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पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज+ कृत अकेला पलाश' में नारी की दशा

डॉ. सैय्यद मेहरून



वैज्ञानिक तरक्की ने संसार को एक नया मोड़ दिया है। भूमंडलीकरण और विश्वबाज+ार ने सारे संसार को समेटकर विश्व ग्राम और विश्व घर बना दिया है। वैज्ञानिक रूप से संसार जितनी भी तरक्की कर ले सृष्टि के संतुलन के लिए स्त्राी और पुरुष के सहयोग की आवश्यकता है। ÷÷स्त्राी विश्व की महान् शक्ति है। इस शक्ति से संबंध रखने वाले पुरुष को शिव बनाना पड़ेगा। शिव और शक्ति इनके प्रेम पर पूरे समाज की नींव खड़ी है।'' (डॉ. सविता किर्ते, आठवें दशक की लेखिकाओं के उपन्यासों में व्यक्त स्त्राी चरित्रा, पृ.१३ ) फिर भी पुरुषसत्तात्मक समाज में नारी की विडंबनापूर्वक स्थिति रही है।

आधुनिक युग में नारी जीवन में मात्रा दुःख, नैराश्य, संत्राास, त्राासदी, कुंठा के अलावा और कुछ नहीं रहा। फलतः दांपत्य जीवन में भी दरार उत्पन्न होने लगे। दांपत्य जीवन पारिवारिक जीवन का मूलाधार है। स्त्राी और पुरुष का विवाह ही परिवार की आधारशिला है। पति-पत्नी का पारस्परिक प्रेम ही दांपत्य जीवन में आनंद और खुशियां बिखेरता है। प्रस्तुत उपन्यास ÷अकेला पलाश' की नायिका ÷तहमीना' मुस्लिम समाज की अनमेल विवाह की शिकार बनी एक प्रमुख नारी पात्राा है। वह पढ़ी-लिखी है, अफसर है। फिर भी वह मुस्लिम परिवेश में पली एक नारी पात्राा है। मुस्लिम समाज में जितनी अधिक बंदिशे महिला पर लगायी जाती है, संभवतः किसी अन्य समाज में नहीं है। बचपन से ही लड़की के दिमाग में मजहबपरस्ती, शौहरपरस्ती की बातें इस कदर ठूंसी जाती है कि नारी को उसे मानकर चलने के अलावा विरोध करने की भावना ही उत्पन्न नहीं होती है। इस समाज में अशिक्षा, गरीबी, दहेज प्रथा के कारण तहमीना का विवाह भी उसकी माँ कम उम्र में ही वृद्ध व्यक्ति से कर देती है। यह व्यक्ति तहमीना के पिता का दोस्त है। भारतीय समाज में विवाह सोलह संस्कारों में से एक था दांपत्य में आबद्ध होने की प्रथा है। पति-पत्नी एक दूसरे का साथ जीवन भी निभाना विवाह जीवन तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। वात्स्यायन के अनुसार ÷÷काम जो कि जीवन का अनिवार्य अंग है। मनुष्य की सद्गति और दुर्गति दोनों का सहज कारण भी है। मनुष्य के लिए काम सेवन स्वाभाविक और प्रकृत है। किन्तु उसका अति सेवन अहितकर है।'' (डॉ. उषा कीर्ति राणावत, स्त्राी-पुरुषों के संबंधों का विमर्श, पृ. ३०) जमशेद विवाहपूर्व ही तहमीना पर अत्याचार करता है। इसलिए उसके पिता अनिच्छा से ही लड़की का ब्याह जमशेद से करने के लिए मंजूरी देते है। विवाह के पश्चात् पत्नी के साथ दांपत्य जीवन निभाने में जमशेद विफल हो जाता है। तहमीना बचपन से ही स्वाभिमानी रही है। भले ही दिन-भर भूखी रह जाये पर कभी माँ से खाना तक नहीं मांगती। फिर अब पति के सम्मुख कामेच्छा कैसे प्रकट कर सकती है? वह सोचती है कि ÷÷एक पुरुष होकर जब जमशेद को उसके नारी शरीर की आवश्यकता नहीं तो वह क्यूं जाए और किसलिए। आगे वह पति कामेच्छा को लेकर सोचती है कि ÷÷कैसा पुरुष है, यहांँ इसे क्या कभी नारी की, पत्नी की आवश्यकता नहीं होती।'' दांपत्य जीवन में यदि पत्नी के भाग्य में नपुंसक पति आता है तो उस नारी की बड़ी दुर्दशा हो जाती है। तहमीना के साथ भी यहीं हुआ था। ÷÷आज....