शिखा
कई मर्तबा हम हकीकत से रूबरू होते हुये भी, उस हकीकत से नजरें नहीं मिलाते, चूंकि हमें कई बार हकीकत की गहराई का इल्म नहीं होता और कई बार इन्सान सोचता है, कि बेमतलब हम अपनी जिन्दगी में बेचैनी दाखिल क्यों करें, सुकून की जिन्दगी चल रही है, उसमें किसी बेमजा सोच की क्या जरूरत है ?
हम अपनी- अपनी बेमतलब जिन्दगियों की रफ्तार में इतना आगे निकल चुके हैं कि हमें पीछे मुड़कर देखने में वो मजा नहीं आता, कि आखिर हम कहाँ से चले? हमारा रास्ता क्या है? और हमारी मंजिल क्या है? हुआ यह कि प्रगतिशील भविष्य बनाते- बनाते इन्सान अपनी ही प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु बन बैठा।
इन्सान की सोच, जो उसे अन्य जीवों से अलग बनाती है, उस सोच में गन्दगी आ गयी है। इन्सान की रूह में वो पाकीजगी नहीं रही, जोकि बुराईयों का गला घोंट सके। कहीं पर मजहब, कहीं पर वतन को आगे करके हम बुराईयों के दलदल में फँसते चले जा रहे हैं। इन्सान को इन्सान के ऊपर शक और बदगुमानी का इल्म होता है। श्री गिल साहब (जिनके साहित्य पर एक किताब मेरे पति डा० नीलांशु अग्रवाल सम्पादित कर रहे हैं और जिनके साहित्य का उद्देश्य है कविताओं एवं रचनाओं के माध्यम से अमन और शान्ति का सन्देश फैलाना) ने इसे बखूबी बयां किया है -
घबराई नजरों से न देखिये
जनूनी नहीं
न खून का प्यासा
मैं इन्सान हूं
आपकी
और या किसी और की तरह।
मेरा मजहब
मैंने चुना नहीं
फिर भी मेरा प्यार है
सब अकीदों से
न जबान मैंने चुनी
फिर भी मेरा प्यार है
सब जबानों से
कल्चर एक तार के साज हैं।
मैं भी इन्सान हूं
आपके खुदा का बनाया हुआ
फख्र है मुझे इन्सानियत पर
दिल खोलकर हँसो दोस्त
हम सब इन्सान हैं।
जितने सुलझे भाव से, जिस दर्द से श्री गिल साहब ने अपने रूह की आवाज को लफ्जों में पिरोया है, क्या इन जज्बातों को समझकर, अमली जामा पहनाने की फुर्सत आज इन्सान के पास है?
किसी और ने भी लिखा है ''आज के इस इन्सान को ये क्या हो गया, इसका पुराना प्यार कहॉ खो गया।'' सच है, कि गिल साहब ने इस कमी को महसूस किया है। खुदा ने दुनिया बनायी, अलग- अलग वतन बनाये, मजहब बनाये, इन्सान बनाये, उसमें तरह- तरह के मीठे जज्बात जगाये, दोस्ती का, अमन का, चैन का। इन्सान का जन्म हुआ, उसने जज्बातों को रौंदना शुरू किया। उसमें चाहत की जगह ली नफरत ने, खुषबू की जगह ली बदबू ने, इन्सानियत की जगह ली हैवानियत ने, ईमानदारी बदल गयी बेईमानी में, रंगों की जगह खून काम आने लगा। क्या ये सब काफी नहीं इंसानियत के पतन के लिए? जैसा कि श्री गिल साहब ने अपनी व्यथा व्यक्त की है -
मेरा इस पर यकीन नहीं
इन्सान लाता नहीं काल
और अमन करता है बर्बाद
खुशहाली के बाग को।
तराजू तोलता नहीं सबको
और अमन देता नहीं फल
अपने हर बच्चे को।
श्री गिल साहब की ही एक और नज्म है -
उजाड़ की रातों के दरिन्दे
तलवार के लबों से
प्यार करते
और तलवार के ही गुस्से का
शिकार हो जाते।
ऐसा नहीं है कि श्री गिल साहब ने, इन्सान का कोई भी पहलू अनछुआ छोड़ा हो। इन्होंने उसे जिस तरह महसूस किया है, उस समझ की इनकी नज्मों में पूरी तरह अभिव्यक्ति होती है। मानवीय संवेदनाओं का यर्थाथ और मौजूदा हालात में संवेदनहीनता का जो रूप है, वही सबसे बड़ा कारण है, नफरत और दरिन्दगी का। अब सबसे बड़ा प्रश्न है संवेदनहीनता क्यों?
प्रश्न का जवाब है - इन्सान तरक्की कर रहा है। चार अक्षर पढ़कर उसकी सोच पर उसके विचारों पर चादर पड़ चुकी है, यथार्थ से दूर, ''किताबी ज्ञान'' के पास, सिर्फ ''किताबी ज्ञान''। जिसमें मानवीय संवेदनाओं, नैतिक मूल्यों, व्यक्तिगत गुणों या अभिव्यक्तियों का कोई स्थान नहीं है। यहॉ जरूरी होगा कि श्री गिल साहब की नज्म सवाल का जिक्र किया जाए -
जो एटमबम गिरे
क्या कली दोबारा खिलेगी
क्या फिर चिड़िया चहचहायेंगी
क्या बहार दोबारा आयेगी?
