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Showing posts from April, 2008

कविता

वेद पी० शर्मा भराभर दोपहरी में खींचती है रिक्शा दो वक्त के भोजन की खातिर समाज के सभ्रांतों की नजर घूरती है। उसके झीने चिथड़े में ढंका शरीर नहीं *********************

कविता

वेद पी० शर्मा हम नहीं बोलेगें कड़ी मेहनत ही चीखेगी इंतहा सहने की खत्म जब होगी पूंजीपतियों के उद्यागों की नींव दरक रही होगी है बात सीधी और सच दायरे में है चिंगारी जिस दिन भी फैलेगी अत्याचार,शेषणता लपटों में जल रही होगी *********************************

राजनीति

अश्फाक कादरी नेताजी के घर पर कोहराम मचा था। उनके तीन दिन से लापता लाडले बेटे की क्षत विक्षत लाश शहर के गंदे नाले में मिली थी। नाते रिश्तेदार, कार्यकर्ता रोते बिलखते नेताजी के घर आ रहे थे, बढ़ चढ़कर अपनी पीड़ा और शोक बयान कर रहे थ, मगर नेतजी अपने ड्रांइंगरूम में पुलिस अधिकारियों के साथ सोच में डूबे थे। लाडले के हत्यारों को पता चल गया था, उसी के दोस्तों ने शराब के नशे में किसी बात पर उसे मार डाला था। मारपीट में मौत हाने पर लाश शहर के गंदे नाले में फेंक कर उसकी तलाश में उसके परिवार के साथ सहयोग में जुट गये थे। जब हत्या का राज खुलने पर पुलिस नेताजी से रिपोर्ट लिखने का आग्रह करी रही थी मगर नेताजी कोई जवाब देने के बजाय सोच में डूबे थे। एकाएक नेताजी की आखें में चमक उभर आयी और बोले इस हत्या में आपने जिन लड़कों के नाम बताये है। उनका कोई दोष नहीं है। मेरे बेटे की हत्या में गहरी साजिश रची गयी हैं। यह मेरे राजनीतिक विरोधियों की चाल है। मेरे बेटे को मेरे प्रतिद्वन्दी नेता भैयाजी ने मरवाया है। आप उसे तत्काल गिरफ्‌तार करें। मगर सर, गिरफ्‌तार लड़कों से पूछताछ में भैयाजी का कोई नाम सामने नहीं आया यह तो उ

कविता

वेद पी० शर्मा खो रही अस्तित्व अपना मानव की आत्मा सोच कर आज घबरा रहा है परमात्मा सता रही है आज आत्मा को आत्मा आत्मा ही बन गई है सभी के लिए परमात्मा बचा रही है उनको जो रोकते हैं धन से जो उसकी साधना जाना दुश्वार हो गरीब लाचारों को जो करते हैं सामना और तोड़ देते है यहीं किसी कोने में टकराती है भूख से जब लोभित होती आत्मा लोभित न हो तो आज तन को ही छोड़ देती है आत्मा *********************************

एक बहुत पुराना डर

मुनीर न्याजी उस समय जब यह सारे घर पक्के नहीं होते थे रास्ते में चलती फिरती मृत्यु का डर इतना अधिक नहीं था लोग आकाश की चुप्पी से डरकर इसी तरह ही शोर मचाते थे अकेले रहने से वे सब भी हमारी तरह घबराते थे । ************************

लफ्जों का पुल

निदा फाजली मस्जिद का गुम्बद सूना है मन्दिर की घंटी खामोश जुजदानों में लिपटे सारे आदशों को दीमक कब की चाट चुकी है रंग गुलाबी नील पीले कहीं नहीं है तुम उस जानिब मैं इस जानिब बीच में मीलों गहरा गार लफ्जों का पुल टूट चुका है तुम भी तंहा हम भी तंहा ***************************

मैरीन ड्राइव

आदिल मंसूर शहरियों से तंग आकर शोर से दामन छुडाकर ऊँची-ऊँची बिलडिंगें खुदकुशी करने की खातिर सफ ब सफ दरिया किनारे देर से आकर खडी है । ****************************

गुरू

अश्फाक कादरी भैयाजी चुनाव जीत गये! सलि जयघोष से गूंज उठा । जीत के ढोल बनजे लगे। उनके समर्थक खुशी से नाचने लगे। गुलाल उछलने लगा। कार्यकर्ताओं ने चैन भरी सांस ली। उनके प्रमाण पत्र लेकर जब भैयाजी बाहर निकले तो जाने-अनजाने समर्थकों ने उन्हें फूल मालाओं से लाद दिया। कंधों पर उठाकर जीप पर बिठा दिया और जुलूस बस्ती की ओर चल पड़ा। तभी भैयाजी की नजर दूर खड़े एक फटेहाल आदमी पर पड़ी, जो काफी समय से हाथ हिलाकर उनका अभिवादन कर रहा था। उन्हें कुछ याद आने लगा इस शहर में अपने गांव से खाली हाथ आये भैयाजी का खुले आसमान के नीचे बसेरा था। बेरोजगारी ने उन्हें जुर्म की दुनिया में धकेल दिया था। नई-नई बसी बस्ती में भैयाजी ने जमीनों पर कब्जा, जुआ, सट्टे का कारोबार शुरू कर दिया था जिससे उनका ठोर ठिकाना बनने लगा था, मगर पुलिस के रिकार्ड में वे जल्द ही हिस्ट्रीशीटर बन गये। उनके घर पुलिस के छापे पड़ने लगे। एक बार जब पुलिस का छापा पड़ा तो उनकी हाथापाई पुलिस से हो गयी। इसी लुका छिपी में भैया की मुलाकात एक मस्त मौला आदमी से हुई, जिसने उन्हें सबक दिया कि अगर तुम्हें इज्जत की जिन्दगी गुजारनी है तो नेता बन जा, नहीं तो कुत्ते

खो गयी दिशा

- अंजना कुमारी सिंहा सुधा के लिए जब चौधरी साहब के यहाँ से रिश्ता आया तो मानो सुधा अरमानों के पंख लगाकर उड़ने लग गयी हो। उसे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। साधारण-सी दिखने वाली सुधा इण्टर द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण थी। चौधरी साहब शहर के बड़े रईसों में से एक थे, और साकेत उनका एकमात्र पुत्र था। आकर्षक व्यक्तित्व का धनी साकेत एक मल्टीनेशनल कम्पनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था। शादी के बाद सुधा ससुराल आई तो इतने बड़े घर की जिम्मेदारी सँभालने मात्र के नाम से ही घबरा गयी, पर सुधा के ससुर चौधरी साहब ने उसकी बहुत मदद की। साकेत सुधा की ज्यादा मदद नहीं कर पाता। सुबह नौ बजे दफ्तर जाना और सायं सात बजे लौटना, और लौटकर भी दफ्तर के कामों में व्यस्त रहना। कभी-कभी सुधा को गुस्सा भी आता पर वह शान्त मन से सब सह जाती। शादी को दो महीने बीत गये थे। आज सुबह से ही सुधा को अपनी तबियत सही नहीं लग रही थी। चक्कर आ रहा था, जी खराब हो रहा था। उसने डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि वह माँ बनने वाली है। उसने अपनी रिपोर्ट ली और खुशी-खुशी घर लौट आयी; और सोचने लगी कि यह खबर सबसे पहले साकेत को सुनाऊँगी।