आज की रात भी वहीं हुआ था जो इसके पहले कई रातों से हो चुका है। आज फिर जमशेद की बांहों में उसने महसूस किया कि वह एक पुरुष के पास नहीं एक नपुंसक पुरुष के साथ है। जो अपनी पत्नी के शारीरिक भूख मिटाने में विफल है। ऐसी स्थिति में तहमीना के अतृप्त जीवन से फायदा उठाना चाहता है। कहता है कि ÷÷तुमने अपने को पत्थर मान लिया है और अपने आपको घर के लिए, समाज के लिए ढाल लिया है, पर तुम यह बात भूल गयी हो कि तुम्हारी अपनी भी इच्छाएं है, तुम्हें अपने लिए भी जीना है। आज तक जो जीवन तुमने जिया वह भ्रम था, अपने को छलती रही हो। तुम मशीन नहीं हो साथ ही तुम एक औरत भी हो'' (अकेला पलाश) आगे तुषार तहमीना को समझाते हुए कहता है कि स्त्राी-पुरुष के अनैतिक संबंध ÷÷पाप वगैरह कुछ नहीं है दुनिया में, जो मन को अच्छा लगता है न वहीं पुण्य और जो अच्छा नहीं लगता वह पाप है तुम इन परिभाषाओं में अपने को मत बांधो। समय-सयम पर तुषार तहमीना को मानसिक और शारीरिक रूप से वश कर लेता है। तुषार अपनी हवस पूरी कर लेने के बाद तहमीना से मिलना छोड़ देता है। पर तहमीना तुषार के लिए तड़पने लगती है। ÷÷कितनी अजीब बात है कि पुरुष पहले औरत के पीछे भागता है, बाद में औरत को उसके पीछे भागना पड़ता है अपना सब कुछ लुटाकर।''(अकेला पलाश) केवल क्षणिकानंद के लिए तुषार अपनी हवस को पूर्ण कर लेने के बाद बदनामी का बहाना बनाकर तहमीना से संबंध तोड़ लेता है। वह अब तहमीना से मिलना भी छोड़ देता है और उससे हमेशा बचते रहता है। ट्रांसफर के बहाने तहमीना से पलायन कर दिल्ली पहँुंच जाता है। इधर तहमीना उसे पाने के लिए तड़पती रहती है, उसके पीछे पागलों जैसी भागती रहती है। तुषार के अभाव में उत्पन्न विरह की टीस और वेदना का अनुभव करती है। वह सोचती है कि ÷÷यह कैसा दर्द है, बार-बार अपने को टटोलकर पूछती है, उसे शांति क्यों नहीं मिली? दिल को किसी पल चैन क्यों नहीं मिला? दर्द का फोड़ा हर पल, हर क्षण टीसें देता है, जिं+दगी में क्या मिला? शायद कुछ नहीं। वीरानी ही वीरानी है अब जो जिं+दगी में....। सब तरफ धूल ही धूल....धूंधलापन है चारों ओर, हर खुशी पत्ते की तरह उड़ती नज+र आती है।'' (अकेला पलाश)

तहमीना तुषार को भूलने का निर्णय लेती है। इस संदर्भ को लेकर अजय से बताती है कि ÷÷जिस जगह हम टूटे हैं, जहां हमारे पैर काट लिये गये वहीं पर हमें खड़े होना है, अपने को संभालना है। तुषार समझता है हम टूटकर मिट्टी में मिल जायेंगे, पर नहीं हम यहीं जीकर हँस कर दिखाएंगे।'' तुषार के स्वभाव को लेकर तहमीना आगे कहती हैं कि ÷÷कितना कंगाल, भिख मंगा, बेचारा है। वह आदमी जिसे दान करना नहीं आता, जो प्यार करना नहीं जानता...और हम भी कितने पागल निकले, कंगाल से दान की चाह करते रहे! जो खुद भिख मांगा हो वह दूसरों को क्या दान करना?'' (अकेला पलाश) ऐसी अवस्था में मेहरुन्निसा परवेज+ जी विपुल के माध्यम से तहमीना को जीने का आश्वासन देती हैं कि ÷÷जिं+दगी में छोटे-मोटे जलजले तो आते ही रहते है और हर जलजला अपनी पहचान, दरार छोड़ जाता है, इन से कोई नहीं बच सकता। पर पारिवारिक जीवन में फिर से संतुलन लाना निहायत जरूरी होता है, वरना बेचैनी और भटकन आदमी ज्+यादा देर बरदाश नहीं कर सकता।'' (अकेला पलाश)

