डॉ० शुभिका सिंह
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल,
याद आता है तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल,
कौन है वह व्यक्ति जिनको चाहिए न समाज,
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरो से काज,
चाहिए किसको नहीं सहयोग,
चाहिए किसको नहीं सहवास.......'(नागार्जुन की चुनी हुई रचनाएं- सिन्दूर तिलकित भाल, पृष्ठ -३०)
संवेदनशील कवि नागार्जुन की यह पंक्तियाँ हमें कुछ सोचने पर विवश कर देती हैं। भारतीय पुरूष प्रधान सामाजिक संरचना में ऐसे विधान किये गये है कि नारी को भोग्या मानकर उसका शोषण आसानी से किया जा सके। उसे घर की चारदीवारी में बन्द करके, शिक्षा से अलग करके, आर्थिक दृष्टि से मजबूर एवं परावलम्बी बनाकर, शुचिता एवं पातिव्रत्य धर्म के आदर्ष का अनुसरण कराकर समाज ने एक तरह से उसके साथ छल ही किया है। परम्परा से चले आ रहे बन्धनों में जकड़कर समाज का शक्तिशाली वर्ग इसी को अपनी हवस का शिकार बनाता है।
पितृात्मक भारतीय समाज में जब नारी अक्षम थी तब भी शोषण का शिकार थी और आज आत्मनिर्भर व शिक्षित होने के बावजूद भी शोषण का शिकार है। इसके पीछे कारण केवल यही है कि नारी को लेकर हमारी मानसिकता में आज भी कोई बदलाव नही आया है। जरूरत है तो सभ्य और शिक्षित समाज की । जीवन देने वाली नारी के प्रति अपने नजरिये को सुसभ्य व सुशिक्षित करने की। समस्या यही समाप्त नही होती है स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब शोषित समाज को यह पता ही न चले कि उसका शोषण किया जा रहा है। बहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के गाँवो में रहने वाली अधिकांश महिलाएं परम्परागत संस्कारों के बंधन में जकड़ी हैं और उसे अपना कर्तव्य मानकर जी रही है। परिस्थिति व परिवेशगत भिन्नता के आधार पर सभी स्त्रियों की अपनी अलग- अलग समस्याएं है। शहरों में रहने वाली कामकाजी महिलाएं जहाँ अति आधुनिकता के अंधानुकरण से प्रभावित हैं वहीं गांवों व पिछड़े इलाकों की महिलाएं परिवर्तन की शून्य रफ्तार के चलते पुरूष प्रधान समाज के शिकंजे में जकड़ी हैं। मायके की चारदीवारी से जब कोई औरत ससुराल जाती है तो उसे तमाम बदलाव सहने पड़ते हैं। सर्वप्रथम उसे अपने मायके से हर तरह का संबध विच्छेद करना पड़ता है। सम्बन्ध की सीमा दहेज मिलने तक जीवित रहती है। विवाह के पश्चात् वह कड़ी हमेशा के लिए टूट जाती है। यदि लड़की नौकरी पेशे वाली है तो उसका काम छुड़वा दिया जाता है या फिर उसकी आय पर नजर रखी जाती है। उसे प्रताड़ित करने के लिए हर तरह की आर्थिक मदद बन्द कर दी जाती है। देखा जाए तो घरेलू हिंसा की शिकार ज्यादातर वही महिलाएं होती है जिनकी कोई आर्थिक पृष्ठभूमि तथा सोशल स्टेटस नहीं होता।
स्वतंत्रता के पश्चात् बीत दशको में नारी ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है। किन्तु बावजूद इसके उस पर प्रताड़नाओं का दौर भी काफी बढ है। महिलाओं की सुरक्षा और विकास के मददे्नजर चौदह वर्षो तक चली अनवरत वहस के बाद महिला घरेलू हिंसा निवारण कानून २००६ अक्टूबर माह में अस्तित्व में आया लेकिन अनेको अनसुलझे प्रश्न आज भी इसके पीछे जीवन्त हैं। वैसे तो इसकी शुरूआत १९९२ में हुई थी किन्तु इसे राष्ट्रीय स्वीकृति दिलवाने में १४ वर्ष लग गये। १९९४ में जब इस प्रस्ताव को सदन के समक्ष रखा गया तो इसकी व्यापक आलोचना हुई तत्पश्चात लम्बी जददेजहद के बाद केन्द्र सरकार ने कुछ संशोधन करके इस बिल को २००१ में पुनः