शैशव से श्मशान तक

सी.आर.राजश्री शैशव का पल है काफी प्यारा, हर लम्हा है आकर्षक और लुभावना, अपने ढ़ग से होता अलग एवं निराला, न कभी लौट आता फिर दुबारा। माँ के आँचल की छाँव में, आँखें मूँदें दिन भर सोए रहना, न काम की चिंता न रोटी की फ़िक्र, न मन की बातों का होता कभी जिक्र। शैशव गुजर फिर आता बचपन, खेलना, कूदना, पढ़ना, लिखना, हर पल खुशियों को समेटे रहता मन, परिवार के लाड़-प्यार में बीत जाता बचपन। बचपन गुजर जब आता यौवन, कल्पनात्मक तरंग में उड़ता है मन, अच्छे-बुरे का करना है सही चयन, मेहनत लगन से ही सँवरता जीवन। बच्चों की किलकारियों में, प्यारे जीवन साथी के संग हर कदम में, भविष्य के सपने संजोएँ नयनों में, कट जाता पल-पल परिवार के ही देख-रेख में। जीवन के ढ़लती उम्र में भी, सफ़र के आखिरी पड़ाव में भी, जीने की तमन्ना प्रचुर रहती है, मरने की जरा भी ख्वाईश न रहती है। कभी बीमारी के शिकंजे में फँसा तन, कभी प्यार-स्नेह से वंछित बेरौनक जीवन, लगता है बहुत वीरान, घिर जाता अकेलापन, खमोशी तोड़ कर मन चाहता अपनापन। मृत्यु जब द्वार आती है, जीवन सहम कर रह जाती है, खट्ठी-मीठी यादों को संग ले जाती है, सगे-संबंधियों को तड़पा जाती है। शैशव से

लोग क्या कहेगें

अश्फाक कादरी बाबूजी गुजर गये। जीवन भर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष करने वाले बाबूजी के तीये की बैठक में समाज पूरा उमड़ पड़ा था। तीये की बैठक के बाद जब परिवार मिल बैठा तो उनके पीछे मृत्युभोज करने का प्रश्न सभी के सामने खड़ा था। बाबूजी पूरे समाज से प्यार करते थे, इसलिए उनके पीछे औसर (मृत्युभोज) तो होना चाहिए काकाजी बोल पड़े थे। मगर बाबूजी इसके खिलाफ थे बडा बेटा अपनी शंका व्यक्त करने लगा। लोग क्या कहेगें ? मंझला बेटा कहने लगा समाज में पैसे और मान सम्मान में हम किसी से कम है क्या ? जो बाप के मरते ही दो पैसे खर्च न कर सके। तभी छोटे की ऑंखों में चमक उभर आयी तो फिर बाबूजी के नाम पर महाप्रसाद करेगें, छोटा बोल पड़ा औसर से महाप्रसाद अच्छा है, समाज में इसका विरोध नहीं होगा और हमारी शान रह जायेगी। फिर बाबूजी के महाप्रसाद में सात मिठाईयां, दही बड़े, पकौड़ी, पक्की मंझला चहकते हुए बोला पूरे गांव को बुलाना चाहिए। तो फिर ओढावणी छोटे बेटे के ससुर ने झिझकते हुए पूछा। मायरा-मौसायरा आप देवें तो आपकी मर्जी है, हम आपको इन्कार नहीं करेगें बड़ा बोल उठा। मगर बाबूजी तो इसके खिलाफ थे ससुर

अंतर

सिद्धेश्वर नेता और साहित्यकार में बस! इतना है फर्क! एक मंच पर उछालता है आदशॅ दूसरा कहानी या कविता में ठूंसता है तर्क। ******************************

आदशॅ

सिद्धेश्वर जितना बड़ा आदशॅ बघारता है ! वह उतना ही बड़ा साहित्यकार कहलाता है! **********************************

बरसात में

वीरेन्द्र जैन लकड़ी के दरवाजे जैसे श्रीमान बिल्कुल ही वैसे फूल गये बरसात में नोटों की बरसात में वोटों की बरसात में कैसी बिडम्बना है भाई सावन में आजादी आई हरा हरा दिखता है अब तो इनको अब हर हालात में लकड़ी के दरवाजे जैसे श्रीमान बिल्कुल ही वैसे फूल गये बरसात में जकड़न ढीली हो पायेगी जब घर में गर्मी आयेगी पूंजी ओ सामंती पल्ले अभी जुडे हैं साथ मे लकड़ी के दरवाजे जैसे श्रीमान बिल्कुल ही वैसे फूल गये बरसात में इनको अभी खोलना चाहो तो थोड़ा सा जोर लगाओ लातों के गुरूदेव कहां माना करते हैं बात में लकड़ी के दरवाजे जैसे श्रीमान बिल्कुल ही वैसे फूल गये बरसात में ********************************

मेघों की श्याम पताकाएं

वीरेन्द्र जैन सूरज को क्यों ना दिखलाएं मेघों की श्याम पताकाएं सारा जल सोख सोख लेता संग्रहकर्ताओं का नेता वितरण की व्यर्थ व्यवस्थाएं सूरज को क्यों ना दिखलाएं मेघों की श्याम पताकाएं व्यर्थ हुआ अब विरोध धीमा मनमानी तोड़ गयी सीमा गरजें ओ बिजलियां गिरायें सूरज को क्यों ना दिखलाएं मेघों की श्याम पताकाएं कोई होंठ प्यासा न तरसे मन चाहे खूब नीर बरसे वर्षा में भीग कर नहायें सूरज को क्यों ना दिखलाएं मेघों की श्याम पताकाएं ********************************

गज़ल

कवि कुलवंत सिंह बड़े हम जैसे होते हैं तो रिश्ता हर अखरता है । यहां बनकर भी अपना क्यूँ भला कोई बिछड़ता है । सिमट कर आ गये हैं सारे तारे मेरी झोली में, कहा मुश्किल हुआ संग चांद अब वह तो अकड़ता है । छुपा कान्हा यहीं मै देखती यमुना किनारे पर, कहीं चुपके से आकर हाथ मेरा अब पकड़ता है । घटा छायी है सावन की पिया तुम अब तो आ जाओ, हुआ मुश्किल है रहना अब बदन सारा जकड़ता है । जिसे सौंपा थे मैने हुश्न अपना मान कर सब कुछ, वही दिन रात देखो हाय अब मुझसे झगड़ता है । *****************************