तहमीना पढ़ी-लिखी है। समझदार है। एक बार अवश्य भटक गयी थी पर अपने आप को संभाल लेती है और सोचती है कि ÷÷वह एक ऐसा वृक्ष है जो सिर्फ दूसरों को सहारा देता है। अनगिनत नन्हीं-नन्हीं बेलों उस तने का सहारा पाकर ऊपर चढ़ गयी हैं, पर उसे खुद को कोई सहारा नहीं है। उसे अकेले उसी तरह जमीन मजबूती से पकड़े रहकर खड़े रहना है। ऊपर आसमान भी है तो बहुत दूर और वह बिना सहारे के अगर लड़खड़ाती है तो उसके साथ ढेर सारी नन्हीं-नन्हीं बेलें नीचे गिर पड़ेगी। परिवर्तन प्रकृति का नियम हैं। मेहरुन्निमा परवेज+ जी प्रकृति प्रेमी होने के नाते प्रकृति के माध्यम से ही तहमीना में आये परिवर्तन को दिखाने का प्रयत्न करती है। मानव का जीवन प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। प्रकृति ही मानव का प्रथम गुरु है। प्रकृति भी अपने नियमों का पालन कितनी पाबंदी से करती है। पलाश के फूल जहाँ खत्म हुए थे वहीं अब गुलमोहर के केसरिया रंग वाले सुंदर-सुंदर फूलों की बहार थी। सड़क पर जहांँ-तहाँ खड़ा यह पेड़ अपने ओर आकर्षित कर लेता था। प्रकृति किस तरह मन को बांँधने के लिए एक न एक बैसाखी का सहारा दे ही देती है। कल तक जो तहमीना सोचा करती थी कि इस पलाश को देखकर वह प्रसन्न हो जाती है, कल यह झड़ जायेगा तब वह क्या करेगी? पर वहीं अब वह सोचने लगी है, नहीं अभी कुछ बचा है अभी गुलमोहर के फूूल अपने रंग बांटते नज+र आ जाते हैं। यह फूल वीरानगी में अपना सौंदर्य बिखेरेंगे और जब इन फूलों का भी अंत हो जायेगा, तब तक बरसात आ जायेगी और इस तरह प्रकृति भी कितनी पाबंदी से अपना सौंदर्य बनाये रखती है और मनुष्य भी बच्चे-सा बहल जाता है।

इस उपन्यास की दूसरी पात्राा है तहमीना की मांँ। वह मुस्लिम समाज में पुरुष सत्तात्मकता की शिकार है। तहमीना की माँ अपने पति के शोषण की भी वह शिकार बनती गयी है। इसको लेकर तहमीना कहती है कि ÷÷यह असुरक्षा का भय माँ के जिं+दगी भर साथ रहा, माँ जिं+दगी भर अपनी सुरक्षा के लिए एक घरौंदे की तलाश में रही। पिता की आँखें जो हमेशा हवस के खुमार में लाल और चढ़ी रहती और माँ के शरीर पर पड़े नीले-नीले ओल के निशान जो उसे सिहरा जाते और बच्चों का तो बचपन हँसते हुए अपने सहपाठियों के बीच बीतता है पर तहमीना का बचपन एक भय के वातावरण में बीत गया था। वह स्कूल में रहती तो घर में हो रहे काण्ड से घबराहट होती, घर में होती तो अपने को बस रोता हुआ ही पाती।''(अकेला पलाश) ऐसी स्थिति में तहमीना की बाल्यावस्था गुजारती और जब वह सयानी हुई माँ के हृदय में जब यह एहसास होने लगा तो माँ के भीतर ही भीतर डरा दिया और वह एक बार फिर कान सी गयी। माँ के रोम-रोम में भय समा गया कि बाप की हवस की शिकार बेटी न हो जाए और इस भय ने उनकी रात और दिन की नींद हराम कर दी। इसीलिए तहमीना के माँ के पास दूसरा उपाय नहीं था। इसलिए कि माँ को शायद जरूर बच्चों के भविष्य की चिंता थी, पर वह एक अनपढ़ औरत थीं, जिनका दायरा सिर्फ पति के इर्द-गिर्द घूमता था। सारा जीवन उन्होंने पति के घर लौटा आने के चक्कर में ही काट दिया। उस समय में मुस्लिम समाज में पुरुषों के लिए बहु पत्नी प्रथा प्रचलित थी। इसलिए माँ को हर समय अपना स्थान छिन जाने का भय रहा, हमेशा यह भय रहा कि पिताजी उनके स्थान पर किसी दूसरी स्त्राी को न ले आयें। औरत जीवन में हर चीज+ त्याग कर सकती है पर अपने स्थान पर वह दूसरी स्त्राी को बर्दाश्त नहीं कर सकती।