प्रस्तुत किया। जिसके चलते २००६ में इसे राष्ट्रीय स्वीकृति मिली। भारत की लगभग ६०-७० प्रतिशत घरेलू महिलांए अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नही हैं या यो कहे कि उन्हे अपने अधिकारों का ज्ञान ही नही है। इसके प्रतिफल में उन्हे उन कष्टों को सहना पड़ता है जिसकी वह भागी नही है। यह कानून महिलाओ को शारीरिक, बोलचाल और यौन उत्पीड़न से बचाव के साथ उन्हे निवास और आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रदान करता है। राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो'' के मुताबिक भारत में प्रत्येक तीन मिनट में एक महिला उत्पीड़न का शिकार होती है। फिर इसके पीछे कारण चाहे जो भी हो, दहेज, पुत्र कमाना, पुरूष की स्वभावगत हीनता या फिर अर्थ लोभ।
यह दीवानी कानून घरेलू हिंसा की स्पष्ट परिभाषा और प्रकार निर्धारित करता है। इसमें दोषियों के लिए सजा का प्रावधान है। इस कानून की महत्ता स्वतः सिद्ध है क्योंकि इसके बनने के पश्चात् मौन हिंसा, शारीरिक हिंसा, मानसिक प्रताड़ना के अनेक प्रकरण उजागर हुए है। महिलाओं द्वारा इसके दुरूपयोग की संभावना हालांकि इतनी नहीं दिखती। सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप स्त्री चाहे कितनी ही आधूनिक क्यों न हो बिना परिवार व मातृत्व सुख के उसके स्त्रीत्व के कोई मूल्य नहीं है।
यदि स्त्री वास्तव में मुक्त होना चाहती है, अपनी स्थिति मे सुधार चाहती है तो उसे अपनी शिक्षा के प्रति प्रयासरत होना पड़ेगा। वह जहॉ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगी वही व्यवस्थित षिक्षा द्वारा उसे दुनिया को देखने समझने का अपना नजरिया प्राप्त होगा। परस्पर भिन्न-भिन्न परिवेष में रहने वाली स्त्रियां परिस्थितिगत विवषता के चलते शोषण की शिकार हैं। उस परिस्थिति से वह आज भी पूरी तरह मुक्त नही हो पा रही हैं।
ज्ञान के प्रकाश के परिणामस्वरूप स्त्रियों ने स्वाधिकार और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा पारिवारिक सामाजिक शोषण के खिलाफ आवाजें उठाना शुरू कर दिया हैं लेकिन चरित्रगत हीनता के चलते इस स्थिति से भी इंकार नही किया जा सकता कि प्रत्येक को अपनी परिस्थितियों के अनुकूल स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी सीमाओं का निर्धारण करना चाहिए।
यदि स्त्री पुरूष आपस में तालमेल से रहकर एक-दूसरे की कमियों को सहृदयता, सौम्यता और मधुरता द्वारा दूर करने का प्रयास करें तो यकीन जानिए ऐसे किसी कानून की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जो महिला -संरक्षण के लिए बनाया जाए क्योंकि कानून की लीक पर चलकर घर-गृहस्थी के संवेदनशील विषयों को नहीं सुलझाया जा सकता। यदि पुरूष स्त्री को काम करने वाली मशीन न समझकर अपने ही समान एक संवेदनशील इन्सान समझे और उसपर होने वाले पारिवारिक अत्याचारों का सरोकार खुद से जोड़े तो निष्चित ही यह समाज को सोचने पर विवश कर देगा कि सृष्टि के निर्माण में जितना पुरूष का हाथ है उससे कहीं अधिक स्त्री का है, क्योंकि अच्छी परवरिश, संस्कारिक मूल्य व उत्तम शिक्षा सबसे पहले बच्चा अपनी मां से सीखता है और इन्ही जीवन मूल्यों की नींव पर एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है। स्त्रियों को चाहिए कि वह प्राप्त स्वतन्त्रता का दुरूपयोग न करें। जिससे उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कारगर कदम उठाया जा सकें।
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल,