वीरों का कर्तव्य

कवि कुलवंत सिंह साहस संकल्प से साध सिद्धि विजयी समर में शूर बुद्धि, दृढ़ निश्चय उन्माद प्रवृद्धि जवाला सी कर चिंतन शुद्धि । कायरता की पहचान भीति है अंगार शूरता की प्रवृत्ति है, शोषित जीवन एक विकृति है नही मृत्यु की पुनरावृत्ति है । भर हुंकार प्रलय ला दो गर्जन से अनल फैला दो, शक्ति प्रबल भुजा भर लो प्राणों को पावक कर लो । अनय विरुद्ध आवाज उठा दो स्वर उन्माद घोष बना दो, शीश भले निछावर कर दो आंच आन पर आने न दो । जीवन में हो मरु तपन सीने में धधकती अगन, लक्ष्य हो असीम गगन कंपित हो जग देख लगन । श्रृंगार सृष्टि करती वीरों का पथ प्रकृति संवारती वीरों का, आहुति अनल निश्चय वीरों का शत्रु संहार धर्म वीरों का । चट्टानों सा मन दृढ़ कर लो तन बलिष्ठ सुदृढ़ कर लो, निर्भयता का वरण कर लो उन्माद शूरता को कर लो । तपन सूर्य की वश कर लो प्रचण्ड प्रदाह हृदय धर लो, तूफानों को संग कर लो शौर्य प्रबल अजेय धर लो । गगन भेदी रण शंख बजा दो वज्र को तुम चूर बना दो, विजय दुंदुभि स्वर लहरा दो श्रेय ध्वजा व्योम फहरा दो । रोष, दंभ वीरों को वर्जित करुणा, विनय वीरों को शोभित, दीन, कातर हों कभी न शोषित सत्य, न्याय से रहो सुशोभ

समाजवाद

सिद्धेश्वर नेता हो या मंत्री समाजवाद की नयी परिभाषा अपना रहे हैं! अमीरों को और अमीर गरीबों को और गरीब बना रहे हैं! *******************************

भक्ति

सिद्धेश्वर ईश्वर को हम बस! इतना जानते हैं.... उनकी मूर्तियां गढ़कर बाजार में बेच आते हैं......! तब/जाकर दो सूखी रोटियां पाते हैं !! *******************************

सांस्कृतिक आयोजन के अवसर

वीरेन्द्र जैन नाच उठे चूहे पेटों में भूख गीत गाये ऐसे सांस्कृतिक आयोजन के अवसर आये वस्त्रों के अभाव में नारी अंग प्रदशर्न हो हर निर्धन बस्ती आयोजित ऐसे फैशनो वीतराग हो गये आदमी बिन दीक्षा पाये ऐसे सांस्कृतिक आयोजन के अवसर आये हैं धृतराष्ट्र शिखंडी जैसे नायक नाटक के दशर्क की किस्मत में लिक्खे हैं केवल धक्के उठती गिरती रही यवनिका दाएं से बाएं ऐसे सांस्कृतिक आयोजन के अवसर आये ***********************

नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ

कवि कुलवंत सिंह नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ लेकिन विष तो कण्ठ धरा है ! कवि होने की पीड़ा सह लूँ क्यों दुख से बेचैन धरा है ? त्याग, शीलता, तप सेवा का कदाचित रहा न किंचित मान । धन, लोलुपता, स्वार्थ, अहं का, फैला साम्राज्य बन अभिमान । मानव मूल्य आहत पद तल, आदर्श अग्नि चिता पर सज्जित । है सत्य उपेक्षित सिसक रहा, अन्याय, असत्य, शिखा सुसज्जित । ले क्षत विक्षत मानवता को कांधों पर अपने धरा है । नील कण्ठ तो मैं नहीं हूँ लेकिन विष तो कण्ठ धरा है । सौंदर्य नहीं उमड़ता उर में, विद्रूप स्वार्थ ही कर्म आधार । अतृप्त पिपासा धन अर्जन की, डूबता रसातल निराधार । निचोड़ प्रकृति को पी रहा, मानव मानव को लील रहा । है अंत कहीं इन कृत्यों का, मानव! तूँ क्यों न संभल रहा ? असहाय रुदन चीत्कारों को, प्राणों में अपने धरा है । नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ, लेकिन विष तो कण्ठ धरा है । तृष्णा के निस्सीम व्योम में, बन पिशाचर भटकता मानव । संताप, वेदना से ग्रसित, हर पल दुख झेल रहा मानव । हर युग में हो सत्य पराजित, शूली पर चढ़ें मसीहा

कविता

वेद पी० शर्मा गर्मी में हांफता जाड़े में दांत कटकटाता द्वार पर दिन-रात दस्तक लगाती फिक्र बिटिया के हाथ पीले करने की छोटे बेटे को स्कूल भेजने की बीमार पत्नी को दवा के लिए इसी आस में अब जो सरकार आएगी कुछ तो ध्यान लगाएगी आ गई सरकार पर न छोड़ा दामन चिन्ता ने एक गरीब पिता का अभी तक *****************************

कविता

वेद पी० शर्मा ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं यदि है तो दे भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा बेघर को घर । नहीं दे सकता । दे सकता है मंदिर मस्जिद के नाम पर दंगे पुरोहित शूद्रों के बहाने इंसानों में भेद ईश्वर तो मुद्दा है राजनैतिक सत्ता पाने का। ********************************

जीवन का गुलाब

समर सिंह सिसौदिया यों ही बीत जाते हैं - पल, घड़ी, दिन, मास ! यों ही निकल आता है दिन, यों ही घिर आती है शाम ! और फिर, तारों भरी रात, नीला-सा आकाश ! कब आया जीवन ? बचपन का हास ? यौवन-तरंग कब ? जीवन-विकास ? जीवन का गुलाब, श्वेत, पीत, रक्त, रंग बदलता, कहीं नीली-नीली गहराइयों में, खो जाता है ! और फिर दिन निकलता है, फिर गुलाब खिलता है, लेकर नई आस ! यों ही बीत जाते हैं, पल, घड़ी, दिन, मास ! ********************************

सांस्कृतिक आयोजन के अवसर

वीरेन्द्र जैन नाच उठे चूहे पेटों में भूख गीत गाये ऐसे सांस्कृतिक आयोजन के अवसर आये वस्त्रों के अभाव में नारी अंग प्रदशर्न हो हर निर्धन बस्ती आयोजित ऐसे फैशनो वीतराग हो गये आदमी बिन दीक्षा पाये ऐसे सांस्कृतिक आयोजन के अवसर आये हैं धृतराष्ट्र शिखंडी जैसे नायक नाटक के दशर्क की किस्मत में लिक्खे हैं केवल धक्के उठती गिरती रही यवनिका दाएं से बाएं ऐसे सांस्कृतिक आयोजन के अवसर आये