तहमीना एक ओर बचपन से माँं पर पिता के शोषण को देखती है। जब वह नौकरी पर लगी तो पति के शक का शिकार बनती है। जमशेद विपुल को लेकर शक करता है। विपुल उम्र में तहमीना से छोटा है और तहमीना को दीदी मानता है। इसके बावजूद भी पुरुष अहंकार से जमशेद एक दिन कहता हैं कि- ÷÷और सुन लो, मुझे यह सब फालतू बातें पसंद नहीं है। और मुझे तुम्हारा उसके साथ यह अड्डा जमाना भी पसंद नहीं है कह दो वह रोज यहाँ न आया करें।''(अकेला पलाश)

इस उपन्यास में मेहरुन्निसा जी पुरुष शोषण का शिकार हुए दो और नारी पात्राों का भी परिचय देती है। वे है रजिया और दुलारी बाई जो तहमीना के ऑफिस के कर्मचारी है। रजिया बीस-इक्कीस वर्ष की है पर उसको पुरुष के सहारे की ज+रूरत है। पर विनोद दो बच्चों का बाप है, उसकी पत्नी है, उसकी अपनी जिम्मेदारियों है वह रजिया की देख भाल कैसे कर पायेगा इसलिए तहमीना रजिया को समझाती हुई कहती है कि ÷÷यह ठीक है कि तुम्हें धूप लगी है और तुम्हें छाया की ज+रूरत है, पर छाया के ऐसे पेड़ के बीच पनाह लो तुम्हें वास्तव में छाया दे सके। ऐसे पेड़ के नीचे मत खड़ी हो जो तुम्हें छाया भी न दे सके बल्कि उल्टा तुम्हारे ऊपर गिरे और तुम्हें नष्ट कर दे। तुम क्या नहीं जानती, विनोद दो बच्चों का बाप है, उसकी पत्नी है।'' (अकेला पलाश)

तहमीना यथार्थ समस्या को अवगत करवा कर रजिया का ट्रांसफर करवा देती है। ऐसी ही दूसरी कर्मचारी है दुलारी बाई। वह विधवा है और तीन बच्चों की माँ होते हुए भी वह एक ग्राम-सेवक के प्रेम जाल में फँस कर गर्भवती होती है। उस स्त्राी को भी तहमीना परिस्थितियों से अवगत करवा कर परिवर्तन लाती है तो वह भी अपनी गलती को स्वीकार करती हुई कहती है कि ÷÷मैं भटक गयी, दूसरे के बहकावे में आ गयी थी। आपने मुझे रास्ता दिखा दिया, मुझे बचा लिया। अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी, पर मुझे उस गाँव से हटा दीजिए, कहीं और भेज दीजिए, वह ग्राम-सेवक मेरी जान के पीछे पड़ा है।''(अकेला पलाश)

श्रीमती परवेज जी इस उपन्यास में तहमीना के पात्रा के द्वारा बेमेल विवाह से उपजी नारी की दैहिक वासना की समस्या को सुलझा कर समाज के अन्य स्त्रिायों को मार्गदर्शिका बनती हैं। वह नौकरी में उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को सुधारने का प्रयत्न करती है। इसलिए तहमीना को पलाश के समान माना गया है। पलाश लाख सुंदर को, सुंदर फूल हो, पर उसमें सुगंध नहीं है, न उसे जूड़े में सजाया जा सकता, न वह किसी भी गुलदस्ते की शोभा बन सकता है.... पलाश सिर्फ अपनी डाल पर लगता है और उसी पर मुरझाकर धरती पर गिर जाता है। कितना कड़वा सत्य है, जिसे उसने आज जाना, अभी...इसी क्षण!!