जो एटमबम गिरे
क्या दुल्हन की डोली उठेगी
क्या फिर इश्क चाँदनी करेगा
क्या बारिश दोबारा गिरेगी?
जो एटमबम गिरे
क्या जन्म सुबह का होगा
क्या फिर खिलाड़ी खेलेंगे
क्या दुनिया दोबारा बसेगी?
जो एटमबम गिरे
क्या खुदा किसी को बचायेगा
कौन हॅसेगा, कौन मनायेगा
क्या सब खत्म न हो जायेगा?
क्या बात है! ये सिर्फ नज्म नहीं एक दर्द है, जिसमें आने वाले कल पर सवाल उठाया है श्री गिल साहब ने अमन और चैन की गुजारिश सवालों के माध्यम से की है। साथ ही इनके विचारों में, इनकी नज्मों में वातावरण एवं प्रकृति के असंतुलन का दर्द भी स्पष्ट तौर पर झलकता है, जिससे इनका वैज्ञानिक पहलू भी सामने आता है। इसमें एटमबम से ''इन्सानियत'' तबाह होने के साथ- साथ ''वातावरणीय प्रदूषण'' के खतरे पर भी सवाल उठाया गया है। श्री गिल के विचारों में ''ग्लोबल वार्मिंग'' के प्रति भी चेतावनी है जिसकी झलक इनकी नज्म ''अमन का फाखता'' की कुछ चुनिन्दा पंक्तियों से ही समझ में आ जायेगी।
कब से सुन रहा हूं
अमन की फाख्ता
जल्दी छोड़ी जायेगी
और इसकी हिफाजत के लिए
गाढ़ी जा रहीं तोपें
उड़ाये गये इंजन
जनाजों पर
गिद्ध छोड़ी गई
मौत की
रोबॉट बन रहे प्यासे
खेल रहे खिलाड़ी
आग से
जनून का नचाया जा रहा जानवर।
अब सवाल ये उठता है कि क्या ये नज्में सिर्फ कलम और कागज का खेल है, नहीं! ऐसा नहीं है, कागज और कलम तो एक जरिया है। इन नज्मों के माध्यम से श्री गिल साहब ने इन्सान को झकझोड़ने की कोषिष की है। उसकी रूह में ठण्डी पड़ी संवेदनाओं को बाहर लाने की कोशिश की है। वतन, मजहब की दीवार को तोड़कर इन्सान को इन्सान बने रहने की ताकीद की है। विष्व में अमन और चैन के साथ प्रेम का संदेश फैलाने की गुजारिश की है।
हम अपनी- अपनी बेमतलब जिन्दगियों की रफ्तार में इतना आगे निकल चुके हैं कि हमें पीछे मुड़कर देखने में वो मजा नहीं आता, कि आखिर हम कहाँ से चले? हमारा रास्ता क्या है? और हमारी मंजिल क्या है? हुआ यह कि प्रगतिशील भविष्य बनाते- बनाते इन्सान अपनी ही प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु बन बैठा।
इन्सान की सोच, जो उसे अन्य जीवों से अलग बनाती है, उस सोच में गन्दगी आ गयी है। इन्सान की रूह में वो पाकीजगी नहीं रही, जोकि बुराईयों का गला घोंट सके। कहीं पर मजहब, कहीं पर वतन को आगे करके हम बुराईयों के दलदल में फँसते चले जा रहे हैं। इन्सान को इन्सान के ऊपर शक और बदगुमानी का इल्म होता है। श्री गिल साहब (जिनके साहित्य पर एक किताब मेरे पति डा० नीलांशु अग्रवाल सम्पादित कर रहे हैं और जिनके साहित्य का उद्देश्य है कविताओं एवं रचनाओं के माध्यम से अमन और शान्ति का सन्देश फैलाना) ने इसे बखूबी बयां किया है -
घबराई नजरों से न देखिये
जनूनी नहीं
न खून का प्यासा
मैं इन्सान हूं
आपकी
और या किसी और की तरह।
मेरा मजहब
मैंने चुना नहीं
फिर भी मेरा प्यार है
सब अकीदों से
न जबान मैंने चुनी
फिर भी मेरा प्यार है
सब जबानों से
कल्चर एक तार के साज हैं।
मैं भी इन्सान हूं
आपके खुदा का बनाया हुआ
फख्र है मुझे इन्सानियत पर
दिल खोलकर हँसो दोस्त
हम सब इन्सान हैं।
जितने सुलझे भाव से, जिस दर्द से श्री गिल साहब ने अपने रूह की आवाज को लफ्जों में पिरोया है, क्या इन जज्बातों को समझकर, अमली जामा पहनाने की फुर्सत आज इन्सान के पास है?