वीरों का कर्तव्य

कवि कुलवंत सिंह साहस संकल्प से साध सिद्धि विजयी समर में शूर बुद्धि, दृढ़ निश्चय उन्माद प्रवृद्धि जवाला सी कर चिंतन शुद्धि । कायरता की पहचान भीति है अंगार शूरता की प्रवृत्ति है, शोषित जीवन एक विकृति है नही मृत्यु की पुनरावृत्ति है । भर हुंकार प्रलय ला दो गर्जन से अनल फैला दो, शक्ति प्रबल भुजा भर लो प्राणों को पावक कर लो । अनय विरुद्ध आवाज उठा दो स्वर उन्माद घोष बना दो, शीश भले निछावर कर दो आंच आन पर आने न दो । जीवन में हो मरु तपन सीने में धधकती अगन, लक्ष्य हो असीम गगन कंपित हो जग देख लगन । श्रृंगार सृष्टि करती वीरों का पथ प्रकृति संवारती वीरों का, आहुति अनल निश्चय वीरों का शत्रु संहार धर्म वीरों का । चट्टानों सा मन दृढ़ कर लो तन बलिष्ठ सुदृढ़ कर लो, निर्भयता का वरण कर लो उन्माद शूरता को कर लो । तपन सूर्य की वश कर लो प्रचण्ड प्रदाह हृदय धर लो, तूफानों को संग कर लो शौर्य प्रबल अजेय धर लो । गगन भेदी रण शंख बजा दो वज्र को तुम चूर बना दो, विजय दुंदुभि स्वर लहरा दो श्रेय ध्वजा व्योम फहरा दो । रोष, दंभ वीरों को वर्जित करुणा, विनय वीरों को शोभित, दीन, कातर हों कभी न शोषित सत्य, न्याय से रहो सुशोभ

नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ

कवि कुलवंत सिंह नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ लेकिन विष तो कण्ठ धरा है ! कवि होने की पीड़ा सह लूँ क्यों दुख से बेचैन धरा है ? त्याग, शीलता, तप सेवा का कदाचित रहा न किंचित मान । धन, लोलुपता, स्वार्थ, अहं का, फैला साम्राज्य बन अभिमान । मानव मूल्य आहत पद तल, आदर्श अग्नि चिता पर सज्जित । है सत्य उपेक्षित सिसक रहा, अन्याय, असत्य, शिखा सुसज्जित । ले क्षत विक्षत मानवता को कांधों पर अपने धरा है । नील कण्ठ तो मैं नहीं हूँ लेकिन विष तो कण्ठ धरा है । सौंदर्य नहीं उमड़ता उर में, विद्रूप स्वार्थ ही कर्म आधार । अतृप्त पिपासा धन अर्जन की, डूबता रसातल निराधार । निचोड़ प्रकृति को पी रहा, मानव मानव को लील रहा । है अंत कहीं इन कृत्यों का, मानव! तूँ क्यों न संभल रहा ? असहाय रुदन चीत्कारों को, प्राणों में अपने धरा है । नीलकण्ठ तो मैं नहीं हूँ, लेकिन विष तो कण्ठ धरा है । तृष्णा के निस्सीम व्योम में, बन पिशाचर भटकता मानव । संताप, वेदना से ग्रसित, हर पल दुख झेल रहा मानव । हर युग में हो सत्य पराजित, शूली पर चढ़ें मसीहा क्यों ? करतूतों से फिर हो लज्जित, उसी मसीहा को पूजें क्यों ? शिरोधार्य

जातिवाद

सिद्धेश्वर दलित-दलित-दलित...... इसलिए हम रट लगाते हैं..... दलित हमेशा दलित बना रहे और हम सवर्ण/यही तो चाहते हैं...... ******************************

शांति नहीं है सन्नाटा है

वीरेन्द्र जैन सैनिक चुप्पी साधे बैठे सीमा पर बन्दूकें ताने अपने पर तौले बैठे हैं अनगिन बाज लगाए निशाने जिसके हाथ आ गया अवसर वही झपट्ठा दे जाता है शांति नहीं है सन्नाटा है सुलग रहा है एक पलीता धीरे-धीरे धीरे-धीरे जाने कब वह क्षण आये जो चट्ठानों की छाती चीरे विष्फोटों के पहले क्षण तक कोई नहीं समझ पाता है शांति नहीं है सन्नाटा है

गज़ल

कवि कुलवंत सिंह भरम पाला था मैने प्यार दो तो प्यार मिलता है । यहाँ मतलब के सब मारे न सच्चा यार मिलता है । लुटा दो जां भले अपनी न छोड़ें खून पी लेंगे, जिसे देखो छुपा के हाथ में तलवार मिलता है । बहा लो देखकर आँसू न जग में पोंछता कोई, दिखा दो अश्क दुनिया को तो बस धिक्कार मिलता है । नही मै चाहता दुनिया मुझे अब थोड़ा जीने दो, मिटाकर खुद को देखो तो भी बस अंगार मिलता है । मै पागल हूँ जो दुनिया में सभी को अपना कहता हूँ, खफा यह मुझसे हैं उनका मुझे दीदार मिलता है । मुखौटा देख लो पहना यहाँ हर आदमी नकली, डराना दूसरे को हो सदा तैयार मिलता है । **********************************************

गज़ल

कवि कुलवंत सिंह दावत बुला के धोखे से है काट सर दिया हैवां का जी भरा न तो फिर ढा क़हर दिया दुनिया की कोई हस्ती शिकन इक न दे सकी अपनों ने उसको घोंप छुरा टुकड़े कर दिया कण-कण बिखर गया जो किया वार पीठ पर खुद को रहा समेट कहाँ तोड़ धर दिया अंडों को खाता साँप ये हैं उसकी आदतें बच्चे को नर ने खा सच को मात कर दिया इंसां गिरा है इतना रहा झूठ सच बना पैसा बना ईमान वही घर में भर दिया होली जला के रिश्तों की नंगा है नाचता बन कंस खेल बदतर वह खेल फिर दिया *******************************************

राशन

सिद्धेश्वर चुनाव के पहले गोदामों में नहीं खुले बाजारों में होता है राशन! पॉंच वर्ष के लिए मिल जाती जब कुर्सी तब दिन-रात मिलता है/आश्वासन! सिर्फ आश्वासन !! ***********************************

लूट

सिद्धेश्वर सताधारी कानून में देते हैं बीस प्रतिशत की छूट! तब जाकर/उनके चेले बैकों में/दुकानों में/करते हैं लूट!! **********************************

अपहरण

सिद्धेश्वर पहले वह नेताओं के पकड़ता है चरण! वर्दीधारियों से लेता है आशीवॉद..... तब जाकर/अमीरों के बच्चों का करता है अपहरण!! *******************************

नई पीढी के नाम

वीरेन्द्र जैन मुझको तो अगली पीढी को केवल यही सिखाना है तुमको अपने मॉं बापों की बातों में नहिं आना है हम तुमको कुछ नीति सिखायें ऐसी तो सामर्थ्य नहीं हम तुमको उपदेश पिलायें तो उसका कुछ अर्थ नहीं हम जीवन भर रहे नपुंसक हमने अत्याचार सहे बेईमानियॅां हॅंस कर टालीं हमने भ्रष्टाचार सहे भूले से ऐसी पीढी को नहिं आदशॅ बनाना है मुझको तो अगली पीढी को केवल यही सिखाना है तुमको अपने मॉं बापों की बातों में नहिं आना है हमने शोषण होते देखा तो अपना मुंह फेर लिया हमने ऑंख मूंद कर झेला जिसने जो अंधेर किया कायरता की सहनशीलता हम लेकर के आये हैं हमें दिखायीं ऑंखें जिसने हमने दॉंत दिखाये हैं तुम नकार दो इस पीढी को तुमको आगे जाना है मुझको तो अगली पीढी को केवल यही सिखाना है तुमको अपने मॉं बापों की बातों में नहिं आना है जो ढांचा बनवाया हमने केवल एक घोंसला है हमने जो विकास सौंपा है पूरी तरह खोखला है सारी न्याय व्यवस्था तुमको न्याय नहीं दे पायेगी लोकतंत्र का लोक दिखावा झूठा एक चोंचला है नई व्यवस्था लाना है तो तुमको इसको ढाना है मुझको तो अगली पीढी को केवल यही सिखाना है तुमको अपने मॉं बापों की बातों में नहिं आना है *

मेरा देश महान नहीं है

वीरेन्द्र जैन जब तक सब पेटों को रोटी जब हाथों को काम नहीं है मेरा देश महान नहीं है मिलता नागरिकों को जब तक रोजी का अधिकार नहीं है जिन्दा रहने के अधिकारों का कोई आधार नहीं है संविधान की लिखतों से जिन्दा रहना आसान नहीं है मेरा देश महान नहीं है जब तक राजनीति के कुत्ते नाम धर्म का ले लड़वाते मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारों से जब तक हैं वोटों के नाते जबतक मेहनतकश दरिद्र- नारायण का सम्मान नहीं है मेरा देश महान नहीं है युवकों के भविष्य तय करते हैं, बूढे मुर्दा पाखण्डी ऐसे व्याह बाजार लगे हैं जैसे हो सांड़ों की मण्डी जब तक नई पीढी के हाथों अपनी स्वयं कमान नहीं है मेरा देश महान नहीं है जब तक सेठों की बहियों पर रोज अंगूठे टेके जाते लोकतंत्र के नाम स्वार्थ के मोटे टिक्कर सैंके जाते जब तक भारत के हर जन को पूरा अक्षर ज्ञान नहीं है मेरा देश महान नहीं है मेरा देश महान नहीं पर हो सकना तो संभावित है वर्तमान प्रारंभ करे तो फिर भविष्य में गुंजाइश है आओ इसे महान बनायें क्यों समझें आसान नहीं है मेरा देश महान नहीं है *********************************** २/१ शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रो

चुभा काँटा चमन का फूल

कवि कुलवंत सिंह चुभा काँटा चमन का फूल माली ने जला डाला बना हैवान पौधा खींच जड़ से ही सुखा डाला चला मैं राह सच की हर बशर मेरा बना दुश्मन जो रहता था सदा दिल में जहर उसने पिला डाला बड़ी हसरत से उल्फ़त का दिया हमने जलाया था उसे काफ़िर हवा ने एक झटके में बुझा डाला सताया डर कि दौलत बँट न जाए पैसे वालों को थे खुश हम खा के रूखी छीन उसको भी सता डाला उजाड़े घर हैं कितने उसने पा ताकत को शैतां से बसाने घर कुँवर का अपनी बेटी को गला डाला ******************************************

तप कर गमों की आग में

कवि कुलवंत सिंह तप कर गमों की आग में कुंदन बने हैं हम खुशबू उड़ा रहा दिल चंदन सने हैं हम रब का पयाम ले कर अंबर पे छा गए बिखरा रहे खुशी जग बादल घने हैं हम सच की पकड़ के बाँह ही चलते रहे सदा कितने बने रकीब हैं फ़िर भी तने हैं हम छुप कर करो न घात रे बाली नहीं हूँ मैं हमला करो कि अस्त्र बिना सामने हैं हम खोये किसी की याद में मदहोश है किया छेड़ो न साज़ दिल के हुए अनमने हैं हम ********************************

क्लासरूम के अंदर

सी.आर.राजश्री मेरे प्रिय छात्रों, जिन्दगी की ढ़लती उम्र में, जब मैं रहूँगीं तन्हा, सदैव याद दिलाती रहेगी, हमारे तुम्हारे बीच का वो हसीन लमहा, पूस की सुहावनी ठंड़ में, मुझे उर्जा देकर तपतपाती रहेगी, जेठ की असहनीय गर्मी में भी, जो बर्फ सी शीतलता प्रदान करेगी, और रिमझिम बरसने वाली बरखा, मिट्टी की, खुशबू के साथ मिलकर, मेरी सांसों की गति को तीव्र करेगी, नये आनन्द की बौछार करेगी। जानू न मैं तुम सबका अता-पता, सालों बीतने पर भी लेकिन, मेरे स्मृति-पटल में अंकित रहेंगे, तुम्हारे ये मासूम प्यार भरे चेहरे, शायद तुमको नहीं है ये पता। तुम्हारी शरारत और फुसफुसाहट, मन में सदैव तरोताजा रहेंगे, मेरे दिलों से शब्द रूपी फुहार बनकर, हमेशा कविता का रूप देती रहेंगे, तुम्हारी बातें नटखट अदाएँ, मुझे आश्चर्य चकित करते रहते, तुम्हारे मन के कई रहस्यमयी सवाल, आखों में झलकते जो दिखाई दिए, ज्वाला बन मुझे कई पाठ पढ़ाते गए, सिखाते गए। अपने खुशियों और गमों के पल को इस कक्षा के भीतर हमने बाँटें, पठन-पाठन के साथ-साथ, बातों में उलझाकर, तुमने मुझे भी बातूनी ही बना डाला, लेकिन मुझे इसका कतई है न अफसोस, आनेवाले भविष्य के प्

इतना भी ज़ब्त मत कर

कवि कुलवंत सिंह इतना भी ज़ब्त मत कर आँसू न सूख जाएँ दिल में छुपा न ग़म हर आँसू न सूख जाएँ कोई नहीं जो समझे दुनिया में तुमको अपना रब को बसा ले अंदर आँसू न सूख जाएँ अहसास मर न जाएँ, हैवान बन न जाऊँ दो अश्क हैं समंदर आँसू न सूख जाएँ मंजर है खूब भारी अपनों ने विष पिलाया देवों से गुफ़्तगू कर आँसू न सूख जाएँ कैसे जहाँ बचे यह आँसू की है न कीमत दुनिया बचा ले रोकर आँसू न सूख जाएँ **************************************

बंदा था मैं खुदा का

कवि कुलवंत सिंह बंदा था मैं खुदा का, आदिम मुझे बनाया, इंसानियत ने मेरी मुजरिम मुझे बनाया । माँगी सदा दुआ है, दुश्मन को भी खुशी दे, हैवानियत दिखा के ज़ालिम मुझे बनाया । दिल में जिसे बसाया, की प्यार से ही सेवा, झाँका जो उसके अंदर, खादिम मुझे बनाया । है शर्मनाक हरकत अपनों से की जो उसने, कैसे बयां करूँ मैं, नादिम मुझे बनाया । रब ने मुझे सिखाया सबको गले लगाना, सच को सदा जिताऊँ हातिम मुझे बनाया ।

प्रेम

कवि कुलवंत सिंह इस काव्य रचना में मात्रिक छंदों के साथ लय बद्धता का ध्यान तो रखा ही गया है साथ ही दो नये प्रयोग भी किए गये हैं । एक - पूरी काव्य रचना सिर्फ दो अक्षरीय शब्दों के साथ की गई है । दूसरा - किसी भी शब्द की पुनरावृत्ति नही है । नायक (नायिका से) : हम तुम हर पल संग धरा पर, सुख दुख तम गम धूप छांव उर । तन मन प्रण कर प्रीत गीत ऋतु छल, काल, जाल, विष पान हेतु । कोटि भाव नित, होंठ नव गान, झूम यार मद, लग अंग प्रान । तरु लता बंध, भेद चिर मिटा, काम, रस, प्रेम, बाण कुछ चला । भय भूल झूल, राग रति निभा, रीत मधु मास, रास वह दिखा । छवि कांति देह, मुख जरा उठा, ताल शत धार, आग वन लगा । * * * * * नेपथ्य से : नीर रंग भर, सात सुर सजा, झरें फूल नभ, गान युग बजा । जप-तप-व्रत, दीप रोली हार, जगा जग रैन, नत ईश द्वार । शील सेवा रत, हरि हाथ सर, प्यार रब संग, देव देवें वर । शूल, शैल, शर, बनें फूल खर ढ़ाल खुद खुदा, खुशी अंक भर । तज राज यश, मिटा पाप ताप, माया भ्रम क्षुधा, तोड़ डर शाप । ठान सत्य मूल, रोम रग धार बल बुद्धि धूल, रूह नर सार । चूर दिन रात, भज राम नाम, अश्रु आह मरु, शांति शि

पदचिन्ह

कवि कुलवंत सिंह बचपन में मैने महाभारत पढ़ी थी युधिष्ठिर का चरित्र भाया था । सोचा था -'मै भी जीवन में सदैव सत्य बोलूंगा ।' समझ नही आता - आज लोग मुझे 'पागल' क्यों कहते हैं ? बचपन में मैने गौतम बुद्ध को पढ़ा था उनका साधूपन भाया था । सोचा था - 'मै भी तन से न सही मन से अवश्य साधू बनूंगा ।' समझ नही आता - आज लोग मुझे 'बेवकूफ' क्यों कहते हैं ? बचपन में मैने गीता पढ़ी थी कृष्ण का उपदेश भाया था । सोचा था -'मै भी कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन अपनाऊँगा ।' बस कर्म करूंगा फल की इच्छा नही रखूंगा । समझ नही आता - आज लोग क्यों कहते हैं - अरे ! इसका खूब फायदा उठा लो बदले में कुछ नही मांगता ! बचपन में मैने पढ़ा था - दहेज कुप्रथा है । सोचा था - 'बिना दहेज शादी करूंगा पत्नी को सम्मान दूंगा, उसके माँ बाप को अपने माँ बाप का दर्जा दूंगा ।' समझ नही आता - आज लोग मुझे क्यों कहते हैं - धोबी का -------------- न दामाद न बेटा ! बचपन में मैने गांधी को पढ़ा था । सोचा था - ' मै भी अपनाऊँगा सादा जीवन उच्च विचार' समझ नही आता - आज लोग मुझे 'गधा' क्यों कहते

पाप

कवि कुलवंत सिंह कितने पाप धरा ने देखे, आदिकाल से गिनकर लेखे । सदियों से मानव को मानव, शोषित बना रहा बन दानव । वसुधा ने सबको अपनाया, सबके लिए इतना उपजाया । धनिकों ने जग को भरमाया, दीनों को भूखा मरवाया । कहीं मनुज ने भंडार भरे, और कहीं खाने को तरसे । मिलकर खाएं कमी न आए, फिर भी लाखों भूखे सोएं । बना स्वार्थी मनुज है इतना, धरती को भी बांटा कितना । कहीं कंगालों ने कर भरे, तो भूपों ने भंडार भरे । प्रजा हमेशा बेहाल रही, महलों में सदा बहार रही । भूपों की अमिट भू हवश ने, झोंका सदा प्रज्ञा को रण में । नृशंस संहार धर्म जैसा, कौन हुआ है रजा ऐसा ? समूल नष्ट कर बंधु बांधव, सिंहासन को किया न ताण्डव ! ठूंस भरी रनिवास रुपसियां, झरोखा दर्शन करते मियां । इंसान बना हैवान कहीं, बन बैठा नरभक्षी कहीं । अबला पर यह बल दिखलाता, सम्मुख बलशाली भय खाता । पुत्र लालसा बेटी को मौत, जन्म लिया खुद माँ की कोख । पैसा बना पापों का मूल, रिश्ते नाते गया सब भूल । कानून न्याय को मिली है छूट, दीनों को जी भर कर लूट । शासक सत्ता को जेब धरें, जनता कातर हो विकल मरे । क्या अंत कहीं अन्यायों का ? धरा से अनगिनत पापों का ! ********

इस गवार को !

कवि कुलवंत सिंह हो भूख से बेजार बढ़ाकर जब कोई हाथ उतारता स्वर्ण मुद्रिका जल रही चिता के हाथ तो इस गवार को भी यह बात समझ आती है । लेकिन रहने वाले ऊँची अट्टारिकाओं में सेकते हैं रोटियां जब जल रही चिताओं में तो इस गवार को भी यह बात गवारा नही है । भरसक मेहनत के बाद जब एक श्रमिक के हाथ जुटा पाते न रोटी दो वक्त की एक साथ चुराना एक रोटी का मुझे समझ आता है । माँ, पत्नी की लाश पर कर रहे हैं जो नग्न नृत्य जमीन जायदाद खातिर कर रहे जो भर्त्स कृत्य यह बात इस गवार को नागवार गुजरती है । गाँवों में साधन नहीं, कमाई का ठौर नही शहरों में भाग आते चार पैसे मिलें कहीं बदहाल सा जीना उनका समझ आता है । लेकिन शहरों से जा खेतों पर कब्जा करना एक साथ सैकड़ों किसानों की जमीन छिनना मुझे क्या किसी भी गवार को समझ आता नही । कलेजे पर रख पत्थर भेज विदेश बच्चों को स्वर्णिम भविष्य देने की चाहत लाडलों को बुढ़ापे में खुद को ढ़ोना समझ आता है । लेकिन उन लाडलों का क्या जो छीन कर सब कुछ बेघर कर देते बूढ़े माँ बाप को समझ तुच्छ गवार को लगता खूब सयाने वो लाडले हैं । पिता का हाथ बंटाता बचपन खेत खलिहान में माँ का हाथ बंटाता बचपन घरों के क

प्रभात

कवि कुलवंत सिंह जाग जाग है प्रात हुई, सकुची, लिपटी, शरमाई । अष्ट अश्व रथ हो सवार रक्तिम छटा प्राची निखार अरुण उदय ले अनुपम आभा किरण ज्योति दस दिशा बिखार । सृष्टि ले रही अंगड़ाई, जाग जाग है प्रात हुई । कण - कण में जीवन स्पंदन दिव्य रश्मियों से आलिंगन सुखद अरुणिम ऊषा अनुराग भर रही मधु, मंगल चेतन मधुर रागिनी सजी हुई जाग जाग है प्रात हुई । अंशु-प्रभा पा द्रुम दल दर्पित धरती अंचल रंजित शोभित भृंग - दल गुंजन कुसुम – वृंद पादप, पर्ण, प्रसून, प्रफुल्लित । उनींदी आँखे अलसाई जाग जाग है प्रात हुई । रमणीय भव्य सुंदर गान प्रकृति ने छेड़ी मद्धिम तान शीतल झरनों सा संगीत बिखरते सुर अलौकिक भान । छोड़ो तंद्रा प्रात हुई जाग जाग है प्रात हुई । उषा धूप से दूब पिरोती ओस की बूंदों को संजोती मद्धम बहती शीतल बयार विहग चहकना मन भिगोती । देख धरा है जाग गई जाग जाग है प्रात हुई ।

गज़ल

कुलवंत सिंह रात तन्हा थी न तुम दिन को सज़ा-ए-मौत दो पास आ जाओ न तुम मुझको सज़ा-ए-मौत दो इश्क में तेरी अदाओं ने मुझे कैदी किया हुस्न-ए-जलवों से न तुम मुझको सज़ा-ए-मौत दो हम तो तेरे थे सदा फिर चाल तूने क्या चली दूर कर मुझसे न तुम सबको सज़ा-ए-मौत दो रात काली छा गई हर ओर बरबादी हुई है नहीं गलती न तुम उसको सज़ा-ए-मौत दो दूरियां दिल में नहीं हैं, दूर हम क्यों फिर हुए सुन मुझे रोता न तुम खुद को सज़ा-ए-मौत दो *******************************************

नई सुबह

सी.आर.राजश्री घिर आई है धूप सुनहरी, देखो बीत चुकी है रात गहरी, पक्षियों की चहचहाहट है अनूठी, भूल जाओ गत पल की यादें कड़वी। खिल उठा प्रकृति का यौवन, फूलों की खुश्बू से महक उठा मन, उत्साह और उमंग से भर उठा तन, प्रेम के तरंग में झूम उठा जीवन। गूँज उठे मंदिर में भजन कीर्तन, प्रभु के चरणों में कर दो सब अर्पण, सत्य के राह पर से न बहके कदम, हिम्मत और मेहनत पर चले हरदम। उठ बिस्तर छोड़, जाग रे मानव, आलस भरी नींद को तू त्याग दे, जीवन के पथ पर चलकर, ढ़ेर सारी खुशियाँ तू बटोर ले, कर्मपथ पर नाम नया, अपना तू लिख दें, न मिलेगा फिर तुझे ऐसा अवसर, आगे बढ़ चल पूरी कर ले कसर।

सबक

सी.आर.राजश्री एक गरीब लडका माँ की मदद करने के उद्देश्य से दूसरे शहर नौकरी ढूँढ़ने गया। पिता के देहान्त के बाद माँ ने उसकी कई मुश्किलों का सामना करके परवरिश की थी। अब दीपू की बारी थी। वह माँ को आराम की जिन्दगी देना चाहता था। वह ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। फिर भी शहर में नौकरी की उम्मीद में निकल पडा। माँ ने बहुत समझाया कि अजान शहर में नौकरी परन्तु वह एक न माना। तलाशना मुश्किल है। माँ को साँत्वना देकर वह निकल पडा। शहर में वह पूरा दिन नौकरी की तलाश में घूमता-फिरता रहा पर शहर में नौकरी मिलना कोई आसान बात थोडे है? भूखा-प्यासा, थका माँदा वह एक बडे घर के नौकरी की उम्मीद लेकर गया। मकान मालिक सहृदय जान पडता था। उसने उसे झट नौकरी दे दी। रोज सुबह वह उठता उसे अच्छा खिलाया जाता, छोटा-मोटा काम करके वह रात को भरपेट खाकर सो जाता। महीने की पहली तारीख को उसे १००० रु भी मिल जाते। इसी तरह महीने गुजरते गये। वह पैसों को बचाता रहा। वह मालिक से और काम माँगता पर मालिक कहता, अभी समय है, समय आने पर मैं तुम्हें उचित काम दूँगा। तब तक तुम आराम करो। कभी तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है। एक दिन सुबह होते ही दीपू न करते हुए

ख्वाहिश एक कलम कीः अमन और चैन

शिखा कई मर्तबा हम हकीकत से रूबरू होते हुये भी, उस हकीकत से नजरें नहीं मिलाते, चूंकि हमें कई बार हकीकत की गहराई का इल्म नहीं होता और कई बार इन्सान सोचता है, कि बेमतलब हम अपनी जिन्दगी में बेचैनी दाखिल क्यों करें, सुकून की जिन्दगी चल रही है, उसमें किसी बेमजा सोच की क्या जरूरत है ? हम अपनी- अपनी बेमतलब जिन्दगियों की रफ्तार में इतना आगे निकल चुके हैं कि हमें पीछे मुड़कर देखने में वो मजा नहीं आता, कि आखिर हम कहाँ से चले? हमारा रास्ता क्या है? और हमारी मंजिल क्या है? हुआ यह कि प्रगतिशील भविष्य बनाते- बनाते इन्सान अपनी ही प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु बन बैठा। इन्सान की सोच, जो उसे अन्य जीवों से अलग बनाती है, उस सोच में गन्दगी आ गयी है। इन्सान की रूह में वो पाकीजगी नहीं रही, जोकि बुराईयों का गला घोंट सके। कहीं पर मजहब, कहीं पर वतन को आगे करके हम बुराईयों के दलदल में फँसते चले जा रहे हैं। इन्सान को इन्सान के ऊपर शक और बदगुमानी का इल्म होता है। श्री गिल साहब (जिनके साहित्य पर एक किताब मेरे पति डा० नीलांशु अग्रवाल सम्पादित कर रहे हैं और जिनके साहित्य का उद्देश्य है कविताओं एवं रचनाओं के मा

फिसलती रेत सा मेरा तन

राजश्री ख़त्री चॉद बूंद-बूंद हो रहा, मन अंधेरे में खो रहा। रात बहुत बढ चली, सामने इक अंधेरी गली। व्यथा ने आहत किया मन, फिसलती रेत सा मेरा मन। डरावनी लगती परछाइया। उम्र के ढेर की है ऊचॉईया। दर्द! जीवन है ढो रह, किन्तु मन स्वप्न संजो रहा। अपनों से दूरी बढ़ गई, नींद भी उड़न छू होई। कैसे भूलू कि नारी हॅू कभी जीती, कभी हारी हॅू। वक्त की मार सहती रही, लालसा मनकी मन में रही। एफ-१८७०, राजाजी पुरम लखनऊ **************************

बिन बदरा बरसा सावन

राजश्री ख़त्री वर्षा का हुआ आगमन, हर्षित हुआ वैरागी मन, कुसुमों ने मदिरा हलवाई, सुरमई हो गई पवन॥ रिमझिम बरखा बरसी, यादों से ऑखें भर आई बिन बदरा, बरसा सावन, खग वृन्दों ने भी छेड़ा वादन॥ अश्रु ने प्यास बुझा डाली, प्रेम की रीते निभा डाली, सुधि की इक आस बची, किन्तु आई न बेला पावन॥

अछूता स्पर्श

राजश्री खत्री कुछ चटक गया, कुछ चुभ गया, कुछ टूट गया, कुछ जुड़ गया॥ ये अनजाना बन्धन कैसा है॥ पास रहकर, कोई दूर है, दूर रहकर भी, कोई पास है। शेष भूली-बिसरी, यादें है॥ ये बन्धन कैसा है बिछुड़ गया कोई, कोई आनमिला, अपनी राह कोई मुड़ लौट चला॥ टूटे सपनों की आवाजें है॥ ये बन्धन कैसा है कुछ बादल से, आसमान में छा गये, कुछ गरज बरस, निकल गये॥ बारिश से आयै भीगा स्पर्श, अछूता स्पर्श सा ये बन्धन कैसा है। कुछ ऑसू कोरों, में ही रह गये, कुछ ढुलुक-ढुलुक बह गये॥ कुछ बूंदें सी में बन्द है॥ में बन्धन कैसा है

प्यास हिये मैं

राजश्री खत्री शब्द ढ़ूढते अर्थ को अर्थ संवादों को कुरेदती, नासुर बन वे दुख जाते॥ जिन्दगी जंग बन जाती मैं लक्ष्य तुम योद्धा बनते गणना विंधे तीरों की होती, लक्ष्य भेद तुम निकल जाते॥ आशाओं का बादल आता, शिद्दतों की प्यास लिए मैं। ओक लगाये बैठी रहती, प्यास बादल में सिमट जाती॥ स्थितियों से सौदा करती, हादसों के नाग है डसते। मेरी पहचान अलग बनती, अश्रुकंठ अवरूद्ध करते॥ जिन्दगी जंग में टूट जाती किन्तु शख्शियत अटूट रहती। तृप्ति और प्यास के भॅवर मैं। प्रश्न चिह्र बन उलझ जाती॥ जिन क्षणों को जी न पाती, साथ उनका, छूट जाता पर हाथ मेरे कुछ न आता, शब्दों संवादों में मिट जाती॥

मुन्ना

सी.आर.राजश्री (शिव केड़ा की कथा पर आधारित ) मुन्ना नाम का था एक लड़का, घर में था माँ का राज दुलारा, था बहुत होशियार और सयाना, चुस्त, चुलबुला पर बहुत काला। सब दोस्त उसका मजाक उड़ाते, कालू मुन्ना कह उसे पुकारते, कहते कि काला रंग सब को नहीं भाता, इसलिए तू भी हमें तनिक न सुहाता। रंग भरे इस दुनिया में, काला रंग माना जाता है बेरंग, बच्चों की यह बातें सुन कर, मुन्ना हो जाता बहुत मायूस । एक दिन एक गुब्बारे वाला आया, रंग-बिरंगी गुब्बारे संग अपने लाया, लाल, नीला, पीला, हरा, गुलाबी, आकर्षक मनभावन थे और लुभावनी। बच्चों की भीड वहाँ लग गई , सब रंग के गुब्बारे बिक गई, जैसे-जैसे गुब्बारे होते जाते खाली, हवा भर नए गुब्बारों की लग जाती पंक्ति। झूम-झूम कर बच्चे सारे, पुलकित हो जाते देख गुब्बारे, हाथों में ले कई गुब्बारे, छोड़ देते आसमान में, सारे। गुब्बारे वाले के पास एक था काला गुब्बारा, किसी ने भी नहीं लिया, किया सबने उसे अनदेखा, पर मुन्ने को वह अच्छा लगा और उसे खरीदना चाहा, अपनी तरह उपेक्षित उस गुब्बारे को लेने वह पहुँचा। मुन्न

वक्त

समर अय्यूब कहते है वक्त से पहले इन्सान को कुछ हासिल नहीं होता हर इन्सान की ख्वाईश वक्त की मौहताज रहती हैं। फिर चाहे वो शोहरत हो या दौलत हो या मौत हो या दिल से निकली ख्वाईश हो या कोई आह हो। यह कहानी भी एक ऐसे शख्स की है जो वक्त को भूलकर दुनिया की शह पर भरोसा कर बैठा जो वक्त की खुद मौहताज हैं। यह सब जानते हुए भी फिर न जाने वक्त को भूल औरों से उम्मीदें लगाये बैठे है जहाँ उसको सिर्फ नाकामयाबी हासिल होती हैं। - ये कहानी कुछ दोस्तों की हैं जो एक छोटे से गाँव में रहा करते थे। एक दिन सब तय करते है कि हम गाँव छोड़कर किसी शहर में रहेगें। सब चले जाते हैं और वो एक बहुत बड़े शहर में रहने लगते हैं। उन में कुछ बहुत अमीर भी थे कुछ गरीब भी थे। उनमें एक लड़का था जो बस जिंदगी में बहुत बड़ा आदमी बनना चाहता था। एक दिन अचानक इसे कोई मदद की जरूरत महसूस हुई तो वह घर से बाहर निकला और चीखने लगा कोई मेरी मदद कर सकता हैं। वहां से उनमें से एक दोस्त अपनी गाड़ी से निकला उसने आवाज दी तुम मेरी मदद कर सकते हो उसने कहा कि मुझे माफ कर दो मेरी गाड़ी में तुम्हारे लिये जगह नहीं हैं और कह के आगे चला गया। फिर थोड़ी देर बाद एक आदमी औ

पोर पोर में छिपा दर्द

राजश्री खत्री आज फिर वेदनामयी अनुभूतियॉ विलोड़ित है अन्तः में लहराती इठलाती पीड़ाएं मन की गुफाओं में अंकुरित हो उठी बावजूद इसके इनमें न उमंग है न चाह है विमुखता है, न आक्रोश है, बस एक सन्ताप है। टूटे सपनों की आवाज धुंध में है, खो गयी धूप में एक छॉव का बचा बस, एहसास है पोर पोर में छिपा दर्द, आज ऊभर आया है कॉच सी बिखर गयी मैं बस झूठी दिलासाएं हैं एफ-१८७०, राजाजी पुरम लखनऊ