तहमीना अपने आपको सुधारने ही नहीं रजिया और दुलारी बाई के जीवन को भी सुधारती है। वह स्वयं तुषार को पत्रा का उत्तर देते हुए लिखती है कि ÷÷मेरी दुनिया से दूर चले जाओ। मुझे कुछ याद नहीं, बिल्कुल उस भटके हुए पक्षी की तरह से अपना घोंसला शाम के अंधेरे में भूल जाता है। मैं भी उसी पक्षी की तरह अपना सारा कुछ पिछला भुला चुकी हूँ, अब उन्हें कभी याद दिलाने की चेष्टा मत करना! बस!''(अकेला पलाश)

इस समाज में सिर्फ एक जाति या एक वर्ण पर ही यह अत्याचार या शोषण नहीं हो रहा है। यह समस्या संपूर्ण स्त्राी जाती की समस्या है। अनपढ़ लोगों के साथ ही नहीं पढ़े-लिखे समाज में भी नारी पर लैंगिक अत्याचार बराबर हो रहे है। कितने डॉक्टर नर्सों पर अत्याचार करते है इसका भी उदाहरण इस उपन्यास में प्रस्तुत है। इस संदर्भ को लेकर नाहिद तहमीना से कहती है कि हाँ, डॉक्टरों में ग्रूप है। दोनों ग्रूप आपस में एक-दूसरे को ऊँचा-नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। कुछ बदमाश डॉक्टरों का अड्डा बना है यह अस्पताल। ट्रांसफर होते है, पर दौड़-धूप करके कैंसिल करवा लिये जाते हैं। नाइट ड्यूटी में तमाशे होते हैं। रात को अस्पताल में बाहर से इनके दोस्त आते है, जो नर्सों से अपनी भूख मिटाते है। नर्स बेचारी डॉक्टरों की ऊँगलियों पर नाचती है। बड़ा ही अजीब हाल है यहाँ। नाहिद आगे उसी अस्पताल में घटित एक घटना को लेकर बताती है कि हमारे यहाँ एक नई लड़की आयी है, नर्स बनकर। काफी सुंदर भी है। डॉ. खान ने उससे प्रेम प्रदर्शन किया। सोचा था शायद आसानी से राजी हो जायेगी, पर डॉक्टर खान की इस हरकत पर वह लड़की चिल्लाती हुई बाहर आयी और बाहर आकर उसने शोर मचाना शुरू कर दिया। आस पास के कमरों के सारे लोग निकल आये। समझो एक अच्छा खासा-सा तमाशा ही हो गया। गुस्से और अपमान से भरे हुए डॉक्टर खान अपने कमरे में ही बैठे रहे। बात सी.एस. के कान तक भी पहुँची। डॉक्टर खान की अच्छी खासी परेड हुई, पर कुछ लोगों ने बीच बचाव कर मामले को रफा- दफा कर दिया और लड़की को चेतावनी दे दी गयी कि अभी तुम्हारी नई-नई नौकरी है, तुम्हें अनुभव नहीं है। आइंदा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए। कितने खराब ....लोग है ये सारे के सारे, डॉक्टर है उन्हें अपनी प्रतिष्ठा का ख्+याल रखना चाहिए। मरीजों के स्वास्थ को सुधारने वाले डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप मानते है। ऐसे डॉक्टर स्वयं अस्वस्थ हो जाए और अपने सह कर्मचारियों के साथ स्वयं का हवस उतारना ही नहीं अपने मित्राों को भी इस क्रूर और घिनौनी हरकत करने में प्रोत्साहन दे तो ऐसे समाज को कौन सुधार लावेगा और यहाँ के नर्सों को कौन सुरक्षा देगा जैसे कई प्रश्न खड़े होते है।