याद आता है तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल,
कौन है वह व्यक्ति जिनको चाहिए न समाज,
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरो से काज,
चाहिए किसको नहीं सहयोग,
चाहिए किसको नहीं सहवास.......'(नागार्जुन की चुनी हुई रचनाएं- सिन्दूर तिलकित भाल, पृष्ठ -३०)
संवेदनशील कवि नागार्जुन की यह पंक्तियाँ हमें कुछ सोचने पर विवश कर देती हैं। भारतीय पुरूष प्रधान सामाजिक संरचना में ऐसे विधान किये गये है कि नारी को भोग्या मानकर उसका शोषण आसानी से किया जा सके। उसे घर की चारदीवारी में बन्द करके, शिक्षा से अलग करके, आर्थिक दृष्टि से मजबूर एवं परावलम्बी बनाकर, शुचिता एवं पातिव्रत्य धर्म के आदर्ष का अनुसरण कराकर समाज ने एक तरह से उसके साथ छल ही किया है। परम्परा से चले आ रहे बन्धनों में जकड़कर समाज का शक्तिशाली वर्ग इसी को अपनी हवस का शिकार बनाता है।
पितृात्मक भारतीय समाज में जब नारी अक्षम थी तब भी शोषण का शिकार थी और आज आत्मनिर्भर व शिक्षित होने के बावजूद भी शोषण का शिकार है। इसके पीछे कारण केवल यही है कि नारी को लेकर हमारी मानसिकता में आज भी कोई बदलाव नही आया है। जरूरत है तो सभ्य और शिक्षित समाज की । जीवन देने वाली नारी के प्रति अपने नजरिये को सुसभ्य व सुशिक्षित करने की। समस्या यही समाप्त नही होती है स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब शोषित समाज को यह पता ही न चले कि उसका शोषण किया जा रहा है। बहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के गाँवो में रहने वाली अधिकांश महिलाएं परम्परागत संस्कारों के बंधन में जकड़ी हैं और उसे अपना कर्तव्य मानकर जी रही है। परिस्थिति व परिवेशगत भिन्नता के आधार पर सभी स्त्रियों की अपनी अलग- अलग समस्याएं है। शहरों में रहने वाली कामकाजी महिलाएं जहाँ अति आधुनिकता के अंधानुकरण से प्रभावित हैं वहीं गांवों व पिछड़े इलाकों की महिलाएं परिवर्तन की शून्य रफ्तार के चलते पुरूष प्रधान समाज के शिकंजे में जकड़ी हैं। मायके की चारदीवारी से जब कोई औरत ससुराल जाती है तो उसे तमाम बदलाव सहने पड़ते हैं। सर्वप्रथम उसे अपने मायके से हर तरह का संबध विच्छेद करना पड़ता है। सम्बन्ध की सीमा दहेज मिलने तक जीवित रहती है। विवाह के पश्चात् वह कड़ी हमेशा के लिए टूट जाती है। यदि लड़की नौकरी पेशे वाली है तो उसका काम छुड़वा दिया जाता है या फिर उसकी आय पर नजर रखी जाती है। उसे प्रताड़ित करने के लिए हर तरह की आर्थिक मदद बन्द कर दी जाती है। देखा जाए तो घरेलू हिंसा की शिकार ज्यादातर वही महिलाएं होती है जिनकी कोई आर्थिक पृष्ठभूमि तथा सोशल स्टेटस नहीं होता।
स्वतंत्रता के पश्चात् बीत दशको में नारी ने अपनी स्थिति में काफी सुधार किया है। किन्तु बावजूद इसके उस पर प्रताड़नाओं का दौर भी काफी बढ है। महिलाओं की सुरक्षा और विकास के मददे्नजर चौदह वर्षो तक चली अनवरत वहस के बाद महिला घरेलू हिंसा निवारण कानून २००६ अक्टूबर माह में अस्तित्व में आया लेकिन अनेको अनसुलझे प्रश्न आज भी इसके पीछे जीवन्त हैं। वैसे तो इसकी शुरूआत १९९२ में हुई थी किन्तु इसे राष्ट्रीय स्वीकृति दिलवाने में १४ वर्ष लग गये। १९९४ में जब इस प्रस्ताव को सदन के समक्ष रखा गया तो इसकी व्यापक आलोचना हुई तत्पश्चात लम्बी जददेजहद के बाद केन्द्र सरकार ने कुछ संशोधन करके इस बिल को २००१ में पुनः प्रस्तुत किया। जिसके चलते २००६ में इसे राष्ट्रीय स्वीकृति मिली। भारत