डॉ. गिरीश सोलंकी
हिन्दी रंगमंच विविध राजनीतिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कारणों से अभी तक अपनी परिपक्वावस्था तक नहीं पहुँच सका है। हिन्दी रंगमंच में हमें दो रूप मिलते है-
१. लोक नाट्य साहित्य को प्रस्तुत करने वाले रंगमंच
२. साहित्यिक नाटकों को प्रस्तुत करने वाले रंगमंच
यहांँ हमारा ताल्लुक साहित्यिक हिन्दी में लिखे गए नाटकों के रंगमंच से हैं। हिन्दी में लिखे गए नाटकों के आधार पर निम्नलिखित कालों में विभाजित किया जा सकता है-
१. भारतेन्दु पूर्व का हिन्दी रंगमंच
२. भारतेन्दु युगीन हिन्दी रंगमंच
३. द्विवेदी युगीन हिन्दी रंगमंच
४. प्रसाद युगीन हिन्दी रंगमंच
५. स्वातंत्रयपूर्व हिन्दी रंगमंच
६. स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी रंगमंच
भारतेन्दुपूर्व हिन्दी रंगमंच को इन दो भागों में विभाजित करते हैं-
अ. साहित्यिक नाटकों के रंगमंच
ब. पारसी रंगमंच
साहित्यिक नाटकों के रंगमंच में आगा हसन लिखित ÷इन्दरसभा' और पंडित शीतलप्रसाद लिखित ÷जानकी मंगल' उल्लेखनीय रचना है। इनमें ÷इन्दर सभा' रंगमंचीय नाटक था। इनकी रचना १८५३ ई. में हुई थी यह एक भिन्न नाटक के रूप में प्रसिद्ध है। इसका रंगमंच बहुत अव्यवस्थित, अपूर्व और अश्लीलता लिए हुए था। भारतेन्दु इसी से बहुत ही विक्षुब्ध हुए थे। यद्यपि जानकी मंगल का अभिनय करने का प्रयास किया गया था लेकिन वह रंगमंच की दृष्टि से सफल नहीं हैं।
पारसी रंगमंच भारत में अंग्रेजों के आगमन से शुरू हुआ था। इस रंगमंच का प्रयास इग्लैण्ड में बहुत जोरों से हुआ था और विकसित भी हुआ। उनकी प्रेरणा और प्रयास से भारत में कुछ पारसियों के प्रयास से उनकी नए ढंग से इस रंगमंच की स्थापना की गई। उनके प्रयासों से बहुत सी थिएट्रिकल कंपनियाँ खुली जिसमें मनोरंजन-नाटकों के अनुकूल रंगमंच का विकास किया गया। इन कम्पनियों में अल्फेड थिएट्रिकल कम्पनी, न्यू अल्फेड थिएट्रिकल कम्पनी, कारथ्रिएन विक्टोरिया थिएट्रिकल कम्पनी तथा एलेग्जेन्ड्रीया कम्पनी विशेष प्रसिद्ध थी। उन सारी कम्पनियों की स्थापना सन् १८७० से १९२० ई. के आसपास हुई थी। उन सब कम्पनियों का प्रमुख उद्देश्य जनरुचि को तृप्त करके पैसा कमाना था। जिसका परिणाम यह हुआ कि इन्होंने जो नाटक प्रदर्शित किये वे साधारण कोटि के उत्तेजक नाटक थे। जिनमें खंजर, खंजा, खूबसूरत औरत, पंजाब मेल इत्यादि। इन्होंने कुछ प्राचीन नाटकों को भी रंगमंच पर दिखाने की कोशिश की किन्तु पैसा कमाने की कामाना में वे सफल नहीं हुए।
भारतेन्दु स्वयं इस समय के रंगमंच से काफी क्षुब्ध रहते थे उन्हीं प्रतिक्रिया के रूप में उन्होंने साहित्यिक नाटक मंडली की स्थापना की और साहित्यिक नाटकों का सफल अभिनय किया। उसी की प्रेरणा से हिन्दी रंगमंच में नई चेतना का संचार हुआ और बड़े-बड़े नगरों में बहुत सी नाट्य मंडलियाँ की भी स्थापना हुई जैसे कि बलिया, प्रयाग, मेरठ, कानपुर मंडलिया स्थापित हुई जिनका उद्देश्य व्यवसाय न होकर अभिनयकला का विकास करना रहा था। किन्तु ये बाद में द्विवेदीजी के शुष्क प्रवृत्ति के आगे इन नाटक मंडलियाँ आगे बढ़ न सकी। इसी बीच प्रतिभाशाली नाटककार प्रसाद का उदय हुआ।
