अतुल अजनबी (ग्वालियर)
झूट का बोझ अगर उठाऊगा
मैं तो जीते-जी मर ही जाऊगा
सबको तू आजमा के देख जरा
मैं ही बस तेरे काम आऊगा
इतने दुशमन न तू बना, वरना
तुझको किस-किस से मैं बचाऊगा
लौट आये कहीं अगर बचपन
फिर मैं पढ़ने से जी चुराऊगा
जिनसे जल जाये घर किसी का भी
उन चिरागों को मैं बुझाऊगा
सर कलम कर दें चाहे लोग, मगर
सच की खातिर मैं सर उठाऊॅगा
'अजनबी' तुझको खो दिया जब से
क्या बचा है जो अब गवाऊॅगा
झूट का बोझ अगर उठाऊगा
मैं तो जीते-जी मर ही जाऊगा
सबको तू आजमा के देख जरा
मैं ही बस तेरे काम आऊगा
इतने दुशमन न तू बना, वरना
तुझको किस-किस से मैं बचाऊगा
लौट आये कहीं अगर बचपन
फिर मैं पढ़ने से जी चुराऊगा
जिनसे जल जाये घर किसी का भी
उन चिरागों को मैं बुझाऊगा
सर कलम कर दें चाहे लोग, मगर
सच की खातिर मैं सर उठाऊॅगा
'अजनबी' तुझको खो दिया जब से
क्या बचा है जो अब गवाऊॅगा
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