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Showing posts from August, 2008

तू रहती है

सीमा गुप्ता मेरे एहसास में तू रहती है, मेरे जज्बात में तू रहती है आँखों मे सपना की जगह मेरे ख़यालात में तू रहती है लोग समझते हैं के वीराना है पर मेरे साथ में तू रहती है दम घुटता है जब रुसवाई मे , मेरी हर साँस मे तू रहती है दुख का दर्पण , विरहन सा मन मेरे हर हालात मे तू रहती है

रात

सीमा गुप्ता "क्या हुआ जो ये रात, "कुछ" शिकवो शिकायतों के साथ गुजरी , क्या हुआ जो अगर ये रात, आंसुओ के सैलाब से बह कर गुजरी , "गौर -ऐ -तलब" है के ये रात, आप के ख्यालात के साथ गुजरी

तेरा वजूद

सीमा गुप्ता मेरी बोजिल आहें, मेरी तड़पती बाहें, मेरी बिख्लती ऑंखें, और मेरी डूबती सांसें

तेरी वफा

सीमा गुप्ता "वो झूठे वादे , वो टूटती कस्मे , वो बेवजह इल्जाम , और मेरा अँधा विश्वास "

लोकतन्त्र के आयाम

कृष्ण कुमार यादव देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-''नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं। नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-'' माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और 'तू कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है। इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया। लोकतंत

कभी आ कर रुला जाते

सीमा गुप्ता दिल की उजड़ी हुई बस्ती,कभी आ कर बसा जाते कुछ बेचैन मेरी हस्ती , कभी आ कर बहला जाते... युगों का फासला झेला , ऐसे एक उम्मीद को लेकर , रात भर आँखें हैं जगती . कभी आ कर सुला जाते .... दुनिया के सितम ऐसे , उस पर मंजिल नही कोई , ख़ुद की बेहाली पे तरसती , कभी आ कर सजा जाते ... तेरी यादों की खामोशी , और ये बेजार मेरा दामन, बेजुबानी है मुझको डसती , कभी आ कर बुला जाते... वीराना, मीलों भर सुखा , मेरी पलकों मे बसता है , बनजर हो के राह तकती , कभी आ कर रुला जाते.........

दुहाई

रचना गौड़ भारती ज़मीं आस्मां से पूछती है मेरे आंचल में सारी कायनाथ रहती है चांद तो दागी है फिर भी खूबसूरती की दुहाई इसी से क्यों दी जाती है

काश

सीमा गुप्ता तेरे साथ गुजरे, " लम्हों" की कसक, आज भी दिल मे बाकी है, "काश " वो मौसम वो समा फ़िर से बंधे

तमन्ना

सीमा गुप्ता दिल की तमन्ना फ़िर कोई हरकत ना करे, यूँ न सितम ढा के फ़िर कोई सैलाब रुख करे, किस अदा से इजहारे जज्बात हम करते, की एक इशारे से भी जब चेहरा तेरा शिकन करे....

असर

रचना गौड़ भारती पूछे सुबहे विसाल जब हमारा हाल पसीने से दुपट्टा भीग जाता है शमां अंधेरो में जलाते है इसका असर परवानो पे क्यों आता है

हाल-ऐ-दिल

सीमा गुप्ता पलकों पे आए और भिगाते चले गए, आंसू तुम्हारे फूल खिलाते चले गए.. तुमने कहा था हाल-ऐ-दिल हम बयाँ करें हम पूरी रात तुम को बताते चले गए... मुद्द्त के बाद बोझील पलकें हो जो रही, हम लोरियों से तुम को सुलाते चले गए... तुम्ही को सोचते हुए रहने लगे हैं हम, तुम्ही के अक्स दिल में बसाते चले गए.... अब यूँ सता रहा है हमें एक ख़याल ही, हम तुम पे अपना बोझ बढाते चले गए .........