किसी और ने भी लिखा है ''आज के इस इन्सान को ये क्या हो गया, इसका पुराना प्यार कहॉ खो गया।'' सच है, कि गिल साहब ने इस कमी को महसूस किया है। खुदा ने दुनिया बनायी, अलग- अलग वतन बनाये, मजहब बनाये, इन्सान बनाये, उसमें तरह- तरह के मीठे जज्बात जगाये, दोस्ती का, अमन का, चैन का। इन्सान का जन्म हुआ, उसने जज्बातों को रौंदना शुरू किया। उसमें चाहत की जगह ली नफरत ने, खुषबू की जगह ली बदबू ने, इन्सानियत की जगह ली हैवानियत ने, ईमानदारी बदल गयी बेईमानी में, रंगों की जगह खून काम आने लगा। क्या ये सब काफी नहीं इंसानियत के पतन के लिए? जैसा कि श्री गिल साहब ने अपनी व्यथा व्यक्त की है -
मेरा इस पर यकीन नहीं
इन्सान लाता नहीं काल
और अमन करता है बर्बाद
खुशहाली के बाग को।
तराजू तोलता नहीं सबको
और अमन देता नहीं फल
अपने हर बच्चे को।
श्री गिल साहब की ही एक और नज्म है -
उजाड़ की रातों के दरिन्दे
तलवार के लबों से
प्यार करते
और तलवार के ही गुस्से का
शिकार हो जाते।
ऐसा नहीं है कि श्री गिल साहब ने, इन्सान का कोई भी पहलू अनछुआ छोड़ा हो। इन्होंने उसे जिस तरह महसूस किया है, उस समझ की इनकी नज्मों में पूरी तरह अभिव्यक्ति होती है। मानवीय संवेदनाओं का यर्थाथ और मौजूदा हालात में संवेदनहीनता का जो रूप है, वही सबसे बड़ा कारण है, नफरत और दरिन्दगी का। अब सबसे बड़ा प्रश्न है संवेदनहीनता क्यों?
प्रश्न का जवाब है - इन्सान तरक्की कर रहा है। चार अक्षर पढ़कर उसकी सोच पर उसके विचारों पर चादर पड़ चुकी है, यथार्थ से दूर, ''किताबी ज्ञान'' के पास, सिर्फ ''किताबी ज्ञान''। जिसमें मानवीय संवेदनाओं, नैतिक मूल्यों, व्यक्तिगत गुणों या अभिव्यक्तियों का कोई स्थान नहीं है। यहॉ जरूरी होगा कि श्री गिल साहब की नज्म सवाल का जिक्र किया जाए -
जो एटमबम गिरे
क्या कली दोबारा खिलेगी
क्या फिर चिड़िया चहचहायेंगी
क्या बहार दोबारा आयेगी?
जो एटमबम गिरे
क्या दुल्हन की डोली उठेगी
क्या फिर इश्क चाँदनी करेगा
क्या बारिश दोबारा गिरेगी?
जो एटमबम गिरे
क्या जन्म सुबह का होगा
क्या फिर खिलाड़ी खेलेंगे
क्या दुनिया दोबारा बसेगी?
जो एटमबम गिरे
क्या खुदा किसी को बचायेगा
कौन हॅसेगा, कौन मनायेगा
क्या सब खत्म न हो जायेगा?
क्या बात है! ये सिर्फ नज्म नहीं एक दर्द है, जिसमें आने वाले कल पर सवाल उठाया है श्री गिल साहब ने अमन और चैन की गुजारिश सवालों के माध्यम से की है। साथ ही इनके विचारों में, इनकी नज्मों में वातावरण एवं प्रकृति के असंतुलन का दर्द भी स्पष्ट तौर पर झलकता है, जिससे इनका वैज्ञानिक पहलू भी सामने आता है। इसमें एटमबम से ''इन्सानियत'' तबाह होने के साथ- साथ ''वातावरणीय प्रदूषण'' के खतरे पर भी सवाल उठाया गया है। श्री गिल के विचारों में ''ग्लोबल वार्मिंग'' के प्रति भी चेतावनी है जिसकी झलक इनकी नज्म ''अमन का फाखता'' की कुछ चुनिन्दा पंक्तियों से ही समझ में आ जायेगी।
कब से सुन रहा हूं
अमन की फाख्ता
जल्दी छोड़ी जायेगी
और इसकी हिफाजत के लिए
गाढ़ी जा रहीं तोपें
उड़ाये गये इंजन
जनाजों पर
गिद्ध छोड़ी गई
मौत की
रोबॉट बन रहे प्यासे
खेल रहे खिलाड़ी
आग से
जनून का नचाया जा रहा जानवर।
अब सवाल ये उठता है कि क्या ये नज्में सिर्फ कलम और कागज का खेल है, नहीं! ऐसा नहीं है, कागज और कलम तो एक जरिया है। इन नज्मों के माध्यम से श्री गिल साहब ने इन्सान को झकझोड़ने की कोषिष की है। उसकी रूह में ठण्डी पड़ी संवेदनाओं को बाहर लाने की कोशिश की है। वतन, मजहब की दीवार को तोड़कर इन्सान को इन्सान बने रहने की ताकीद की है। विष्व में अमन और चैन के साथ प्रेम का संदेश फैलाने की गुजारिश की है।
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