कवि कुलवंत सिंह
दावत बुला के धोखे से है काट सर दिया
हैवां का जी भरा न तो फिर ढा क़हर दिया
दुनिया की कोई हस्ती शिकन इक न दे सकी
अपनों ने उसको घोंप छुरा टुकड़े कर दिया
कण-कण बिखर गया जो किया वार पीठ पर
खुद को रहा समेट कहाँ तोड़ धर दिया
अंडों को खाता साँप ये हैं उसकी आदतें
बच्चे को नर ने खा सच को मात कर दिया
इंसां गिरा है इतना रहा झूठ सच बना
पैसा बना ईमान वही घर में भर दिया
होली जला के रिश्तों की नंगा है नाचता
बन कंस खेल बदतर वह खेल फिर दिया
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दावत बुला के धोखे से है काट सर दिया
हैवां का जी भरा न तो फिर ढा क़हर दिया
दुनिया की कोई हस्ती शिकन इक न दे सकी
अपनों ने उसको घोंप छुरा टुकड़े कर दिया
कण-कण बिखर गया जो किया वार पीठ पर
खुद को रहा समेट कहाँ तोड़ धर दिया
अंडों को खाता साँप ये हैं उसकी आदतें
बच्चे को नर ने खा सच को मात कर दिया
इंसां गिरा है इतना रहा झूठ सच बना
पैसा बना ईमान वही घर में भर दिया
होली जला के रिश्तों की नंगा है नाचता
बन कंस खेल बदतर वह खेल फिर दिया
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