मेरे पास

सीमा गुप्ता रूह बेचैन है यूँ अब भी सनम मेरे पास, तू अभी दूर है बस एक ही ग़म मेरे पास रात दिन दिल से ये आवाज़ निकलती है के सुन आ भी जा के है वक्त भी कम मेरे पास तू जो आ जाए तो आ जाए मेरे दिल को करार, दूर मुझसे है तू दुनिया के सितम मेरे पास दिल में है मेरे उदासी, के है दुनिया में कहकहे गूँज रहे आँख है नम मेरे पास""नहीं"

"कभी कभी"

सीमा गुप्ता "दिल मे बेकली हो जो, " कभी कभी" क्यूँ शै बेजार लगे हमे सभी कोई तम्मना भी न बहला सकी, क्यूँ हर शाम गुनाहगार लगे " कभी कभी..........."

पुकार

रचना गौड़ भारती कतरा-कतरा दस्ते दु‌आ पे न्यौछावर न होता जो तेरे शाने का को‌ई हिस्सा हमारा भी होता हम तो मस्त सरशार थे अपनी ही मस्ती में यूं बज़्म में बैठाकर तुमने गर पुकारा न होता

ज़रुरत है हमें

रचना भारती 'गौड़' भीग भीग कर इतने सीम गए हैं कल के सूरज की ज़रूरत है हमें हर रिशते के खौफ़ से बेखौफ़ सोए हैं एक पहर की नींद की ज़रूरत है हमें दर्द के बढ़ने से खुद बेदर्दी हो गए हरज़ाई के कत्ल की ज़रूरत है हमें ज़िन्दा लोग कफ़न में ज़माने के सोए हैं बस मुर्दों को बदलने की ज़रूरत है हमें अनजाने सफ़र पर अपने निकल गए हैं इसकी सफ़ल साधना की ज़रूरत है हमें

तलाश

सीमा गुप्ता जिन्दगी की धुप ने झुलसा दिया एक शीतल छावं की तलाश है रंज उल्फ़त नफरत से निबाह किया एक दर्द-मंद दिल की तलाश है रास्तों मे मंजिलें भटक गईं , एक ठहरे गावं की तलाश है

मानव

रचना भारती 'गौड़' दुनिया की दह्ललीज़ पर नागफनी सी अभिलाषाएं लोक लाज के भय से डरी प्रेम अग्नि की ज्वालाएं सुवासित हु‌ए उपवन फिर खुल गयी प्रकृति की आबन्धनाएं उग्र अराजकता से दुनिया की क्रन्दन करती आज दिशा‌एं पांव ठ्हर ग‌ए पथ भूल अन्तर्मन में, नया कोई नया स्तम्भ बनाएं युगों-युगों तक गूंजें नभ में पिछली भूलें फिर न दोहराएं भरी गोद चट्टानों से धरती की या पत्थर की प्रतिमाएं भावों की संचरित कविता से सुप्त जीवन का तार झंकृत कर चलो, हम मानव को मानव बना‌एं

गम- ए-जिन्दगी

सीमा गुप्ता गम-ए-जिन्दगी है पर गुज़रती है बडे आराम से , नहीं है अब कोई शिकवा दिल -ए -नाकाम से... कारवां -ए -उम्मीद ने सर यूँ झुका लिए, कोई लुभा सके न तमन्ना -ए - जाम से.... राहों पे धडकनों की पडी मौत की जंजीर , गुज़रे कोई जो बा-परवाह निगाह -ए- एहतराम से..... जख्मी हुआ था दिल जो दगा - ओ -फरेब मे, कहके क्यूँ लगा रहा है वफा -ए - अंजाम से

दीवानगी

सीमा गुप्ता ये मेरी दीवानगी , और उसकी संगदिली , रोज मिलने की सजा भी , और अदा भी बेदीली

नहीं

सीमा गुप्ता देखा तुम्हें , चाहा तुम्हें , सोचा तुम्हें , पूजा तुम्हें, किस्मत मे मेरी इस खुदा ने , क्यों तुम्हें कहीं भी लिखा नहीं . रखा है दिल के हर तार मे , तेरे सिवा कुछ भी नही , किस्से जाकर मैं फरियाद करूं, हमदर्द कोई मुझे दिखता नही. बनके अश्क मेरी आँखों मे, तुम बस गए हो उमर भर के लिए , कैसे तुम्हें दर्द दिखलाऊं मैं , अंदाजे बयान मैंने सीखा नही. नजरें टिकी हैं हर राह पर , तेरा निशान काश मिल जाए कोई, कैसे मगर यहाँ से गुजरोगे तुम, मैं तुमाहरी मंजील ही नही, आती जाती कोई कोई अब साँस है , एक बार दिल भर के काश देखूं तुझे, मगर तू मेरा मुक्कदर नही , क्यों दिले नादाँ ये राज समझा नही ..............

प्यार आता है

सीमा गुप्ता तेरी बातों पे ना जाने मुझे क्यों प्यार आता है, तुझे देखूं ना मैं जब तक नही करार आता है. तेरी आँखों से यूं लगता है जैसे कोई जाम पीता हूँ, खुले होठों से गिरते फूलों को मैं थाम लेता हूँ. नींद आती नही मुझको तो हर पल ख्वाब आतें हैं, ख्वाबों मे मैं तुझे हर पल अपनी बाँहों मे पाता हूँ. मिलन के बाद एक पल बिछड़ने का भी आता है, वो घडी ऐसी होती है जैसे तूफान आता है. मेरी चाहत की हद कितनी है ये दिखलाना चाहता हूँ, जीते जी ही नही मर कर भी तुझको पाना चाहता हूँ...

जे सहि दुख पर छिद्र दुरावा

डॉ० शुभिका सिंह घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल, याद आता है तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल, कौन है वह व्यक्ति जिनको चाहिए न समाज, कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरो से काज, चाहिए किसको नहीं सहयोग, चाहिए किसको नहीं सहवास.......'(नागार्जुन की चुनी हुई रचनाएं- सिन्दूर तिलकित भाल, पृष्ठ -३०) संवेदनशील कवि नागार्जुन की यह पंक्तियाँ हमें कुछ सोचने पर विवश कर देती हैं। भारतीय पुरूष प्रधान सामाजिक संरचना में ऐसे विधान किये गये है कि नारी को भोग्या मानकर उसका शोषण आसानी से किया जा सके। उसे घर की चारदीवारी में बन्द करके, शिक्षा से अलग करके, आर्थिक दृष्टि से मजबूर एवं परावलम्बी बनाकर, शुचिता एवं पातिव्रत्य धर्म के आदर्ष का अनुसरण कराकर समाज ने एक तरह से उसके साथ छल ही किया है। परम्परा से चले आ रहे बन्धनों में जकड़कर समाज का शक्तिशाली वर्ग इसी को अपनी हवस का शिकार बनाता है। पितृात्मक भारतीय समाज में जब नारी अक्षम थी तब भी शोषण का शिकार थी और आज आत्मनिर्भर व शिक्षित होने के बावजूद भी शोषण का शिकार है। इसके पीछे कारण केवल यही है कि नारी को लेकर हमारी मानसिकता में आज भी कोई बदलाव नही आया है।

गोस्वामी तुलसीदास और उनकी साहित्य साधना

डॉ० शुभिका सिंह गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी पावन गंगाजल के समान मोक्ष प्रदान करने वाली है। जिन्होने वैदिक व आध्यत्मिक धर्म दर्शन के गूढ विषय को ऐसे सहज लोकग्राह्य रूप मे प्रस्तुत किया कि आज सारा हिन्दू समाज उनके द्वारा स्थापित रामदर्शन को अपनी पहचान व आस्था का प्रतीक मानने लगा है। ‘सियाराम मय सब जग जानी' की अनुभूति करने वाले तुलसीदास ने जीवन और जगत की उपेक्षा न करके ‘भनिति' को ‘सुरसरि सम सब कर हित' करने वाला माना। भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले महाकवि तुलसी का आविर्भाव ऐसे विषम वातावरण में हुआ जब सारा समाज विच्छिन्न, विश्रृंखल, लक्ष्यहीन व आदर्श हीन हो रहा था। लोकदर्शी तुलसी ने तत्कालीन समाज की पीड़ा, प्रतारणा से तादात्म्य स्थापित कर उसका सच्चा प्रतिबिम्ब अपनी रचनाओं में उपस्थित किया। साधनहीन, अभावग्रस्त, दीन-हीन जाति का उद्धार असुर संहारक धर्मधुरिन कलि कलुष विभंजन राम का मर्यादित दिव्य लोकानुप्रेरक चरित्र ही कर सकता था इसीलिए उन्होंने तंद्राग्रस्त समाज के उद्बोधन के लिए लोकग्राह्य पद्धति को आधार बनाकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम के लोकोपकारी व कल्याणकारी चरित