प्रसाद के नाटकों के विषय के संदर्भ में नाट्य मंडलियों की यह धारणा थी कि ये नाटक अभिहित नहीं हो सकते है किन्तु बनारस में चन्द्रगुप्त नाटक का सफल अभिनय सन् १९३४ में किया गया। इसके अभिनय में नगर की अन्य मंडलियों का भी सहयोग रहा। तत्कालीन समय में प्लेटो, विगोसीन, सीनरियों, टेम्पो, ट्रोक्सीनों आदि का बोलबाला था। उसी मंच पर दृश्यान्तर गत दृश्य प्रदर्शन का भी विधान रहता था। सीन ट्रासकर के द्वारा कलात्मक चित्राों के प्रदर्शित करने की व्यवस्था भी थी। नृत्य, गान आदि की अच्छी संगति रहती थी।
इस प्रकार प्रसाद युगीन रंगमंच साधना सम्पन्न न होते हुए भी विकास की ओर उन्मुख था। प्रसाद जी रंगमंच के कामकाज इतने संतुष्ठ न थे। इसी कारण कहा था हिन्दी का कोई अपना रंगमंच नहीं है। जब उसके पनपने का अवसर था, तभी सस्ती भावुक्ता लेकर वर्तमान सिनेमा में बोलने ेवाले थियेटर्स का उदय हो गया। फलतः अभिनयों का रंगमंच नहीं-सा हो गया। साहित्यिक सुरुचि पर सिनेमा ने ऐसा धावा बोल दिया कि कुरुचि को नेतृत्व करने का पूर्ण अवसर मिल गया। मण्डलियाँ कभी-कभी साल में एक-दो बार वार्षिकोत्सव मनाने के अवसर पर कोई अभिनय कर लेती है। पुकार होती है आलोचकों की हिन्दी में नाटक के अभाव की। रंगमंच नहीं है ऐसा समझने का कोई साहस नहीं करता।
अब हम सीधे मोहन राकेश के रंगमंच से जुड़े तो वे अपने ÷आषाढ़ का एक दिन' नाटक की भूमिका में कहते है कि हिन्दी रंगमंच की हिन्दी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा, रंगों और राशियों के विवेक को व्यक्त करना होगा हमारे दैनदिन जीवन के रागरंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे संवेदों और स्पदंनों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा।
उपर्युक्त निवेदन से यह बात भी स्पष्ट है जिस बात से प्रसाद पीड़ित थे वही बात राकेश जी को भी खलती थी। पर वहांँ वे रुके नहीं आगे बढ़े नाट्यकार के दायित्व सबसे ऊपर है उसी के समर्थन की एक नई रंगदृष्टि तलाश की। उन्होंने रूढ़ियों को तोड़ा और रंगमंच के बारे में नये सिरे से शुरुआत की। साहित्यिक तत्त्व अक्षुण रखते हुए रंगीय क्रिया व्यापार अपने नाटकों नये प्राण की सृष्टि की।
÷आषाढ़ का एक दिन' में मेघ के बदलते रंग रंगमंच पर एक पूरी कविता रच डालते है। उसमें सच्चे अर्थों में रंगमंच के कवि दिखाई देते हैं। वह काव्य भाषा से नहीं वरन् स्थितियों से निर्मित हैं। इस तरह पूरी तरह रंगमंच का काव्य है जो शब्द पर निर्भर तो है पर उसके साथ-साथ पात्रा की स्थितियों, मनः स्थितियों मंचीय उपकरणों और प्रतीकों और बिम्बों पर भी आश्रित है। उदाहरण के लिए कालिदास और मल्लिका और विलोम की नाट्य स्थिति एक ओर प्रेम की रसासिक्ति तो दूसरी ओर संघर्ष अथवा विवशता की पीड़ा में नाट्यकीय ही नहीं प्रेक्षक के लिए समसामयिक आस्वाद देने वाली भी हैं।
इसी प्रकार लहरो के राजहंस नाटक में कामोत्सव का आयोजन श्यामांग प्रलाप, मृग-प्रकरण नेपथ्य में बौद्ध भिक्षुओं का समवेत स्वर, सुन्दरी का प्रसाधन, नन्द का मुडिर सिर लौटना सब अद्भुत भावसृष्टि करते है।
अनुभूति की इसी प्रधानता के काव्य इन दोनों नाटकों की आत्मा काव्यमयी हो गयी है।
आधे अधूरे भी एक ऐसा नाटक है जिसमें कथ्य के अनुरूप अंधेरे बंद कमरे का प्रभावशाली बिम्ब बिलकुल प्राकृतिक परिवेश से कटकर उभरता है क्योंकि सारा नाटक घरेलू है। ये नाटक अन्त में पात्रा और परिवेश को लेकर जो रंगीय बाह्यता उभारता है- फाइलें झाड़ना, कैची से तस्वीर काटना, कार्टून बनाना तुतलाना या हकलाना, पैन्ट में कीड़े घुसने का नाटक करना जैसे सामान्य घिसी-पिटी रंगचर्याओं और रंगीयतावादी दृष्टि से अपूर्व प्रभाव छोड़ जाती है- लौटता हुआ महेन्द्रनाथ वर्षा में मल्लिका के घर से निकलता कालिदास और बांँह छुड़ाती पत्नी की उपेक्षा से आहत नन्द आदि उदाहरण रंगमंच पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं।
उनके नाटकों में दृश्यों के बहुलता नहीं है। एक अंक और दूसरे अंक के बीच काल का व्यवधान भी अधिक नहीं है। इस प्रकार राकेश जी नाट्य स्थितियों, पात्रा के द्वन्द्व और उसकी भाव भंगिमाओं और बदलती आकृतियों और संवादों को ढालने में कुशल है। उसके नाटकों में शब्द रूप दृश्यरूप से अनुरूप है और वे सभी नाटकीय तत्त्वों का सफल प्रयोग कर दिखाते हैं।
हिन्दी नाटक साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद के बाद यदि कोई नाम लीक से हटकर है तो वह है मोहन राकेश जी। हिन्दी नाटक को विशेषकर नये रंग संकेत देने का गम्भीर सम्बल मोहन राकेश के नाटकों में देखा जाता है। मोहन राकेश ने नाटक को अंधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी रंग में डुबाकर एक नए दौर के साथ जोड़ने का कार्य किया। मोहन राकेश सिर्फ हिन्दी के नाटककार न रहकर पूरे भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के परिचायक बन गयें। उन्होंने हिन्दी नाट्य-साहित्य को भारतीय स्तर की ही नहीं अपितु विश्व साहित्य के नाट्य साहित्य की धारा के साथ जोड़ती हैं। वैसे भी आधुनिक नाटक की बात करते हैं तो नाटक न किसी भाषा का रह जाता है न किसी देश का।
राकेश जी ने हिन्दी नाटक को नई जमीन पर खड़ा कर दिया जो उन्होंने स्वयं ने जमीन तलाशी थी। उनके पूर्ववर्ती प्रयोगधर्मी नाट्यकारों- लक्ष्मीनारायण, जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क, लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती आदि जिन विश्वजनीन चेतना को अग्रसर किया था उसका विकास क्रम मोहन राकेश में देखा जा सकता है जिन्हें हम आधुनिक भाव बोध का नाम भी दे सकते हैं। जिनमें हम यथार्थवाद, प्रकृतिवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यक्तिवाद, एपिक थियेटर या अतियथार्थवाद या असंगतवाद आदि अनेक मत-मतान्तरों में देखा है। मोहन राकेश के नाटकों ने नाटक की क्षेत्राीय और देशीय परिसीमाओं तोड़कर विश्वभर की समान्तर प्रवृत्तियों के रूप में उभरी है। वही उनके नाटकों की समस्त देशीप्त के बावजूद भी एक सामान्य पृष्ठभूमि के रूप में सामने आयी। वस्तुतः यह समान जीवनानुभूतियों। और मानवीय स्थितियों के बीच नाटक के ने एक ऐसा सामान्य स्वरूप ग्रहण किया जो सारे विश्व को आकर्षित किया और कालान्तर में इसका प्रभाव भारत पर भी पडे+ बिना न रहा।
सहायक ग्रन्थ-
१. गोविन्द चातक, आधुनिक हिन्दी नाटक, अग्रदूत- मोहन राकेश
२. डॉ. लक्ष्मीनाराण लाल, पारसी हिन्दी रंगमंच
३. डॉ. बसन्त कुमार परिहार, मोहन राकेश के साहित्य में सामाजिक यथार्थ
४. मोहन राकेश, लहरों का राजहंस
५. मोहन राकेश, आषाढ़ का एक दिन
६. वही, आधे अधूरे
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