की लगभग ६०-७० प्रतिशत घरेलू महिलांए अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नही हैं या यो कहे कि उन्हे अपने अधिकारों का ज्ञान ही नही है। इसके प्रतिफल में उन्हे उन कष्टों को सहना पड़ता है जिसकी वह भागी नही है। यह कानून महिलाओ को शारीरिक, बोलचाल और यौन उत्पीड़न से बचाव के साथ उन्हे निवास और आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रदान करता है। राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो'' के मुताबिक भारत में प्रत्येक तीन मिनट में एक महिला उत्पीड़न का शिकार होती है। फिर इसके पीछे कारण चाहे जो भी हो, दहेज, पुत्र कमाना, पुरूष की स्वभावगत हीनता या फिर अर्थ लोभ।
यह दीवानी कानून घरेलू हिंसा की स्पष्ट परिभाषा और प्रकार निर्धारित करता है। इसमें दोषियों के लिए सजा का प्रावधान है। इस कानून की महत्ता स्वतः सिद्ध है क्योंकि इसके बनने के पश्चात् मौन हिंसा, शारीरिक हिंसा, मानसिक प्रताड़ना के अनेक प्रकरण उजागर हुए है। महिलाओं द्वारा इसके दुरूपयोग की संभावना हालांकि इतनी नहीं दिखती। सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप स्त्री चाहे कितनी ही आधूनिक क्यों न हो बिना परिवार व मातृत्व सुख के उसके स्त्रीत्व के कोई मूल्य नहीं है।
यदि स्त्री वास्तव में मुक्त होना चाहती है, अपनी स्थिति मे सुधार चाहती है तो उसे अपनी शिक्षा के प्रति प्रयासरत होना पड़ेगा। वह जहॉ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगी वही व्यवस्थित षिक्षा द्वारा उसे दुनिया को देखने समझने का अपना नजरिया प्राप्त होगा। परस्पर भिन्न-भिन्न परिवेष में रहने वाली स्त्रियां परिस्थितिगत विवषता के चलते शोषण की शिकार हैं। उस परिस्थिति से वह आज भी पूरी तरह मुक्त नही हो पा रही हैं।
ज्ञान के प्रकाश के परिणामस्वरूप स्त्रियों ने स्वाधिकार और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा पारिवारिक सामाजिक शोषण के खिलाफ आवाजें उठाना शुरू कर दिया हैं लेकिन चरित्रगत हीनता के चलते इस स्थिति से भी इंकार नही किया जा सकता कि प्रत्येक को अपनी परिस्थितियों के अनुकूल स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी सीमाओं का निर्धारण करना चाहिए।
यदि स्त्री पुरूष आपस में तालमेल से रहकर एक-दूसरे की कमियों को सहृदयता, सौम्यता और मधुरता द्वारा दूर करने का प्रयास करें तो यकीन जानिए ऐसे किसी कानून की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जो महिला -संरक्षण के लिए बनाया जाए क्योंकि कानून की लीक पर चलकर घर-गृहस्थी के संवेदनशील विषयों को नहीं सुलझाया जा सकता। यदि पुरूष स्त्री को काम करने वाली मशीन न समझकर अपने ही समान एक संवेदनशील इन्सान समझे और उसपर होने वाले पारिवारिक अत्याचारों का सरोकार खुद से जोड़े तो निष्चित ही यह समाज को सोचने पर विवश कर देगा कि सृष्टि के निर्माण में जितना पुरूष का हाथ है उससे कहीं अधिक स्त्री का है, क्योंकि अच्छी परवरिश, संस्कारिक मूल्य व उत्तम शिक्षा सबसे पहले बच्चा अपनी मां से सीखता है और इन्ही जीवन मूल्यों की नींव पर एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है। स्त्रियों को चाहिए कि वह प्राप्त स्वतन्त्रता का दुरूपयोग न करें। जिससे उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कारगर कदम उठाया जा सकें।
Comments
"very rightly said, it is a truth, misuse of rights and independence could be harmful'
Regards