मेरी स्मृति के कमलेश्वर

वीरेन्द्र जैन मैंने कमलेश्वर को कहानीकार की तरह जानने से पहले एक सम्पादक के रूप में जाना।सारिका में उनके सम्पादकीय पढने से पहले मैं उन्हें मोहन राकेश,राजेन्द्रयादव कमलेश्वर नामक त्रिशूल के एक सदस्य के रूप में ही जानता था।और जब मैंने उन्हें जाना तब तक उनका कहानीकार तो पीछे छूट चुका था और रह गया था एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक फिल्मकथा-पटकथा लेखक,एक सम्पादक,एक लेखकसंगठन का नेतृत्वकारी साथी दूरदर्शन का महानिदेशक विभिन्न अवसरों पर आंखेंदेखा हाल सुनाने वाला उद्घोषक, डाकूमेंटरी फिल्म निर्माता,स्तंभलेखक, धर्मनिरपेक्षता का सिपहसालार आदि। सच तो यह है कि कमलेश्वर के ये रूप मुझे उनके कहानीकार से भी अधिक आर्कषक लगते थे।एक अकेले आदमी में इतने आयाम देख कर मुझे हैरत होती थी।बामपंथी विचारधारा और साहित्य में कुछ करने का सपना मुझे विरासत में मिला था, इसलिये तार्किक ढंग से अपनी बात कहने वाले बामपंथी विचारक व साहित्यकार मुझे स्वाभाविक रूप से अच्छे लगते थे। विसंगति यह हुयी कि साहित्य में मुझे जिन लोगों ने प्रारम्भ में स्थान दिया वे बामविरोधी संस्थान थे व इतने चर्चित और उच्चस्तरीय थे कि उनमें स्थान पा

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- जन्म शताब्दी पर स्मरण

साहित्य के स्वाद से साहित्य के मर्म तक वीरेन्द्र जैन मैं अपने छात्र जीवन में विज्ञान और अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा। बैंक में नौकरी की तथ चर्चित लोकप्रिय साहित्य का पाठक रहा इसलिए साहित्य को उसके आलाचकों और आलोचना सिद्धांतों के आधार पर ग्रहण न करके उसे संवेदनात्मक ज्ञान की तरह ही ग्रहण किया। राजनीतिक सोच में वामपंथ विचारधारा से प्रभावित होने के कारण जो साहित्य अच्छा लगता था वह आम तौर पर लघु पत्रिकाओं में ही मिलता था जो साहित्य के साथ साथ आलोचना व साहित्य की बहसों को भी समुचित स्थान देती थीं। समय मिलने पर मैं इन आलोचनाओं और बहसों पर भी निगाह डाल लेता था तथा जो मेरे स्तर की भाषा और प्रतीकों के माध्यम से कही गयी होती थीं वे समझ में भी आने लगीं। कुछ दिनों बाद पसंद आने वाली रचनाओं पर समीक्षाएं पढ कर अपने आप को जॉचने का प्रयास करने लगा कि सन्दर्भित रचना को अकादामिक जगत कैसे देखता है व मेरी पसंदगी में कहॉं खामी खूबी रही। खॅांटी आलोचकों द्वारा चर्चित रचना में कई बार एक नई दृष्टि व नये कोण देखने को मिलते थे जो नव अनुभव स्फुरण की पुलक से भर देते थे। साहित्य आलोचना के प्रति गैरव्यावसायिक स्वाभ

सरकार काम कर रही है

ई. भारत रत्न गौड़ सीमा पार प्रशिक्षण चोकियों पर गोलीबारी देश में आतंकवाद जगह-जगह बम धमाके निर्दोषों की मौत संगठन ले रहे जिम्मेदारी पडौसी देश अच्छे सम्बन्ध वार्त्ता जारी सरकार काम कर रही है ............. उठती गिरती विकलांग सरकार संसद की गरिमा सांसदों की बोलियां आतंकवादी , कातिलों की मंत्री पद की दरकार भई वाह ! सरकार सरकार काम कर रही है ............. जाने माने अर्थशास्त्री दूसरों से ले उधार आटा,दाल,चावल गरीबों का आहार बढ़ती मंहगाई गरीबों का संहार सरकार काम कर रही है ............. सरकारी जमीन खानों का आवंटन मंत्रियों-संतरियों का कब्जा जमा बन्दियों में हेरा-फेरी सरकार काम कर रही है ............. सरेराह लूटपाट दिनदहाड़े मारकाट बेकसूर अन्दर कसूरवार बाहर सरकार काम कर रही है ............. नित नए तकनीकि विद्यालय बढ़ती बेरोजगारी बेरोजगारी भत्ता सरकार काम कर रही है ............. बढ़ता आरक्षण वोट संरक्षण बुद्धिजीवियों का पलायन कैसे हो देश का विकास सरकार काम कर रही है ............. नदी नाले तट बसते गरीब बाढ़ पीढ़ित पुनर्वास योजनाएं फिर खरीद-फरोक्त अमीर बनते गरीब नदी नाले तट फिर बसते गरीब चल रहा व्यवसाय सर

आरक्षण

ई. भारत रत्न गौड़ जब से देश में आया ये आरक्षण इस देश का भक्षक बन गया ये आरक्षण पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण दिख रहे हैं देश विभाजन के लक्षण पहले थे सिर्फ हिन्दु,मुस्लिम,सिक्ख और ईसाई कहते थे हम सब जिनको भाई भाई आरक्षण से अब ये कहावतें बदल गईं चार नही चालीस जातियां बन गईं सीमाएं जातियों से विभाजित हो गईं नेताओं की भी सीटें आरक्षित हो गईं जातियों के दम पें जीत सुनिश्चित हो गई नेता फेंक रहे हैं ये कैसी कैसी गोटियां आरक्षितों के मुंह में दे रहे हैं बोटियां आबाद कर दी इनकी पीढ़ियों की पीढ़ियां बुद्धिजीवियों पर लगा रहे हैं कसोटियां और फाड़ रहे हैं इनकी लंगोटियां दुनियां में जाना जाने वाला सोने की चिड़िया बरबाद कर दी इसकी पीढ़ियों की पीढ़ियां पहलें सुना था सिर्फ रेल और बस में आरक्षण आलकल पैदा होते ही सुनिश्चित है आरक्षण इंजनीयरिंग और डॉक्टरी में आरक्षण राजनीति और उच्च शिक्षा में आरक्षण नौकरी और पदोन्नति में भी आरक्षण यहां वहां सब जगह मिलता है आरक्षण नहीं है तो केवल जीने मरने में आरक्षण नेताओं को नहीं दिया गया ऐसा प्रशिक्षण नहीं तो ये दे दें जीने मरने में भी आरक्षण

आख़िर नहीं माना

रचना गौड़ भारती मेरी आंखों के कुछ मोती बिख़र गए हैं थोड़ा रूको मैं इन्हें समेट लूं तुम दर्पण हो तो मेरे भी मन का अक्स ये शरीर है आंखों की क़ोरें अभी गीली हैं और पलके बोझल बोझल धुंधली आंखों की कांपती ज्योति तुम कुछ साफ़ नजर नहीं आते ठहरो जरा इन आंखों को पोंछने दो गम के बादल छंट जाएगें मैं फिर से ताजा गुलाब हो जाऊंगीं दो चार पल जो ठहरे से लगते हैं इन पलों को आगे ख़िसकने दो तुमसे फिर मुलाकात होगी फिर दो बात होगी पहले पिछला हिसाब तो होने दो मेरे सभी ग़मों को सुनकर कोई चाहे बेअसर हो यह दर्पण ही अपना सा लगा इसे ही थोड़ा चटकने दो सह नहीं पाया मेरा ग़म आख़िर चटक ही गया कितना कहा मुझे अकेले रहने दो आख़िर नहीं माना चटक ही गया ।