन्ददुलारे वाजपेयी, नया साहित्य, नये प्रश्न, पृ. २६०

८. जैनेन्द्र कुमार, काम, प्रेम और परिवार, पृ. ११२

९. जैनेन्द्र कुमार, कल्याणी, पृ. १२६

१०. जैनेन्द्र कुमार, व्यतीत, पृ. १६६

११. जैनेन्द्र कुमार, सुनीता, पृ. २४२

१२. डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर, जैनेन्द्र कुमार और उनका साहित्य, पृ. ५३

१३. विद्याभास्कर श्री सच्चिदानंद शास्त्री, नारी दर्पण, पृ. २८

१४. जैनेन्द्र कुमार, दशार्क, पृ. ५१

१५. जैनेन्द्र कुमार, समय और हम, पृ. ३४५

१६. वही, पृ. ३५१



Comments

Popular posts from this blog

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत...

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं। मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार...

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी...