भीम सिंह के. राठौर
साहित्यकार बहु व्यक्तित्व संपन्न व्यक्ति होता है। जीवनी प्रधान साहित्य में लेखक का व्यक्तित्व निर्भिकता और ईमानदारी से सम्मिलित होता है। उसकी प्रत्येक रचना में उसके मैं का कोई न कोई टुकड़ा बसा होता है। जीवनी या जीवनी प्रधान उपन्यास लिखने वाले प्रत्येक लेखक को अपने मैं से विशेष साहित्यकार में मैं को जोड़कर ही उसकी जीवनी लिखना पड़ता है जो उसकी संवेदना, उसकी पूजा, आस्था और लेखकीय गरिमा का परिचायक ही नहीं अपितु उसके लेखकीय द्वंद्व की कसौटी भी होती है।
हिन्दी साहित्य में भी कुछ लेखकों ने अपने श्रद्धेय साहित्यकारों के जीवन को केन्द्र बनाकर लेखकीय शक्ति का परिचय दिया है। जिनमें डॉ. रांगेय राघव, अमृतलाल नागर, इलाचंद्र जोशी, इकबाल बहादुर, देवसरे विशेष उल्लेखनीय है। विष्णु प्रभाकर की रचना ÷आवारा मसीहा' किसी भी उच्च कोटि के साहित्यिक उपन्यास से कम नहीं। अमृतराय ने भी अपने पिता उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी की जीवनी को एक उपन्यास के रूप में ढाला है- प्रेमचंद : कलम का सिपाही।
जीवनी प्रधान उपन्यासों में ये सारी विपत्तियाँ, दुख, दर्द, चीख-चिल्लाहट, यश, मान-अभियान कल्पना द्वारा उधार नहीं लिये जाते, बल्कि उस व्यक्ति विशेष के साहित्यिक सृजन के अंग होते है। साहित्यकारों के जीवनी पर उपन्यास आज उपेक्षित हैं, पर समय के साथ साथ ये भी प्रकाश में आ रहे हैं। सर्वप्रथम इन उपन्यासों के सृजन का श्रेय डॉ. रांगेय राघव को है।
डॉ. रांगेय राघव जी ने १९५० ई. के पश्चात् कई जीवनी प्रधान उपन्यास लिखे हैं, इनका पहला उपन्यास सन् १९५१-१९५३ ई. के बीच प्रकाशित हुआ। ÷भारती का सपूत' जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवनी पर आधारित है। तत्पश्चात् विद्यापति के जीवन पर ÷लखिमा के आंखें', बिहारी के जीवन पर ÷मेरी भव बाधा हरो', तुलसी के जीवन पर- ÷रत्ना की बात', कबीर- जीवन पर ÷लोई का ताना' और ÷धूनी का धुंआं' गोरखनाथ के जीवन पर कृति है। ÷यशोधरा जीत गई है', गौतम बुद्ध पर लिखा गया है। देवकी का बेटा कृष्ण के जीवन पर आधारित है।
जीवनी की जिज्ञासा तृप्ति की सहज भावना में ऐतिहासिक शोध व ऐतिहासिक उपन्यास रचना के बीच निहित है जिनका अंकुर जीवनी परक उपन्यासों के रूप में भी फूटना है। आगे हम इन उपन्यासों के स्वरूप की चर्चा प्रत्येक उपन्यासों का परिचय संक्षिप्त रूप में दिया गया है।
१. भारती का सपूत (१९५४, प्रथम संस्करण)
यह हिन्दी साहित्य क्षेत्रा का प्रथम जीवनी परक उपन्यास है। इसका प्रकाशन का काल सन् १९५०-५३ ई. के बीच माना जाता है। इस उपन्यास में डॉ. रांगेय राघव ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र की जीवनी को आधार बनाया है। इनके जीवन से संबंधित विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न पात्राों की संस्था दी है।
÷भारती का सपूत' में भारतेन्दु हरिश्चंद्र की प्रेमकथा का सविस्तार वर्णन है। शिवाले के रईस लाला गुलाबराय की सुपुत्राी मन्नादेवी से भारतेन्दु का विवाह संपन्न होता है। तब भारतेन्दु की आयु लगभग तेरह वर्ष की थी। बाल-विवाह जैसी कुरीति को प्रकाश में लाना भी शायद उपन्यासकार का उद्देश्य था। भारतेन्दु के परिवार में दो पुत्रा और एक पुत्राी होती है। भारतेन्दु पत्नी के अतिरिक्त और दो स्त्रिायों का भी वर्णन करते हैं- माधवी और मल्लिका।
२. लखिमा की आँखें (१९७४, द्वितीय संस्करण)
इस उपन्यास में रानी लखिमा और विद्यापति के सात्त्िवक-मानसिक प्रेम की कथा है राजा शिवप्रसाद सिंह विद्यापति के आयदाता होने के साथ-साथ उनके मित्रा भी थे। डॉ. रांगेय राघव ने विद्यापति के दोनों भक्त व श्रृंगारी कवि रूपों का संघर्ष दिखाया है।
विद्यापति के जीवन गाथा के साथ ही तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन भी उपन्यास में सशक्त ढंग से किया गया है। ÷लखिमा आंखें' में रांगेय राघव ने राजा शिवसिंह और विद्यापति की मित्राता के साथ रानी लखिमा और विद्यापति के प्रति आकर्षण भी वर्ण किया है।
इसी उपन्यास में विद्यापति के संघर्षमय जीवन का भी वर्णन किया गया है।
३. मेरी भव बाधा हरो (१९७६, द्वितीय संस्करण)
रीतिकालीन श्रेष्ठ कवि बिहारीलाल के जीवन पर डॉ. रांगेय राघव ने मेरी भव बाधा हरो नामक यह उपन्यास रचा है। संस्कृताचार्यों ने कविता को नौ रसों में बाँटा है। ये कविता के रंग होते हैं। प्रेम, भक्ति, क्रोध, हास्य, सौंदर्य आदि हिन्दी साहित्य में तुलसी भक्ति रस के, सूर वात्सल्य के हैं तो बिहारी सौंदर्य एवं प्रेम के कवि हैं।
इस उपन्यास में लेखक ने बिहारी युगीन समाज की स्थिति का चित्राण किया है। बिहारी युगीन नारी का दुहिता, भगिनी, माता का रूप समाप्त हो गया था, वह केवल विलासिता की मूर्ति बन गई थी।
इस उपन्यास के माध्यम से रांगेय राघव ने युगीन परिस्थितियों का भी चित्राण किया है। बिहारी के माध्यम से उपन्यासकार ने मुगल कालीन अनेक प्रसिद्ध सम्राटों की गतिविधियों पर प्रकाश डाला है।
जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति वहार।
अब अलि रही गुलाब में, अफ्त कंटीली डा॥
हे अलि, अब तो इस गुलाब में कांटे ही रह गये हैं।
वे दिन बीत गये जब इनमें फूल थे।
लेखक बिहारीलाल के साहित्य एवं कविता के माध्यम से उपन्यास में देशकाल और वातावरण की करवट को दर्शाया है।
४. लोई का ताना (१९५७, द्वितीय संस्करण)
÷लोई का ताना' डॉ. रांगेय राघव द्वारा लिखा चौथा जीवन चरित्राात्मक उपन्यास है। यह सन् १९५४ ई. में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के नायक हिन्दी साहित्य के महान समाज सुधारक कवि व दार्शनिक संत कबीर की जीवन कहानी है। लोई कबीर की पत्नी है और कबीर ब्राह्मण विधवा से जन्मे थे तथा जुलाहे जाति दंपति से इनका पालन-पोषण हुआ था। लोई कपास की लट्ठी होती है। जिसकी सहायता से ताना बुनकर कपड़ा तैयार करते हैं। इसका शीर्षक प्रतीकात्मक है।
लोई का ताना एक ऐसा उपन्यास है जिसके माध्यम से उपन्यास ने कबीर के जीवन द्वारा उस युग की विद्रोहात्मक सामाजिक चेतना का चित्राण किया है- कबीर के जीवन-संबंधी तथ्य अधिक नहीं मिलते। फिर भी उनके साहित्य को पढ़कर जिन निष्कर्षों पर पहुंँचे है वह प्रशंसनीय है। उपन्यासकार ने जीवनी, इतिहास और आलोचना के त्रिाभुज द्वारा कबीर के जीवन का चित्राण किया है-जाति जुता हा मति को धीर।/हरषि हरिष गुण रमे कबीर॥
५. रत्ना की बात (१९५७, द्वितीय संस्करण)
भक्तिकालीन सगुण परंपरा के श्रेष्ठ कवि तुलसीदास पर हिन्दी साहित्य में दो उपन्यास लिखे गये। डॉ. रांगेय राघव द्वारा ÷रत्ना की बात' और अमृतलाल नागर द्वारा लिखित ÷मानस का हंस' जीवनी एक है लेकिन दो अलग उपन्यासकारों ने अपनी भिन्न-भिन्न कल्पना के अलग दृष्टिकोण से दो भिन्न उपन्यासों की रचना कर पाये है।
रत्ना की बात शीर्षक तुलसीदास की पत्नी रत्नावली से संबंधित है। यह एक लोक प्रचलित कथा है कि रत्नावली के प्रति आकर्षित के कारण तुलसीदास अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए रत्नावली के मायके पहुंँचते है जहाँ कुछ दिनों के लिए रहने गयी थी। इस बात के लिए रत्नावली को बहुत खेद हुआ कि उसका पति उसके क्षणभंगुर शरीर के प्रति इतना आसक्त क्यों है? इसलिए वह तुलसीदास को दुत्कार देती है। जिसके कारण तुलसी वैराग्य ग्रहण कर राम के प्रति समर्पित हो जाता है।
६. धूनी का धुँआ (१९७८, द्वितीय संस्करण)
÷धुनी का धुँआ' गोरखनाथ के जीवन पर लिखा जीवनी प्रधान उपन्यास है गोरखनाथ के समय में भारत में घोर योनि-पूजा प्रचलित थी। तभी वे स्त्राी विरोधी लगते है। गोरखनाथ एक महान योगी नेता थे, इतने कि उनका असर ५०० वर्ष तक रहा। गोरखनाथ व्रजयानी थे। बाद में वे नाथ-मत में आये। वे सिद्धान्त कौल संप्रदाय में मत्स्येन्द्र द्वारा दीक्षित हुए। वे वही मत्स्येन्द्र थे जो जालंधरनाथ के गुरू भाई थे। जालंधर कण्हपा के गुरु थे। जालंधर और कण्हपा कापालिक थे। गोरखनाथ ने योग संबंधी जो प्रयोग किये वे मनुष्य के इतिहास में एक ऐसा प्रयोग है जो मानव जाति की ओर एक नया इशारा करता है। गोरखनाख ने अपने समाज में प्रचलित योनि पूजा का घोर खण्डन किया और संयम के मार्ग को प्रशस्त किया। धूनी धुँआ का मुख्य उद्देश्य यही था।
सुंदर्भ-
१. अमृतलाल नागर, नयन, भूमिका
२. रांगेय राघव, भारती का सपूत, प्रथम संस्करण १९५४
३. रांगेय राघव, लखिमा की आँखें, प्रथम संस्करण १९५७
४. श्री विमान बिहारी मजूमदार, विद्यापति
५. डॉ. लक्ष्मीनारायण वार्ष्णेय, हिन्दी उपन्यास उपलब्धियाँ
६. रांगेय राघव, मेरी भव बाधा हरो, प्रथम संस्करण १९६०
७. रांगेय राघव, लोई का ताना, प्रथम संस्करण १९५४
८. कबीर ग्रंथावली
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