समर सिंह सिसौदिया
यों ही बीत जाते हैं -
पल, घड़ी, दिन, मास !
यों ही निकल आता है दिन,
यों ही घिर आती है शाम !
और फिर, तारों भरी रात,
नीला-सा आकाश !
कब आया जीवन ?
बचपन का हास ?
यौवन-तरंग कब ?
जीवन-विकास ?
जीवन का गुलाब,
श्वेत, पीत, रक्त, रंग बदलता,
कहीं नीली-नीली गहराइयों में,
खो जाता है !
और फिर दिन निकलता है,
फिर गुलाब खिलता है,
लेकर नई आस !
यों ही बीत जाते हैं,
पल, घड़ी, दिन, मास !
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यों ही बीत जाते हैं -
पल, घड़ी, दिन, मास !
यों ही निकल आता है दिन,
यों ही घिर आती है शाम !
और फिर, तारों भरी रात,
नीला-सा आकाश !
कब आया जीवन ?
बचपन का हास ?
यौवन-तरंग कब ?
जीवन-विकास ?
जीवन का गुलाब,
श्वेत, पीत, रक्त, रंग बदलता,
कहीं नीली-नीली गहराइयों में,
खो जाता है !
और फिर दिन निकलता है,
फिर गुलाब खिलता है,
लेकर नई आस !
यों ही बीत जाते हैं,
पल, घड़ी, दिन, मास !
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