सिर्फ कर्म क्षेत्रा में ही नहीं धर्म क्षेत्रा में भी नारियों पर अत्याचार होने लगे। विमला भले घर की लड़की होते हुए भी घर के सारे सुख-सुविधाओं को त्याग कर संन्यासी बनीं तो उसे भी इस क्षेत्रा में मानसिक और शारीरिक शोषण को सहना पड़ा। वह स्वयं इस विषय को लेकर तहमीना को बताती है कि मेरा झुकाव बचपन से ही धर्म की ओर था। धीरे-धीरे यह बढ़ता गया और एक दिन मैंने संन्यास लेते हुए घर छोड़ दिया। मेरी एक दोस्त थी, उसने भी संन्यास ले लिया था। उसी के बुलाने पर मैं पहले उसके आश्रम गयी, पर वह आश्रम अच्छा नहीं लगा। वहाँ का वातावरण बहुत गंदा था। आश्रम के नाम पर ढकोसला था, संन्यास के नाम पर बदमाशी होती थी। दुनियादार लोगों से भी बढ़कर ये लोग सेक्सी थे। हर नई लड़की को गुरु भोगता था। फिर उसके बाद दीक्षा दी जाती थी। बात यहीं तक हो तो फिर भी ठीक था, पर वहाँ तो आश्रम के जरिए बड़े-बड़े खेल खेले जाते हैं, बड़े-बड़े कारोबार चलाये जाते थे, बड़ी-बड़ी राजनीतियों में हिस्सा लिया जाता था। गोया यह कि हर बार काम वहांँ होता था। मुझसे कहा गया कि तुम संन्यासी बनकर दूसरे जगह जाओ, जहाँ तुम्हें जासूसी का काम करना होगा और माल इधर से उधर भेजना पड़ेगा। मैंने जब इन्कार कर दिया तो मेरे सारे वस्त्रा उतारकर मुझे रस्सियों से बांध दिया। भूखे प्यासे मुझे चार दिन रखा गया और फिर उसी रात दस व्यक्तियों ने मेरे साथ बलात्कार किया। दुख, पीड़ा और शोक से मेरी आत्मा त्राासी-त्राासी करने लगी, पर वहांँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं आया। मेरी दोस्त ने जब देखा कि मैं इस वातावरण में नहीं जी सकूंगी। तो उसने एक दिन मौका पाते ही मुझे आश्रम से बाहर कर दिया। बाहर आकर मेरी समझ में नहीं आया मैं कहाँ जाऊँ। मैं संन्यासी के वस्त्रा धारण किये हुए थी और संन्यासी को दूसरे संसार त्यागा हुआ मनुष्य मानते है और संसार त्यागने के बाद उसे अपनाना नहीं चाहते। भटकते हुए आखिर अंत में मुझे एक और आश्रम में शरण लेनी पड़ी। सोचा था कि पहले आश्रम में गलत काम होते थे, यहाँ शायद नहीं होते होंगे, पर यहाँ मेरी इससे भी बुरी हालत की गयी और एक दिन जब मैं पूजा के लिए एक शहर से दूसरी शहर भेजी जा रही थी, तब मैं मौका पाकर रेल से एक छोटे शहर में उतर गयी और छुपती हुई दिनों तक इधर-उधर भटकती रहीं। फिर किसी ने मुझे श्री माँ के आश्रम में पहँुंचा दिया। वहाँ ये सारी बातें नहीं थी। पर वहाँ का अनुशासन बहुत कड़ा था। संन्यासी बनने के लिए पहले कई परीक्षाएँ देनी थी और इतनी कठिन परीक्षाओं को देख मैं भयभीत हो गयी। श्री मांँ मुझसे नाराज+ हुई। फलतः मुझे आश्रम छोड़ना पड़ा, क्योंकि इतने कड़े अनुशासन में मैं रह नहीं पाई। दम घुटता-सा लगा और मैं श्री माँ के आज्ञानुसार बाहर चली गयी। अंत में मुझे ये स्वामी जी मिले। वे दिल के अच्छे है पर कठोर भी इतने है कि थोड़ा-सा श्लोक गलत होने पर मार बैठते है।''(अकेला पलाश) इस धार्मिक क्षेत्रा से जुड़े हुए आश्रमों में भी नारी पर अत्याचार होने लगे। इससे इन आश्रमों में रहने वाली नारी की सुरक्षा पर भी कई सवाल उठने लगते है।

तहमीना के पास ही तरु जैसी नारी अपनी बच्चों सहित परिवार से दूर अकेली रहने लगती है। विमल तरु से विवाह करना चाहता है और तरु के सामने यह प्रस्ताव रखता है। उस प्रस्ताव को स्वीकारने के लिए तहमीना तरु को प्रोत्साहन देती है। इस संदर्भ में उस जैसे नारी के प्रति स्वार्थी पुरुष के दृष्टिकोण को बताते हुए तहमीना तरु से कहती है कि ÷÷तुम खुशकिस्मत हो तरु जो उसने शादी का ऑफर दिया। वरना लोग तो प्यार का नाटक रखकर धोखा देते है। फिर तुम जैसी स्त्राी को जो अपने घर से निकल आयी हो और अकेले बच्चों के साथ रहती हो, ऐसी औरत को तो हमारे समाज के पुरुष लोग सार्वजनिक कुआँ समझते हैं। जिनकी इच्छा हुई, प्यास लगी, पानी पी लिया।'' विपुल के दृष्टिकोण में ÷÷तरु ऐसा कमल है जो कीचड़ में होता है और उसमें कीचड़ की महक तो होगी ही, पर मैं इसे सहारा नहीं देता तो और दलदल में फंसती चली जाती है।

इस उपन्यास की नायिका तहमीना, उसकी माँ, रजिया और दुलारी बाई, विमला और अस्पताल में काम करने वाली नर्सों समाज के विभिन्न वर्गों के पुरुषों द्वारा शोषित है। जमशेद, तुषार, विनोद और एक ग्राम सेवक, डॉ. खान, आश्रम के स्वामीजी के विश्रृंखला कामवासना पुरुष सत्तात्मक अधिकार के शिकार बने है तो नाहिद अन्तर्जातीय विवाह की शिकार बनती है। इस समाज में सारे पुरुष वर्ग तहमीना के पिता, तुषार, जमशेद, विनोद, ग्राम सेवक, स्वामीजी और डॉ. खान जैसे लोग ही नहीं रहते है विपुल जैसे आदर्श पुरुष भी होते है। जब विपुल तरु को उसके बच्चों सहित जीवन में स्वागत करता है और उनकी जिम्मेदारी को पति और पिता बनकर स्वीकारता है तो तहमीना स्वागत में उसकी प्रशंसा करती हुई कहती है कि ÷÷अच्छा हुआ विपुल ने हाथ बढ़ाकर गिरती हुई बेल को सहारा दे दिया वरना पता नहीं वह किस दलदल में जा फंसती। उसके दोनों बच्चे अब निश्चित ही अच्छे इन्सान बनेंगे। क्योंकि उन्हें विपुल जैसा बाप मिला है। अपनी चीज+ को तो हर कोई अपना कह लेता है, पर दूसरों की चीज+ को अपना कहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए, जो केवल विपुल के पास है। तरु को शायद पति की आवश्यकता नहीं भी पड़ती पर उन बच्चों को तो थीं, अपनी ज+रूरतें कहने के लिए उन्हें एक पिता नाम का व्यक्ति चाहिए था।'' (अकेला पलाश)

इस प्रकार ÷अकेला पलाश' उपन्यास की लेखिका पद्मश्री मेहरुन्निसा परवेज जी समाज के विभिन्न वर्गों के पुरुषों की नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं पर प्रकाश डालकर नारी के विभिन्न दशाओं का वर्णन करने में सफल हुई है। आधुनिक युग में नारी जितनी पढ़ी-लिखी क्यों न हो, संस्कारवान क्यों न हो, विवेकी क्यों न हो, परिवार के दायित्व निभाने वाली क्यों न हो, वह अबला से सबला बनने के प्रयत्न में इस समाज से सकारात्मक दृष्टि से संघर्ष करने की और भी आवश्यकता है।



सहायक ग्र्र्रन्थ सूची-



१. मेहरुन्निसा परवेज, अकेला पलाश, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

२. डॉ. मनोहर नलावडे, मेहरुन्निसा परवेज का कथा साहित्य

३. डॉ. सविता किर्ते, आठवें दशक की लेखिकाओं के उपन्यासों में व्यक्त स्त्राी चरित्रा

४. डॉ नीलम शर्मा, मुस्लिम कथाकारों का हिन्दी को योगदान

५. डॉ. उषा कीर्ति राणावत, स्त्राी-पुरुषों के संबंधों का विमर्श

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